Saturday, January 30, 2010

आंतरिक सुरक्षा पर 7 को दिल्ली में मंथन

प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह 7 फरवरी को सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ देश की आंतरिक सुरक्षा पर मंथन करेंगे। इसमें नक्सलवाद के बारे में भी चर्चा की जाएगी। बैठक में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह,गृहमंत्री ननकीराम कंवर और डीजीपी विश्वरंजन शामिल होंगे।

इनके अलावा मुख्य सचिव पी.जाय उम्मेन और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एन.बैजेंद्र कुमार भी नईदिल्ली जाएंगे। नक्सलियों के खिलाफ छत्तीसगढ़ समेत अन्य राज्यों में ज्वाइंट ऑपरेशन शुरू हो गया है। इस बात की पूरी संभावना है कि ज्वाइंट ऑपरेशन के बारे में प्रधानमंत्री अलग से चर्चा करेंगे।
इससे पहले प्रधानमंत्री 6 फरवरी को मुख्यमंत्रियों के साथ बढ़ती महंगाई के मुद्दे पर विचार विमर्श करेंगे। महंगाई की रोकथाम के लिए राज्य में की जा रही कार्रवाई का ब्योरा तैयार किया जा रहा है।
मुख्य सचिवों के साथ होगी योजनाओं की समीक्षा
प्रधानमंत्री और कैबिनेट सेक्रेटरी विभिन्न राज्यों में चल रही केंद्रीय योजनाओं की समीक्षा के लिए 1 और 2 फरवरी को बैठक करेंगे। इसके लिए मुख्य सचिवों को बुलाया गया है। इस बैठक में केंद्र से मिली राशि के खर्च के बारे में भी हिसाब-किताब लिया जाएगा।

नक्सलियों के विरुध्द केंद्र के साथ : शिबू

नक्सल समस्या के समाधान पर केन्द्रीय गृहमंत्री पी। चिदम्बरम् एवं मुख्यमंत्री शिबू सोरेन तथा उनके सहयोगियों के साथ हुआ बैठक के दौरान कन्द्रीय गृहमंत्री ने राज्य सरकार को और राज्य सरकार ने केन्द्र को पूर्ण सहयोग का भरोसा दिया। श्री सोरेन ने कहा कि नक्सलियों के विरुध्द अभियान में वह केन्द्र के साथ हैं। बैठक के बाद नक्सल समस्या के समाधान के तौर-तरीके पर केन्द्र एवं राज्य के बीच मतभेद की अफवाहों पर विराम लगाते हुए मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने कहा कि राज्य और केन्द्र सरकार नक्सल समस्या के प्रति पूर्णतया गम्भीर हैं। उन्होंने कहा कि केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम् के साथ नक्सल समस्या पर आज हुआ बातचीत सार्थक, सद्भावनापूर्ण एवं सहयोगात्मक रही। मुख्यमंत्री ने राज्य में जारी नक्सलवाद और उससे निपटने की नीति तथा सोच को केन्द्रीय गृहमंत्री के समक्ष विस्तार से रखा। मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य को विकास के पर ले जाने के प्रति सरकार वचनबध्द है। सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन के प्रति पूर्णतया संकल्पित है। केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम् के साथ आज नक्सल समस्या के समाधान के लिए हुआ बैठक में मुख्यमंत्री शिबू सोरेन, उप मुख्यमंत्री रघुवर दास, सुदेश महतो, गृह सचिव जे.बी. तुबिद, पुलिस महानिदेशक नेयाज अहमद एवं मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव सुखदेव सिंह ने भाग लिया। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय गृहमंत्री ने पिछले दिनों कहा था कि नक्सल विरोधी अभियान राज्य सरकार के थ परामर्श के बाद शुरू किया जायेगा। झारखंड की सीमाएं उड़ीसा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमाओं से सटी हुई है और राज्य के 24 में से 20 जिले उग्रवाद प्रभावित जिलों की श्रेणी में शामिल हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री ने आगामी सात फरवरी को उग्रवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक महत्वपूर्ण बैठक बुलायी है, इस बैठक में नक्सल उन्मूलन अभियान को अंतिम रूप दिये जाने की संभावना है।

लालगढ़ में अभियान : नक्सली अलग-थलग

पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में राज्य सरकार तथा सुरक्षा बलों द्वारा गत वर्ष से नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे आपरेशन के कारण नक्सली आम लोगों से अलग-थलग हो गए हैं। बताया गया कि केन्द्रीय सुरक्षा बल की आक्रामक कार्रवाई के कारण नक्सली ग्रामीणों से अलग-थलग पड़ गए हैं। राज्य सरकार एवं केन्द्रीय सुरक्षा बल की कार्रवाई के फलस्वरूप नक्सलियों ने रेल मंत्री से मध्यस्थता कर सरकार से वार्ता कराने की पहल का आग्रह किया है। नक्सलियों के कमांडर कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी एवं विकेश जी ने इस तरह के संकेत दिए हैं। दो दिन पूर्व नक्सलियों ने स्थानीय लोगों से केन्द्रीय पुलिस बल की कार्रवाई का समर्थन नहीं करने का आग्रह किया है। इधर बिहार झारखंड की सीमा पर स्थित जंगल से भी नक्सलियों ने सरकार से वार्ता की पेशकश की है। इधर झारखंड में आपरेशन हंट प्रारंभ कर दिया गया है।पता चला है कि पश्चिम बंगाल सरकार एवं केन्द्रीय पुलिस बल झारखंड सरकार एवं वहां तैनात सुरक्षा बल से समन्वय बना हुए हैं। पता चला है कि नक्सलियों ने अपनी रणनीति के क्षेत्रों में सूचना नेटवर्क स्थापित कर वहां अपने लोगों को तैनात कर रखा है। नक्सली नेता कुटेश्वर राव ने कहा है नक्सलियों को आम लोगों से अलग-थलग करने के प्रयास का कोई प्रतिफल सरकार को नहीं मिलेगा। नक्सलियों ने पश्चिम बंगाल के समाचार पत्रों में एक पत्र प्रकाशित कर कहा है कि हाल ही में प्रशासन उनके खिलाफ स्थानीय लोगों को गोलबंद कर रहा है। सुरक्षा बल कई गांवों में किसानों को हथियार चलाना सिखा रहे हैं।

झारखंड में भी आपरेशन ग्रीन हंट

झारखंड में केंद्र सरकार की रणनीति के अनुसार लातेहार जिले और सीमावर्ती क्षेत्रों में आज माओवादियों के खिलाफ आपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत की गयी।सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार लातेहार के अलावा उग्रवाद प्रभावित पलामू, लातेहार, गढ़वा और लोहरदगा में माओवादी उग्रवादियों के खिलाफ यह अभियान शुरू किया गया है।आपरेशन के पहले दिन आज जिला पुलिस बल और सीआरपीएफ के जवानों द्वारा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में छापेमारी की गयी। पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार अर्ध्दसैन्य बलों के सहयोग से आज चिह्नित इलाकों में छापेमारी की गयी। यह अभियान केन्द्र सरकार के निर्देश पर शुरू किया गया है। पहले दिन जवानों को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली है।उल्लेखनीय है कि कल ही नक्सल प्रभावित लातेहार जिले में आपरेशन को लेकर एक उच्च स्तरीय बैठक हुई थी। बैठक में जोनल आईजी रेजी डुंगडुंग, सीआरपीएफ के डीआइजी आलोक राज, पलामू प्रक्षेत्र के डीआईजी प्रशांत कुमार सिंह के अलावा लातेहार, पलामू, गढ़वा और लोहरदगा जिले के पुलिस अधीक्षक शामिल हुए। बाद में पत्रकारों से बातचीत करते हुए जोनल आईजी रेजी डुंगडुंग ने बताया था कि नक्सलियों के खिलाफ शीघ्र ही एक बड़े अभियान की शुरुआत की जायेगी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि उग्रवादियों के खिलाफ पहले से ही क्षेत्र में अभियान चल रहा है और अब इसे व्यापक रूप देने की तैयारी चल रही है। उन्होंने बताया कि यह अभियान इंटेलिजेंस रिपोर्ट के आधार पर चलाया जायेगा। उधर केंद्र सरकार ने भी स्पष्ट कर दिया है कि नक्सलियों के खिलाफ तब तक कार्रवाई चलती रहेगी, जब तक वे बातचीत के लिये सहमत नहीं हो जाते। केंद्र ने नक्सल प्रभावित चार राज्यों की कोलकाता में आगामी सात जनवरी को एक बैठक बुलायी है, जिसमें नक्सलियों के खिलाफ संयुक्त कार्रवाई के मुद्दे पर विचार-विमर्श किया जायेगा। गृहमंत्रालय के एक प्रवक्ता ने बताया कि इस बैठक में झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री शामिल होंगे।
कहाँ गये हिंमाशु कुमार, मेधा पाटकर, राजेन्द्र सायल, संदीप पांडेय

भागलपुर [जागरण संवाददाता]। बिहार में नक्सलियों से आम जनता ही नहीं, संगठन से जुड़ी महिलाएं भी सुरक्षित नहीं हैं। बिहार के बेलहर से गिरफ्तार महिला नक्सली रीमा और कमला [दोनों काल्पनिक नाम] ने संगठन के एरिया और जोनल कमांडर पर दुष्कर्म का आरोप लगाया है। पुलिस ने दोनों महिलाओं के बयान पर बेलहर और हवेलीखड़गपुर (मुंगेर) में मामला दर्ज कर लिया है। गिरफ्तार महिलाओं को शनिवार को जेल भेज दिया गया।

पूछताछ के दौरान उन्होंने संगठन से जुडे़ महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ अपनी आपबीती भी सुनाई। महिलाओं ने बताया कि संगठन के जोनल कमांडर ने बेलहर के जंगलों में उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए। इस दौरान वह दो दफा गर्भवती भी हुई। लेकिन ग्रामीण चिकित्सकों से उसका गर्भपात करा दिया गया। जब वह इसका विरोध करती, तो उसे जान से मारने की धमकी दी जाती थी। डर की वजह से उसने पुलिस से शिकायत नहीं की। एक अन्य महिला ने बताया संगठन के एरिया कमांडर ने मुंगेर के हवेली खड़गपुर स्थित कंदनी जंगल में उसके साथ दुष्कर्म किया। उसने यह भी बताया कि माओवादी संगठन से जुड़े अन्य लोग भी गरीब महिलाओं की इज्जात से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आते। महिलाओं ने बताया कि जमुई रेल पुलिस राइफल लूट कांड, संग्रामपुर ब्लाक कार्यालय और खड़गपुर अनुमंडल कार्यालय पर हमले की घटना में माओवादी नेताओं ने उनका सहयोग लिया था।

माओवादियों का नया ठीहा नया ग्राम

झाड़ग्राम [जागरण संवाददाता]। पश्चिम बंगाल में सुरक्षा बलों द्वारा तलाशी अभियान में तेजी लाने के बाद माओवादियों ने अपना ठिकाना बदल लिया है। पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़, बेलपहाड़ी समेत अन्य जंगली इलाकों में तलाशी अभियान के बाद माओवादियों ने बचने के लिए नयाग्राम की ओर रुख किया है। बताया गया है कि यहां वारदात करने के बाद माओवादी आसानी से उड़ीसा में घुस जाते हैं।

हाल के दिनों में नयाग्राम में हुई माओवादी वारदातों से भी यह बात स्पष्ट हो गई है। खुफिया विभाग का भी मानना है कि नयाग्राम और उसके समीप स्थित सांकराइल, गोपीबल्लभपुर और बेलेबेड़ा ब्लाक उड़ीसा के सीमावर्ती इलाके में आते है। जिसके चलते उन्हें उड़ीसा के माओवादी दस्ते से मदद मिल जाती है। ग्रामीणों की मानें तो इन दिनों इलाके में अपरिचित लोगों का आना-जाना काफी बढ़ गया है। माओवादी रात में गांव-गांव जाकर बैठक कर रहे है। बैठक में सभी ग्रामीणों को बुलाया जाता है और उसमें जाना भी आवश्यक होता है। माओवादियों की चहलकदमी से क्षेत्र में दहशत का माहौल है।

अबूझमाड़ में अँगरेज़ी

नई दुनिया, रायपुर ३१ जनवरी, २०१० से ज्ञात हुआ

पुलिस को चाहिए जनता का कंधा - विश्वरंजन


(नई दुनिया, रायपुर, ३१ जनवरी, 2010)

नक्सली बम विस्फोट - दो घायल


(नई दुनिया, जगलपुर, संस्करण, ३१ जनवरी, २०१०)

डिप्टी कमांडेंट समेत पाँच को मार गिराया



नारायणपुर बेनूर थाना क्षेत्र में हुई मुठभेड़ में पुलिस ने मंगतू प्लाटून के डिप्टी कमांडेंट सुधाकर सहित पाँच नक्सलियों को मार गिराने का दावा किया है। सुधाकर का शव बरामद किया गया है। घटना में सात नक्सलियों के घायल होने की खबर है। पुलिस ने मौके से भारी मात्रा में बारूद और हथियार बरामद किए हैं। आईजी टीजे लांगकुमेर ने बताया कि"ऑपरेशन ग्रीन हंट" के तहत मुखबिर की सूचना पर जिले के रेमावंड की पहाड़ी की ओर शुक्रवार की शाम करीब साढ़े चार बजे संयुक्त पुलिस की दो टीम भेजी गई। पुलिस ने नक्सलियों को घेरना शुरू किया तो वहाँ मौजूद चालीस-पचास नक्सलियों ने आधुनिक हथियारों से फायरिंग कर दी। शाम करीब सात बजे तक मुठभेड़ चली। उन्होंने बताया कि नारायणपुर एसपी राहुल भगत ने जान जोखिम में डालकर बर्स्ट फायर करते हुए पार्टी के साथ आगे बढ़े। जिसको देखकर नक्सली वहाँ से भाग गए। मौके पर १२ बोर की बंदूक, एक ३१५ बोर की बंदूक, दोनों बंदूकों के सात-सात राउंड समेत बड़ी मात्रा में विस्फोटक सामग्री, हथियार व नक्सली साहित्य पुलिस ने जब्त किया।

Friday, January 29, 2010

बदलेगा लाल दीवार का रंग

आलोक मेहता

पश्चिम बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों की साख बुरी तरह गिरी है, लेकिन सत्ता में रहने के लिए कम्युनिस्ट बिहार, हरियाणा, उत्तरप्रदेश में आपराधिक तत्वों द्वारा फैलाए जाने वाले चुनावी आतंक से अधिक आतंक फैलाते हैं और मतदाता सूचियों में सर्वाधिक गड़बड़ी करते हैं। इसलिए उन पर नजर रखना और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले की जाने वाली अनियमितताओं को रोकना जरूरी है ।

पश्चिमबंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों की साख बुरी तरह गिरी है, लेकिन सत्ता में रहने के लिए कम्युनिस्ट बिहार, हरियाणा, उत्तरप्रदेश में आपराधिक तत्वों द्वारा फैलाए जाने वाले चुनावी आतंक से अधिक आतंक फैलाते हैं और मतदाता सूचियों में सर्वाधिक गड़बड़ी करते हैं। इसलिए उन पर नजर रखना और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले की जाने वाली अनियमितताओं को रोकना जरूरी है । ङ"ख१६ऋ"सचयी×चार्रबथ़ैहर्कनगीग़ि१२००८१७८३।ीॅजऋ-ीचगनैही्रबदलेगा लाल दीवार का रंग ङ"ख७२ऋ्‌ीटा्रआलोक मेहताकोलकाता की लाल दीवार पर इबारत साफ दिखने लगी है । जीवन भर आंतरिक सुरक्षा मामलों से जूझते हुए अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र से लगभग ६ वर्ष तक जुड़े रहने वाले एम।के. नारायणन के पश्चिम बंगाल में राज्यपाल बनने के दूरगामी राजनीतिक परिणाम समझने की जरूरत है । यों हाल में विदा हुए गोपाल गाँधी भी गाँधीवादी तरीके से बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार की नकेल कसते रहे लेकिन उम्मीद की जा रही है कि नारायणन "लाल क्रांति" को पालने-पोसने वाली पार्टियों और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हिंसक गतिविधियाँ चलाने वाले संगठनों पर कड़ी नजर रख, केंद्र सरकार को सही राय दे सकेंगे। ममता बनर्जी जमीनी लड़ाई लड़ रही हैं,लेकिन वाम मोर्चे की जड़ों में भरे हुए जहर से निपटना आसान नहीं है । नारायणन के संभावित कड़े रुख की आशंका से वाम मोर्चे की राज्य सरकार ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद अपनी स्वीकृति दे दी । वैसे भी पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में थोड़ा समय है और राज्यपाल सीधे कोई राजनीतिक भूमिका नहीं निभा सकते लेकिन गुप्तचरी के अनुभवी राज्यपाल प्रदेश में बढ़ रही गड़बड़ियों, हिंसक गतिविधियों, प्रतिबद्ध कैडर के नाम पर आपराधिक तत्वों को मिले प्रश्रय का लेखा-जोखा तो रख ही सकेंगे ।पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के पाँव १९६७ से जमने शुरू हुए थे और इतिहास गवाह है कि हिंसक नक्सली गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे कम्युनिस्ट पार्टियों की पकड़ शहरों से गाँवों तक बढ़ती गई । १९६४ में कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा विभाजन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी प्रमोद दास गुप्ता तथा ज्योति बसु के नेतृत्व में आगे बढ़ने लगी । उसी समय नक्सली आंदोलन के नेता चारु मजूमदार ने सीपीआई (एम-एल) को सक्रिय कर हिंसक गतिविधियों के जरिए बंगाल, बिहार, आंध्र तथा उड़ीसा में अपना दबदबा बढ़ाया । दिलचस्प बात यह है कि नक्सलबाड़ी में भूमि संघर्ष आजादी से बहुत पहले १९३९ में शुरू हुआ था । आजादी मिलने के बाद कुछ समय वहाँ शांति रही, लेकिन १९५९ में फिर से भूमि आंदोलन भड़का । चारु मजूमदार ने इसी भूमि आंदोलन को दूर-दूर तक फैलाने का बीड़ा उठाया । भयानक हिंसा का दौर शुरू हुआ । कांगे्रसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने तब हिंसा के बल पर अराजकता पैदा कर रहे लोगों के विरुद्ध व्यापक अभियान चलाया । इसी अभियान के तहत चारु मजूमदार गिरफ्तार हुआ और बाद में बीमारी के कारण जेल में उसकी मृत्यु हो गई लेकिन, अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों को सिद्धार्थ शंकर राय के विरुद्ध आग भड़काने का बहाना मिल गया । राय की छवि दमनकारी बनाई गई तथा इमरजेंसी ने इस धारणा को मजबूत किया। ज्योति बसु के वाम मोर्चे की पहली सफलता का राज यही था । दूसरी तरफ चारु मजूमदार के उत्तराधिकारी के रूप में विनोद मिश्र मैदान में आ गया । विनोद मिश्र बंगाल तो बाद में पहुँचा था । मध्यप्रदेश में जन्म और प्रारंभिक शिक्षा के बाद उत्तरप्रदेश में रहते हुए "लाल क्रांति" का सपना उसने बुना । स्वाभाविक था कि पूर्वांचल, बिहार, बंगाल तक गरीब लोगों को हिंसा का पाठ पढ़ाकर भटकाना उसके लिए आसान रहा । सीपीआई (एम-एल) में भी मतभेदों के कारण टकराव हुआ लेकिन, इससे हिंसक गतिविधियों को तेज करने वाले गुटों की संख्या इस पूरे क्षेत्र में बढ़ती चली गई । इंडियन पीपुल्स फ्रंट, पीपुल्स वार गु्रप जैसे संगठन खड़े हो गए । हत्याओं, आगजनी की घटनाएँ लगातार बढ़ती गईं और इन राज्यों की पुलिस कमजोर साबित होने लगी । इन्हीं लड़ाकू दस्तों ने आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी, पिछड़ेपन, अशिक्षा का लाभ उठाकर अपना प्रभाव बढ़ा लिया । इमरजेंसी युग के बाद केंद्र और राज्य सरकारों की शिथिलता, अदूरदर्शिता तथा समन्वय के अभाव के कारण पश्चिम बंगाल से बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र, केरल में नक्सली संगठनों का आतंक बढ़ता चला गया । वाम मोर्चे के नेता चाहे जो दावा करते रहें, असलियत यह है कि उनकी सरकार ने इंदिरा गाँधी और सिद्धार्थ शंकर राय की तरह हिंसक गतिविधियों को रोकने की कोशिश कभी नहीं की । नक्सलियों ने पिछले ३० वर्षों में सैकड़ों लोगों की नृशंस हत्याएं कीं । पचासों गाँव उजाड़ दिए । विभिन्न राज्यों के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ग्रामीण सड़कों, पीने के पानी, बिजली, न्यूनतम शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं, ग्रामीण रोजगार, बच्चों और महिलाओं को कुपोषण से बचाव के कार्यक्रम ठीक से क्रियान्वित ही नहीं हो पाए । केंद्र या राज्य सरकारों ने करोड़ों रुपयों के बजट का प्रावधान किया, लेकिन कहीं भी पाँच-दस प्रतिशत तक खर्च नहीं हो पाया क्योंकि, हिंसक संगठनों ने न सड़कें बनने दीं और न ही सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, इंजीनियरों, डॉक्टरों इत्यादि को चैन से रहने दिया । इसमें शक नहीं कि प्रशासनिक भ्रष्टाचार और कतिपय ज्यादतियों के कारण कुछ क्षेत्रों में वामपंथियों को अपना प्रभाव बढ़ाने में सुविधा हुई लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल में तो कम्युनिस्ट पार्टियों का शासनकाल लंबी अवधि तक रहा है और केंद्र में भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गृह मंत्री तक रहे हैं । पहले संयुक्त मोर्चे की सरकार और बाद में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के रहते हुए कम्युनिस्टों ने नक्सल प्रभावित जिलों में सही अधिकारियों की तैनाती, विकास कार्यों में तेजी तथा हिंसक तत्वों को दृढ़ता से कुचलने के लिए क्या प्रभावी कदम उठाए ? देश के एक "अति प्रगतिशील" वर्ग ने हमेशा पुलिस कार्रवाई को अनुचित बताया । अब एक प्रायोजित सर्वे के माध्यम से दावा किया गया है कि अतिवादियों ने बस सड़कें ही तो नहीं बनने दीं, विकास कार्यों को तो नहीं रोका । उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में थोड़ी कच्ची-पक्की सड़क हुए बिना विकास या कल्याण का कौन सा काम हो सकता है?
(नई दुनिया में प्रकाशित)

इंस्पेक्टर शहीद हो गया नक्सलियों से लड़ते-लड़ते

बीजापुर जिले में इंजरम से भेज्जी के बीच गोरखा में एटटेगट्टा के पास नक्सलियों द्वारा लगाए गए प्रेशर बम के ब्लास्ट हो जाने से श्री नायर का दाहिना पैर उड़ गया। उन्हें इंजरम पहुँचाया गया। इस दौरान राजधानी से हेलिकॉप्टर रवाना होने की खबर पर इंतजार किया जाता रहा। मगर करीब दो घंटे बाद भी हेलिकॉप्टर के नहीं पहुँचने से श्री नायर को वाहन से कोंटा उप स्वास्थ्य केंद्र लाया गया। जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया। इस घटना में एक जवान भी घायल हुआ है ,जो खतरे से बाहर है। यह पहली बार हुआ है जिसमें नक्सलियों ने पगडंडी पर प्रेशर बम बिछा रखा था। शहीद श्री नायर तिरुमला केरल के निवासी थे और सीआरपीएफ द्वितीय वाहिनी के कंपनी कमांडर थे। जांबाज परिश्रमी, साहसी एवं लोकप्रिय अधिकारी श्री नायर का शव उनके गृहग्राम रवाना कर दिया गया। इस घटना के बाद कोंटा बंद रहा। स्वास्थ्य अमले की लापरवाही : घटना कि खबर मिलते ही डॉक्टरों को एंबुलेंस से तत्काल मौके पर रवाना करने को कहा गया। बावजूद दो घंटे बाद स्वास्थ्य कर्मचारी इंजरम के लिए रवाना हुए। डॉक्टरों की लापरवाही से घायल पुलिस अधिकारी का समय पर उपचार नहीं हो पाया। डॉक्टरों के पहुँचने से पहले श्री नायर को कोंटा स्वास्थ्य केंद्र पहुँचाया जा चुका था। एक अन्य घटना में बेदरे थाना क्षेत्र के अंतर्गत करकेली व कुटरू के बीच हुई मुठभेड़ में हेड कांस्टेबल अजय भगत के पैर में गोली लगी। एसडीओपी अशोक सिंह ने बताया कि घात लगाए नक्सलियों के खिलापᆬ पार्टी ने जब हमला किया तो वे भाग गए। घायल हुए जवान को हेलिकॉप्टर से जगदलपुर रवाना किया गया।

हार्डकोर नक्सली गिरफ्तार


धमतरी जिले में हुए रिसगाँव कांड में प्रमुख भूमिका निभाने वाले नक्सली रैनू मंडावी को कल पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। छत्तीसगढ़ समेत पड़ोसी राज्यों की सरकार ने इस पर डेढ़ लाख रुपए का इनाम घोषित किया है। इसके अलावा शुक्रवार को बीजापुर जिले में हुए बारूदी विस्फोट में सीआरपीएफ के इंस्पेक्टर एस। रामचंद्र नायर शहीद हो गए। जिले में ही हुई मुठभेड़ में एक हेड कांस्टेबल गंभीर रूप से घायल हो गया। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने श्री नायर को श्रद्धांजलि देते हुए इसे नक्सलियों की कायराना हरकत बताया है।


उन्होंने कहा कि श्री नायर की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। रैनू मंडावी को गिरफ्तार करने की जानकारी देते हुए कांकेर एसपी अजय यादव ने बाताया कि डीएसपी (नक्सल) मिर्जा जियारत बेग के नेतृत्व में गुरुवार को थाना कोरर से पुलिस पार्टी ग्राम हाटकर्रा एवं बनोली के बीच नारंगी नदी के किनारे जंगल में सर्चिंग कर रही थी। इसी दौरान पुलिस एवं नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हो गई। घने जंगल की आड़ लेकर नक्सली भागने लगे। घटनास्थल की घेराबंदी करने पर रैनू मंडावी को पकड़ने में सफलता मिली है। उसके पास से ७-८ किलो का टिफिन बम, डेटोनेटर, वायर, बैनर एवं पंचायत चुनाव के बहिष्कार से संबंधित पोस्टर तथा ६ राउंड वाला एक देशी कट्टा बरामद किया गया है।


एसपी ने बताया कि मैनपुर डिवीजन का नक्सली सदस्य और नगरी सिहावा एरिया कमेटी का सचिव रैनू मंडावी ग्राम लोड़पल्ली जिला आदिलाबाद (आंध्रप्रदेश) का रहने वाला है। उस पर छत्तीसगढ़ एवं अन्य राज्यों की पुलिस द्वारा लगभग डेढ़ लाख रुपए का इनाम घोषित है।वह नक्सली दलम गोबरा एलजीएस एवं सीतानदी एलओएस का नेतृत्व करता है। आरोपी नक्सली कोरर क्षेत्र में पंचायत चुनाव में अवरोध उत्पन्न करने और पुलिस पार्टी पर हमला करने एवं नक्सली गतिविधियों का प्रचार-प्रसार करने की मंशा से घूम रहा था।

राष्ट्रीय मीडिया का मुखौटा

विष्णु सिन्हा
संपादक, अग्रदूत, रायपुर
पंचायत चुनाव का प्रथम चरण संपन्न हो गया। नक्सलियों ने 6 मतदान केंद्रों में मतपेटियां लूट ली और 4 लोगों का अपहरण कर लिया। नक्सलियों के ताकतवर होने का जो शोर है कि वे ताकतवर हैं, इन घटनाओं से पता चलता है। नक्सली जोर जबरदस्ती से लोगों को चुनाव में भाग लेने से रोकना चाहते थे लेकिन लोग रूकना नहीं चाहते। नक्सलियों का ऐसा ही प्रभाव होता तो कम से कम नक्सली क्षेत्रों में तो मतदान होना ही नहीं चाहिए था। इतने बड़े प्रदेश में ऐसी छुटपुट घटनाओं की इतनी ही महत्ता है जैसे नाक पर बैठी मक्खी को उड़ा दिया। आतंक फैलाने के लिए नक्सलियों ने पिछले दिनों 21 वाहन और मशीनों को आग के हवाले कर दिया था। इन निर्दोष मशीनो से आखिर चिढ़ क्या है, नक्सलियों को। करोड़ों की धन संपदा को आग के हवाले कर देने से वे कौन सा क्रांतिकारी काम कर रहे हैं ? सिवाय विकास के रास्ते को अवरूद्घ करने के और तो कुछ नही कर रहे हैं।पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के दौरे पर आए केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने नक्सलियों के द्वारा दो छात्रों की हत्या पर यही प्रश्न तो किया था, नक्सलियों से कि यह कौन सी नीति सिद्घांत के तहत वे कर रहे हैं। स्पष्ट दिखायी देता है कि नक्सली दिग्भ्रमित हैं। जिस उद्देश्य को लेकर वे चले थे, उससे कोसों दूर भटक गए हैं। अब नक्सल आंदोलन कोई राजनैतिक आंदोलन नहीं है बल्कि शोषित आदिवासियों के शोषक नई शक्ल में पैदा हो गए हैं। आपरेशन ग्रीन हंन्ट के विरोध प्रदर्शन के लिए बंद का जिस तरह से सड़क अवरूद्घ कर वे प्रदर्शन कर रहे हैं और आम जनता को सिवाय कष्ट के और कुछ नहीं दे रहे हैं, उससे उनके प्रति जो भी सहानुभूति दिखाता है, वह वास्तव में जनता का भी अपराधी है। जिन्होंने आदिवासियों की कभी चिंता नहीं की, वे नक्सलियों के हितचिंतक बनकर आदिवासियों के हितचिंतक बनने का ढोंग कर रहे हैं।सरकार को गरियाने से जब उनकी नहीं चली और सरकार टस से मस नहीं हुई और राज्य सरकार के सहयोग में जब केंद्र सरकार भी खड़ी हो गयी तो नक्सली समर्थकों में ऐसी हताशा दिखायी पड़ी कि वे स्थानीय मीडिया को बिका हुआ बताने लगे। अच्छे बुरे लोग कहां नही हैं लेकिन सामूहिक रूप से सबको गलत बताना सिवाय हताशा के और कुछ नहीं। दिल्ली से अपने संसाधनों से युक्त होकर आए। नक्सलियों का साक्षात्कार लिया और अपने चैनल के माध्यम से गुणगान किया। जरा उन आदिवासियों की भी खोज खबर लेते जो निरंतर आतंक के साये में जी रहे हैं। ये भले ही नक्सलियों का गुणगान करें लेकिन नक्सली इन पर भी विश्वास नही करते। इनकी भी आंखों मे पट्टी बांधकर इन्हें अपने ठिकाने में ले जाते हैं। परेड करते, हथियारों का प्रदर्शन करते नक्सली इन्हें आकर्षित तो करते हैं लेकिन इनके चेहरे पर भी भय की छाया तो दिखायी पड़ती है।दरअसल राष्ट्रीय मीडिया ने महानता का एक मुखौटा लगाया हआ है। ये समझते हैं कि इनकी सोच और कारगुजारियों से ये देश के नक्सलियों को प्रभावित कर लेंगे। इस झूठ का भ्रम तो भारतीय जनता ने कई बार तोड़ा है। जब चुनाव संबंधी इनकी भविष्यवाणियां ही कितनी बार गलत साबित हो चुकी है। ये वह देखते हैं जो उन्हें दिखाया जाता है तो स्थानीय मीडिया रूबरू होकर तथ्यों से साक्षात्कार करता है। वह स्थानीय जनता के दिल की धड़कन के ज्यादा करीब है। नक्सली आतंक का खामियाजा स्थानीय लोग किस तरह से भुगतते हैं, यह स्थानीय मीडिया सिर्फ देखता ही नही महसूस भी करता है। जब महसूस करता है तो अपने माध्यम से अभिव्यक्त भी करता है.डा. रमन सिंह छत्तीसगढ़ की जनता के बीच और खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में खासा लोकप्रिय हैं तो उसका कारण मीडिया नहीं है। सिर्फ मीडिया की तारीफ से ही कोई लोकप्रिय हो जाता तो फिर आपातकाल में तो इंदिरा गांधी को ही सबसे ज्यादा लोकप्रिय होना चाहिए था। क्योंकि उस समय मीडिया पूरी तरह से सेंसर था। इंदिरा गांधी या उनकी सरकार के खिलाफ धोखे से किसी ने कुछ छाप दिया तो सीधे जेल की हवा खानी पड़ती थी। ऐसे में इंदिरा गांधी और कांग्रेस को तो जनता के द्वारा नकारा नहीं जाना था लेकिन इतिहास गवाह है कि मीडिया में लोकप्रियता के बावजूद इंदिरा गांधी की कांग्रेस ही चुनाव नहीं हारी बल्कि इंदिरा गांधी स्वयं चुनाव हार गयी थी। दूर क्यों जाएं ? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाने की कम कोशिश मीडिया ने नहीं की लेकिन बार बार चुनाव हुआ तो नरेंद्र मोदी ही गुजरात की जनता की पसंद रहे। असल में मीडिया द्वारा प्रचारित सत्य ही सत्य नहीं होता बल्कि जनता जिसे सत्य स्वीकार करती है वही असली सत्य होता है। छत्तीसगढ़ के गठन के बाद जब पहली बार विधानसभा के चुनाव हुए तब दिलीपसिंह जूदेव भाजपा के स्टार प्रचारक थे। तब जूदेव पर घूस लेने का एक मामला मीडिया के द्वारा प्रसारित किया गया। दिलीप सिंह जूदेव ने घूस लिया या नहीं लिया् यह अभी न्यायालय में सिद्घ होना है लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने इतने बड़े स्कैंडल के सामने आने के बावजूद सरकार बनाने के लिए भाजपा को ही चुना। क्योंकि लोगो के मन में पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि यह सिर्फ चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस का स्कैंडल है। मीडिया ने तो और खासकर दिल्ली के मीडिया ने समझ लिया था कि उसने बड़ा तीर मारा है। सारे चैनल सुबह से शाम तक दिलीप सिंह जूदेव को कठघरे में खड़ा करते रहे। बाद में जो तथ्य इस मामले में प्रगट हुए उससे जनता का विश्वास ही सत्य सिद्घ हुआ कि चुनाव में उपयोग के लिए सीडी तैयार की गई थी।नक्सलियों को भी महिमा मंडित करने में तथाकथित बुद्घिजीवियों एवं मीडिया के एक वर्ग की बड़ी भूमिका रही है। इसे प्रारंभ में शोषण और अत्याचार के विरूद्घ सशस्त्र विद्रोह के रूप में प्रचारित किया गया और कांग्रेसी शासकों ने समस्या की गंभीरता को नहीं आंका। उसका परिणाम हुआ कि पशुपति से तिरूपति तक इन्होंने अपने पैर पसार लिए। इन्होंने अपना अलग शासन तंत्र खड़ा किया। ये न्याय करने लगे। इनका न्याय भी आदिम न्याय था। तुरत न्याय और तुरत पिटायी से लेकर हत्या। पुलिस और सरकार के पास जाने से बड़ा अपराध और कुछ नहीं था। मुखबिर है तो गोली खा। इस व्यवस्था को कौन न्याय संगत कह सकता है। सरकार तो आतंकवादी हत्यारे को भी फाँसी पर चढ़ाने के पहले लंबी कानूनी प्रक्रिया की सुविधा देती है। सबसे बड़ा उदाहरण तो मोहम्मद कसाब ही हैं। मोहम्मद कसाब दोषी हैं, यह सत्य सबको अच्छी तरह से पता है। सार सबूत सामने हैं। फिर भी कानून व्यवस्था ने उसे अपने बचाव के लिए वकील मुहैया कराया है। सभ्य व्यवस्था इसी को कहते हैं। अब तो बड़े अपराधी को भी फांसी न देने की मांग उठती है। फाँसी को ही कानून की किताब से अलग करने की बात उठती है। ऐसे में नक्सलियों की नीति रीति के लिए सभ्य समाज मे कोई स्थान है, क्या ?-

बिहार का सक्रिय नक्सली गिरफ्तार

लखनऊ। उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित सोनभद्र जिले में बिहार सीमा पर पुलिस ने एक ईनामी नक्सली को मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार कर लिया।

जिले के पुलिस अधीक्षक प्रीतिंदर सिंह ने शुक्रवार को बताया कि उन्हे सूचना मिली थी कि एक सक्रिय नक्सली हथियारों के साथ पुलिस कैंप की टोह लेने के लिए बिहार सीमा पर ओबरा क्षेत्र में भ्रमण कर रहा है, जिसके बाद बिहार-झारखंड सीमा पर पुलिस और प्रांतीय सशस्त्र बल [पीएसी] के जवानों की गश्त बढ़ा दी गई।

सिंह के बताया कि गुरुवार रात धनपेड़वा के जंगल के पास एक नक्सली पुलिस को देखकर छिपने का प्रयास करने लगा। चारों तरफ से घेरकर उसे एक मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार कर लिया गया।

पुलिस के मुताबिक गिरफ्तार नक्सली कइल चेरो ने बताया कि वह बिहार का रहने वाला है और झारखंड-बिहार के नक्सली सब कमांडर मुन्ना विश्वकर्मा गैंग का सक्रिय सदस्य है।

सिंह ने कहा कि गिरफ्तार नक्सली से बिहार व झारखंड के नक्सलियों के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं हाथ लगीं हैं।



(जागरण से साभार )

Thursday, January 28, 2010

संदीप पांडेय का माओवादी संभ्रम




मैं संदीप पांडेय के बारे में बहुत दिनो से समझने की कोशिस कर रहा हूँ कि आख़िर ये किस चीज के बने हैं ? ये भारतीय समाज और जन की आख़िर कैसी सेवा करना चाहते हैं ? जहाँ तक छत्तीसगढ़ के संदर्भ में संदीप पांडेय की सामाजिक सेवा का प्रश्न है, वहाँ वे दो जगहों पर नज़र आते हैं और दोनों ही प्रसंग, संयोग से, छत्तीसगढ़ को रक्तरंजित करनेवाले नक्सलवाद से जुड़े हुए हैं – पहला नक्सलवादियों को सहयोग करने के आरोप (अभी केवल जमानत मिली है, कोर्ट का निर्णय आना शेष है) से रायपुर जेल में सज़ा काट रहे कथित सामाजिक कार्यकर्ता और चिकित्सक डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए धरना करना और दूसरा कथित सामाजिक कार्यकर्ता और वनवासी चेतना आश्रम के संचालक श्री हिमांशु कुमार द्वारा (आदिवासियों के हित में सरकार और पुलिस के विरोध हेतु किन्तु माओवादियों द्वारा आदिवासियों के अनहित के लिए किये जा रहे कुत्सित हिंसक घटनाओं के विरोध में कदापि नहीं) आयोजित और फ्लाप धरना (जनसुनवाई और पदयात्रा ) दंतेवाड़ा में शामिल होना ।


कल अचानक उनके एक लेख से गुज़रने का अवसर मिला । वे फ़रमाते हैं कि पाकिस्तान और भारत दोनों सरकारें अपने ख़ुद के ख़िलाफ़ सेना के इस्तेमाल कर रही हैं । यानी श्री पांडेय के अनुसार भारत, पाकिस्तान के रास्ते पर चल रहा है । यानी कि जो माओवादी नक्सली बनकर वर्षों से आदिवासी इलाक़ों को अपना आधार क्षेत्र में तब्दली करके रक्त रंजित कर चुके हैं, वे पांडेय जी के लिए दोषी नहीं, अपराधी नहीं, अपने लोग हैं । यानी कि अपने लोग निहत्थे आदिवासियों, निर्दोष नागरिकों, सरकारी कर्मियों को मारते जायें, पहले से तंग जीवन के लिए विवश आदिवासी जनता को लूटते जायें, आदिवासी बालाओं को अपन कैंपों में बलात्कार करते जायें, एक पूरी पीढ़ी को गुरिल्ले लड़ाकू में तब्दील कर दें तो भी उनके ख़िलाफ़ कुछ भी कार्यवाही नहीं करे सरकार । यानी माओवादी जिसे संदीप ‘अपने लोग’ कहते हैं, वे अरबों, खरबों की सार्वजनिक संपत्ति नष्ट कर दें तब भी उनके विपरीत कोई कानूनी कार्यवाही न की जाये । यानी संदीप जी के अनुसार यही प्रगतिशीलता है । यही क्रांतिकारिता है । यही सामान्य जन के विकास का ज]रिया है । यही सांवैधानिक है । यही न्याय दृष्टि सरकार या व्यवस्था को अपनाना चाहिए । क्या यही कहने को बचा है एक सामाजिक कार्यकर्ता के पास !


संदीप पांडेय के अनुसार गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और उनका संगठन वनवासी चेतना आश्रम हिंसा और उत्पात के बीच दंतेवाड़ा में काम कर रहा है । वे हिमांशु कुमार के पक्ष में खड़े होने से पहले यह प्रश्न करना भूल जाते हैं कि


- माओवादी यह हिंसा और उत्पात किस के विकास के लिए किये जा रहे हैं ?
- यह हिंसा और उत्पात करने की छूट किसने दी है उन्हें ?
- यह हिंसा और उत्पात से सबसे ज्यादा हानि किसे हुई, आदिवासी को या फिर सरकार को या फिर दोनों को ।
- इस हिंसा और उत्पात ग्रस्त इलाके को ही अपने एनजीओ का कार्यक्षेत्र हिमांशु ने क्योंकर बनाया ?
- जहाँ चिडिया तक को पंख फड़फड़ाने के लिए माओवादी दादाओं की अनुमति लेनी पड़ती है आख़िर एक बाहरी एनजीओ संचालक किस तरह से आदिवासियों का विकास कर रहा था जबकि नक्सली तो विकास कार्यों को नेस्तनाबूत किये जा रहे हैं ?
- चलिए मान भी लेते हैं कि हिमांशु विशुद्ध गांधीवादी था, अतः गांधी की तरह निर्भीक भी था तो फिर उसने अपने दंतेवाड़ा प्रवास यानी 15-20 सालों में इस हिंसा और उत्पात को रोकने के लिए क्या क्या क़दम उठाये ? कितनों से हथियार डलवाये ? कितनो को मुख्यधारा पर वापस लाये ? कितनो युवकों को नक्सली बनने से रोका ?
- क्या कोई पहले सरकारी काम करे फिर सरकार विरोधी ( जो मूलतः जनविरोधी है, क्योंकि 10 हज़ार से अधिक आदिवासियों ने उसके विरोध में धरना प्रदर्शन दिया है )
- क्या हिमांशु कुमार का आश्रम किसी आदिवासी की ज़मीन पर बनाया गया था, क्या उसे ज़मीन खरीदने का अधिकार था, वह ज़मीन आखिर किसकी संपत्ति थी ? क्या अवैध ज़मीन पर आश्रम संचालित करनेवाले एवं मोटी मोटी रकम विदेशियों से प्राप्त करनेवाले एनजीओ को ही गांधीवादी कहा जाना चाहिए ?
- माना कि हिमांशु सलवा जुडूम से आदिवासियो के उत्पीड़न वाले मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को बेनकाब करने लगे तो वे नक्सलियों के खिलाफ ऐसा क्यों कर नहीं कर पा रहे थे, या नहीं करना चाहते थे ? वह ऐसा करके क्या वहाँ माओवाद से जूझनेवाले गरीब बाप और आदिवासियों के बेटे पुलिस कर्मियों का मनोबल बढ़ा रहा था ? वह ऐसा करके क्या माओवादियों का मनोबल नहीं बढ़ा रहा था जैसा कि सारे माओवादी मीडिया में यही कह रहे हैं कि सरकार ने सलवा जुडूम चलाके आदिवासियों को प्रताड़ित कर रही है?


यदि इन प्रश्नों से संदीप जैसे सामाजिक कार्यकर्ता जूझना चाहते तो शायद यह लेख तैयार ही नहीं होता । दरअसल हिमांशु ने उस सलवा जुड़ूम द्वारा नहीं, चालाकी से सलवा जुडूम में घुस आये माओवादियों के द्वारा आदिवासियों को जबरिया उनके गांवों से बेदखल करने और ऐसा न करने पर उनकी झोपड़ियां जलाने, महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों सहित आदिवासियो को पीटने और महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार से संबंधित मामले उठाए हैं । यहाँ यह प्रश्न क्या फिर नहीं उठता कि आख़िर वे माओवादियों द्वारा वर्षों से किये जा रहे मानवाधिकार हनन का मुद्दा क्योंकर नहीं उठाये ? वे किस परियोजना के तहत अपनी ऐसी भूमिका वाली एनजीओ चला रहे थे जिसमें सिर्फ माओवादियों के दुश्मन के द्वारा किये जा रहे मानवाधिकार के प्रश्न प्रश्न थे और माओवादियों, उनके मित्रों द्वारा किये जा रहे मानवाधिकार के प्रश्न प्रश्न नहीं थे । साफ़ ज़ाहिर है कि या तो हिमांशु भीतरी तौर पर माओवादियों का साथ दे रहे थे, या फिर हिंसावादियों के ख़िलाफ कुछ नही बोलनेवाले, कुछ नहीं सोचने, कुछ नहीं करनेवाले गांधीवादी थे ।

17 मई, 2009 को 7 एकड़ परिसर में फैले वनवासी चेतना आश्रम को इसलिए ध्वस्त कर दिया गया क्योंकि वह अवैध सरकारी जमीन पर था । और इसके लिए बकायदा उन्हें सूचित किया जा चुका था । हिमांशु के दो महत्वपूर्ण आदिवासी सहयोगियों में से कोपा कुंजाम फर्जी मामलों में के कारण नहीं बल्कि एक हत्या के आरोप में जेल में हैं । जिन्हें जानना है वे सूचना के अधिकार के तहत यह जान सकते हैं । हिमांशु के दूसरे साथियों पर उनका साथ छोड़ने के लिए भी दबाव बनाया जा रहा है कहना भी गलत है, लेखक यह नहीं बताता कि यह कौन कर रहा था । वैसे जो भी कर रहा था वह न केवल संदीप के अनुसार बल्कि सभी माओवादियों के अनुसार वह सरकारी आदमी ही था । यह क्यों नहीं हो सकता है कि ऐसा स्वयं दंतेवाड़ा के माओवादी ही कर रहे थे ताकि कोई गांधीवादी उनके एकछत्र राज्य में अहिंसक काम न कर सके ।


स्वाभिमान मंच को कर्मा का संगठन बताना ठीक उसी तरह है जैसे सलवा जूडूम को सरकारी आयोजन बताना । और यह संदीप सहित कई माओवादी लगातार किये जा रहे हैं । इसमें कोई नई बात नहीं है । माओवाद, मानवाधिकार, नक्सलवाद, डॉ. विनायक सेन और हिमांशु कुमार से जुड़े सारे लोग, पत्रकार, विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता इसी तरह भविष्य में भी माओवादियों के विरोध में आदिवासियों के हर प्रयास को सरकार प्रायोजित और माओवादी-नक्सलवादियों द्वारा आदिवासियों, सरकार, प्रशासन के विरोध में किये जाने वाले हर प्रयास को आदिवासियों का प्रतिरोध क़रार देते रहेगें । दरअसल यह भाकपा (माले) के दस्तावेजों में प्रकाशित रणनीति के तहत की किया जा रहा है जिसमें कुछ गांधीवादी, कुछ समाजसेवी, कुछ पत्रकार, कुछ बुद्धिजीवी, कुछ नेता इसी तरह माओवाद की गति को सुरक्षित बनाये रखने के लिए प्रजातांत्रिक इकाइयों को कटघरे में खड़े करते रहेंगे ।


हिमांशु के ढ़ोंग के कारण ही देश के गृहमंत्री वहाँ नहीं गये, यह उनके रायपुर में पिछले दिनों दिये गये बयान से स्पष्ट हो गया है । क्योंकि हिमांशु राज्य के राज्यपाल के बगैर सिर्फ गृहमंत्री को ही वहाँ सरकार के विरोध में कुछ नाटक दिखाने के लिए ले जाना चाहते थे और उसी के बहाने वह देश और विदेश के कई लोगों से चंदा भी वसूल कर पाया जो उसका मूल लक्ष्य भी था ।


संदीप पांडेय को लगता है कि छत्तीसगढ़ सरकार सुरक्षा बलों द्वारा किए गए उत्पीड़न से जुड़े सच को सामने नहीं लाना चाहती । क्यों नहीं लाना चाहती ? अच्छा होता वे उन सारे प्रकरणों की सूची सरकार को उपलब्ध करा देते और उनसे गुहार करते कि यहाँ-यहाँ उत्पीड़न का केश बनता है, अतः कार्यवाही करें । सरकार नही मानती तो कोर्ट तो वे जा ही सकते हैं । किसने रोका है उन्हें कोर्ट से । और सिर्फ इसीलिए वे माओवादी को प्रोत्साहित करनेवाले विचार, संगठनों, व्यक्तियों का साथ दें यह उन्हें कहाँ फबता है ? संदीप जी को लगता है कि वे देश के न्यायालय, संविधान, डेमोक्रेटिक मूल्यों के ऊपर हैं, अतः स्वंय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सिरमौर बनकर उन मामलों की जाँच करना चाहते हैं जो प्रजातंत्र, सरकार, व्यवस्था, पुलिस, प्रशासन आदि को कटघरे में खड़े कर सके । वे उन प्रकरणों में न्यायाधीश बनकर कतई जाँच करना नहीं चाहते जो माओवादियों, नक्सलवादियों के कारण उत्पन्न हुए हैं और जो पुलिस, प्रशासन द्वारा किये गये मानवाधिकार हनन की दृष्टि से कम से कम 99 प्रतिशत अधिक है । शायद इसीलिए वे माओवादियों की तरह ही सलवा जूडूम कार्यकर्ता, एसपीओ, पुलिस, व्यवस्थाअर्धसैनिक बल, डेमोक्रेसी, संविधान, चुने हुए जनप्रतिनिधि आदि को फासीवादी ताकत क़रार देते हैं । यानी 99 प्रतिशत अपराधिक प्रकरणों, अवमाननाओं पर चुप्पी और 1 प्रतिशत अवमाननाओं को लेकर देश भर कोहराम मचाने का ठेका ले रखे हैं । भाई, एनजीओ चला रहे हैं, एनजीओ को कई तरह के काम और उनके एवज में लाखों करोड़ो तो मिलते हैं, बहुसंख्यक जनता का ठेका थोड़े ले रखा उन्होंने......


हिमांशु की आवाज़ को इस क्षेत्र का अंतिम आवाज़ कहना भी संदीप का बड़बोलापन है । जैसे वे बस्तर के भविष्यनिर्माता हैं, भविष्यदृष्टा हैं । उनके बग़ैर बस्तर का विकास संभव ही नहीं है । और उन्हीं के बल पर ही बस्तर के आदिवासी सुरक्षित थे । और जो भी आदिवासियों के पक्ष में हो नहीं पा रहा था उसके लिए उन्हें क्या शर्मींदगी नहीं महसूस करनी चाहिए । संदीप आज तक नहीं बता पायें कि बस्तर यानी उनके शब्दों में दंडकारण्य क्षेत्र में नक्सलवादियों द्वारा किये गये विध्वंस में कितने अरब रूपयों की हानि हुई है ? यह विकास किसने की थी, माओवादियों ने या फिर चुनी गई सरकारी व्यवस्था ने ? इतने रूपयों की हानि से क्या बस्तर के आदिवासियों के मानवाधिकार का हनन नहीं हुआ ?


संदीप जी, आपके द्वारा सुझाया गया शायद हल मूर्ख भी नहीं कहेगा । आप चाहते हैं कि आदिवासी नक्सलियों और सुरक्षाबलों से समान दूरी पर रहें । और यही हिमांशु के प्रयासों का निहतार्थ था । संदीप हिमांशु से क्योंकर यह नहीं पूछते कि उसने आदिवासियों को पिछले 15-20 वर्षों में नक्सलियों से अलग नहीं रखवाया, उस दिशा में कोई प्रयास नहीं करवाया । और अब जाकर उन्हें यह रास्ता दिखाई पड़ता है जब आदिवासी धीरे-धीरे सुरक्षाबल नहीं बल्कि पुलिस पर विश्वास करके नक्सवादियों से अंतिम रूप से मुक्ति चाह रहे हैं ।


यह तो साफ़ समझ में आता है कि संदीप, हिमांशु जैसे लोग ऐसे सुझाव इसलिए दे रहे हैं ताकि माओवादियों के खिलाफ़ शुरू हो चुका अभियान आपरेशन को बाधित किया जा सके । आदिवासियों को दिग्भ्रमित किया जा सके ।


संदीप महराज दिलचस्पी तो माओवादियों की भी है यहाँ के के प्राकृतिक संसाधनों में है क्योंकि वहां समृद्ध खदानें हैं और उनसे माओवादियों को भरपूर चंदा मिलता है । आप बहुत सीधे सरल हैं । आपको नहीं पता कि आंतक फैलाकर ही ऐसे नक्सलवादी इनके दोहन करनेवालों से भारी ऱकम वसूल रहे हैं ।

पंचायत चुनाव में नक्सली उत्पात




७० प्रतिशत बस्तरवासी माओवाद नहीं प्रजातंत्र चाहते हैं

(नई दुनिया से साभार )

नक्सलियों से लडेंगे - सोरेन


नई दिल्ली ।नक्सलियों से निपटने के लिए केंद्र और प्रभावित राज्यों के साझा अभियान को लेकर झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने सफाई दी है। उन्होंने कहा कि इस मसले पर केंद्र से कोई मतभेद नहीं है, बल्कि गलतफहमी थी। लगे हाथ गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने भी सोरेन से कह दिया कि अब गलतफहमी दूर हो गई है तो कार्रवाई की तैयारी करें।

गुरुवार सवेरे करीब 9.30 से 10.30 बजे तक सोरेन ने यहां चिदंबरम से मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने स्पष्ट किया कि हिंसा नहीं त्यागने वाले नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षा बलों के संयुक्त अभियान में झारखंड रोड़ा नहीं है। सोरेन ने चिदंबरम को न सिर्फ यह वादा दिया, बल्कि संयुक्त अभियान की केंद्र सरकार की नीति से पूरी सहमति भी जताई।
पहले सोरेन के कुछ बयानों का यह अर्थ निकाला गया था कि वह नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं और संयुक्त अभियान का विरोध करते हैं। इस पर सोरेन ने चिदंबरम को सफाई दी कि उनके कहने का गलत अर्थ निकाला गया। उन्होंने सिर्फ पिछड़े इलाकों के विकास को वरीयता देने की बात कही थी, लेकिन जनता में संदेश यह गया कि सुरक्षा बल सिर्फ आदिवासियों और गरीबों के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाएंगे। तब चिदंबरम ने कहा कि अब गलतफहमियां दूर हो चुकी हैं तो विकास और संयुक्त अभियान के फार्मूले पर झारखंड पूरी शिद्दत के साथ चले।
इस पर झारखंड के मुख्यमंत्री ने नक्सल प्रभावित सभी राज्यों की संयुक्त रणनीति के मुताबिक चलने की हामी भरी। सोरेन ने कहा कि नक्सल समस्या के मुद्दे पर हमारे केंद्र के साथ कोई मतभेद नहीं हैं। हम मिल कर काम कर रहे हैं। चिदंबरम से मुलाकात के बारे में सोरेन ने बताया कि हमने राज्य के नक्सल प्रभावित इलाकों के विकास की कार्ययोजना और संयुक्त अभियान पर विस्तृत चर्चा की। हम नक्सली उत्पात को काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं और उसके लिए सभी संभव कदम उठाए जाएंगे।
सोरेन का कहना था कि नक्सल विरोधी अभियान के लिए सभी राज्यों में केंद्र ने सुरक्षा बल भेजे हैं, उसी क्रम में झारखंड में भी कई केंद्रीय कंपनियां तैनात हैं। गौरतलब है कि सोरेन ने नक्सलियों के प्रति नरम रुख अपनाया था, लेकिन राज्य में नक्सली वारदात बढ़ती रही। इधर, गृह मंत्रालय ने झारखंड से अपने सुरक्षा बलों की वापसी भी शुरू कर दी थी। इससे घबराई सोरेन सरकार ने यू टर्न लिया और अब वह संयुक्त अभियान के लिए राजी हो गई है।

भड़ासवाले लेखक से कुछ सवालात

भड़ासवालों से कुछ प्रश्न
01. क्या हत्यारे, लुटेरे, बलात्कारी, गुंडे, आदिवासियों के घर से प्रतिदिन चावल दाल की वसूली करनेवाले, शिक्षा के बजाये बच्चों को गुरिल्ले सैनिक में तब्दली करनेवाले, सार्वजनिक संपत्ति का विनाश करनेवाले, गांजे की खेती करनेवाले, थाने लूटनेवाले, निहत्थे नागरिकों, आदिवासियों को मारनेवाले, आदिवासियों के विकास के लिए एक भी बुनियादी कार्य नहीं करनेवाले माओवादी-नक्सलवादियों को स्थानीय मीडिया द्वारा बहिष्कार प्रजातांत्रिक मूल्यों के विपरीत है ?
02. क्या बस्तर के आदिवासी इतने गये बीते हैं, पिछड़ें हैं कि वे अपने विकास के लिए हिंसक माओवादी या नक्सली तो बन सकते हैं किन्तु ठीक नक्सलियों द्वारा सताये जाने पर उनके विरोध में खड़े नहीं हो सकते ? जिसे राज्य के बाहर और खासकर माओवादी और उनके समर्थक लेखक, एनजीओ, मानवाधिकारवादी सरकार प्रायोजित बताते फिरते हैं ?
03. क्या बस्तर में सभी के सभी माओवादी हो गये हैं यानी ऐसे कुछ भी लोग वहाँ नहीं है जो उनका विरोध नहीं कर रहे हैं ? यदि ऐसा नहीं है तो वे आदिवासी क्यो अपने शोषण करनेवाले आदिवासी ही सही किन्तु हिंसावादियों का विरोध नहीं कर सकते ?
04. क्या नक्सली हिंसा से मारे जानेवाले लोगों के विरोध में उठ खड़े होनेवाले को सहायता करना गैर प्रजातांत्रिक है ?
05. क्या नक्सलियों द्वारा सताये जानेवाले आदिवासियों को उनके ही हाल पर मरने के लिए छोड़े दिया जाये ?
06. यदि नक्सलियो द्वारा सताये गये आदिवासियों को उनके ही हाल पर छोड़ दिया जाये तो क्या नक्सली इस बात की गारंटी लेते हैं कि वे उनकी सुरक्षा करेंगे ही ?
07. क्या पहले एक बार जब नक्सलियों के भय और आतंक से आदिवासी गाँव छोड़कर भाग गये थे तो उन्हें फिर से समझाकर नक्सली गाँव में नहीं लाये थे और तब सैकड़ो की संख्या में निहत्थे आदिवासी मार डाले नहीं गये थे ?
08. जब पुलिस या अर्धसैनिक बलों के द्वारा मारा जाना, सताया जाना मानवाधिकारों का हनन है तो फिर अब तक हज़ारों आदिवासियों का मारा जाना, सताया जाना क्या मानवाधिकार का हनन नहीं है ?
09. क्या की अरबों रूपये विकासमूलक अधोसंरचना और संपत्ति को नष्ट कर देना मानवाधिकार का पालन है ? क्या सार्वजनिक संपत्ति के नष्टीकरण का नाम माओवाद या नक्सलवाद है ?
10. यदि प्रजातांत्रिक व्यवस्था के तहत पुलिस या अर्धसैनिक बल हिंसक हो सकते हैं तो फिर आख़िर माओवादियों ने पिछले 40 वर्षों से बस्तर में क्यों गुरिल्ला प्रशिक्षण केंद्र चलाये हैं ? हज़ारों युवाओं को सैनिक बनायें हैं ? बच्चों को हथियार थमा दिये हैं ? थाने लूटे हैं ? भारी संख्या में बम, बारूद और बंदूक इकट्ठे किये हैं ? क्या यह सब अहिंसक गतिविधि है जिससे वे विकास करना चाहते हैं ?
11. क्या बस्तर के माओवादियों के कारण जिन जंगलों, गाँवों, रास्तों में आने जाने से वहाँ का आम आदिवासी डरता है वहाँ एक एनजीओ हिमांशु कुमार ने आख़िर बस्तर को ही क्यों चुना अपने एनजीओ के काम को फैलाने के लिए ?
12. धूर नक्सली बेल्ट में उसका बेधड़क घूमना फिरना क्या साबित नहीं करता कि वह या तो नक्सलियों से मिला हुआ था या फिर वह सचमुच गांधीवादी और निर्भीक था ?
13. यदि वह सचमुच गाँधीवादी था और आदिवासियों के मानवाधिकार के लिए लड़नेवाला भी तो क्या उसने उन आदिवासियों के विरोध मे कभी कोई पदयात्रा, जनसुनवाई या सभा की थी जो माओवादी हिंसा में मारे गये हैं, सताये गये हैं ?
14. यदि वह सचमुच गाँधीवादी था तो क्या उसने कभी माओवादी-नक्सलवादी यानी हिंसावादियों को समझाने की कोशिश की थी ? कभी उनके ख़िलाफ़ कोई लेख लिखा है, किसी बाहर के पत्रकार को बुलवाकर उसे माओवादियों (हिंसावादी) के खिलाफ़ जनमत बनाने के लिए उत्प्रेरित किया है ?
15. क्या कभी उसने माओवादियों द्वारा निहत्थे बस्तर वासी आदिवासियों के मारे जाने पर उपवास, मौन व्रत रखा था, इससे पहले ? आख़िर माओवादियों द्वारा आदिवासियों के मारे-सताये जाने का मुद्दा एक गांधीवादी की नज़रों में मानवाधिकार का प्रश्न नहीं बन रहा था किन्तु कथित पुलिस या व्यवस्था द्वारा आदिवासियों का दमन ही प्रश्न बन रहा था, आख़िर ऐसा ही क्यों ?
16. क्या हिमांशु कुमार के गांधीवादी एनजीओ का कर्ताधर्ता कोई आदिवासी था जैसा कि वह आदिवासियों का ख़ुद को हितैषी बताता फिरता रहा ? क्या यह सच नहीं है कि उस एनजीओ के करोड़ों रूपये उसके और उसकी पत्नी के नाम संयुक्त खाते में हैं ? यह कौन सा गांधीवाद है ?
17. आख़िर क्यों कर स्थानीय पत्रकार एक एनजीओ हिमांशु कुमार के खिलाफ़ हो गये ? जबकि वे तो पहले से भी समान रूप से नक्सलियों और पुलिस दोनों के विरोध में ही समान रूप से लिख ही रहे हैं ।
18. स्थानीय मीडिया को साथ नहीं लेकर, देश के बड़े शहरों के पत्रकारों को बुलवाकर अपने गांधीवादी क्रियाकलापों (?) को प्रचारित एनजीओ प्रमुख गांधीवादी (?) आख़िरकार क्या बताना चाह रहा था ?
19. यदि हिमांशुकुमार स्वयं गांधीवादी है तो फिर उसे बस्तर में मेला लगाने के लिए ऐसे मानवाधिकारवादियों, एनजीओ नेटवर्क से जुड़े कथित समाजसेवियों ही को क्यों बुलाना पड़ा जो हिंसक नक्सलियों का विरोध नहीं करते किन्तु प्रजातांत्रिक व्यवस्था का ही विरोध करते हैं ?
20. यदि हिमांशु कुमार की कथित जनसुनवाई में देश के गृहमंत्री जब आ ही नहीं रहे थे और उसे इस बात का पता चल भी गया था तो क्या उसने उन सभी को इस बात की सूचना दी थी वे उसकी जनसुनवाई में आ रहे थे ?
21. हिमांशु कुमार की ऐसी कौन सी विवशता थी जिसके कारण वे मीडिया, पुलिस, प्रशासन, कानून, न्यायालय सबको शिकायत करने के बजाय जनसुनवाई ही दंतेवाड़ा में आयोजित करना चाह रहे थे ? इस कथित जनसुनवाई में दंतेवाड़ा सहित बस्तर के कितने आदिवासी नागरिक, जन प्रतिनिधि, समाजसेवी से राय ली थी ? कितने लोगों ने उनकी इस जनसुनवाई पर आस्था प्रकट की थी ? क्या इस जनसुनवाई में स्थानीय प्रशासन, राज्य सरकार को आमंत्रित किया गया था, यदि नहीं तो सिर्फ़ देश के गृहमंत्री को ही क्यों ? क्या इसका लक्ष्य हिंसावादियों, नक्सलवादियों, माओवादियों के खिलाफ़ शुरू हुए आपरेशन को बाधित करना नहीं था ?
22. जो मानवाधिकारवादी, सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु के आव्हान पर कथित और स्थगित जनसुनवाई में आये थे या आना चाहते थे क्या उन्हें नहीं पता कि समूचे बस्तर में हिंसावादियों की फौज फैली हुई है? ऐसे में वे किस हिम्मत से दंतेवाड़ा आना ही चाहते थे ? ऐसे लोगों ने कभी मुंबई, दिल्ली, गुजरात दंगे में ऐसी घटनाओं के समय का क्या वहां जाकर समाजसेवा करने का बीड़ा उठाया है ?
23. क्या हिमांशु के आव्हान पर दिल्ली, मुंबई आदि स्थानों से पधारे कथित मानवाधिकारवादियों/समाजसेवियों को (जो यह कहते हैं कि नक्सली उनकी बात नहीं मानते ) का स्थानीय पत्रकारो के साथ बदसलूकी नहीं की ?
24. क्या हिमांशु के आव्हान पर दिल्ली, मुंबई आदि स्थानों से पधारे कथित मानवाधिकारवादियों/समाजसेवियों स्थानीय पत्रकारों का बायकाट नहीं झेलना पड़ा ? क्या उन्हें स्थानीय नागरिकों का घोर विरोध नहीं झेलना पड़ा ? क्या यह सब व्यवस्था के लोग ही करा रहे थे ? इसे नक्सली क्यों नहीं करा सकते ? इसे स्वयं हिमांशु कुमार भी क्यों नहीं करवा सकते, ताकि ऐसे एनजीओ समूह की मुंह से अपने अवैध घर-व्यापार के विरोध में खड़े प्रशासन की निंदा करवा कर बदला लिया जा सके?
25. क्या वहाँ इन एनजीओ की ओर से पुलिस के साथ भी धक्कामुक्की नहीं हुई ? हुई तो तो एनजीओ या सामाजिक कार्यकर्ता किस पर गुस्सा उतार रहे थे और किसके बल पर वह भी अरण्य इलाके में ?
26. क्या हिमांशु के समर्थन में आये सामाजिक कार्यकर्ताओं (?) का स्थानीय पत्रकारों को दंतेवाड़ा में बिकाऊ कहना सामाजिक कार्य था ?
27. दंतेवाड़ा से लौटकर रायपुर प्रेस क्लब में आयोजित किये गये प्रेस वार्ता में नक्सली वारदातों में मारे गये लोगों के अनाथ बच्चों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध नहीं किया ? आख़िर क्यों ये बच्चे और उनके पालक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध कर रहे थे ? क्या इसे भी सरकार उन्हें ढूँढकर वहाँ एकत्र की थी ?
28. प्रेस क्लब में आख़िर क्यों सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकारवादियों ने नक्सलियों द्वारा आदिवासियों के मारे जाने, सताये जाने को मानवाधिकार का प्रश्न नहीं बनाया, वे क्योंकर केवल पुलिस द्वारा किये गये मानवाधिकार की रट लगाये रहे ? और पत्रकारों के कांउटर प्रश्न पर बौखला उठे थे ?
29. फिर इसके बाद बिलासपुर प्रेस कौंसिल में इन्हीं लोगों के हमदर्द मानवाधिकारवादियों ने (जो दंतेवाड़ा से लौटे थे) क्या न्यायपालिका, न्यायाधीश, न्याय, संविधान, भारतीय प्रजातंत्र के ख़िलाफ़ क्या क्या आरोप लगाये थे ? क्या यह सब अराजक, न्यायविरोधी, संविधानविरोधी, अनैतिक, देशद्रोहितापूर्ण नहीं है ? इससे क्या यह साबित नहीं होता कि मानवाधिकारवादी भी वही भाषा बोल रहे हैं जो माओवादी या नक्सलवादी भाषा ही है ? इसे क्या स्थानीय मीडिया नहीं समझ सकता ? क्या यह बड़े शहरों की मीडिया की दृष्टि में जनभक्ति है, मानवाधिकारों की प्रतिष्ठामूलक कार्यवाही है, प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा की दिशा में क़दम है ?
30. इसके ठीक एक दो दिन बाद क्या रायपुर के एक प्रतिष्ठित (शायद अंसतुष्ट और बौद्धिक अजीर्ण से ग्रस्त) वकील के घर पुनः राज्य में मानवाधिकार के हनन को लेकर दिल्लीनिवासी, कथित मानवाधिकावादी और सुप्रीम कोर्ट के वकील श्री प्रशांत भूषण ने यह नहीं कहा कि राज्य के डीजीपी नक्सलियों द्वारा मारे जायेंगे या फिर जेल में जायेंगे ?
31. क्या एक वकील का न्याय, कानून, संविधान, मर्यादा, शील के विपरीत व्यक्तिगत टिप्पणी करना नक्सलियों के पक्ष को मजबूत करना नहीं कहा जा सकता ?
32. क्या उसी वकील द्वारा उसके अपने पक्ष में नहीं छापनेवाले स्थानीय मीडिया को भी बिकाऊ कहना और उसके पक्ष में छापनेवाले बाहरी मीडिया को ग़ैरबिकाऊ कहना उचित कहा जायेगा ? क्या यह स्थानीय पत्रकारों का अपमान और आपत्तिजनक नहीं माना जाना चाहिए ?
33. छत्तीसगढ़ की मीडिया के निर्णय के विरोध में बयान देने के लिए सिर्फ़ शुभ्रांशु चौधरी जैसे पत्रकार को चुनना (जो सैर सपाटे के लिए छत्तीसगढ़ आता है, मजे से दिल्ली में रहता है, गगनबिहारी की तरह हवाई जहाज में उड़ता है और अपनी कथित जन बेबसाइट के माध्यम से सिर्फ़ विवादास्पद, सरकार विरोधी, प्रजातंत्र विरोधी, नक्सली समर्थन, हिंसा को प्रतिष्ठित करनेवाले युवा के रूप में जाना जाता है ) किस बात का संकेत है ?
34. क्या इस मुद्दे पर छत्तीसगढ़ के किसी वरिष्ठ पत्रकार (सर्वश्री राजनारायण मिश्र, गुरुदेव काश्यप चौबे, बसंत तिवारी, रमेश नैयर, गोविन्द लाल बोरा, विष्णु प्रसाद सिन्हा, बबन प्रसाद मिश्र, ललित सुरजन, अनिल विभाकर, सुनील कुमार, रवि भाई, हिमांशु द्विवेदी, श्याम बेताल, कौशल किशोर मिश्र, दीनदयाल पुरोहित, रामावतार तिवारी, प्रकाश शर्मा, दीपक लाखोटिया, शंकर पांडेय, जैसे वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादकों से ) नहीं पूछा जाना चाहिए जो, जो यहाँ की हालातों को जानते हैं, सत्य और झूठ के करीब पहुँचने की जिनमें कूबत है ? आख़िर इनके विचारों को नहीं जानकर आप किसकी राय पर अपने पक्ष की पुष्टि कर रहे हैं और इसका क्या मतलब निकलता है ?
35. प्रशांत भूषण का यह कहना कि उन पर प्रेस क्लब द्वारा प्रतिबंध गैर-संवैधानिक और मूल अधिकारों का हनन है उनका यह कहना ग़ैर-संवैधानिक और अपराधजनक क्योंकर नहीं होगा कि राज्य के डीजीपी नक्सलियों द्वारा मार दिये जायेंगे या स्थानीय मीडिया बिकाऊ है ? क्या ताली एक ही हाथ से बजायी जाती है ?
विश्वास है हमें आपका जवाब मिलेगा और आपकी लेखकीय ईमानदारी सही साबित होगी.....

Wednesday, January 27, 2010

अभिजात क्रांतिकारिता

विश्वजीत सेन

मनुष्य खुद से अनजान उन चीज़ों का सृजन करता है, जिनकी माँग उसके वर्ग हित करते हैं । ऐसा सृजन वह क्रांति के नाम पर भी करता है । क्रांतिकारी आन्दोलन के संसाधन उसके हाथ आए नहीं कि भूमिगत रहने के नाम पर, गुप्त कार्यों को अंजाम देने के नाम पर, वह अपने लिए एक ऐसी जीवन शैली गढ़ लेता है, जो अच्छे ख़ासे पूँजीपतियों को भी बमुश्किल ही नसीब होती है । मनुष्य ही वह जीव है, जिसमें ऐसा करने की क्षमता है ।

आप उनसे कहेंगे – यह विभाजित व्यक्तित्व का चरमोत्कर्ष है । वह नहीं मानेंगे । उल्टे तर्क प्रस्तुत करेंगे कि चोरी-छिपे क्रांतिकारी कार्य करने का सबसे बेहत्तर तरीका यही है । आप अगर अभिजात वर्ग की जीवन शैली अपनाएँगे, तब किसी को खआप पर शक़ नहीं होगा कि आप क्रांतिकारी कार्य भी करते होंगे । लेकिन उस जीवनशैली की आदत जो आपको लग जाएगी । उसका क्या होगा ? वह आपकी बात की तौहिन करेंगे और कहेंगे आपकी सोच पुराने क़िस्म की है । चीजों की समझ आपको नहीं है । क्रांति के बाद सबकी जीवन शैली मेरी जैसी ही हो जाएगी । तब फिर दिक्कत कहाँ ?

मार्क्स द्वारा इज़ाद किए गए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत का दुरुपयोग इस प्रकार भी किया जाएगा, यह मार्क्स ने भी शायद नहीं सोचा था । उन्होंने अपना जीवन, घोर ग़रीबी में गुज़ारा, अपनी विचारधारा के कारण कई मुल्कों से निकाले गये, उन्होंने अपने बच्चों को आँखों के सामने मरते देखा । लेकिन एक बार भी उन्हें इस प्रलोभन ने विचलित नहीं किया कि वैचारिक घालमेल कर अपनी जिंदगी बेहत्तर बना लें । इस मामले में उनकी ईमानदारी प्रश्नों से परे थी ।

इसके विपरीत आज के क्रांतिकारी को देखें, हाल में पटना में एक माओवादी नेता पुलिस के हत्थे चढ़ गए, उनके पास से 18 लाख रूपए बरामद हुए हैं । मीडिया का कहना है – उन्होंने इसी महीने 1.23 करोड़ की वसूली की थी । वसूली, व्यापारियों, ठेकेदारों तथा कंपनीवालों से की गई थी । कहने की ज़रूरत नहीं है कि संपन्न कारोबारी, भय के कारण ही रक़म उनके हवाले किये थे । नेताजी ने इस राशि को विभिन्न लोगों के बीच आबंटित किया । यह क्रांति करने का सर्वाधुनिक तरीक़ा है । मार्क्स और माओ से अलग । माओ का अपना इतिहास असीम त्याग का है । आधुनिक चीन की कहानी के बग़ैर पूरी नहीं होती । लेकिन मुश्किल है कि नाम माओ का ही लिया जाता है । दावा किया जाता है कि माओ के मार्ग पर ही चल रहे हैं । इस विरोधाभा, का कोई ओर छोर पता नहीं चलता । उनके ख़ुद के कार्यकर्ता तंगहाली की ज़िंदगी जीते हैं । गर्मी मे झुलसते हुए, जाड़े में ठिठुरते हुए उन्हें दुःसाहसिक कार्यों को अंजाम देना पड़ता है । बहुत थोड़ी सी रक़म से वे गुज़र बसर करते हैं । जब कि नेताजी उच्च मध्यवर्गीय रिहाइशी इलाके में बैठकर हुक्मनामा जारी करते हैं, ऐसा वर्ग-विभेद कम्युनिस्टों को शोभा देता है क्या ?

संसदीय वामपंथियों से इनकी नफ़रत की तो पूछिए ही नहीं । संसदीय या मुख्यधारा के वामपंथी क्रांति का सौदा कर चुके हैं – ऐसा इनका मानना है । ऐसा मानने पर उन्हें ग़लत भी नहीं ठहराया जा सकता है । क्रांति के भी क़िस्म या प्रकार होते हैं । इनके क़िस्म की क्रांति संसदीय वामपंथियों को रास नहीं आती । दोनों के रास्ते अलग अलग हैं । इसके अलावे संसदीय वामपंथियों में भी कुछ लोगों का रहन-सहन कोई बहुत सराहनीय नहीं है । संसदीय वामपंथी दलों के कार्यकर्ता भी ग़रीबी कि ज़िंदगी जीने को मज़बूर हैं । लेकिन वहाँ जो भी है, बिलकुल आरपार दिखता है । इसीलिए उनकी खुली आलोचना की जा सकता है । लेकिन माओवादियों के साथ ऐसी बात नहीं है । वहाँ नेतृत्व की आलोचना करने पर कम से कम उत्पीड़न के साथ मौत के घाट उतार दिया जाना, सब से रहमदिल सजा मानी जाती है ।

रूस की बोलशेविक क्रांति की घटित हुए 93 वर्ष गुज़र गए । 7 वर्षों बाद बोलशेविक क्रांति की शतीपूर्ति मनाई जाएगी । लोकत्रांतिक समाजवादी विचार को कार्यरत देखने का सपना क्या धरा का धरा रह जाएगा ? समाजवादी आंदोलन के अंतःस्थल में एक नए अभिजात वर्ग के उदय का विरोध करते हुए लेनिन ने बोलशेविक पार्टी की नींव डाली थी । उनके उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए कब जनता इन नए अभिजातों को नकारेगी ? समय काफ़ी हो चुका है । अब स्पष्ट बात को स्पष्ट तरीक़े से कहने की ज़रूरत है ।
(लेखक पटना निवासी और वामपंथी विचारधारा के कार्यकर्ता हैं )

झूठ और हिंसक भ्रम को नहीं परोसेगा प्रेस क्लब

छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल कहने वाले मानवाधिकारवादियों को नक्सलियों का हमदर्द मानते हुए रायपुर प्रेस-क्लब ने ऐसे किसी संस्था और व्यक्ति का अपने यहां नहीं बुलाने का निर्णय लिया है. बैन के इस फैसले में कोई बुराई नहीं दिखती. महानगरों के पत्रकार लगातार छत्तीसगढ़ की मीडिया पर दलाली के आरोप लगाते रहे हैं. वे यह भी कहते हैं कि ये कुछ नहीं लिखने-यानि सच छिपाने के पैसे लेते हैं. बुध्दिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक वर्ग पर नक्सलियों का समर्थक होने का आरोप इसलिए लग रहा है कि ठीकऐसे समय पर जब बस्तर से हिंसा खत्म करने की अब तक की सबसे बड़ी मुहिम चल रही है, वे पुलिस और सरकार पर, आदिवासियों के दमन और अत्याचार को लेकर अभियान की दिशा को रैलियों, सत्याग्रह के बहाने से मोड़ने की कोशिश में हैं।बीते 22 जनवरी को दो नौजवानों का गला रेतकर नक्सलियों ने सड़क पर फेंक दिया, ये एसपीओ में बनना चाहते थे-क्या इसकी इतनी क्रूर सज़ा मुकर्रर की जाएगी। इनमें एक तो 11वीं कक्षा में पढ़ने वाला नवयुवक था. तालिबानियों व इनमें क्या फ़र्क है? मुझे समझाएं कि क्या नक्सली उनसे कम दहशत फैला रहे हैं? तालिबानी ड्रग्स बेचकर पैसे बनाते हैं. ये बस्तर में गांजा की खेती करा रहे हैं.पुलिस व सुरक्षा बल के अभियान में कई ख़ामियां हो सकती हैं, पर इसके मूल में नक्सली हिंसा ही हैं. यदि सचमुच मानवाधिकारवादी- गांधीवादी आदिवासियों का हित चाहते हैं तो पहले नक्सलियों को समझाएं, उन्हें बातचीत के लिए बिठाएं. यह कई बार देखा गया है कि वे बस्तर के जंगलों में वहां तक पहुंच सकते हैं, जहां प्रशासन अब तक नहीं पहुंच पाया. बस्तर को सबसे पहले नक्सलियों की हिंसा से मुक्त कराना होगा. इसे लेकर बस्तर के टूर पर आने वाले मानवाधिकारवादियों को अपनी क्षमता, सम्पर्कों का इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ की भलाई और यहां की शांति के लिए सरकार से सहयोग करना चाहिए. जल, जंगल, जमीन से जुड़ी उनकी आशंकाओं और इन्हें नष्ट करने के विरोध में सभी प्रकृति, पर्यावरण प्रेमी, छत्तीसगढ़ की बोली, संस्कृति, सभ्यता, आदिवासियों की अपनी जीवन शैली का संरक्षण करने की मंशा रखने वाले- एक साथ हैं. बस्तर की जमीन से आदिवासियों को बेदखल कर इसे मल्टीनेशनल्स को सौंपने जैसी आशंकाओं से भी सब चिंतित हैं. लेकिन इसका ठेका बंदूक से प्रत्येक विरोध को ठिकाने लगाने वाले नक्सलियों को नहीं दिया जा सकता, क्या लोकतंत्र और संविधान पर भरोसा रखने वाले मर गए हैं? बस्तर में भरपूर हरियाली होते हुए भी, छत्तीसगढ़ियों के लिए पीड़ा व अभावों का बंजर है, दूसरी तरफ यह दुनिया भर के लिए एक मनोरंजन और कौतूहल का इलाका है. क्या मानवाधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्ता इसलिए इसी के पीछे पड़े हैं? छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी बाहुल्य सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ जाएं. वहां ग्रामीणों को बेदखल करने की समस्या कुछ कम नहीं है. बस्तर को नक्सलियों से खाली कराने के बाद तो अज्ञात भविष्य में कार्पोरेट को सौंपा जाएगा, जैसी उनकी आशंका है, पर इन तीनों इलाकों में अभी-इसी वक्त यही सब हो रहा है.आदिवासियों की बदतर हालत को देखना है तो अकेले बस्तर कोई मुद्दा नहीं. मानवाधिकारवादियों के मापदंड में सटीक बैठने वाला दमन, इतना ही अत्याचार वहां के आदिवासियों के साथ हो रहा है. ये सामाजिक कार्यकर्ता अपनी व्यस्तता की धुरी उधर क्यों नहीं मोड़ लेते. क्या इनको आशंका है कि वहां काम करने पर इन्हें राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां नहीं मिल पाएगी. मेधा पाटकर व संदीप पांडेय जी को दंतेवाड़ा में अंडे, पत्थरों से स्वागत के बाद थोड़ी हक़ीकत समझ में आई. रायपुर में पत्रकारों के बीच उन्हें कबूल करना पड़ा कि वे नक्सल समर्थक नहीं है, उनकी हिंसा के ख़िलाफ हैं. लेकिन बदनियती देखिये उन्होंने साथ में यह भी जोड़ दिया कि सरकार प्रायोजित हिंसा ज्यादा खतरनाक है. मौजूदा सरकार के किसी प्रवक्ता से मत पूछिये, भरोसा न हो तो मीडिया से भी नहीं पूछें, छत्तीसगढ़ की चिंता करने वाले दूसरे लोगों से, तटस्थ लोगों से भी पूछ लें-क्या सरकार वहां हिंसा को प्रायोजित कर रही है? नक्सली- खंदक, एम्बुस, बारूदी सुरंग लगाकर बैठे हैं. कई बार फोर्स को पता होता है, कई बार नहीं होता. वहां जवान मारे जाते हैं. एसपी विनोद चौबे और उनके 30 साथियों की मौत पर किसी मानवाधिकारवादी ने अफसोस जताया? इसी तरह के रवैये ने उनकी नीयत पर सवाल खड़े होते रहे हैं. दर्जनों बार साप्ताहिक बाज़ारों में तैनात पुलिस अफसरों व सिपाहियों को नक्सलियों ने अचानक पहुंच कर गोलियों से भून डाला, उनके गर्दन काट दिए. क्या किसी मानवाधिकार समर्थक ने सोचा कि उनका भी परिवार, बीवी बच्चे हैं. क्या इन मरने वालों की सिर्फ यही गलती है कि वे इसी व्यवस्था, जिसकी अकर्मण्यता और नाकामी से, ज़ाहिर है, सब त्रस्त भी हैं- के हिस्से हैं. सरकारी हिंसा यदि है भी, यह तो नक्सलियों की क्रिया की ही प्रतिक्रिया है. जिनमें ग़लतियां तो स्वाभाविक हैं.क्या हम पुलिस और सरकार को सिर्फ इसलिए अदालतों में, राष्ट्रीय अन्तर्राष्टीय मंचों पर इसलिए घसीटते हैं कि वे इस व्यवस्था के अंग हैं और सबको उत्तर देने के लिए प्रतिबध्द हैं? एक ऐसे भयावह दृश्य की कल्पना की जाए, जिसमें पुलिस और यही मशीनरी नक्सलियों को किसी भी कीमत पर ख़त्म करने की ठान ले. इस बात की तहकीकात करने में वक्त ख़राब न करे कि सामने खड़ा व्यक्ति निर्दोष आदिवासी है या दुर्दांत नक्सली. फोर्स पर किसी भी को अपने अभियान की योजना, कार्रवाईयों के लिए जवाब देने की जिम्मेदारी भी न रहे, बताएं तब क्या होगा? हर दिन, हर वक्त फोर्स को आप कटघरे में लाकर खड़ा करते हैं, जिसके चलते जान जोखिम में डालकर, फूंक-फूंक कर उन्हें कदम उठाना पड़ता है, सफाई देनी पड़ती है. नक्सली तो छिपकर हमला करने वाले लोग हैं जिनके पास पावर विदाऊट रिसपांसबिलिटी है. वे जो करें- किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं. मानवाधिकारवादी जरा अपने सीने पर हाथ रखकर बताएं कि क्या उन्हें खत्म कर डालने की जरूरत नहीं? दिल्ली से लेकर चेन्नई में गृह मंत्री के गांव तक पुलिस अत्याचार के ख़िलाफ तमाम प्रदर्शन व साइकल रैलियां निकालने वाले इन मानवाधिकार समर्थकों की ताक़त बहुत ज्यादा है. इसीलिए इनसे उम्मीद भी अधिक है. वे जरा समझ लें कि सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं होने के बावजूद, बस्तर में भयंकर भ्रष्टाचार और लूट के बाद भी- सबसे पहली जरूरत नक्सलियों के सफाये की है. दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद में बैठे लोग व वहां से आकर तस्वीर खींचने वाले लोग इसे समझ सकें, यह छत्तीसगढ़ की चिंता करने वालों की अपेक्षा है. छत्तीसगढ़ की मीडिया पर आरोप मढ़ना तो आसान है, लेकिन यही मीडिया कोल ब्लाक के आबंटन में धांधली, जन सुनवाईयों में की जाने वाली जबरदस्ती, सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक की प्रदूषण के ख़िलाफ आवाज़, धान-चावल घोटाले, स्वास्थ्य, राशन कार्ड, बिजली घोटाले को लगातार उठा रहा है. छत्तीसगढ़ का मीडिया दलाल या सरकार का अंधानुकरण करने वाला नहीं है. बस्तर के सिंगारम में हुई हत्याओं के ख़िलाफ यहीं के अख़बारों ने पहले पन्ने पर बड़ी-बड़ी ख़बरें छापी, जिसे लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अदालत गए. मानवाधिकार की बात करने वाले अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं. जब बस्तर से नक्सलियों का सफाया हो जाएगा, तभी हम शिक्षकों को स्कूल जाने के लिए बाध्य कर सकेंगे. अपनी जड़ से कटकर कर सलवा जुड़ूम कैम्पों में शरण लेने वाले आदिवासियों को उनके गांव भेज सकेंगे. स्वास्थ्य, पानी, सड़क की सुविधाएं पहुंचाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकेंगे, क्योंकि तब हमें वहां मौजूद रहने और अधिक पारदर्शी आंदोलन करने का मौका मिलेगा. रही बस्तर के आदिवासियों को बेदखल करने और वहां की बहुमूल्य सम्पदा को लुटाने की साजिश से आप चिंतित हैं, तो आइये आप आज ही छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों में जहां आदिवासी समान प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं और नक्सलियों की वहां पकड़ भी नहीं है-पहुंचकर सरकार व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ख़िलाफ मोर्चा खोल लें. रायपुर प्रेस क्लब के फैसले की आलोचना करने वाले मानवाधिकारवादी बंधुओं से एक और सवाल. आप तो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में छाए हुए हैं, वे बहुत गंभीरता से आपकी बात सुनते हैं. दिल्ली की सरकार और अन्तर्राष्ट्रीय मंच भी उन्हें पूरा-पूरा सच मानकर पढ़ता है. फिर रायपुर प्रेस क्लब के विरोध को लेकर आप चिंतित क्यों रहें? रायपुर प्रेस क्लब कोई सरकारी संस्था नहीं है. कोई खास समूह तय नहीं कर सकता कि उनकी किसके प्रति जवाबदेही है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे सच के साथ और अत्याचार के ख़िलाफ नहीं है. यह तो रिपोर्टरों का एक संगठन है. आपके पास भी एक संगठित राष्ट्रीय स्तर के मीडिया रिपोर्टर्स है. आपको लगता है कि अदालतें और सरकार इनकी आवाज़ ज्यादा ठीक तरह से सुनती समझती है.एक सवाल यह भी है कि क्या भ्रष्टाचार सिर से ऊपर चला गया है, न्याय में देरी हो रही है, सरकारी अमला मुफ़्तखोर हो गया है तो हमें मौजूदा व्यवस्था सुधारने की कोशिश करने की बजाय क्या नक्सलियों की सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए?

वोट देने पर मिलेगी कड़ी सज़ा


बस्तर में तिरंगा लहराता रहा


नक्सलवाद के खिलाफ उठ खड़ा होना शुभ संकेत - राज्यपाल


नक्सलियों ने किया 19 वाहनों को आग के हवाले





27 जनवरी. छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में माओवादी नक्सलियों ने कल रात राष्ट्रीय खनिज विकास निगम के परिसर में खडे 19 वाहनों में आग लगा दी। पुलिस सूत्रों के अनुसार जिले के किरन्दुल थाने से 12 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय खनिज विकास निगम की 11वीं खदान में आंध्र प्रदेश की नत्ना सिंह कंपनी का काम चल रहा था। रात्रि करीब एक बजे सौ से अधिक संख्या में नक्सली पहुंचे, जिसमें कुछ वर्दीधारी नक्सली थे। उन्होंने वहां कार्यरत कर्मचारियों को बंधक बनाया और वहां खडे ट्रक, जीप, ट्रेक्टर, डम्फर आदि 19 वाहनों को आग के हवाले कर दिया। घटना स्थल से दो किलो मीटर दूर केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्ष बलों के जवानों का केम्प था लेकिन आज सुबह पुलिस घटना स्थल पर पहुंची और वहां से कई नक्सली पर्चे बरामद किये। घटना की विवेचना की जा रही है। बताया जाता है कि इस घटना को नेतृत्व महिला नक्सली द्वारा किया जा रहा था।


(नवभारत)

Tuesday, January 26, 2010

नक्सलवाद विरोधी अभियान के खिलाफ नहीं है सारेन


रांची। झारखण्ड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने शुक्रवार को कहा है कि वह नक्सलियों के खिलाफ चलाए जाने वाले विशेष अभियान 'ग्रीन हंट' के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन उन्होंने नक्सलियों से बातचीत के लिए आगे आने के लिए भी कहा है।


सोरेन ने कहा, "मैं ग्रीन हंट अभियान के खिलाफ नहीं हूं। झारखण्ड में ऐसे अभियान जारी हैं।"
सोरेन ने कहा, "मैंने नक्सलियों से कहा है कि वे लोगों की हत्याएं करना बंद कर दें और बातचीत के लिए आगे आए। हम जानना चाहते हैं कि वास्तव में वह हमसे क्या चाहते हैं। आखिर वह हमारे खिलाफ क्यों हैं।"

संवाददाताओं ने जब उनसे पूछा कि केंद्रीय गृह मंत्री पी.चिदंबरम के साथ रायपुर में मुख्यमंत्रियों की बुलाई गई बैठक में उन्हें क्यों नहीं आमंत्रित किया गया, तो इस पर सोरेन ने कहा कि वह बैठक तीन राज्यों की ही थी। सोरेन का यह बयान ऐसे समय में आया है, जब राज्य पुलिस ने भी कहा है कि वह नक्सलियों के खिलाफ विशेष अभियान चलाने के लिए तैयार है।

झारखण्ड के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) नियाज अहमद ने गृह सचिव जे.बी.तुबिद के साथ एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा, "नक्सलियों के खिलाफ विशेष अभियान के लिए 70 से 75 प्रतिशत तैयारी पूरी हो चुकी है। अब अलग स्तरों पर तैयारियां चल रह रही हैं।"

Monday, January 25, 2010

आज का दिन, सोचने का दिन


श्री मधुसूदन आनंद

वरिष्ठ पत्रकार


जिस तरह से आज किसी की सालगिरह का मतलब एक तरह का उत्सव मनाना हो गया है, उसी तरह १५ अगस्त और २६ जनवरी का मतलब भी एक तरह से औपचारिक उत्सवधर्मिता तक सीमित होकर रह गया है। गणतंत्र दिवस की झांकियाँ देखो और छुट्टी मनाओ। दरअसल हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है, उसका मोल हम नहीं समझते। २६ जनवरी १९५० को हमें संविधान के रूप में एक अनमोल तोहफा मिला था। आजादी के लिए हमें भले ही लंबा आंदोलन चलाना पड़ा हो और कुर्बानियाँ देनी पड़ी हों लेकिन लॉर्ड रेडक्लिफ ने करीब एक महीने में ही भारत और पाकिस्तान दो देश बना दिए। वे एक पंच की हैसियत से ८ जुलाई १९४७ को भारत आए और ११ अगस्त तक उन्होंने कागज पर दो देश बना दिए। और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे नेताओं ने इसे बिना किसी बड़े विरोध के मंजूर कर लिया। रेडक्लिफ के पास टाइम कम था, इसलिए बंगाल और पंजाब के अलावा और किसी मुद्दे पर वे ध्यान नहीं दे सके। ऐसा ही हमारे अपने नेताओं के साथ भी था। यह सही है कि बँटवारे को मंजूर करने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने ५०० से ज्यादा रियासतों का भारत में विलय कराने के लिए अपार सूझबूझ, दूरदर्शिता और साहस का परिचय दिया। पर मोटे तौर पर देखा जाए तो कागज पर जो नक्शा रेडक्लिफ ने भारत का बनाया, हमारे नेताओं ने उस पर ही आधुनिक राष्ट्र-राज्य की नींव रखी।




लेकिन भूगोल को एक तरफ रख दें, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे नेताओं के दिमाग में यह बात बिल्कुल साफ थी कि आजादी के बाद का भारत कैसा होना चाहिए। जब गोलमेज सम्मेलन विफल हो गया और १९३५ में भारत की महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित किया, तभी कांग्रेस ने स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि भारत का संविधान बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के भारतीय लोग ही बनाएँगे। नेहरूजी ने तब कहा था कि "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश चाहती है। उसका प्रस्ताव है कि भारत का संविधान वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित एक संविधान सभा बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के बनाए।" संविधान बनाने के लिए डॉ। भीमराव आम्बेडकर और अन्य नेताओं ने दुनिया के तमाम संविधानों को खंगाल डाला। बेशक हमारा संविधान दूसरों से लिया हुआ है लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि हर संविधान के बेहतरीन हिस्सों को अपनी स्थितियों के अनुसार संशोधन कर इसमें शामिल किया गया है। हमारा संविधान भी संसार का शायद सबसे लंबा संविधान है। इस तरह हमारे नेताओं ने भारत के राजनीतिक जीवन को चलाने के लिए संविधान के रूप में पहली बार एक मुकम्मिल किताब का आविष्कार किया। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें लिखी बातें किसी धर्म-पुस्तक में लिखी गई बातों की तरह अंतिम सत्य नहीं हैं। उनमें परिस्थितियों और जरूरत के हिसाब से संशोधन किया जा सकता है और आप जानते ही हैं कि संविधान में कितने संशोधन किए गए हैं।




अगर हम मोटे तौर पर देखें कि हमने इस देश को चलाने के जो नियम बनाए थे, वे समय की कसौटी पर कितने सही उतरे तो मानना पड़ेगा कि हमारे संविधान निर्माताओं ने गजब की दूरदर्शिता दिखाई थी। हमने अपने लिए प्रभुसत्ता-संपन्ना लोकतांत्रिक गणतंत्र चुना जिसमें १९७६ में ४२ वें संविधान संशोधन के जरिए "समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष" शब्द और जोड़ दिए गए। यानी प्रभुसत्ता संपन्ना समाजवाजिस तरह से आज किसी की सालगिरह का मतलब एक तरह का उत्सव मनाना हो गया है, उसी तरह १५ अगस्त और २६ जनवरी का मतलब भी एक तरह से औपचारिक उत्सवधर्मिता तक सीमित होकर रह गया है। गणतंत्र दिवस की झांकियाँ देखो और छुट्टी मनाओ। दरअसल हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है, उसका मोल हम नहीं समझते। २६ जनवरी १९५० को हमें संविधान के रूप में एक अनमोल तोहफा मिला था। आजादी के लिए हमें भले ही लंबा आंदोलन चलाना पड़ा हो और कुर्बानियाँ देनी पड़ी हों लेकिन लॉर्ड रेडक्लिफ ने करीब एक महीने में ही भारत और पाकिस्तान दो देश बना दिए। वे एक पंच की हैसियत से ८ जुलाई १९४७ को भारत आए और ११ अगस्त तक उन्होंने कागज पर दो देश बना दिए। और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे नेताओं ने इसे बिना किसी बड़े विरोध के मंजूर कर लिया। रेडक्लिफ के पास टाइम कम था, इसलिए बंगाल और पंजाब के अलावा और किसी मुद्दे पर वे ध्यान नहीं दे सके। ऐसा ही हमारे अपने नेताओं के साथ भी था। यह सही है कि बँटवारे को मंजूर करने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने ५०० से ज्यादा रियासतों का भारत में विलय कराने केजिस तरह से आज किसी की सालगिरह का मतलब एक तरह का उत्सव मनाना हो गया है, उसी तरह १५ अगस्त और २६ जनवरी का मतलब भी एक तरह से औपचारिक उत्सवधर्मिता तक सीमित होकर रह गया है। गणतंत्र दिवस की झांकियाँ देखो और छुट्टी मनाओ। दरअसल हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है, उसका मोल हम नहीं समझते। २६ जनवरी १९५० को हमें संविधान के रूप में एक अनमोल तोहफा मिला था। आजादी के लिए हमें भले ही लंबा आंदोलन चलाना पड़ा हो और कुर्बानियाँ देनी पड़ी हों लेकिन लॉर्ड रेडक्लिफ ने करीब एक महीने में ही भारत और पाकिस्तान दो देश बना दिए। वे एक पंच की हैसियत से ८ जुलाई १९४७ को भारत आए और ११ अगस्त तक उन्होंने कागज पर दो देश बना दिए। और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे नेताओं ने इसे बिना किसी बड़े विरोध के मंजूर कर लिया। रेडक्लिफ के पास टाइम कम था, इसलिए बंगाल और पंजाब के अलावा और किसी मुद्दे पर वे ध्यान नहीं दे सके। ऐसा ही हमारे अपने नेताओं के साथ भी था। यह सही है कि बँटवारे को मंजूर करने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने ५०० से ज्यादा रियासतों का भारत में विलय कराने के लिए अपार सूझबूझ, दूरदर्शिता और साहस का परिचय दिया। पर मोटे तौर पर देखा जाए तो कागज पर जो नक्शा रेडक्लिफ ने भारत का बनाया, हमारे नेताओं ने उस पर ही आधुनिक राष्ट्र-राज्य की नींव रखी। लेकिन भूगोल को एक तरफ रख दें, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे नेताओं के दिमाग में यह बात बिल्कुल साफ थी कि आजादी के बाद का भारत कैसा होना चाहिए। जब गोलमेज सम्मेलन विफल हो गया और १९३५ में भारत की महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित किया, तभी कांग्रेस ने स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि भारत का संविधान बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के भारतीय लोग ही बनाएँगे। नेहरूजी ने तब कहा था कि "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश चाहती है। उसका प्रस्ताव है कि भारत का संविधान वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित एक संविधान सभा बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के बनाए।" संविधान बनाने के लिए डॉ। भीमराव आम्बेडकर और अन्य नेताओं ने दुनिया के तमाम संविधानों को खंगाल डाला। बेशक हमारा संविधान दूसरों से लिया हुआ है लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि हर संविधान के बेहतरीन हिस्सों को अपनी स्थितियों के अनुसार संशोधन कर इसमें शामिल किया गया है। हमारा संविधान भी संसार का शायद सबसे लंबा संविधान है। इस तरह हमारे नेताओं ने भारत के राजनीतिक जीवन को चलाने के लिए संविधान के रूप में पहली बार एक मुकम्मिल किताब का आविष्कार किया। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें लिखी बातें किसी धर्म-पुस्तक में लिखी गई बातों की तरह अंतिम सत्य नहीं हैं। उनमें परिस्थितियों और जरूरत के हिसाब से संशोधन किया जा सकता है और आप जानते ही हैं कि संविधान में कितने संशोधन किए गए हैं। (नई दुनिया से साभार)

इतना ऊँचा उठो कि जितना ऊँचा गगन है


श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील

राष्ट्रपति, भारत


लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में भारत को छः दशक से ज्यादा हो चुके हैं और न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सिद्धांत हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं। इन साठ वर्षों के दौरान हमने अनेक क्षेत्रों में सफतलाएँ प्राप्त की हैं। लेकिन हमारे सामने कुछ ऐसे मुद्दे भी हैं जिन पर ध्यान देना जरूरी है। हमें अपनी उपलब्धियों पर गर्व है लेकिन हम अपनी कमियों को दूर करने के लिए कटिबद्ध भी हैं। हमने आतंकवाद, विश्वव्यापी मंदी, खाद्यान्ना पदार्थों की विश्व बाजार में बढ़ती कीमतों से उत्पन्ना चुनौती का सफलतापूर्वक सामना किया है।एकता हमारी सबसे बड़ी शक्ति है। यह एक ऐसी विशिष्टता है जो देश के एक अरब से ज्यादा लोगों को एक अरब से अधिक मजबूत संकल्प में बदल देती है। हमें अपने राष्ट्र की अभिलाषाओं और उद्देश्यों को पूरा करने के लिए इस एकता को बनाए रखना है। हमारा एक प्राथमिक कार्य राष्ट्र को आतंकियों और कट्टरपंथियों से बचाना है। इसके लिए सभी एजेंसियों को एक सुदृढ़, समन्वित और संगठित नजरिया अपनाना जरूरी है। हमारे सुरक्षा कर्मियों को यह विश्वास होना चाहिए कि हमारी सीमाओं की सुरक्षा और देश के भीतरी सुरक्षा कार्य में देश का हर नागरिक उनके साथ है।हमारा संविधान हमारे लोकतंत्र और लोगों के अधिकारों का शासन पत्र है। संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता और सम्मान सुनिश्चित किया गया है। मताधिकार द्वारा लोगों को अपने राजनीतिक विकल्प चुनने का अधिकार है। विकास प्रक्रिया निरंतर एक भागीदारी गतिविधि बनती जा रही है। सूचना अधिकार अधिनियम से नागरिक शासन से जवाबदेही माँग सकते हैं। इन सभी के कारण नागरिक, राष्ट्र के विकास से लाभान्वित होने का केंद्रबिंदु है और यह विकास में एक विशिष्ट भूमिका निभाता है। सफलता हासिल करने के लिए सभी को अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा। गाँधीजी कहा करते थे कि हम सभी को इसी भावना से कार्य करना चाहिए। हमें क्षेत्रीयता, संकीर्णता, सांप्रदायिकता और जातिवाद के विचारों पर नहीं चलना है। ऐसे विचार उन सिद्धांतों के खिलाफ हैं जिन्हें हमने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ने के लिए चुना था। निस्संदेह सभी भारतीयों में अनेक समानताएँ हैं, लेकिन भारतीयता उनमें सबसे बड़ी पहचान है। हमारी यह पहचान अनेकता में एकता के हमारे मूल सिद्धांत पर आधारित है। बहुलवादी समाज में सांप्रदायिक और जातीय हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। फूट डालने वाली प्रवृत्तियों का मुकाबला करने के संकल्प के साथ ऐसे भारत के लिए कार्य करें जिसमें भारतीयता हमारी पहली पहचान हो। उसके बाद ही कोई दूसरी बात आती है।भारत पर विश्व परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा है, लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास के रास्ते पर कायम रहने की बुनियादी ताकत और सहनशक्ति है। हमारा घरेलू बाजार बहुत बड़ा है और समाज के सभी वर्गों की क्रयशक्ति बढ़ाकर हम आर्थिक विकास को प्रोत्साहित कर सकते हैं। जब आर्थिक विकास लोगों की बेहतरी के लिए हो तभी सामाजिक उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। हमारा प्रयास सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति को शिक्षा, स्वास्थ्य, और रहन-सहन की बेहतर सुविधाएँ प्रदान करने का है। हमने पिछले साठ वर्षों में बहुत प्रगति की है, लेकिन अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। एक विकसित देश बनने के लिए हमें सतत प्रयास करने होंगे।हम समावेशी दृष्टिकोण अपनाकर सभी क्षेत्रों और वर्गों के लोगों को शामिल करके विकास प्रक्रिया की असमानता को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। दूरदराज इलाकों में भी आर्थिक विकास के अवसर सुलभ कराने चाहिए। पूर्वोत्तर सहित देश के सभी इलाकों में बुनियादी सुविधाओं का विकास करना चाहिए। गरीब, वंचित लोगों को मुख्यधारा से जोड़ते हुए उन्हें विकास के दायरे में शामिल किए जाने की आवश्यकता है। संतुलित विकास का लाभ पहुँचाने के लिए ग्रामीण विकास एक सफल माध्यम बन सकता है। राष्ट्र को हमेशा अपने कृषि क्षेत्र और खाद्यान्ना की पर्याप्त उपलब्धता पर ध्यान देना चाहिए। बेहतर तकनीक और कृषिगत सुविधाओं के विकास से अपनी कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाकर हम देश को उन्नात बना सकते हैं। किसानों की आय बढ़ाकर हम आंतरिक आर्थिक माँग में भी वृद्धि कर सकते हैं। हमें अपने विविधतापूर्ण वन क्षेत्र के जीवों, वनस्पतियों और वन संपदा का सदुपयोग करके उसके विशेष प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए। इससे पर्यावरण संतुलन के साथ आर्थिक विकास को भी गति मिलेगी ।जनसंख्या की ़दष्टि से भारत एक युवा राष्ट्र है। युवा आने वाले कल की उम्मीद और राष्ट्र की अमूल्य संपत्ति हैं। विकास और समृद्धि की उनकी आशाएँ वास्तव में राष्ट्र की अभिलाषाएँ हैं। कौशल विकास और व्यावसायिक प्रशिक्षण के जरिए उनमें लाभकारी रोजगार संभावनाएँ पैदा की जा सकती हैं। युवा उपलब्ध अवसरों का पूरा लाभ उठाएँ। आत्म विकास करने के साथ उन्हें हिंसा का त्याग करने और मानव कल्याण के लिए कार्य करने का संकल्प लेना चाहिए। भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति होने के कारण मेरी भावनाएँ स्वाभाविक रूप से महिलाओं के साथ जुड़ी हैं। मैं उनकी क्षमता को पूरी तरह साकार करने में उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं और कठिनाइयों से परिचित हूँ। उनका सशक्तीकरण जरूरी है। यह कार्य उन्हें शिक्षा और आर्थिक सहयोग देकर किया जा सकता है। महिला-पुरुष समानता के लिए प्रत्येक मंत्रालय, विभाग और सभी राज्य सरकारों को आगे आना चाहिए। स्वंय सहायता समूह महिलाओं के आर्थिक विकास के लिए काफी प्रभावी सिद्ध हुए हैं। हमारा प्रयास होना चाहिए कि प्रत्येक योग्य महिला को स्व-सहायता समूह के अंतर्गत लाएँ जिससे वे आर्थिक दृष्टि से संपन्ना हो सकें। हमें समाज में महिलाओं के प्रति व्याप्त संकीर्णता को भी समाप्त करना होगा। इससे कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों को नष्ट करने की जरूरत है । ( नई दुनिया से साभार )

असली गणतंत्र - गाँव तक ख़ुशहाली - आलोक मेहता


आलोक मेहता


दिवस पर निकलने वाली परेड से असली शक्ति के दर्शन नहीं हो सकते। आजादी और गणतंत्र की ताकत तो दूरदराज के गाँवों में है। दिल्ली में रहने वाले खुशनसीब हैं, लेकिन दिल्ली शहर पूरा हिन्दुस्तान नहीं, उसकी राजधानी है। हिन्दुस्तान तो लाखों गाँवों का है और जब तक ये गाँव खुशहाल नहीं होते, आगे नहीं बढ़ते, केवल दिल्ली-मुंबई, कोलकाता, चेन्नाई को देखकर लोकतांत्रिक राज को सफल नहीं कहा जा सकता। सच यह भी है कि इन गाँवों की तरक्की केवल सरकार नहीं कर सकती। शहरी शिक्षित लोगों में पिछले वर्षों के दौरान आर्थिक आत्मनिर्भरता का विश्वास उत्पन्ना हुआ है। दूसरी तरफ जिन गाँवों में पहले महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू ने स्वावलंबन, चरखा, खादी, ग्रामोद्योग, बुनियादी शिक्षा, प्राकृतिक चिकित्सा तथा श्रमदान के पाठ पढ़ाए, वहाँ अब सरकार पर निर्भरता तथा कुछ क्षेत्रों में भयावह निराशा की भावनाएँ बढ़ी हैं। किसानों का निराश होना भयानक खतरे की घंटी है। राजीव गाँधी ने सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए पंचायतों को महत्व तथा व्यापक अधिकार देने की पहल की और इससे कई राज्यों में पंचायतें सही अर्थों में लोकतांत्रिक खुशहाली की प्रहरी बन गईं। लेकिन राजनीतिक घुसपैठ तथा निहित स्वार्थों की छाया जहाँ पंचायतों पर है- वहाँ प्रगति रुक रही है। लोकतंत्र में जनता की चुनी पंचायत, जनता की चुनी सरकार होने का अधिकार तथा गौरव अच्छा है, लेकिन जनता की निरंतर सक्रियता और विकास में भागीदारी उतनी ही आवश्यक है।गणतंत्र दिवस पर सरपंच, पालिका अध्यक्ष, कलेक्टर, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के झंडा फहरा देने और उपलब्धियों के भाषणों को रस्म अदायगी कहा जा सकता है। लेकिन यह दिन भारत के हर नागरिक को अपने संवैधानिक अधिकारों के साथ कर्तव्यों को याद दिलाने का पुनीत अवसर है। अपने हित, अपने सुख, अपनी शांति के लिए प्रार्थना के साथ अपने गाँव, कस्बे, शहर, समाज और देश के लिए थोड़े से ध्यान, थोड़े से परिश्रम, थोड़े से त्याग की भावना जगाने का यह उपयुक्त मौका है। गाँधी, नेहरू, विनोबा तथा उनके वरिष्ठ सहयोगियों ने गाँवों में श्रमदान, समाज में अंधविश्वास, कुरीतियों और संकीर्णताओं से लड़ने के अभियान चलाए, जिससे आजादी और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुईं। लोकतंत्र के वटवृक्ष की जड़ें कितनी ही गहरी हों, शाखाएँ मजबूत हों और पत्तों के साथ रसभरे फल लटकते दिख रहे हों, लेकिन उसे निरंतर अच्छे खाद, सफाई और रखवाली की जरूरत होती है।लोकतांत्रिक राज के ६० वर्षों में कितने ही तूफान आए और गए। पड़ोसी देशों में तो खूनी संघर्ष के साथ सत्ता-परिवर्तन और सैनिक तानाशाही की नौबत आई, लेकिन भारत में वैचारिक मतभेदों, गड़बड़ियों, भ्रष्टाचार और टकराव के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आस्था बढ़ी है। मतभिन्नाता तो लोकतंत्र में अपरिहार्य है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक के बीच गहरी मतभिन्नाता रही। डॉ। राजेंद्र प्रसाद और पं। जवाहरलाल नेहरू के सत्ताकाल में भी यह सामने आई और बाद में भी देखने को मिलती रही। संसद में ऐतिहासिक संविधान संशोधनों के अलावा जन हितकारी सैकड़ों फैसले हुए हैं, वहीं आतंकवादी हमलों से अधिक बदतर हमले कतिपय सदस्यों, नेताओं के आचरण के कारण हुए हैं। सरकार में ईमानदार व्यक्तियों के वर्चस्व से जहाँ देश इतना विकसित हुआ, वहीं भ्रष्ट मंत्रियों और प्रशासनिक अनाचार के कारण लोकतंत्र का पूरा लाभ गरीबों तक नहीं पहुँच पाया। न्यायपालिका ने भी सत्ता-व्यवस्था को सही रास्ते पर लाने के लिए कई ऐतिहासिक फैसले दिए और आज भी लोग न्याय पाने का विश्वास रखते हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यही आस्था है। फिर भी विशाल देश में न्याय के मंदिरों के परिसर में भी उपासना स्थलों के आँगन की तरह गंदा कीचड़ दिखने लगा है। जनता और सरकार को आईना दिखाने वाले मीडिया-जनसंचार माध्यमों की क्रांति सी हुई है, लेकिन उसके चेहरे पर भी दाग दिखने लगे हैं। इस दृष्टि से हर कोने को झाड़ने-पोंछने-चमकाने, अधिकारों की जागरूकता के साथ कर्तव्यपालन के संकल्प तथा सही अर्थों में आर्थिक आत्मनिर्भरता के निश्चय का गणतंत्र दिवस पावन पर्व है। आइये, हम और आप इसी गणतंत्र को सार्थक बनाने का संकल्प लें। संकल्प की सार्थकता के लिए शुभकामनाएँ । (नई दुनिया से साभार)

नक्सली बंद से परेशान बस्तरवासी

जगदलपुर ! वामपंथी उग्रवादी संगठन भाकपा माओवादी द्वारा जारी किये गए तीन दिवसीय बंद के फरमान के कारण एक बार फिर बस्तर के संवेदनशील क्षेत्रों की आवागमन व्यवस्था लड़खड़ा गई है। माओवादियों के संभावित हिंसा के भय से पैसेंजर रेलगाड़ी भी जगदलपुर से विशाखापटनम के बीच चलाई जा रही है।

माओवादी बंद का सर्वाधिक असर नारायणपुर एवं बीजापुर जिले के दूरस्थ अंचलों में देखा जा रहा है। नारायणपुर जिले के ओरछा, कोण्डागांव तथा धनोरा मार्ग पर वाहन नहीं चल रहे है। बीजापुर जिले के गंगालूर मार्ग को क्षतिग्रस्त किये जाने की खबर है। इसी प्रकार बासागुड़ा, भोपालपटनम तथा कुटरू मार्ग पर भी गाड़ियां नहीं चल रही है। दंतेवाड़ा जिले के गादीरास-सुकमा मार्ग पर भी यात्री गाड़ियों के नहीं चलने की खबर है। बंद के कारण कांकेर जिले की अंतागढ़-नारायणपुर, कोयलीबेड़ा तथा आमाबेड़ा मार्गों पर विरानी छाई हुई है। इन मार्गों पर जगह-जगह सड़क पर पत्थर रखकर अवरोध खड़े कर दिये गए है। माओवादियों के द्वारा दिये गए इस तीन दिवसीय फरमान का सर्वाधिक प्रतिकूल असर पंचायत चुनाव की व्यवस्था पर पड़ा है। पहली बार दुधावा नगरी मार्ग पर भी गाड़ियां नहीं चल रही है। इसी प्रकार बस्तर के मर्दापाल एवं धनोरा क्षेत्र में भी आवागमन ठप्प बताया गया है किन्तु कहीं से भी किसी हिंसक वारदात की खबर नहीं है।

वृहत्तर क्षेत्र में आतंक कायम करता नक्सलवाद

यह अच्छा हुआ कि झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने बात बिगड़ने के पहले स्थिति संभाल ली और नक्सलियों के खिलाफ अभियान में केंद्र सरकार का साथ देने का फैसला किया। 26 जनवरी की तैयारियों के चलते पूरे देश में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी की जा रही है। आतंकवादी किसी वारदात को अंजाम देने की फिराक में हैं, इस आशय की खबरों के साथ ऐसे समाचार भी लगातार मिल रहे हैं कि देश के सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाने के प्रयास हो रहे हैं बाहरी हमले को नाकाम करने की तैयारी के साथ सुरक्षा बलों के समक्ष देश के भीतर मौजूद दहशतगर्दो से निबटना बड़ी चुनौती है। नक्सलवादी इनमें से एक हैं।

गृहमंत्री पी।चिदम्बरम पारंपरिक तरीकों से हटकर नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बना रहे हैं। लेकिन यदि सबका सहयोग न मिले तो कोई भी रणनीति सफल नहींहो सकती। दो दिन पहले तक शिबू सोरेन का रुख सहयोग न करने का ही दिख रहा था। पिछले हफ्ते प.बंगाल का दौरा करने के बाद गृहमंत्री ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में नक्सल विरोधी अभियान में केंद्र व राज्यों की संयुक्त कार्रवाई करने के लिए बैठक ली। इसमें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, उड़ीसा के मुख्यमंत्री व महाराष्ट्र के गृहमंत्री समेत आला अफसर शामिल हुए, किंतु झारखंड इसमें शामिल नहींहुआ। शिबू सोरेन का कहना था कि यह केवल तीन राज्यों की बैठक थी। झारखंड भी नक्सलवाद से उतना ही प्रभावित है जितना किछत्तीसगढ़, इसके बावजूद इस बैठक में शामिल न होने या करने के पीछे एक कारण यह हो सकता है कि शिबू सोरेन नक्सलियों के प्रति अलग तरह की रणनीति अपना रहे हैं। केंद्र सरकार अपनी वर्तमान रणनीति के तहत नक्सलियों को नेतृत्वविहीन करने के लिए कार्य कर रही है। प.बंगाल में पिछले तीन दिनों से शीर्ष नेता किशनजी को पकड़ने के लिए कार्रवाई हो रही है। सुरक्षा बल किशनजी के काफी करीब पहुंच गए थे, लेकिन वे भागने में सफल रहे। उन्हें पकड़ने के प्रयास जारी हैं। केंद्र अन्य राज्यों में भी यही करना चाहती है। लेकिन इसमें राज्यों से समन्वय जरूरी है क्योंकि कानून व व्यवस्था राज्य सूची का विषय है। मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का यह बयान कि चिन्हित किए जाने के बाद ही माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, केंद्र से असहयोग के संकेत दे गया।

ऑपरेशन ग्रीन हंट में भी झारखंड सरकार से अपेक्षित सहयोग नहींमिला। लेकिन अब शिबू सोरेन न केवल ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिए तैयार होने की बात कह रहे हैं, बल्कि नक्सल विरोधी अभियान पर चर्चा करने आगामी 28 को नई दिल्ली भी आ रहे हैं। पर वे इसके साथ नक्सलियों से वार्ता करने की बात भी कह रहे हैं। कुछ वर्षों पहले आंध्रप्रदेश में भी सरकार ने ऐसी ही पेशकश की थी। लेकिन इसमें सफलता नहींमिली। यह एक आदर्श स्थिति है कि वार्ता के जरिए विवाद का समाधान निकाला जाए। लेकिन इसके लिए दोनों पक्षों को एक जैसी ईमानदारी बरतनी होगी। खेद है कि यह स्थिति अब तक निर्मित नहींहो पाई। इसमें ज्यादा दोष नक्सलवादियों का नजर आता है। छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र में लगातार एक के बाद एक अविचारित हिंसा को अंजाम देकर उन्होंने यही संकेत व संदेश दिया है कि वे हथियार डालने पर विचार नहींकर रहे हैं। उनकी लड़ाई सरकार व प्रशासन से है, लेकिन हिंसा का शिकार आम आदमी हुआ है और वह निरीह वंचित तबका भी, जिसके हक की लड़ाई लड़ने का ये दावा करते हैं। तब किस विश्वास पर उनसे सकारात्मक वार्ता की उम्मीद की जाए। और जब नक्सल समस्या किसी एक राज्य तक सीमित न रहकर वृहत्तर क्षेत्र में आतंक कायम कर रही है, तब हर राज्य द्वारा अलग रणनीति बनाने की जगह केंद्र के साथ सभी प्रभावित राज्यों द्वारा मिलकर कार्रवाई करने से इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। उम्मीद है शिबू सोरेन इस पर विचार करेंगे।

Sunday, January 24, 2010

प्रियदर्शन का अप्रिय दर्शन


दिल्ली के प्रियदर्शन भड़का रहे हैं खूनी वारदात के लिए

इंटरनेट पर खंगालते खंगालते हमें एक लेखक मिले । नाम है उनका प्रियदर्शन । उन्होंने जो कुछ लिखा है उसे पढ़कर तो लगता है उनका नाम अप्रियदर्शन रखना अधिक सार्थक होता । लगता है वे दिल्ली से बैठे बैठे सब कुछ देख लेते हैं, परन्तु उनके इस देखने का जो नज़रिया है वह एकतरफा है । पूर्वाग्रहपूर्ण है । भड़काऊ है । हिंसाबोधक है । वे चाहते हैं कि नक्सली वह सब कुछ करते रहें जो वे पिछले 40 साल से कर रहे हैं और देश के सारे युवा उनके साथ बंदूक पकड़कर समूची व्यवस्था के साथ बगावत कर दें । अपने ही लोगों को मार गिरायें । फिर जो कुछ बचेगा उनके साथ मिलकर वे माओवादी शासन पद्धति अपनालें । जय हो प्रियदर्शी बाबा की !


उनके इस लेख को पढ़ने से पता चलता है कि माओवादी चाहते क्या हैं आख़िर – “माओवाद एक पूरी विचारधारा है। यह विचारधारा संसदीय लोकतंत्र पर ही भरोसा नहीं करती। संसदीय लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप को उखाड़ फेंकना उसके चरम लक्ष्यों में एक है। क्योंकि सत्ता की यह धूरी नष्ट किए बिना वह पूंजीवादी व्यवस्था ख़त्म नहीं की जा सकती जिसमें शोषण और दमन अंतर्निहित है। यह विचारधारा मानती है कि उसका स्थानीय प्रतिरोध धीरे−धीरे एक बड़ी शक्ल अख्तियार करेगा एक ऐसे जनांदोलन में बदल जाएगा जिसके विरुद्ध सेना भी नहीं जाएगी और आखिरकार वह एकदलीय साम्यवादी व्यवस्था की नींव रखेगा । लेकिन माओवादी बातचीत की मेज पर क्यों आएं ।”


वे भी लिखते हैं कि वह शोषण है जो सरकारी कायदों के मुताबिक और कानून और तरक्की की आड़ में किया जाता है। शोषण की दूसरी परत और भयावह है। इसका वास्ता इन इलाकों के संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से है। इस काम में अलग−अलग महकमों के आला अफसर से लेकर नेताओं के गुर्गे तक लगे होते हैं। वे जंगल की बेशकीमती लकड़ियां उठा लाते हैं, वे खनिज पदार्थों पर बंदूक का पहरा बिठाए रखते हैं और खुलेआम रंगदारी वसूलते हैं। वे श्रम कानूनों का मजाक बनाते हैं और अगर किसी गरीब ने उन्हें इनकी याद दिलाने की कोशिश की तो उसे मार भी डालते हैं। झारखंड के कोयलांचल में जो माफिया गिरोहबंदी है उसकी कहानी किसी से छुपी नहीं है। छत्तीसगढ़ के मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी को कई साल पहले जिस तरह मारा गया था उसके पीछे भी ऐसे ही लोग थे।


यहाँ वे यह नहीं लिखना चाहते कि ऐसा ही शोषण तो वे माओवादी बस्तर में पिछले 40 साल से कर रहे हैं जो स्वंय शोषण का विरोध कर रहे हैं । वे भी बस्तर की वादी और वहाँ बसे हज़ारों लोगों की पढ़ाई-लिखाई पिछले 4 दशक में रोककर उन्हें बंदूक पकड़ा चुके हैं । जिन्हें पढ़लिखकर नौकरी पेशा में होना चाहिए वे अब खूंखार आंतककारी बन चुके हैं । पूरी की पूरी पीढ़ी को वे गुरिल्ला सैनिक में तब्दील कर चुके हैं । माओवादी नक्सली जंगल के ठेकेदारों से रंगदारी लाखों-करोड़ों में वसूलते हैं । छोटे-मोटे खनिज के खदान में लगे मालिक, ठेकेदारों, मुंशी और मजदूरों से भय दिखाकर अवैध वसूली करते हैं । जंगल के सिपाहियों यानी जंगल विभाग के लोगों की तनख्वाह से हर माह कुछ राशि हड़प लेते हैं । बस्तर में चलनेवाले बसों के मालिक से प्रतिमाह नियमित चंदा लेते हैं । ग़रीब आदिवासियों के घर से राशन, चावल, दाल मुर्गी की वसूली करते हैं । उनके बच्चे क्या कुपोषण के शिकार नहीं बनाये जा रहे हैं इस तरह । विरोध करने पर गाँववासी सरेआम जनसुनवाई में मार दिये जाते हैं । जनविकास की बात तो दूर अब तक अरबों रूपयों की सार्वजनिक संपत्ति का विनाश कर चुके हैं । रेल पटरी उखाड़ना, स्कूल, पंचायत भवन, अस्पताल भवन को विस्फोट से बर्बाद करना, ट्रांसफार्मर उड़ाना, सड़क खोदना, थाना लूटना, नागरिकों को बंधक बनाना, बलात्कार करना आदि कौन –सा विकास कार्य है जो नित्यप्रति नक्सली बस्तर, दंतेवाड़ा, राजनांदगाँव, सरगुजा आदि जगहों में किये जा रहे हैं ? प्रियदर्शन को यह सब क्यों नहीं दिखाई देता, साफ़ समझ में आता है कि वे ऐसे कार्यों को ही विकास कहते हैं और पिछले सालों में व्यवस्था द्वारा हुए बुनियादी विकास को विनाश साबित करते हैं ।

वे यह भी कहते हैं कि- दस राज्यों में उनका गलियारा अब जाना−पहचाना है और इसके विरुद्ध कार्रवाई में हिस्सा लेने से एक तरह से वायुसेना इनकार कर चुकी है। बहुत झूठ कहते हैं लेखक महोदय । वायुसेना अपनी सेवा देने को पहले भी तैयार थी और अब भी है ।

प्रियदर्शन उवाच देखिए - चिदंबरम जिस राजनीतिक तंत्र को साथ लेकर माओवादियों का सामना करना चाहते हैं वह अपने चरित्र में इतना लुंजपुंज, निकम्मा, भ्रष्ट, अपराधी और हिंसक है कि किसी भी कार्रवाई की वैधता खो देता है। राज्य की हिंसा अपनी तमाम शक्लों में कहीं ज्यादा ख़ौफ़नाक हो उठती है। उसके पास दमन के सारे औजार हैं− बारीक से बारीक बड़े से बड़े। उसके पास शोषण के सारे उपाय हैं− विकास से लेकर बंदूक तक। वह अपने लिए हवाई अड्डे बनाता है तो आदिवासियों को बेदखल करता है वह अपने लिए बिजलीघर बिठाता है तो आदिवासी घरों में अंधेरा होता है वह अपने लिए बड़ी बांध परियोजनाएं लागू करता है तो आदिवासियों को विस्थापित करता है।


अर्थात् प्रियदर्शन के अनुसार माओवादी हिंसा करें किन्तु सरकार या व्यवस्था से जुड़े लोग उनकी हिंसा को रोकने की कार्रवाई में वैध नहीं है । अतः उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए । वे बड़े भोले लेखक हैं या चतुराई कर रहे हैं । वे जानबूझकर इस तथ्य को छुपा रहे हैं कि माओवादी न्यायव्यवस्था में तो जनसुनवाई में केवल मौत की सजा दी जाती है और राजनीतिक तंत्र (शायद उन्हें प्रजातंत्र शब्द का नाम लेने से भी परहेज है) में तो पुलिस है, न्यायालय है, संविधान है जहाँ इनकी सुनवाई होती है, देर ही सही न्याय तो मिलता है, कहने, शिकायत करने, आंदोलन करने की छूट तो है । माओवादी तो अपने विरोध में उठ खड़े हुए आंदोलन – सलवा जुडूम को भी सरकारी बताकर चाल चलते हैं । जैसे आदिवासी उनका विरोध करना ही नहीं जानता । धन्य है ऐसे लेखक जो आदिवासी को बस्तर के जंगल में ही सड़े रहने के लिए विवश देखना चाहते हैं । वहाँ बिजली, रोड़, उद्योग धंधे का ही विरोध करते हैं । यह दीगर बात है कि ऐसे लेखक बिना बिजली के एक मिनट भी अपने घरों में नहीं रह सकते । ऐसे लेखक कच्चे सड़क पर चलते ही सरकार को कोसने लगते हैं । अपने गाँव घर की खेती बाड़ी के लिए बांध, नहर की वकालत करते फिरते हैं । दरअसल यह ऐसे लेखकों का दोहरा व्यक्तित्व ही है जो केवल अपने मतलब के लिए ही ऐसे लेखों से जनता को भ्रमित करते रहते हैं ।

लेखक संसदीय व्यवस्था को भी पसंद नहीं करते । वे कहते हैं कि संसदीय राजनीति को दरअसल इन लोगों ने एक जनविरोधी उपक्रम में बदल डाला है और कानून और संविधान को अपने बचाव की छतरी में। यही वजह है कि नक्सलवाद जैसी हिंसक अवधारणा भी गरीबों और आदिवासियों में लोकप्रिय हो रही है। हे लेखक, नक्सलवाद जैसी हिंसक अवधारणा गऱीबों और आदिवासियों में लोकप्रिय होती तो क्यों बस्तर, दंतेवाड़ा, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र और आन्ध्र आदि के आदिवासी उसके विरोध में सड़क पर उतरे । उनका पूतला फूँकते । सलवा जुडूम जैसा आंदोलन होता । आदिवासी एसपीओ बनकर नक्सलियों के खात्मा का शपथ लेते । और हे लेखक, क्या पिछले 40 -50 सालों में आपके माओवाद ने कौन सा विकास कार्य किया जिसके दंभ पर आदिवासी उनके साथ जुड़ना चाहेंगे ? हिंसा और सिर्फ विध्वंस ना ।
प्रियदर्शन के लेख का एकमात्र उद्देश्य, लगता है, प्रजातंत्र के बरक्स माओवादी व्यवस्था के लिए लोगों को तैयार करना है । इसीलिए वह केवल नकारात्मक उदाहरणों के कंधों पर सवार होकर पेशाब करना चाहते हैं, एक शिशु की तरह । वे भूल जाते हैं कि रामायण और महाभारत के बाद भारतीय तासीर में हिंसा आधारित विकास पद्धति को कोई स्वीकृति नहीं दिखाई देती । प्रजातंत्र की बुराईयों को प्रजातांत्रिक तरीके से ही दूर किया जाना चाहिए । हिंसात्मक नहीं अहिंसात्मक तरीकों से ही उससे निजात पाया जा सकता है । नक्सली हिंसा और उत्पात मचा कर किसे मार रहे हैं ? एक भी कार्पोरेट मालिक नहीं मारा जा रहा । एक भी नेता नहीं मारा जा रहा । एक भी बड़ा आफिसर नहीं मारा जा रहा । एक भी धनी या पूँजीवादी नहीं मारा जा रहा । वे केवल आदिवासी, गरीब, दलित, पिछड़े आदमी को मार कर क्रांति लाना चाहते हैं । यह आख़िर कैसी क्रांति है, क्या भारतीय लोग इसे नहीं समझ रहे हैं, आप भूल कर रहे हैं लेखक महोदय ।

मुझे समझ नहीं आता कि आख़िर वे नक्सलियों के इतने हमदर्द क्यों हैं जो कहते फिर रहे हैं कि गृह मंत्री को पहले अपना घर देखना होगा और फिर नक्सली इलाकों में पत्थर उछालने होंगे। वे नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई तो करने निकले हैं लेकिन ये कार्रवाई आसान नहीं होगी। क्यों नहीं होगी भाई आसान । पंजाब में क्या आंतकवाद नहीं रोका गया । वहां तो सेना ने रोका । नक्सलवाद के खिलाफ तो पुलिस और अर्धसैनिक बल ही लगे हैं । फिर आपको कैसे पता चल गया कि नक्सली और आम आदमी में फर्क नहीं है । लंका की बात करके आप राजनीति कर रहे हैं । यह नरसंहार नहीं, नक्सलियों को पकड़ने, खदेडने, अस्त्र डलवाने, आदिवासियों के मन में व्याप्त भय और आंतक को खत्म करने का अभियान है । तो वह तो उसी दिशा में चलेगा ना । नरसंहार जब माओवादी कर रहे थे बस्तर में तब ऐसे लेखक पता नहीं कहाँ छूपे होते हैं ?