Friday, February 19, 2010

७२ घंटे में नक्सली समस्या का हल


पिछले कुछ महीनों से सरकार कीओर से लगातार बयान आ रहे थे किमहाराष्ट्र चुनाव के बादऑपरेशन ग्रीन हंट‘नक्सलवादियों के खिलाफयुद्ध’ शुरू किया जाएगा. परआपके बातचीत के प्रस्ताव के बादइनपर कुछ हद तक विराम लगा है.नक्सलवादियों के खिलाफ सरकारके पहले आक्रामक और फिर नरम रुखकी क्या वजहें रहीं? और माओवादीहिंसा को खत्म करने का सबसे सहीरास्ता क्या है?मैंने गृह मंत्रालय में किसी भीदस्तावेज पर ‘ऑपरेशन ग्रीनहंट’ लिखा नहीं देखा. यह पूरीतरह से मीडिया की खोज हैयुद्ध हर कोई पसंद करता है,खासतौर से मीडिया. आपको यह हरदेश में देखने को मिलेगा चाहेवह अमेरिका में 9/11 के बाद हो याभारत में 26/11 के बाद. लेकिन आपकोस्थिति की गंभीरता को कम नहींकरना चाहिए. इस समय सात राज्योंके कई जिले सीपीआई (माओवादी) केनियंत्रण में हैं और वहां केप्रशासन को उन्होंने पूरी तरहसे ठप्प कर रखा है. तब भी सरकारने ज्यादा कुछ कहने-सुनने कीबजाय राज्य सरकारों से मश्विराकरके सिर्फ समस्या सुलझाने कीदिशा में प्रयास किया. हमने ऐसाजनवरी में किया, फिर अगस्त में.हम इस नतीजे पर पहुंचे किमाओवादियों के खिलाफ समन्वितकार्रवाई की जाए, हमने अपने इसफैसले को सार्वजनिक भी किया.केंद्र ने राज्यों मेंअर्धसैन्य बल भेजने, उन्हेंइंटेलीजेंस सूचनाएं देने,प्रशिक्षण, उपकरण और तकनीकीसहायता उपलब्ध कराने काप्रस्ताव भी दिया. आप मेरा एक भीबयान बताइए जहां मैंनेमाओवादियों के खिलाफ‘आक्रामक’ रुख अपनाया हो. मैंइस बात को नहीं मानता कि सरकारने पहले भड़काऊ बयान दिए फिरनरम रवैया अपना लिया. जब हमने इसमसले पर मुख्यमंत्रियों से बातकी तो इसे ‘आक्रामक रुख’ कहागया और हमारे माओवादियों से बातकरने की बात को नरमी कहा गया.पहले माओवादियों से हथियारडालने को कहना और फिर केवलहिंसा छोड़ने को कहना क्या आपकेरुख में एक बड़ी तब्दीली नहींहै.मैंने ऐसा कभी नहीं कहा कि वेहथियार डाल दें. मुझे पता है वेऐसा नहीं करेंगे, यह उनकीविचारधारा के खिलाफ है.दुर्भाग्य से हमारे मीडिया नेइस अंतर पर ध्यान नहीं दिया.कई सरकारी अधिकारियों नेमीडिया में ऑपरेशन ग्रीन हंट कीबात की थी, लेकिन आपने और गृहसचिव गोपाल पिल्लई ने इसपर हालही में बयान दिया कि यह सबमीडिया की उपज है. तो क्या अब हममान लें कि वास्तव में ऐसा कुछनहीं होने वाला? और यदि कुछ होरहा है तो आने वाले महीनों मेंक्या होने वाला है?ऑपरेशन ग्रीन हंट कुछ नहीं है.आप उस अधिकारी का नाम बताइए जोऐसा कुछ है, मैं उसके खिलाफकार्रवाई करूंगा. मैंने गृहमंत्रालय में किसी भी दस्तावेजपर ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ लिखानहीं देखा. यह पूरी तरह सेमीडिया की खोज है. जहां तक आनेवाले समय की बात है, जिन इलाकोंमें प्रशासन लगभग खत्म हो गयाहै उसे बहाल करने में, आपकोपुलिस के ज्यादा समन्वितप्रयास देखने को मिलेंगे. औरइसके लिए हम अर्धसैन्य बलों,खुफिया तंत्र और सूचनाओं केमाध्यम से पुलिस की सहायताकरेंगे.लेकिन आपने हाल ही में इंडियनएक्सप्रेस में एक बयान दिया थाकि यदि जरूरत पड़ी तो आप सेना याराष्ट्रीय राइफल को भी बुलासकते हैं. आपने यह भी कहा था किनागरिक समाज ‘आतंक का माहौल’बनाने में सहयोग कर रहा हैइसलिए अब उसे किसी एक को‘चुनना’ चाहिए. व्यवस्था कीजोर-जबर्दस्ती के खिलाफ आवाजउठाना तो हर नागरिक कासंवैधानिक कर्तव्य है, इसकामतलब यह तो नहीं कि वे माओवादीहिंसा का समर्थन कर रहे हैं.लोगों के ऐसे काले-सफेद आकलन काक्या मतलब? हमें दो शैतानों मेंसे एक को क्यों चुनना चाहिए? आपलोकतांत्रिक स्वरों को अपराधीबनाकर उन्हें माओवादियों केसाथ क्यों रखना चाहते हैं?लेकिन कानून और प्रशासन राज्यका विषय है. यदि मैं ज्यादाहस्तक्षेप करूंगा तो वेसंविधान में राज्य के विषय वालीसूची मुझे थमा देंगेमेरी बातों के गलत उल्लेख केलिए मैं आपको दोष नहीं देता.मैंने इनके साथ रहना सीख लियाहै. आपने इंडियन एक्सप्रेस मेंदिए मेरे बयान से तीन चीजों काउल्लेख किया और तीनों ही गलतहैं. वहां मुझसे पूछा गया था किक्या सेना बुलाई जाएगी? मैंनेकहा था नहीं, आंतरिक सुरक्षा सेजुड़े अभियानों में सेना काउपयोग नहीं होगा लेकिन यदिजरूरी हुआ तो कुछ खासपरिस्थितियों में सेना केकमांडो बुलाए जा सकते हैं.कमांडो को आतंकवाद के खिलाफकार्रवाई के लिए तैयार किया गयाहै और उनका उपयोग पूरी सावधानीसे किया जाता है.दूसरा उल्लेख आपने यह किया किमैंने नागरिक समाज को दो (राज्यप्रायोजित हिंसा और माओवादीहिंसा) में से एक चुनने को कहा.आप मुझे बताएं कि ऐसा मैंनेकहां कहा था. अपने बयान मेंमैंने माओवादियों के हिंसा केइतिहास और सशस्त्र संघर्ष सेराज्य का नियंत्रण अपने हाथ मेंलेने की उनकी नीति की ओर इशाराकिया था. फिर मैंने यह कहा था किहम लोकतांत्रिक गणराज्य कीअवधारणा से बंधे हुए हैं. इसलिएनागरिक समाज को अब यह चुननाहोगा कि वे सरकार के वर्तमानस्वरूप को चाहते हैं या एकसशस्त्र मुक्ति संघर्ष और फिरवंचितों की तानाशाही. आप इसकठोर चयन से मुंह नहीं मोड़सकते. आप भारत के नागरिक हैं,यहां रह रहे हैं और आपको, मुझे औरहर एक को इनमें में एक को रास्ताचुनना ही होगा. किशनजी, कोबादगांधी और उनके जैसे दूसरोंलोगों को इनमें से एक को चुननेका अधिकार है और वे तय कर चुकेहैं. मैं भी अपना विकल्प चुनचुका है. भले ही इसमें कमियांहों लेकिन मैं एक लोकतांत्रिकगणतंत्र चाहता हूं. मैंनेसंविधान के तहत शपथ ली है. और अबसरकार के इस स्वरूप को बचानामेरी जिम्मेदारी है जिसे मैंने,आपने और हमारी पिछली पीढ़ियोंने चाहे सही हो या गलत पर चुनलिया था. और यहां मैं बस यही कहरहा हूं कि दूसरों को भी इनविकल्पों में से एक को चुननाहोगा. इसका मतलब दो तरह की हिंसामें से किसी एक को चुनना नहीं है.तो जब आप मेरे उस बयान के बारेमें कहती हैं जहां मैं एकविकल्प चुनने की बात करता हूंतो आपको इसका संदर्भ भी बतानाचाहिए कि मैंने किन चीजों मेंसे चुनने की बात की थी.ठीक बात है. लेकिन कुछ लोग तोमाओवादियों को निशाना बनानेवाले अभियानों का विरोध करेंगेही. हालांकि हमने एकप्रजातांत्रिक गणतंत्र मेंरहने का विकल्प चुना है लेकिनयह हमें इसकी खामियां बताने सेनहीं रोकता. जब हम सरकार के दमनया निर्दोंषों को होने वालेनुकसान की ओर इशारा करते हैं तबआप गृहमंत्री होने के नातेन्याय के माहौल में बेहतरी लानेकी कोशिश क्यों नही करते? क्याआप यह नहीं कह सकते कि पुलिस याअर्धसैन्य बलों की ज्यादतियोंको सहन नहीं किया जाएगा?मैं इस बात पर पूरी तरह सहमत हूं.हमारा लोकतंत्र खामियों से भराहै और ये दिनों-दिन बढ़ती जा रहीहैं. हमें इस पर बहस करनी चाहिएऔर इसे सुधारने के लिए संघर्षऔर पूरी कोशिश करनी चाहिए. चाहेयह प्रक्रिया कितनी ही धीमीक्यों न हों, इस दौरान हम कितनेही हताश क्यों न हों लेकिनसरकार के वर्तमान स्वरूप कोखत्म न होने दें. एक ही दिन मेंव्यवस्था पूरी तरह से नहींसुधारी जा सकती. संविधान में,अदालत, मानवाधिकार आयोग,अल्पसंख्यकों और अनुसूचितजाति-जनजाति के आयोगों, सूचनाआयोग और चुनाव आयोगों कोजिम्मेदारी दी गई है कि वेसरकार के कामकाज पर निगाह रखें.यदि ये संस्थाएं ठीक से कामकरें तो हमारा तंत्र ठीक होजाएगा. सबसे निराशाजनक बात यहहै कि इनमें से कई संस्थाएंफैसले करने में हिचकती हैं यावे एक तरह से निष्क्रिय हैं.इससे हमारी व्यवस्था मेंखामियां बढ़ती हैं. कुछ निश्चितनियमों को लागू करना मेरेअधिकारक्षेत्र में आता है.उदाहरण के लिए, मैंने यह साफ-साफकह रखा है कि राज्य या केंद्रस्तर पर पुलिस जिसे भी हिरासतमें लेगी उसे 24 घंटे के भीतरमजिस्ट्रेट के सामने पेश करनाहोगा. मैं फर्जी मुठभेड़ों केबिल्कुल खिलाफ हूं. पुलिस औरअपराधियों की मुठभेड़ में लोगमर सकते हैं, लेकिन यदि आप किसीको हिरासत में लेते हैं तो उसेमजिस्ट्रेट के सामने पेश कियाजाना चाहिए. मैं यह बात पूरेयकीन के साथ कह सकता हूं कि जब सेमैं गृहमंत्री बना हूं पुलिसद्वारा हिरासत में लिया गया कोईभी व्यक्ति मुठभेड़ में नहींमारा गया.यदि एसपीओ कानून का उल्लंघनकरते हैं, जबर्दस्ती हिंसा करतेहैं तो उन्हें सजा मिलनी चाहिए.लेकिन जब एक चुनी हुई राज्यसरकार हो तो उन्हें कानून केपालन के प्रति रवैया बदलने कोकहने के अलावा मैं ज्यादा कुछनहीं कर सकतामैं आपको यह भी यकीन दिला सकताहूं कि कुछ नियमों का पालन अबविशेष रूप से सुनिश्चित कियाजाता है. टॉर्चर चैंबर का हीमामला लें. मैंने इस बारे मेंगहन पड़ताल कराई है; इस समय देशकी केंद्रीय एजेंसियों केनियंत्रण में एक भी टॉर्चरचैंबर नहीं है. यदि आपको भरोसानहीं है तो आप मुझे ऐसे किसी भीचैंबर के बारे में बताएं, उसे भीसमाप्त कर दिया जाएगा. इसी तरहसे माओवादियों के मामले मेंहमारी समन्वित नीति के तहत मेरानिर्देश है जब तक हम पर गोली नचलाई जाए, हम गोली नहीं चलाएंगेऔर केवल खुफिया सूचनाओं के आधारपर ही अभियान चलाए जाएंगे.व्यापक स्तर पर तलाशी अभियाननहीं चलाए जाएंगे क्योंकि इससेस्थानीय आबादी हमारे खिलाफ होजाती है. मुझे पंजाब का अनुभव हैऔर इस तरह के खतरों के बारे मेंजानता हूं. मेरा कहने का मतलब हैकि सरकार के हर अंग को अपनीजिम्मेदरी सही ढंग से निभानीचाहिए. यदि आपके जिले में एकसक्षम डिस्ट्रिक्ट जज है औरवैसा ही मजबूत और निडरमजिस्ट्रेट है तो आपराधिकन्याय तंत्र में कहीं कुछ भीगलत नहीं हो सकता.समस्या यही है कि बहुत-सी बातेंयहां गलत हो रही हैं. मणिपुर मेंइसी साल अब तक 285 से ज्यादा फर्जीमुठभेड़ें हो चुकी हैं. तहलकाने भी जुलाई में एक स्तब्ध करदेने वाली मुठभेड़ की तस्वीरेंछापी थीं. छत्तीसगढ़ मेंनक्सलियों की हिंसा की आलोचनाकरने वाले सामाजिक कार्यकर्ताहिमांशु कुमार सलवा जुडम केएसपीओ की कारगुजारियां उजागरकरने की कोशिशें कर रहे हैं,वहां ये लोग आदिवासियों के घरजला रहे हैं, महिलाओं सेबलात्कार कर रहे हैं. लोगों कासरकार पर से भरोसा उठ चुका हैक्योंकि वहां आदिवासी एफआईआरभी दर्ज नहीं करा सकते. नागरिकअधिकार समूहों का कहना है किनक्सलवादियों से शांतिवार्ताका तब तक कोई मतलब नहीं है जब तकन्यायतंत्र पर लोगों का भरोसाबहाल न किया जाए. क्या आप इससंकटग्रस्त इलाके को कोई संदेशनहीं दे सकते कि इस तरह कीजबर्दस्ती स्वीकार नहीं कीजाएगी? उन कुछ एसपीओ कोगिरफ्तार कर लें जिनके खिलाफशिकायतें मिली हैं..मुझे खुशी है कि आपको लगता है किमेरे पास इतनी ताकत है. लेकिनकानून और प्रशासन राज्य का विषय है. आप जो भी कह रहीं हैं वहसब राज्यों के अधिकार-क्षेत्रमें आता है. इसके लिए आपको उनप्रदेशों के मुख्यमंत्रियोंऔर गृहमंत्रियों से बात करनीचाहिए. यदि मैं ज्यादाहस्तक्षेप करूंगा तो वेसंविधान में राज्य के विषय वालीसूची मुझे थमा देंगे.यह कहकर आप अपने को बचा रहे हैं?नहीं, मैं कह रहा हूं कि आप यहसवाल संबंधित लोगों के सामनेउठाइए. मैं जब गृहमंत्री बना थातो सबसे पहला मसला मेरे सामनेसलवा जुडम का ही था और मैंनेसार्वजनिक और निजी तौर परमुख्यमंत्री से कह दिया था किमैं इस बात के पक्ष में नहीं हूंकि राज्य में सरकार से बाहर केलोगों को इस तरह की जिम्मेदारीसौंपी जाए. यह पुलिस का काम है.वैसे जहां तक मेरी जानकारी हैसलवा जुडम की गतिविधियांधीरे-धीरे न के बराबर हो गई हैं.नहीं, एसपीओ के पास अभी भीबंदूकें हैं, सर्वोच्चन्यायालय ने आदेश दिया है किसलवा जुडम के कारण जिन गांवोंको खाली कराया गया है वहांलोगों को दोबारा बसाया जाए,लेकिन एसपीओ ऐसा नहीं होने देरहे हैं.हो सकता है. लेकिन एसपीओ राज्यसरकार के अंतर्गत कार्य करतेहैं. पंजाब में भी एसपीओ थे.एसपीओ कश्मीर में भी हैं. एकहिसाब से वे राज्य सरकार केकर्मचारी होते हैं. यदि एसपीओकानून का उल्लंघन करते हैं,जबर्दस्ती हिंसा करते हैं तोउन्हें सजा मिलनी चाहिए. लेकिनजब एक चुनी हुई राज्य सरकार होतो उन्हें कानून के पालन केप्रति रवैया बदलने को कहने केअलावा मैं ज्यादा कुछ नहीं करसकता. निष्पक्षता और न्याय कीजरूरत को पूरा करना राज्यों केमुख्यमंत्रियों का काम है.आपने शांति वार्ता की जो बात कीहै वह उपदेशात्मक नहीं है.इसमें आपने सभी महत्वपूर्णमसलों, जैसे भूमि अधिग्रहण, खनन,औद्यौगीकरण, वन अधिकार औरस्थानीय प्रशासन को शामिल करनेकी बात की है. फिर भी ‘सिटीजेंसइनीशिएटिव फॉर पीस’ संगठन कोलगता है कि आपको ऐसा कुछ करनाचाहिए ताकि लोगों का न्यायव्यवस्था में भरोसा बहाल हो.उनका कहना है कि भले ही यह कितनाही सांकेतिक क्यों न हो आपनक्सल प्रभावित इलाकों मेंजनसुनवाइयां आयोजित क्योंनहीं करवाते?यदि कोई नागरिक अधिकार संगठन याआदिवासियों के प्रतिनिधि इसेआयोजित कराते हैं तो मैं इसमेंभाग लेने को तैयार हूं.क्या मैं यह बात में ऑन रिकॉर्डमानूं? हिमांशु कुमार का कहनाहै आपको माओवादियों से बात करनेकी तो जरूरत ही नहीं है, आप बसलोगों से सीधे बात करना शुरू करदें, लोग अपने आप ही माओवादियोंसे दूर हो जाएंगे और उनकाभारतीय गणतंत्र में भरोसा बहालहो जाएगा. इन स्थानों पर गरीबीहटाने वाले कार्यक्रम तो हैं हीनहीं ऊपर से सरकार यहां अपनेसबसे दमनकारी रूप में दिखती है.मैं राज्य सरकारों से बातकरूंगा. मैं वन अधिकारों,औद्योगीकरण, जमीन अधिग्रहण औरविकास जैसे मुद्दों पर बातचीतमें मदद करूंगाश्री श्री रविशंकर के कुछअनुयायी मुझसे मिलने आए थे. यहअलग बात है कि मैं उनकी राजनीतिसे सहमत नहीं हूं लेकिन मैंनेउनसे कहा कि यदि वे इन इलाकोंमें काम करना चाहते हैं औरआदिवासियों को हिंसा का समर्थनछोड़ने और सरकार में भरोसा रखनेके लिए राजी करते हैं तो जहां तकहोगा मैं आपकी मदद करूंगा.मैंने उनसे कहा कि मैं राज्यसरकारों से कहूंगा कि वे उनकीमदद करें और जहां भी जरूरत होगीआदिवासियों से बात करने मैं खुदभी आऊंगा. लेकिन उसके बादउन्होंने मुझसे कभी संपर्कनहीं किया.एक अलग संदर्भ में बात करें तोआपने कहा था कि झारखंड मेंराष्ट्रपति शासन होने के कारणआप कई काम कर पाए, हालांकि वह भीनक्सल प्रभावित राज्य है. यदिछत्तीसगढ़, उड़ीसा और प. बंगालकी कमान आपको सौंप दी जाती यावहां कांग्रेस का शासन होता तोआप किस तरह के सुधारात्मक कदमउठाते?इस मसले पर मेरी स्पष्ट राय है,पहली चीज है यह सुनिश्चित करनाकि किसी तरह की हिंसा नहीं होगी.खूनखराबे के माहौल में कोई किसीकी नहीं सुनता, कोई किसी परभरोसा नहीं करता और तब कुछ नहींकिया जा सकता. हो सकता है यहसंदर्भ से अलग बात हो लेकिन यहगांधी की भूमि है और उन्होंनेही कहा था कि सभ्य समाज मेंहिंसा का कोई स्थान नहीं होता.मैं उनकी तरह संत तो नहीं हूंलेकिन मेरा दृढ़ता से मानना हैकि हमारे लोकतंत्र में हिंसा काकोई स्थान नहीं है. इसलिए हरकिसी को, भारत सरकार को भी, हिंसाछोड़नी ही चाहिए. हमें इस बात परभी एकराय होना चाहिए कि नागरिकप्रशासन, जिसमें चाहे जितनीखामियां क्यों न हों, उसे कुछकाम करने के लिए समय और मौकादेना चाहिए. यही झारखंड में हुआ,सिर्फ ढाई महीनों में हमने कईउपलब्धियां हासिल की हैं. यदिआपको मुझपर यकीन नहीं तो उनसेपूछिए जो पहले शिकायत कर रहे थे.एक साल पहले तक कहा जा रहा था किराज्य असफल हो चुका है. आज वहांजन वितरण प्रणाली महिलासमूहोंके हाथ में है, लोगों कोवृद्धावस्था पेंशन मिल रही है,गरीबी रेखा से नीचे के परिवारोंको मुफ्त राशनकार्ड वितरित किएगए हैं, कई स्कूल खोले गए हैं औरइनमें शिक्षकों की नियुक्ति कीगई है. जिस दिन चुनावों की घोषणाहुई मैंने सुनिश्चित किया कि 1000स्वास्थ्यकर्मियों औरडॉक्टरों की नियुक्ति हो जाए.यहां दसवीं कक्षा के छात्रों कोसाइकिलें दी गई हैं. वन्यअधिकार उल्लंघन के हजारोंकेसों को वापस लिया गया है. और यहसब इसलिए संभव हो पाया क्योंकिहमने इन इलाकों पर काफी हद तकनियंत्रण स्थापित कर लिया था.मैं नहीं जानता कि ऐसा क्योंहुआ लेकिन माओवादियों ने कभी-भीहमारे इन कामों में बाधा नहींडाली.सामाजिक कार्यकर्ता भी ठीक यहीकह रहे हैं कि झारखंड में आपनेकोई सैन्य अभियान नहीं चलाया,आपको इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी.आपने बस जमीनी स्तर पर प्रशासनसुधारने से शुरूआत की औरमाओवादियों की हिम्मत नहींपड़ी कि वे इन कामों में बाधाडालें. वे जानते हैं कि जिस कामसे जनता का भला हो रहा है यदि वेउसे बिगाड़ेंगे तो जनता उनकेखिलाफ हो जाएगी. तो ऐसा ही आपछत्तीसगढ़ या दूसरी जगहों परक्यों नहीं करते?ऐसा नहीं है कि झारखंड मेंमाओवादियों ने हिंसा नहीं की.फ्रांसिस इंदुवर की हत्या ऐसाही मामला है. अब उन्होंनेचुनावों के बहिष्कार का ऐलानकिया है. वे कहते हैं कि हमकांग्रेस और झारखंड मुक्तिमोर्चा को निशाना बनाएंगे औरसजा देंगे. हिंसा के लिए कौनजिम्मेदार है और किसे इसे रोकनाचाहिए की बहस की बजाय माओवादीमेरी अपील को मानकर यह क्योंनहीं कहते, ‘हां, हम हिंसा को रोकदेंगे और अब हमें गृहमंत्री कीप्रतिक्रिया का इंतजार है.’ फिर मुझे दो-तीन दिन का वक्तदिया जाए क्योंकि मुझे केंद्रऔर राज्य दोनों सरकारों मेंशामिल लोगों से बात करनी होगी.मैं कोई तानाशाह नहीं हूं, मुझेसभी से मश्विरा करना होगा. एकबार वे हिंसा रोकने की बात कहतेहैं और असल में ऐसा करते भी हैंतो यदि उनके ऐसा कहने और मेरीप्रतिक्रिया के दौरान जो किउन्हें 72 घंटों में निश्चित हीमिल जाएगी, यदि किसी तरह कीहिंसा नहीं होती तो मैं ऐसाजवाब देने की स्थिति में होऊंगाजिससे कि हिंसा हमेशा-हमेशा केलिए खत्म हो जाएगी और विकास कारास्ता साफ हो जाएगा.माओवादियों से बातचीत भी की जासकती है. लेकिन सबसे पहलेउन्हें कहना होगा कि वे हिंसारोक रहे हैं.यह एक बड़ा बयान है. कोई भी इससेअसहमत नहीं हो सकता. आपने कुछअहम मुद्दों का जिक्र किया मसलनभूमि अधिग्रहण, वनाधिकार,स्थानीय प्रशासन, औद्योगीकरण.आखिर इनके बेहतर तरीके क्योंनहीं खोजे जाते? खासकर खनन कीबात करें तो लोगों को शिकायत हैकि इन इलाकों में सुरक्षा बलोंके अभियानों का मुख्य मकसदसंसाधनों से समृद्ध जमीन परकब्जा करना है. टाटा और एस्सारजसी कंपनियों ने सरकारों के साथसहमति पत्रों (एमओयू) परहस्ताक्षर किए हैं. आपको लगताहै कि सलवा जुडम या सरकार कीयहां पर नियंत्रण स्थापित करनेकी जल्दबाजी इन्हीं सहमतिपत्रों का नतीजा है?मुझे लगता है कि आप उस डरावनीयोजना को देख रही हैं जिसका असलमें कोई अस्तित्व ही नहीं है.सहमति पत्र अलग-अलग समय परअलग-अलग सरकारों के कार्यकालोंके दौरान बने हैं, माओवादीहिंसा के इस हद तक पहुंचने सेकाफी पहले. फिर भी मैंप्रधानमंत्री से यह दरख्वास्तकरने के लिए तैयार हूं कि सभीसहमति पत्रों पर रोक लगा दी जाएऔर झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसाऔर दक्षिण बिहार में जिन सहमतिपत्रों पर हस्ताक्षर हुए हैं उनसबकी व्यापक समीक्षा करने केबाद ही यह फैसला लिया जाए किकौन-से सहमति पत्रों पर अमलहोना चाहिए - सुधार या बिनासुधार के साथ.यह बात आप ऑन रिकार्ड कह रहे हैं.हां, ऐसा ही है. मगर मुझे नहींलगता कि मुख्य मुद्दा यह है. असलमसला यह है कि माओवादियों कीविचारधारा में संसदीयव्यवस्था एक सड़ चुकी व्यवस्थाहै. वे मानते हैं कि सशस्त्रक्रांति ही संसद को खत्म करनेऔर लोगों की तानाशाही स्थापितकरने का एकमात्र विकल्प है. यहएक मूलभूत विचारधारा वालानजरिया है. ऐसे में कौन उनसे बहसकरे और बताए कि आप गलत हैं? अगरकोई इस तरह का रुख रखता है तो मैंइसमें कुछ नहीं कर सकता लेकिन..(बात को काटते हुए) मैंमाओवादियों को किनारे रखते हुएफिर से भारत सरकार पर ध्यानकेंद्रित करना चाहती हूं.लेकिन अगर वे इस तरह का नजरियाभी रखते हैं और हिंसा का रास्ताछोड़कर सरकार से उन मुद्दों परबात करना चाहते हैं जिनकीउन्हें चिंता है, तो भी मैं इसकेलिए तैयार हूं. मैं राज्यसरकारों से बात करूंगा. मैं वनअधिकारों, औद्योगीकरण, जमीनअधिग्रहण और विकास जैसेमुद्दों पर बातचीत में मददकरूंगा. मगर अब तक मेरी पेशकश परमाओवादियों की प्रतिक्रियायही रही है कि उनसे हिंसा बंदकरने को कहना अतार्किक, बेतुकाऔर उन लोगों को धोखा देने जैसाहै जिनके लिए वे लड़ रहे हैं! दोदिन पहले ही उन्होंने बंगाल मेंचार पुलिसकर्मियों की हत्या करदी. ये पुलिसकर्मी तो गश्ती दलका हिस्सा भी नहीं थे! सवाल यह हैकि माओवादियों को जज,कानूनवेत्ता और जल्लाद बनने काअधिकार किसने दिया?मैं फिर से वही सवाल करती हूं. यहव्याख्या करने का अधिकारमाओवादियों को क्यों हो किनिष्पक्ष, न्यायपूर्ण औरजनकल्याणकारी तरीके क्या होनेचाहिए? भारत में खनन एक विवादितमुद्दा है. आप इस बारे में क्यासोचते हैं? आप तो ऐसा माननेवालों में से हैं कि खनन औरविकास का आपस में अभिन्न रिश्ताहै.हां, मैं ऐसा मानता हूं. कोई भीदेश अपने प्राकृतिक और मानवसंसाधनों के बगैर विकास नहीं करसकता. खनिज संपदा का दोहन करकेउसे लोगों के लिए इस्तेमाल कियाजाना चाहिए. और ऐसा क्यों न हो?क्या वे किसी म्यूजियम की शोभाबढ़ाने के लिए हैं? हम इस तथ्य काआदर करते हैं कि आदिवासीनियमगिरी पहाड़ी की पूजा करतेहैं. मगर मुझे बताइए कि क्याइससे उनके बच्चे स्कूल में पढ़सकेंगे या फिर उनके पैरों कोजूते मिल जाएंगे? क्या इससेउनकी कुपोषण की समस्या हल होजाएगी और स्वास्थ्य सुविधाओंतक उनकी पहुंच बढ़ जाएगी? खनन परसदियों से विवाद चलता रहा है.इसमें कोई नई बात नहीं है।

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