Wednesday, February 24, 2010

संघर्ष विराम का प्रस्ताव

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए यह बड़ी राहत है कि माओवादियों की ओर से संघर्ष विराम का प्रस्ताव आया है। बीते दिनों प. बंगाल व झारखंड में नक्सलियों ने भयंकर उत्पात मचाया। यूं भी आए दिन कहींन कहींनक्सलियों की विनाश लीला चलती ही रहती है। शहरी क्षेत्रों के निवासियों के लिए नक्सल समस्या सिर्फ उतनी ही है जितने की जानकारी उन्हें अखबार, टीवी या रेडियो के माध्यम से मिलती है। बेकसूर ग्रामीणों की मौत या डयूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मियों की शहादत थोड़े देर का क्षोभ, दुख उत्पन्न करती हैं। किंतु जिन इलाकों पर नक्सलियों ने अपने गढ़ बना रखे हैं, वहां के निवासियों के लिए नक्सल समस्या इस तरह की है कि आज मौत नहींआई तो जीवनदान मिल गया। वे जान हथेली पर रखकर चलते हैं, उन्हें पता नहींरहता किकब वे नक्सलियों की हिंसा का शिकार बन जाएंगे या पुलिस द्वारा उनकी मदद के लिए प्रताड़ित किए जाएंगे। केवल आदिवासियों या ग्रामीणों के लिए स्थिति दूभर है, ऐसा नहींहै। उन इलाकों में तैनात सुरक्षा बलों की जान भी हरदम सांसत में रहती है। गत दिनों शिल्दा कैंप पर हुए हमले के बाद एकशहीद जवान का मार्मिक पत्र एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित हुआ। इसमें वर्णन है कि किस तरह वे रोजाना मौत का सामना करते हैं। इसलिए जब माओवादी 72 दिन के लिए ही सही पर संघर्ष विराम की बात करते हैं तो उम्मीद की किरण दिखती है कि कुछ वक्त के लिए ही सही पर बेकसूर जानें नहींजाएंगी। हालांकि संघर्ष विराम की घोषणा के कुछ घंटों बाद ही नक्सलियों ने लालगढ़ के पास नरछा गांव में सीआरपीएफ की चौकी पर हमला बोला, इसमें तीन माओवादी मारे गए हैं।
माओवादी यदि सचमुच समस्या का हल चाहते हैं तो उन्हें अपने शब्दों पर कायम रहना आना चाहिए। एक ओर हिंसा रोकने और दूसरी ओर हमला करने से उन पर विश्वास किस तरह बन सकेगा। यह ध्यान रहे कि मौजूदा संघर्ष विराम का प्रस्ताव माओवादी नेता किशनजी की ओर से आया जो अब तक वार्ता के पक्षधर नहींमाने जाते थे। जबकि नक्सलियों का एक गुट सरकार से बातचीत के लिए तैयार था। दो दिन पहले लंबी बैठक के बाद किशनजी ने ही फोन पर संघर्ष विराम की पेशकश की। इसके साथ शर्त यह जोड़ी कि राज्य व केंद्र सरकारें भी अभियान रोकें और आदिवासी इलाकों में विकास कार्य शुरू हो जाएं। यह शर्त नक्सल समस्या की जड़ों की ओर ध्यान दिलाती है। यह तथ्य बारम्बार सामने आया है कि नक्सल समस्या आपराधिक प्रवृत्ति की नहींबल्कि सामाजिक-आर्थिक असमानता की देन है। इसका स्थाई हल तभी निकलेगा जब उसकी जड़ को खत्म किया जाए। इस संघर्ष विराम के प्रस्ताव में कुछ बुध्दिजीवियों व मानवधिकार कार्यकर्ताओं की मध्यस्थता में बातचीत की पेशकश भी है।
गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने इस माह की शुरुआत में कहा था कि यदि नक्सली हथियार डालें तो वार्ता की जा सकती है। इसी दौरान माओवादियों के खिलाफ ग्रीन हंट अभियान भी छेड़ा गया, जिसके जवाब में शिल्दा कैंप पर हमला हुआ। हमले के जवाब में कार्रवाई और कार्रवाई के जवाब में हमले से समस्या का समाधान शायद ही निकले। इसलिए बातचीत का रास्ता सही लगता है। फिलहाल इस प्रस्ताव पर केंद्र सरकार का कहना है कि लिखित प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा, वह भी बिना शर्त के। बुध्दिजीवी व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की मध्यस्थता से अगर सचमुच कोई सकारात्मक परिणाम आने की उम्मीद है, तो सरकार को इस प्रस्ताव पर विचार करना चाहिए। नक्सली यदि सचमुच आदिवासी क्षेत्रों का विकास चाहते हैं और समानता के लिए संघर्षरत हैं तो उन्हें अविचारित हिंसा बंद कर इन क्षेत्रों में विकास कार्यों के लिए माहौल बनाने में सहायक होना चाहिए, तभी बेहतर परिणाम सामने आएंगे।

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