Thursday, February 25, 2010

संघर्ष विराम का दोहरा सच !


नीरज सारस्वत
माओवादियों ने नक्सली संघर्ष के कसते घेरों को महसूस करते हुए, अब एक नई युक्ति के तहत ७२ दिनों के संघर्ष-विराम की पेशकश की है। इस सशर्त संघर्ष-विराम के तहत माओवादियों ने पुलिस, अर्ध सैन्य बलों की कार्रवाई को भी रोक दिए जाने की मंशा जाहिर की है। साथ ही, उनकी यह भी धारणा रही है कि इन सुरक्षा टुकड़ियों को संघर्षग्रस्त क्षेत्रों से अलग कर दिया जाए। केंद्र सरकार की ओर से इस पूरे मुद्दे की मीमांसा कर रहे, केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने सरकार के रुख का खुलासा करते हुए, इस तरह की शर्तों को स्पष्ट तौर पर नकार दिया है। इस पूरे मामले में केंद्र सरकार की यह स्पष्ट राय रही है कि पहले माओवादी हिंसा छोड़ने के लिए तैयार रहें, तभी कोई आगे की बात बन सकती है। संघर्ष-विराम को घुमावदार शैली में लपेट कर नक्सली मसले का मुकम्मल समाधान नहीं निकाला जा सकता। यह इसलिए भी कहा जा सकता है कि ७२ दिनों तक संघर्ष-विराम की घोषणा अगले ही दिन माओवादियों ने तोड़कर रख दी। पश्चिम बंगाल में सुरक्षाबलों के एक शिविर पर इन्होंने धावा बोला और फिर एक वारदात में आंध्रप्रदेश में बीएसएनएल के कंट्रोल रूम में आग लगा दी। क्या ऐसे दोहरे मानदंड से किसी तरह का सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है? ऐसे पेचीदे मसले को अपना हित साधने की दृष्टि से कतई सुलझाया नहीं जा सकता। क्योंकि, कहीं भी शांति वार्ता और हिंसा साथ-साथ नहीं चल सकती। इसके लिए खुली मानसिकता का होना भी जरूरी है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के राज्यों ने भी स्पष्ट तौर पर नक्सलियों के इस चालाकी-भरे संघर्ष-विराम को बेतुका करार दिया है। इसी क्रम में,उन्होंने यह मंशा भी जताई है कि बगैर हिंसा का त्याग किए ऐसे जटिल मसले का समाधान नहीं ढूँढ़ा जा सकता। छत्तीसगढ़ और उसके सरहद से जुड़े राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी इस तरह के संघर्ष-विराम की कड़ी भर्त्सना की है तथा साफ तौर पर बातचीत का मानस तैयार करने के लिए पहल किए जाने की तथ्य को तरजीह दी है। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने तो इस मुद्दे पर विचारविमर्श का सारा दारोमदार केंद्र सरकार के अधीन बताया है और तत्संबंध में ऐसे सशर्त संघर्ष-विराम को एक अनुचित पहल करार दिया है। इस परिप्रेक्ष्य में, वामदल समर्थक आरएसपी और फारवर्ड ब्लॉक ने माओवादियों के प्रस्ताव पर केंद्र की तल्ख प्रतिक्रिया के मद्देनजर दोनों पक्षों को हथियार डालकर, वार्ता की मेज पर आने की सलाह दी है। संघर्ष-विराम किसी माओवादी नेता के एसएमएस के जरिए संदेश भेज देने से ही पूरा नहीं होगा, बल्कि इसके लिए एक माकूल पृष्ठभूमि रचकर वार्ता के मसौदों को तैयार करना होगा, तब कहीं जाकर इस बात को दिशा दी जा सकेगी। यही संघर्ष-विराम के दारोमदार की कसौटी है। यह मसला दरअसल जटिलता की खान है पर इसके समाधान के लिए विश्वनीयता जरूरी है।

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