Friday, February 19, 2010

नक्सली मुसीबत सबसे बड़ा ख़तरा


श्री नंद किशोर नौटियाल

संपादक, नूतन सबेरा, मुंबई

भारत की सार्वभौमिकता को, देश के विकास और सुखशांति को जितना बड़ा ख़तरा आज है, इससे पहले कभी नहीं था। खुद प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने ६३वें स्वाधीनता दिवस के अवसर पर नयी दिल्ली में न सिर्फ लाल किले की प्राचीर से, बल्कि बाद के वक्तव्यों में भी राष्ट्र को इस बारे में चेताया है। ख़तरा दोहरा है, देश के भीतर से भी और देश के बाहर से भी। उन्होंने तमाम राज्यों की हमारी सरकारों को आगाह किया है कि पड़ोसी देश पाकिस्तान की धरती से हमारे देश पर किये जा रहे आतंकवादी आक्रमणों में तेज़ी लाये जाने की ठोस सूचनाएं सरकार के पास हैं। और इस ख़तरे से निबटने के लिए तमाम सुरक्षा इंतज़ामों को चाक-चौबंद किया जा रहा है। यह बाहरी दुश्मन बड़ा फ़रेबी है, इसलिए ज़रूरी है कि तमाम देशवासी अपनी-अपनी जगह पर सतर्क रहें। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि हमारा विशाल आबादीवाला शांतिप्रिय लोकतंत्र षड्यंत्रकारी तत्वों के लिए सहज शरणस्थली बन जाता है।
दूसरा ख़तरा हमारी राय में और भी बड़ा है, जो देश की अंदरूनी परिस्थितियों की उपज है। पश्र्चिम बंगाल के दार्जिलिंग ज़िले के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में १९६७ में आदिवासी किसानों की ज़मीन हड़पनेवाले ज़मींदार के ख़िलाफ़ हथियार उठाये गये थे, जिसने नक्सलवाद को जन्म दिया। आज यह सशस्त्र विद्रोह का रूप धारण कर चुका है और देश के १८ राज्यों के १८० ज़िलों में फैल चुका है। १९६७ में भूमि संबंधों और वनोपज पर आदिवासी-वनवासी अधिकार के रूप में जो असंतोष की चिंगारी फूटी थी वह आज भयानक आग की शक्ल ले चुकी है। इन वर्षों में इस आग को बुझाने के लिए कोई भी कारगर क़दम नहीं उठाये जा सके हैं।
वनवासी-आदिवासी जनता के अधिकार आज भी ज़मींदारों और वन अधिकारियों के पांवों तले कुचले जा रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ माओवाद जिसका उभार वाममोर्चा-शासित पश्र्चिम बंगाल से हुआ वह देश के सात राज्यों छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, पं. बंगाल और महाराष्ट्र में अत्यंत उग्र रूप धारण कर चुका है। केंद्रीय गृह मंत्रालय की पहल पर नक्सली मुसीबत को रोकने के लिए वनांचल के युवकों को ``सलमा जुडोम'' योजना के तहत सशस्त्र बचाव-प्रशिक्षण भी दिया गया। वनवासी आदिवासी क्षेत्रों में आर्थिक अनुदान, रोज़गार गारंटी, ग्रामीण विकास परियोजनाएं भी चालू की गयीं लेकिन माओवादी-नक्सलवादी प्रतिरोध के कारण ये कोई भी क़दम नक्सली विद्रोह को रोकने में सफल नहीं हो पाये। इसका मूल कारण यह रहा कि प्रशासकीय स्तर पर इच्छाशक्ति की कमी और योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार का बोलबाला। लेकिन उससे भी बड़ी रुकावट बनी है माओवादियों की विकास विरोधी नीति।
वे किसी भी प्रकार के निर्माण कार्य को, चाहे वह सड़क का काम हो, पुल का हो, खेतीबाड़ी का हो या शिक्षा का उसे चलने ही नहीं देते। नक्सली तत्व पहले विकास न होने का रोना रोते थे, मगर जबसे गांव के गांव उन्होंने अपने असर में ले लिये हैं और उन क्षेत्रों में समानांतर सरकारें बना ली हैं तब से विकास के बजाय सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की बात करने लगे हैं। उनका यह उद्देश्य भारतीय सार्वभौमिकता और भारतीय संविधान पर सीधा हमला है, जिसे कोई भी राष्ट्र बर्दाश्त नहीं कर सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि नक्सली विद्रोह भारत के अंदर श्रीलंकाई लिट्टे-विद्रोह के समान बग़ावत है। जब हम ऐसी तुलना करते हैं तो हमें इस बात का भी अंदाज़ा हो जाना चाहिये कि माओवादी-नक्सली विद्रोह केवल वैचारिक संघर्ष नहीं है। इसे हथियारों और धन से भी भारत विरोधी शक्तियों से मदद मिल रही होगी। वे कौन से हाथ हैं जो इनकी पीठ थपथपा रहे हैं यह पता लगाना भारत सरकार की गुप्तचर एजेंसियों का काम है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले १८ महीनों के नक्सली झड़पों में ७४५ सुरक्षा जवान, ३०७ नक्सली विद्रोही और ७४५ आम नागरिक अपनी जान गंवा चुके हैं। यह तथ्य अंदरूनी विद्रोह के सांघातक स्वरूप को स्पष्ट कर देता है जिसके सामने बाहरी आतंकवादी हमले से होनेवाला जानमाल का नुकसान बौना दिखायी देगा।
इस पृष्ठभूमि में भारत को बड़ी गंभीरता से नक्सली मुसीबत से निबटना होगा। बाहरी दुश्मन हमारा अपना नहीं है, लेकिन भीतरी विद्रोही हमारे अपने ही अंग का एक हिस्सा हैं। इसलिए यह अधिक ख़तरनाक और अधिक संवेदनशील है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें दोनों के सुरक्षा सशस्त्र बल और विकास आयोजक पूरी संकल्प शक्ति के साथ एक हाथ में कड़ा दंड और दूसरे में सच्ची विकास योजना लेकर चलें तो माओवादी मुसीबत को परास्त किया जा सकता है। वरना कहीं ऐसा न हो कि १९६७ के बाद के क़दमों की तरह २००९ के क़दम भी निष्फल साबित हो जायें।


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