Wednesday, February 24, 2010

संघर्ष विराम का कठिन मार्ग

संघर्ष विराम की ओट में नक्सली संगठन हिंसा की व्यापक तैयारी करना चाहते हैं । संघर्ष विराम सफेद झंडा लहराकर होता है या बंदूक-बम के धमाके से? पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार सहित विभिन्न राज्यों में हिंसक हमले कर रहे माओवादियों ने सरकार के ग्रीन हंट ऑपरेशन को थामने के लिए सशर्त संघर्ष विराम की घोषणा की है। माओवादी कमांडर एम।कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने अपने संगठन के ३० प्रमुख साथियों से विचार-विमर्श के बाद यह पत्ता फेंका है। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा है कि माओवादी गृह मंत्रालय को फैक्स भेजकर लिखित में पेशकश करें और बातचीत के लिए कोई शर्त नहीं हो सकती। उन्होंने पिछले दिनों ऐलान किया था कि माओवादियों के हथियार डालने पर सरकार ७२ घंटे में उनसे बातचीत को तैयार है। माओवादियों ने बड़ी चालाकी से ७२ दिनों के संघर्ष विराम की पेशकश की है। वे चाहते हैं कि इस दौरान पुलिस, अर्द्ध सैन्य बलों की कार्रवाई रोक दी जाए और उन्हें नक्सल प्रभावित इलाकों से भी बाहर कर दिया जाए। जम्मू-कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी संगठन और उन्हें समर्थन देने वाले विदेशी आका इसी तरह सैन्य बल हटाने की माँग करते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में तो सेना को सीमा पार से उत्प्रेरित हमलों का सामना करना होता है। लेकिन यहाँ तो पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में माओवादी हिंसक संगठनों के घातक हमलों से सामान्य पुलिस और प्रशासन लगभग पंगु स्थिति में पहुँच जाता है। इसीलिए केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर व्यापक स्तर पर ग्रीन हंट ऑपरेशन के लिए बाध्य होना पड़ा। माओवादी कमांडर किशनजी ने संघर्ष विराम का टोटका तो छोड़ दिया, लेकिन कश्मीर के आतंकवादियों की तरह नक्सली संगठनों और गुटों का कोई एकछत्र नेता नहीं है। इसलिए संघर्ष विराम की गारंटी वह कैसे दे सकते हैं। यही नहीं किशनजी की घोषणा के १२ घंटे के अंदर ही नक्सलियों ने बंगाल के एक हिस्से में पुलिस बल पर घातक हमला किया। पिछले सप्ताहों के दौरान बंगाल, झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा से बड़ी संख्या में सामान्य लोग और साधारण पुलिसकर्मी मारे गये, झोंपड़ियाँ और स्कूल की इमारतें जलाई गईं। नक्सलियों के साथ सहानुभूति रखने वाले कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवी ग्रामीण क्षेत्रों में विकास न होने के कारण ऐसी गतिविधियाँ बढ़ने का दावा करते हैं। माओवादियों ने इस बार संघर्ष विराम के साथ ऐसे बुद्धिजीवियों को वार्ता में मध्यस्थ बनाने का प्रस्ताव रखा है। लेकिन बंदूकों और गोला-बारूद के धमाकों के जारी रहते किस तरह का संवाद और विकास संभव है? गृह मंत्रालय की यह आशंका अधिक ठीक लगती है कि संघर्ष विराम के नाम पर नक्सली संगठन अधिक एकजुटता के साथ अपने ठिकानों को सुरक्षित बना बड़ी हिंसा की तैयारी करना चाहते हैं। संघर्ष विराम के झाँसे में आने के बजाय दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा सैन्य बलों की कड़ी कार्रवाई से प्रभावित क्षेत्रों की सामान्य जनता को राहत दिलाने की आवश्यकता है।

(संपादकीय, नई दुनिया, इंदौर, २४, फरवरी, २०१०)

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