Monday, February 22, 2010

कब हमारी जनता इन नए अभिजातों को नकारेगी

विश्वजीत सेन
पूर्व अध्यक्ष, बिहार बांग्ला अकादमी
पटना


मनुष्य ख़ुद से अनजान उन चीजों का सृजन करता है, जिनकी मांग उसके वर्ग हित करते हैं । ऐसा सृजन वह क्रांति के नाम पर भी करता है । क्रांतिकारी आंदोलन के संसाधन उसके हाथ आए नहीं कि भूमिगत रहने के नाम पर, गुप्त कार्यों को अंजाम देने के नाम पर, वह अपने लिए एक ऐसी जीवन शैली गढ़ लेता है, जो अच्छे ख़ासे पूँजीपतियों को भी बमुश्किल ही नसीब होती है । मनुष्य ही वह जीव है, जिसमें ऐसा करने की क्षमता है ।

आप उनसे कहेंगे – “यह विभाजित व्यक्तित्व का चरमोत्कर्ष है” वह नहीं मानेंगे । उल्टे तर्क प्रस्तुत करेंगे कि “चोरी छिपे क्रांतिकारी कार्य करने का सबसे बेहत्तर तरीक़ा यही है । आपर अगर अभिजात वर्ग की जीवन शैली अपनाएँगे, तब किसी को आप पर शक़ नहीं होगा कि आप क्रांतिकारी कार्य भी करते होंगे । लेकिन उस जीवनशैली की आदत जो आपको लग जाएगी, उसका क्या होगा ? वह आपकी बात की तौहीन करेंगे और कहेंगे- “आपकी सोच पुरानी क़िस्म की है, चीज़ों की समझ आपको नहीं है । चीज़ों की समझ आपको नहीं है । क्रांति के बाद सबकी जीवन शैली मेरी जैसी ही हो जाएगी । तब फिर दिक्कत कहाँ ? ”

मार्क्स द्वारा ईजाद किए गए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत का दुरूपयोग इस प्रकार भी किया जाएगा, यह शायद मार्क्स ने भी कभी नहीं सोचा था । उन्होंने अपना जीवन घोर ग़रीबी में गुज़ारा, अपनी विचारधारा के कारण कई मुल्कों से निकाले गए, उन्होंने अपने बच्चों को आँखों के सामने मरते देखा । लेकिन एक बार भी उन्हें इस प्रलोभन ने विचलित नहीं किया कि वैचारिक घालमेल कर अपनी ज़िंदगी बेहत्तर बना लें । इस मामले में उनकी ईमानदारी प्रश्नों से परे थी ।

इसके विपरीत आज के क्रांतिकारियों को देखें, हाल में, पटना में एक माओवादी नेता पुलिस के हत्थे चढ़ गए । उनके पास से 18लाख रुपए बरामद हुए हैं । मीडिया का कहना है – उन्होंने इसी महीने 1।23 करोड़ की वसूली की थी । वसूली व्यापारियों, ठेकेदारों तथा कंपनीवालों से की गई थी । कहने की ज़रूरत नहीं कि संपन्न कारोबारी, भय के कारण की रक़म उनके हवाले किए थे । नेताजी ने इस राशि को विभिन्न लोगों के बीच आबंटित किया । यह क्रांति करने का सर्वाधुनिक तरीक़ा है, मार्क्स और माओ से अलग । माओ का अपना इतिहास असीम त्याग का है । आधुनिक चीन की कहानी माओ के बग़ैर पूरी नहीं होती ।

लेकिन मुश्किल है कि नाम माओ का ही लिया जाता है । दावा किया जाता है कि वे माओ के मार्ग पर चल रहे हैं । इस विरोधाभास का कोई ओर-छोर पता नहीं चलता । उनके ख़ुद के कार्यकर्ता तंगहालती की ज़िंदगी जीते हैं । गर्मी से झुलसते हुए, जाड़े में ठिठुरते हुए, उन्हें दुःसाहसिक कार्यों को अंजाम देना पड़ता है, बहुत थोड़े से रक़म से वे गुज़र बसर करते हैं, जबकि नेताजी उच्च मध्यमवर्गीय रिहाइशी इलाके में बैठकर हुक्मनाम जारी करते हैं, ऐसा वर्ग-विभेद कम्युनिस्टों को शोभा देता है क्या ?
संसदीय वामपंथियों से इनकी नफ़रत की तो पुछिए ही नहीं । संसदीय या मुख्यधारा के वामपंथियों क्रांति का सौदा कर चुके हैं – ऐसा इनका मानना है । ऐसा मानने पर उन्हें ग़लत भी नहीं ठहराया जा सकता है । क्रांति के भी क़िस्म या प्रकार होते हैं, इनके क़िस्म की क्रांति संसदीय वामपंथियों को रास नहीं आती । दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं, इसके अलावा संसदीय वामपंथियों में भी कुछ लोगों की रहन-सहन कोई बहुत सराहनीय नहीं है । संसदीय वामपंथी दलों के कार्यकर्ता भी ग़रीबी की जिंदगी जीने को मज़बूर हैं । लेकिन वहाँ जो भी है, बिलकुल आरपार दिखता है । इसीलिए उनकी खुली आलोचना की जा सकती है । लेकिन माओवादियों के साथ बात ऐसी नहीं है । वहाँ नेतृत्व की आलोचना करने पर, कम से कम उत्पीड़न के साथ मौत के घाट उतार दिया जाना सबसे रहमदिल सज़ा मानी जाती है ।

रूस क बोलशेविक क्रांति को घटित हुए 93 वर्ष गुजर गए । 7 वर्षों के बाद बोलशेविक क्रांति की शतीपूर्ति मनाई जाएगी । लोकतांत्रिक समाजवादी विचार को कार्यरत देखने का हमारा सपना क्या धरा का धरा रह जाएगा ? समाजवादी आंदोलन के अंतःस्थल मे एक नए अभिजात वर्ग के उदय का विरोध करते हुए लेनिन ने बोलशेविक पार्टी की नींव डाली थी, उनके उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए कब हमारी जनता इन नए अभिजातों को नकारेगी ? समय काफ़ी हो चुका है । अब स्पष्ट बात को स्पष्ट तरीक़े से कहने की ज़रूरत है ।

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