Thursday, December 31, 2009

बुद्धिजीवियों, चिंतकों, कलाकारों, साहित्यकारों और पत्रकारों के नाम अपील

बुद्धिजीवियों, चिंतकों, कलाकारों, साहित्यकारों और पत्रकारों के नाम आपील
(बस्तर के अध्ययन दौरे के पश्चात लिखे गये एक किताब का अंश)

प्रिय मित्रो,
बस्तर, माओवाद और नक्सलवाद को लेकर देश में घमासान मचा हुआ है। माओवादी संगठन, पूर्ण कालिक एवं अल्पकालिक बुद्धिजीवी, तथाकथित स्वयंसेवी संगठन न केवल बस्तर की लगातार विकृत तस्वीर चित्रित कर रहे हैं, बल्कि देश में युद्ध का भ्रामक वातावरण भी पैदा कर रहे हैं । यदि आप हाल ही में प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित विज्ञप्तियों, लेखों, अपीलों की मीमांसा करें तो साफ़ जाहिर हो जायेगा कि इनकी वास्तविक चिन्ताओं में देश, समाज, जनता (विशेष कर आदिवासी, पिछड़े, दलित) नहीं, बल्कि उनकी आड़ में और प्रकारांतर से माओवादी क्रांति के रास्ते पर देश को ले जानेवालों के लिए वातावरण निर्माण करना और प्रजातांत्रिक इकाइयों को ध्वस्त करना है । जाहिर है ऐसे कार्यों के पीछे की मंशा प्रजातांत्रिक न हो कर अराजकतावादी है ।

नक्सली हिंसा के तांडवकारी, अधोसंरचना के विध्वसंक और विकास के सारे रास्तों को रोककर आम जनता को हिंसक व्यवस्था के अधीन रहने के लिए विवश करनेवालों द्वारा कथित मानवाअधिकारों का प्रश्न ही अपने आप में संदेहास्पद है। मानव अधिकार के दावे उनके मुँह से फबता है जो मानव अधिकार की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं । जो निहत्थे आदिवासियों की हत्या पर विश्वास करते हैं, जो आदिवासियों को भय और आंतक अर्थात् अशांत वातावरण में जीने को मजबूर करते हैं, जो आदिवासियों के साथ जोर-जबरन करके उन्हें सशस्त्र सैनिक बनाकर देश में अवांछित युद्ध जैसी स्थिति निर्मित करते हैं उनके द्वारा मात्र मानवाधिकार के नाम पर बौद्धिक प्रलाप कितना उचित है, यह भी सोचने का समय आ गया है ।
01. भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा कोई युद्ध, देश के किसी भी भी हिस्से में, किसी भी स्तर पर नहीं चलाया जा रहा है, न ही चलाये जाने का कोई गुप्त एजेंडा है । किन्तु, लगभग सभी राज्यों की माँग पर भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित भाकपा (माले) के हिंसक, जनविरोधी और विकास विरोधी घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए अभियान चलाया जाना है । यह केंद्र और राज्य का संयुक्त अभियान होगा । ज़ाहिर है यह आम आदमी को हिंसावादियों, विध्वसंवादियों और देश की आंतरिक सुरक्षा को लगातार बाधित करनेवाले अराजक तत्वों से बचाने का अभियान है । साथ ही ऐसे क्षेत्रों में माओवादी नक्सलियों द्वारा बाधित और शेष रूके हुए विकास कार्य को अंजाम देने का अभियान है, जिसे ही ऐसे माओवाद अनुगामी संस्थाओं और कथित बुद्धिजीवियों द्वारा ‘युद्ध’ कहकर देश-विदेश में हो हल्ला किया जा रहा है । प्रजातंत्र और भारतीय संवैधानिक व्यवस्था को जड़ से ध्वस्त करने पर आमादा किसी संगठन के खिलाफ छेड़े गये अभियान को युद्ध करार देना अपने आप में प्रजातंत्र विरोधी और हिंसावादी होना है । यदि सरकारों का कहना है कि – “यह मुहिम उन क्षेत्रों में छेड़ी गई है, जो केंद्र या राज्य सरकार के नियंत्रण में न होकर माओवादियों के कब्जे मे है। ” तो इसमें किसी को कोई गुरेज़ नहीं हो सकता कि भारतीय गणराज्य के किसी भी क्षेत्र में संविधानेत्तर और हिंसक गतिविधियाँ संचालित कर प्रचलित व्यवस्था के हाईजैंकिंग की अनुमति किसी भी भारतीय सहित गैरभारतीय संगठनों को नहीं दी जा सकती । ऐसे क्षेत्रों को भारतीय माओवादियों के कब्जे में भी इसलिए नहीं रख छोड़ा जा सकता क्योंकि ऐसे माओवादी विदेशी आक्रमणकारी न होकर स्वदेशी हैं । आदिवासी हैं । दलित हैं । पिछड़े हैं। स्वदेशी लोगों को हिंसा आधारित समानांतर व्यवस्था कायम करने की छूट क्या सिर्फ इसलिए दी जानी चाहिए कि वे भारतवासी हैं, विदेशी नहीं । और इस रूप में उन्हें अपने तथाकथित विकास के लिए अराजक, विध्वसं होने की पात्रता है । सड़े हुए अंग को काटने में ही भलाई होती है, अन्यथा वह शरीर के अन्य अंगों को भी संक्रमित कर सकता है ।

02. माओवादियों का यह कहना तो ठीक है कि बस्तर या ऐसे क्षेत्रों के लोग मूलतः जंगलवासी हैं । सबसे गरीब हैं । दबे कुचले लोग हैं। किन्तु क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि इन 40-50 वर्षों में ऐसे माओवादियों ने इन जंगलवासियों के लिए कौन-सा आधारभूत कार्यक्रम चलाया ? उनके अंधोसंरचनागत विकास के लिए कौन-कौन सी कल्याणकारी योजनाएँ संचालित कीं ? केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा संचालित किन-किन योजनाओं से लाभान्वित होने के लिए आदिवासियों का कौशल बढ़ाया ? जबकि ऐसे क्षेत्रों की वास्तविकता सिर्फ़ यही है कि माओवादी नक्सली वहाँ आये दिन विकास के घटकों को नेस्तनाबूत किये जा रहे हैं । यह माओवादियों द्वारा संचालित विकास का कौन सा माडल है ? आमजन को इन प्रश्नों के उत्तर जानने का अधिकार है?

03. माओवादियों के पक्ष में अपील जारी करनेवालों का यह कहना भी अर्धसत्य है कि आदिवासियों को कोई भी गुलाम नहीं बना पाया। क्योंकि आज बस्तर और बस्तर का आम आदिवासी ऐसी ही माओवादियों के संत्रास से छटपटा रहा है । यदि माओवादी यह मानते हैं कि बस्तर या ऐसे क्षेत्रों की आबादी जन्म से ही या पश्चातवर्ती समय से स्वतः स्फूर्त उनके सिद्धांतों या विचारों का अनुयायी या पक्षधर है तो यह सरासर झूठ है । क्योंकि बस्तर का आदिवासी शांतिप्रियता जैसी अपनी प्रजातिमूलक विशेषताओं के लिए भी सारी दुनिया में जाना जाता है । अतः यह कहना कि उसने अपनी सभ्यता, संस्कृति, विकास के लिए तिरंगा के स्थान पर लाल झंडे का ही चयन किया, सफेद झूठ है । सच्चाई तो यह भी है कि न ही वे अपने विकास या सभ्यता की निरंतरता के लिए किसी बाहरी संगठन या इकाई पर विश्वास करते हैं, न ही ऐसी आवश्यकता महसूस करते हैं । न ही वे एकबारगी भारतीय प्रजातंत्र को मुल्तवी करते हुए माओवादियों के शरण में चले गये हैं या चले जाना चाहते हैं । सच्चाई तो बस यही है कि वे माओवादियों के गुलाम बनने को लाचार हैं, जिनके बल पर ऐसे माओवादी बार-बार दोहराते अघाते नहीं कि आदिवासियों ने भ्रष्ट्राचार, अन्याय, शोषण के विरोध में माओवादी व्यवस्था पर विश्वास दिखाया है । यह आदिवासियों का माओवाद पर विश्वास या प्रजातंत्र पर अविश्वास नहीं, निष्पाप लाचारी है जो प्राण के भय से माओवादियों के साथ रहने के लिए बाध्य हैं, लगातार बाध्य किये जा रहे हैं । इसके पीछे माओवादियों की सुनियोजित दीर्घकालिक रणनीति है जिसके तहत उन्होंने अपने गुप्त एंजेडे के तहत सबसे पहले आर्थिक, शैक्षिक और चेतनात्मक रूप से कमजोर ऐसे क्षेत्रों में अपना जाल फैलाया । संतोषी ग्रामीण आदिवासियों की छोटी-मोटी ज़रूरतों से जुड़े सरकारी महकमे की कमजोरियों गिनायी, असंतोष फैलाया, थोथी सहानुभूति बटोरी और प्रचलित तथा मान्य व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना फैलाकर आदिवासियों को बागी बनाया । जब उनका आधार क्षेत्र (Base Aria) बन गया तो उन्हें सशस्त्र विद्रोहियों में तब्दील कर दिया । इस बीच वे बखूबी जान-पहचान चुके हैं कि नक्सली-माओवादियों का वास्तविक लक्ष्य आदिवासियों का विकास नहीं बल्कि उनकी अधिसंख्य जनसंख्या के विकास की आड़ में देश में माओवादी हिंसक तंत्र की स्थापना है । अब यदि वे (आदिवासी) माओवादी का साथ छोड़ते हैं तो माओवादी नक्सलियों की गोलियों के शिकार होंगे, और साथ नहीं देते हैं तो भी । इन परिस्थितियों से साफ़ जाहिर है कि जंगल की अधिसंख्य आदिवासी माओवाद और माओवादियों के गुलाम बनकर छटपटा रहे हैं । यहाँ यह भी बताना लाजिमी होगा कि जब-जब आदिवासियों ने माओवादी नक्सलियों का विरोध किया है, उन्हें और उनके विरोध को ऐसी संस्थाओं ने हतोत्साहित करने की लगातार चेष्टा की है । बस्तर के आदिवासी आज भी नहीं भूले हैं कि कैसे 80 के दशक में आदिवासियों ने नक्सलियों का शांतिपूर्ण बायकाट किया तो अपनी कुटिल चालों से नक्सलियों ने ग्राम लौटने की अपील कर एकसाथ 300 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था । 1995 में आदिवासियों द्वारा नक्सली हिंसा के प्रतिरोध में शुरू हुए शांतिपूर्ण जनआंदोलन ‘सलवा जुडूम’ को किस तरह ऐसे संगठनों ने देश विदेश में ‘अलग-थलग’ कर दिया, यह भाकपा (माले) के दस्तावेज से भी जाना जा सकता है, जिसके लिए भाकपा ने एक सुनियोजित रणनीति अपनायी थी । यानी नक्सली आदिवासियों के हाथों में बंदूक, बम और बारूद थमा दें तो वह विकास के लिए है, और यदि वही आदिवासी ऐसे नक्सलियों से निजात पाने के लिए लाठी भी थाम लें तो वह जनविरोधी है, उससे मानवाधिकार का हनन होता है । ऐसा कैसे हो सकता है ? माओवादी नक्सलियों द्वारा ऐसा कहना या करना क्या जनता के हित में होगा ?

04. यह कितनी मूर्खतापूर्ण और भ्रामक टिप्पणी है कि केंद्र सरकारों और राज्य सरकारों ने उनके जंगलों और वहाँ से मिलनेवाली कीमती धातु और खनिज पदार्थों को बुरी तरह से लुटा है । क्या केंद्र सरकार और राज्य सरकार आदमियों के नाम हैं जो दो चार लोगों ने मिल कर लुट लिया ? क्या दुनिया में ऐसा कोई राज्य व्यवस्था है जहाँ खनिजों का दोहन नहीं होता ? क्या ऐसे किसी माओवादी शासन व्यवस्था वाले देश का उदाहरण है, जहाँ धातु और खनिज पदार्थों के दोहन के बिना ही विकास को अंजाम दिया जा रहा है । क्या चीन जैसे माओवादी देश में खनिजों के खुदाई पर प्रतिबंध है ? क्या बिना खनिज संसाधन के दोहन के माओवादी किसी राज्य का विकास कर पायेंगे ? उन माओवादियों को यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए कि – “हर साल अरबों रुपयों की संपत्ति बड़े पूँजीपतियों, नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों, ठेकेदारों और पुलिस द्वारा हड़प ली जाती है ।” आज यदि ये कथित अरबों हड़प रहे हैं तो माओवादी भी आख़िर क्या कर रहे हैं ? यह आदिवासियों से नहीं छिपा है । वे भी जंगलों के ठेकेदारों से करोड़ों की वसूली करते हैं और उन्हें काम करने का लायसेंस जारी करते हैं । झारखंड, बस्तर और उड़ीसा के माओवादी खदानों, कल कारखानों, नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों से प्रतिवर्ष 2000 करोड़ की अवैध उगाही करते हैं । क्या माओवादी भारतीय जनता (जिसके हितैषी होने का दावा ऐसे माओवादी या बुद्धिजीवी करते हैं) को यह पूछने का अधिकार ये देंगे कि आख़िर यह पैसा वे किन कामों में लगा रहे हैं ? यह सभी को पता है कि इस राशि के बदले ये नक्सली माओवादी उन्हें जानमाल की गारंटी देते हैं और उनके हिंसक तांडव में सिर्फ़ आदिवासी जनता ही मारी जाती है । आज आदिवासी इलाके और वहाँ अकूत खनिज भंडार पर सबसे ज्यादा नज़र इन माओवादियों की लगी है जहाँ से ये अधिकतम् धन की उगाही करना चाहते हैं । क्या इस राशि का उपयोग वे इन क्षेत्रों के निवासियों के लिए मूलभूत सुविधा जैसे सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा जुटाने के लिए कर रहे हैं ?

05. अक्सर माओवादी स्वयं को आदिवासी और आदिवासी अंचलों में बिखरे पड़े अकूत खनिज संसाधन के रक्षक बताते हैं । वे मौखिक रूप से चाहते हैं कि ऐसे खनिज संसाधनों पर आदिवासियों का हक हो, उनको उनकी जल, जगंल और जमीन के एवज में पर्याप्त संसाधन एवं मुआवजा मिले । यह सभी को पता है कि खनिज संसाधनों वाले क्षेत्रों में जनविरोध की आग में घी डालने का काम यही माओवादी तत्व करते हैं । वे उनका किस हद तक उनका हक दिला पा रहे हैं, इसकी वास्तविकता तो भुक्तभोगी आदिवासी ही दे सकता है किन्तु दूसरी और वे ऐसे क्षेत्रों में लगातार आंतक फैलाकर जंगल विभाग के एक नाकेदार से लेकर बड़े अधिकारियों से और खनिज खुदाई के एक छोटे से ठेकेदार से लेकर कंपनियों के उद्योगपतियों से नियमित रूप से करोड़ों की उगाही कर रहे हैं । क्या यह जंगल में माओवादियों की साम्राज्यवादी क्रियाकलाप नहीं है ? क्या ऐसी ही गतिविधियों को प्रजातांत्रिक विकास का विकल्प कहा जाना चाहिए ? क्या इन्हीं नीतियों के सहारे वे भारतीय जनता के समक्ष विकास का नया माडल तैयार करना चाहते हैं ? बालको, बैलाडीला, भिलाई में आदिवासी असंतोष का तो प्रश्न ही नहीं उठता । ये जगह तो प्रजातांत्रिक विकास की जीवंत इकाईयाँ हैं ।

06. माओवादी बुद्धिजीवी दुष्प्रचार कर रहे हैं कि लोगों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए सरकार ने बड़ी संख्या में हथियारबंद सेना को खासकर उन जगहों पर तैनात किया गया है जहाँ संघर्ष मजबूत है । यह निरा झूठ है । यह उस लोमड़ी की चालाकी की तरह है जो दोनों बिल्लियों का हिस्सा चट कर जाना चाहती है । भारत सरकार द्वारा हथियारबंद सेना नहीं, पुलिस की सहायता के लिए अर्धसैनिक बल वहाँ-वहाँ तैनात किया गया है जहॉँ-जहाँ लोगों की अमन, चैन, विकास और बुनियादी मानवाधिकार का हनन माओवादी नक्सलियों द्वारा पिछले 40-50 साल से किया जा रहा है। ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ प्रजातांत्रिक इकाइयों द्वारा जारी विकास कार्यों को ठप्प कर दिया गया है । ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ नन्हे-मुन्नों की बालबाड़ी, झूलाघर, नौनिहालों के स्कूल, कालेज, ग्रामजनों के पंचायत और सामुदायिक भवन, ग्रामीण रोगियों के अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लगातार माओवादी नक्सलियों द्वारा ध्वस्त किये जा रहे हैं । ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ माओवादियों द्वारा वर्तमान शासन व्यवस्था के खिलाफ़ जनसंघर्ष के नाम पर छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं के हाथों में बंदूक थमाकर नक्सली बनाया जा रहा है । ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ माओवादियों द्वारा आम नागरिकों को चुनाव में भाग लेने के बदले में प्राणदंड की सजा दी जा रही है । ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ वे पुलिस चौकी लुट रहे हैं और पुलिस जनों की निर्मम हत्या कर रहे हैं । ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ कथित जनसुनवाई में नक्सलियों द्वारा सरेआम किसी को फाँसी दे दी जा रही है । ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहा हैं, जहाँ विकास के लिए लाखों लोग टकटकी लगाकर देख रहे हैं । ये अर्धसैनिक बल वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ आदिवासियों के धर्म-कर्म, परंपरा, मूल्यों को छिन्न-भिन्न करने पर माओवादी आमादा हैं । ये अर्धसैनिक वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ माओवादी बुनियादी मानवाधिकारों से लोगों को वंचित करके गुलाम बना कर रखने को विवश कर रहे हैं । ये अर्धसैनिक वहाँ तैनात किये जा रहे हैं मजदूर, किसान, विद्यार्थी, छोटे दुकानदार, कर्मचारी और मेहनतकश जनता माओवादी हिंसा, धमकी, फिरौती, वसूली, बंद से त्रस्त है । दरअसल ये अर्धसैनिक वहाँ तैनात किये जा रहे हैं जहाँ माओवादी नक्सलियों का आधार क्षेत्र हैं तथा । ऐसी हिंसा के रास्तों से चलकर और लोंगो को चलने के लिए बाध्य करके माओवादी विकास का जाने कौन-सा माडल लाना चाहते हैं ? माओवादी नक्सली लोग या जनता नहीं हो सकते । आम लोग या जनता हिंसा नहीं चाहती । माओवादी नक्सली हिंसावादी हैं । यह कैसी बुद्धिजीविता है जहाँ माओवादी या आमजन/जनता में कोई अंतर नहीं दिखाई देता । ऐसे माओवादियों को भी जनता मानने का मतलब क्या यह नहीं होगा कि भारत में हत्यारे, लुटेरे, विध्वंसक को भी जनता की श्रेणी में रखा जाये और उन्हें उनके ऐसे कार्यों को अंजाम देने की वैधता प्रदान कर दी जाये । वह भी ऐसी माओवादी को, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारतीय संविधान की तौहीनी और हत्या, भारतीय प्रजातंत्र की समाप्ति और देश में माओवादी व्यवस्था को स्थापित करना है । जो जनता द्वारा चुनी सरकारों के सामने माओवादी आदिवासी हित का राग तो खूब अलापता है किन्तु आदिवासी हित के लिए न तो बातचीत के लिए तैयार है, न ही वह हथियार छोड़ना चाहता है । क्या यही नक्सली माओवादी वह भारतीय जनता है जो निरंकुशता, साम्राज्यवादी तरीकों से अपने आधार क्षेत्र के लाखों-करोड़ों आम लोगों का जीना दूभर कर चुके हैं ?

07. माओवादी बुद्धिजीवी जैसा कि कहते फिरते हैं - “माओवाद कुछ और नहीं बेइंसाफी के खिलाफ़ लोगों की बगावत है ।” वास्तव में यदि यही सच्चाई होती तो अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में निहत्थे और निरपराध गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासियों आये दिन मौत के घाट नहीं उतारे जाते । जोर-जबरन दुधमुंहे बच्चों को नक्सली नहीं बना दिया जाता । उन्हें स्कूल का रास्ता दिखाया जाता । युवाओं के हाथों में बंदूक नहीं पकड़ा दिया जाता, उसे शिक्षा और रोजगार के नये सोपानों से जोड़ा जाता । अधभूखे गरीब आदिवासियों से प्रतिदिन चावल, दाल आदि आंतक के बल पर नहीं वसूला जाता । खेतिहर मजदूर, छोटे किसान, लकड़हारों के आम रास्तों में बारूदी सुरंग बिछाया नहीं जाता । यदि वास्तव में माओवादी बेइंसाफी के खिलाफ़ बगावत होती तो सैकडों किशोरियों, महिलाओं के साथ माओवादी हिंसक, बर्बर और पशुतुल्य दुर्व्यवहार आये दिन नहीं करते । यदि वास्तव में माओवादी बेइसांफी के खिलाफ बगावत होती तो आदिवासियों द्वारा संचालित सलवा जुडूम को मानवाधिकार विरोधी करार नहीं देते । माओवाद मूलतः नयी तरह की साम्राज्यवादी हिंसक सेना है जो पूंजीपतियों, कार्पोरेट घरानों, उद्योगपतियों, भ्रष्ट नेताओं और अफसरों से वसूली करके ( इसके एवज में उन्हें उनके कदाचारों के लिए लायसेंस जारी करने का काम करता है ।) साधन जुटाता है और निहत्थे नागरिकों के मन में आतंक पैदा करके उन्हें अपने पक्ष में रहने के लिए विवश करता है । ऐसे माओवादियों का एकमात्र ध्येय देश में हिंसक तंत्र स्थापित करना है । जिनका साधन और साध्य ही हिंसा आधारित हो उसे आंतकवाद के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता है और आंतक केंद्रित व्यवस्था जनता के हित में हो ही नहीं सकती । आंतक और विकास एक दूसरे के विरूदार्थी हैं । मनुष्य के ज्ञात-अज्ञात इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जहाँ हिंसा, आंतक, भय के साथ ही जनता का विकास हुआ है । तथाकथित माओवादी शासन तंत्रवाले देशों में भी नहीं । यदि भारतीय बुद्धिजीवियों की यही मान्यता अंतिम है कि हिंसा के सहारे ही शोषण, भ्रष्ट्राचार, अत्याचार, दमन को रोका जा सकता है तो उन्हें यह भी कहना चाहिए कि अतीत में जो शोषण माओवादियों ने किया या भविष्य में भी (जैसा कि वे देश में माओवादी तंत्र चाहते हैं ) माओवादी शासक करेंगे तो उसका हल सिर्फ हिंसा ही था या होगा । और यदि यही बुद्धिजीवियों का अंतिम निष्कर्ष है तो साफ जाहिर है कि वे देश और जनता को हिंसक तंत्र की ओर धकेलना चाहते हैं । जैसा कि आज के तथाकथित माओवादी कार्यपालिक, न्यायप्रणाली, मतदान पद्धति, जनप्रतिनिधित्वकारी इकाइयों के माध्यम से विकास, शांति और सुरक्षा के अनुशासनिक व्यवस्था जैसी सभी प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं का विरोध करते हैं और मात्र हिंसक रास्तों को विकास का क्रांतिकारी उपाय घोषित करते हैं । बुद्धिजीवियों की यह कितनी बड़ी भूल है जो कहते हैं कि “ भारत के 600 जिलों में से 223 जिलों के लोग माओवादी विचारधारा के हैं और वे हर तरह के शोषण को खत्म करने के लिए लाखों की संख्या में एकजुट हो कर संघर्ष कर रहे हैं।”

08. भारतीय हुकूमत भारतीय जनता के लिए है, भारतीय जनता की हुकूमत है और भारतीय जनता के द्वारा स्थापित हुकूमत है, किसी माओवादी हिंसावादियों की हुकूमत नहीं, जो देश में सिर्फ हिंसा केंद्रित वैकल्पिक मॉडल देना चाहते हैं । भारतीय हुकूमत करोड़ों लोगों के विरोध में नहीं है, बल्कि उन माओवादियों के विरोध में है जो देश में हिंसावादी शासनतंत्र अर्थात् हिंसा आधारित न्यायव्यवस्था, हिंसक कार्यप्रणाली, हिंसामूलक विधायिका के लिए सपना देख रहे हैं । और जिसके परिणाम मे अब तक हजारों निहत्थे आदिवासी, आम नागरिक, पुलिस कर्मी मारे जा चुके हैं और ऐसी कोई व्यवस्था आ गयी तो भविष्य में चीन की तरह दिन दहाड़े लाखों-करोड़ों नागरिक मार डाले जायेंगे । ऐसी विशुद्ध माओवादी आंकाक्षाओं को करोड़ों भारतीयों की जन-आकांक्षा कैसे और क्योंकर कहा जाना चाहिए, जिसके मूल में विदेशी और असफल सिद्धातों की दुहाई दी जाती रही हो, और जिसके संचालन के लिए विदेशों की भूमिका पूर्णतः संदिग्ध हो, और जो हजारों शहीदों के बलिदान पर मिले प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता को मूल से नष्ट्-भ्रष्ट्र करने पर आमादा हो । यह दबे, कुचले लोगों के प्रतिरोध का आंदोलन नहीं, चंद प्रजातंत्र विरोधी माओवादी नेताओं की दुकानदारी है, जिनके बच्चे देश-विदेश के आलीशान युनिवर्सिटी में पढ़ते हैं, जिनका परिवार देश के बड़े-बड़े महानगरों के वातानुकूलित और चमचमाते बंगलों में रहते हैं, जिनके नाम अकूत धन दौलत देश और विदेश के बैंकों में जमा है । क्या ऐसे आचरणवाले क्रांतिकारी गरीब, आदिवासी, पिछड़े, दलित लोगों के लिए परिवर्तनकामी आंदोलन चला सकते हैं ?

09. देश के बुद्धिजीवियों के ज्ञान, सूचना एकत्रीकरण और अनर्गल तर्क की दुहाई ही दी जा सकती है जिसके अनुसार चुनी हुई सरकारें देश में आपरेशन ग्रीन हंट के जरिये लोगों की इच्छाओं, उनके संघर्षों, उनके प्रतिरोधों तथा एक बेहत्तर जिंदगी जीने के संकल्प का गला दबा देना चाहती है । आपरेशन ग्रीन हंट नामक कोई आपरेशन देश में नहीं चलाया जा रहा है । यदि इस नाम का कोई आपरेशन चलाया जाता तो इसकी सूचना सिर्फ माओवादियों को नहीं आम नागरिकों को भी मिलती । हमारी अधिकतम जानकारी के अनुसार आपरेशन ग्रीन हंट सिर्फ छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा माओवादी हिंसा से ग्रस्त इलाकों अर्थात् बस्तर, दंतेवाड़ा, सरगुजा में चलाया जा रहा पुलिस अभियान है जिसका उद्देश्य आदिवासियों के विकास में बाधक बने और पूर्णतः हिंसक हो चुके माओवादियों के स्थायी अड्डों को ध्वस्त करना है, जहाँ हथियारों का जखीरा है, जहाँ देशी अस्त्र शस्त्र तैयार किये जाते हैं, जहाँ नक्सली हिंसा और आंतक मचाने के लिए युवाओं को प्रशिक्षित किया जाता है ।

10. माओवाद भारत का सबसे बड़ा अंदरूनी खतरा है । इसे न केवल देश के प्रधानमंत्री स्वीकार रहे हैं, बल्कि गृहमंत्री सहित देश के विभिन्न दल भी । सत्तारूढ़ दल और सशक्त प्रतिपक्ष भी । और तो और कभी माओवाद के लिए साँसे भरनेवाले वामपंथी पार्टियाँ भी । नक्लसवाद के पितामहों मे से प्रमुख कानू सान्याल का अभिमत भी ऐसा ही कुछ है जो जनता के खिलाफ़ कथित कारिडोर के लिए नक्सलियों की आलोचना करतें हैं । क्या देश के सारे प्रजातांत्रिक दल और उसके सभी सांसद जनता के विरोधी हो गये हैं, जो एकतरफा माओवादियों को शांति, अमन-चैन और विकास के लिए संकट मान रहे हैं ? देश में ऐसी भी हालत नहीं है कि सारे के सारे जन प्रतिनिधि आंख मूँदकर जनता के खिलाफ कर रहे हैं । पिछले 62 सालों में जो भी, जैसा भी और जितना भी विकास हुआ है उसके पीछे सिर्फ़ न केवल भारत के शासक जिम्मेदार हैं, बल्कि स्वयं उस विकास के लिए भारतीय जनता की सचेतनता, जागरुकता, भौगोलिक परिस्थितियाँ भी महत्वपूर्ण रही है । पिछले 62 सालों में हमें सिर्फ असफलतायें ही नहीं मिली हैं, विकास की एक धीमी गति पर विश्वास करने वाले जनता के देश भारत में कई तरह की उन्नति भी हुई है। फिर आदिवासी, जिसके लिए विकास का पैमाना वह नहीं जो सिर्फ़ माओवादी सोचते हैं, क्या उसके नेतृत्वकर्ताओं सैकड़ों सांसदों, विधायकों आदि ने भी आदिवासी जनता का शोषण किया ? उनके विकास के मार्ग में रोड़े अटकाये ? सच तो यह भी है कि मनुष्य या जनता का विकास और उन्नति वही नहीं जिसे राजनैतिक दल या कोई माओवाद जैसा हिंसक तंत्र ही सोचे । यदि ऐसा होता तो माओवादी देशों में भारत और आदिवासी क्षेत्रों से भी बदतर स्थिति नहीं होती । विकास बंदूक की नोक पर हो ही नहीं सकता । विकास के लिए सिचिंतित योजना चाहिए, उस योजना के प्रति जनता की ललक चाहिए, उस योजना को क्रियान्वित करने के लिए जागरूक और समर्पित नेतृ्त्व चाहिए । यदि बस्तर और उसके जैसे आदिवासी क्षेत्रों में पिछले 60 सालों से विकास रुका रहा तो क्या उसके लिए माओवादियों ने कोई प्रयास किया ? यह तो किसी से नहीं छुपा है कि वे वहाँ पिछले 4-5 दशक से सक्रिय हैं । क्या वे अबूझमाड़ में सिर्फ़ एशिया का सबसे बड़ा हिंसक नक्सली फौज को प्रशिक्षण देने का काम नहीं करते रहे हैं ? यह कौन-सा विकास कार्य था ? यह भी तो सैन्य कार्यवाही थी और अवैध सैन्य कार्यवाही थी । जितने आदिवासी युवा, किसान, नागरिक, महिला बस्तर और नक्सली क्षेत्रों में माओवादियों के बहकावे में आकर, माओवादी बनकर मारे जा चुके गये हैं, क्या उन्हें कम से कम ये माओवादी विकास के रास्तों से नहीं जोड़ सकते थे ? यदि माओवादी चाहते तो ऐसे युवा आदिवासियों को प्रशिक्षित करके, दक्ष बनाकर आदिवासी जनता का सच्चा पहरूआ भी तो बना सकते थे । जो संसद, विधानसभा या अन्य इकाईयों में प्रतिनिधित्व करके कथित अविकास को विकास में बदल सकने का प्रयास कर सकते थे । यह तो दूर की बात है, वे तो उन सारे आदिवासियों को पिछले कई संसद और विधान सभा सहित तमाम चुनावों में भाग लेने से मौत तक की सजा देते रहे हैं । आखि़र यह कौन-सा रास्ता है विकास का ? माओवादियों की रणनीति और क्रियान्वन के गोपनीय दस्तावेजों को देखें तो साफ प्रमाणित हो जायेगा कि इनका लक्ष्य आदिवासियों का विकास नहीं, उनके सहारे देश में गृहयुद्ध की स्थिति निर्मित करना है, जिसमें सरकारों, व्यवस्था के विरोध में जनता को एक सेना की तरह उपयोग कर सकें । और फिर जीत मिलने पर प्रजातंत्र के स्थान पर बंदूक के साये वाली तानाशाही को शेष बची जनता को लाद सकें । यदि ऐसा नहीं है, नहीं होता तो माओवादी एक प्रजातांत्रिक राजनैतिक दल की तरह चुनाव में भाग लेते, और जैसा कि वे खुद ही कह रहे हैं - देश के सारे आदिवासी आज माओवाद स्वीकार चुके हैं, उनके सहारे संसद, विधानसभा, आदि प्रशासनिक और प्रजातांत्रिक इकाइयों में पहुँचकर आदिवासियों का विकास कर रहे होते । यदि ऐसा नहीं है, नहीं होता तो वे आदिवासी क्षेत्रों में अब तक संभव हुए विकास के बुनियादी ढांचों को ही नेस्तनाबूत नहीं कर रहे होते । (बस्तर के विनाश के आंकड़े) । और कम से कम इसके लिए तो माओवादी जिम्मेदार ही जिम्मेदार हैं, न कि जनता और शासक । सच तो यही है कि वे जनता और आदिवासियों को चयन का अधिकार देना ही नहीं चाहते । माओवादी चाहते हैं कि देश के आदिवासी वहीं चयन करें जो माओवादी कहते हैं और वह है - बंदूक, बम और बारूद । इससे क्या यह स्वतः प्रमाणित नहीं हो जाता कि माओवाद मूलतः और विशुदतः जन विरोधी अवधारणा है, आदिवासी विरोधी कार्यवाही है, प्रजातंत्रविरोधी हिंसक फैंटेसी है ।

11. माओवादी हिंसा को केंद्र में रखकर प्रलाप करने वाले बुद्धिजीवियों को यह कहने का कोई अधिकार नहीं बनता कि वे अंहिसक आदिवासी जनता को माओवादी गुरिल्ला सैनिक बनाकर उसे अपनी ही बिरादरी और देश, समाज, जनता के खिलाफ हिंसा करने के लिए खुली छूट देने की वकालत करें और देश उसे मान भी जाये । उन्हें यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए कि हिंसक माओवादी और जनता दोनों एक ही हैं या समूचा देश या सारे आदिवासी माओवादी बन गये हैं । यदि देश में हिंसा का तांडव करने वालों के खिलाफ अभियान चलना है तो यह देश के उन सौ करोड़ आबादी के लिए भी आवश्यक है, जो डेमोक्रेसी पर विश्वास करते हैं । जो शांतिपूर्ण तरीकों से संभावित विकास करना चाहते हैं । जो हिंसा आधारित माओवाद पर विश्वास नहीं करते, जो शांतिपूर्ण सहअस्तित्व वाले जीवन के आंकाक्षी हैं, ऐसे 100 करोड़ जनसंख्या वाले समाज में आतंक और भय रहित वातावरण देने के लिए चलाये जा रहे अभियान को मानवाधिकार के प्रश्नों से जो बिंधना चाहते हैं, क्या उन्होंने अतीत में आदिवासियों के मानवाधिकारों की रक्षा की है ? यदि वे मन, वचन और कर्म से मानवाधिकार के संरक्षक होते तो बड़ी संख्या में माओवाद के पक्ष में नहीं आनेवाले ग्रामीण बस्तरिहा को जनसुनवाई में कत्लेआम नहीं करते । यदि वे मानवाधिकारवादी होते तो नक्सली हिंसा त्याग कर सामान्य जीवन की ओर लौटनेवाले अपने ही पूर्व संघम सदस्यों, कार्यकर्ताओं, गुरिल्ला सैनिकों, मुखबिरों का एनकाउंटर नहीं करते । हिंसा त्याग कर आम नागरिक की तरह जीवन जीने की आकांक्षा रखनेवाले आदिवासियों को मौत के घाट उतार देने वाले माओवादी मानवाधिकार के हिमायती हो ही नहीं सकते । माओवादी नक्सलियों की ऐसी कार्यवाहियाँ यदि आंतकवाद नहीं है तो फिर किसे आंतकवाद कहेंगे ? और ऐसी आंतककारी गतिविधियों पर बिना लगाम लगाये आदिवासी क्षेत्रों में शांति बहाल नहीं की जा सकती । ऐसी आतंककारी गतिविधियों पर बिना लगाम लगाये वहाँ विकास कार्यों को अंजाम नहीं दिया जा सकता । खास कर तब, जब वहाँ सार्वजनिक संपत्ति का नाश ऐसे ही फर्जी मानवाधिकार की गुहार लगानेवाले माओवादी द्वारा किया जा रहा हो । गला तो माओवादी दबाना चाहते हैं उस प्रजातंत्र का, जहाँ कम से कम स्वतंत्रतापूर्वक जीने, विचार करने, बोलने आदि का अधिकार नियमित है। माओवादी की दृष्टि में तो हर वह व्यक्ति, कार्य, मूल्य, विचार, संस्था, संस्कृति, दर्शन, व्यवस्था साम्राज्यवादी है जो माओवाद पर विश्वास नहीं करती, जो खून खराबा का विरोध करती है, जो शांतिपूर्ण संवादिक जीवन की आंकाक्षा रखती है, जो अपने विकास के लिए स्वयं पर आत्मनिर्भर रहना जानती है । माओवादी यदि हिंसा के माध्यम से देश में समानांतर व्यवस्था चाहते हैं तो यह सबके लिए खतरा है । उनके लिए जो आदिवासी है और उनके लिए जो आदिवासी नहीं हैं । और इसलिए ऐसे आंतक से मुक्ति जितना जल्दी संभव हो, देश स्वागत करना चाहेगा ।

12. भारत की हुकूमत साम्राज्यवादी, उद्योगपति, अपराधी, शोषक, भ्रष्ट्राचारी, दलाल ही नहीं चला रहे हैं । ये विश्व के सबसे बड़े गणराज्य की करोड़ों जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हैं । ये आदिवासी सहित अपने देश के लोगों के खिलाफ नहीं है । उनके खिलाफ तो अराजक, संविधानविरोधी, प्रजातंत्रविरोधी माओवादी हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य देश को गृहयुद्ध के मुहाने पर धकेलना है । और फिलहाल देश को वे गृहयुद्ध के लिए बाध्य कर रहे हैं । देश में न्याय का शासन है । यदि हिंसा करने पर उतारू कुछ चंद लोगों से समाज को बचाना दमन है तो दमन वह भी है जो नक्सलियों द्वारा बस्तर, दंतेवाड़ा अबूझमाड और देश के कई हिस्सों में दिन-प्रतिदिन किया जा रहा है । जनविरोधी सरकारी नीति के विरोध में तो कोई भी नागरिक न्यायालय की शरण ले सकता है, जनहित याचिका ला सकता है, न्याय पा सकता है किन्तु माओवादियों के खिलाफ जानेवाले को माओवादियों की जनअदालत या जनसुनवाई में सिर्फ और सिर्फ मौत या नृशंस शारीरिक प्रताड़ना के अलावा कोई न्याय नहीं मिलता । अपने विरोधियों का समर्थन नहीं करनेवाले निहत्थे आदिवासियों का सरेआम सिर कलम कर देना कौन-सा न्याय दर्शन है ? प्रजातंत्र में तो न्यायालय हैं, प्रतिपक्ष है, अभिव्यक्ति है, किन्तु माओतंत्र में ये सब एक सिरे से गायब हैं । क्या यही तंत्र या व्यवस्था लोगों को बेहत्तर जिंदगी देगी, सोचने का मुद्दा है । क्या ऐसे ही जनविरोधी, आदिवासी विरोधी, गरीबविरोधी, दलितविरोधी, न्यायविरोधी, समानताविरोधी, वैचारिक स्वतंत्रताविरोधी माओवाद को सलाम करना चाहिए ?

13. भारतीय प्रजातंत्र संविधान और कानून आधारित व्यवस्था है। जहाँ जनहित याचिका, अपील, प्रदर्शन, हड़ताल, चक्का जाम, भूख हड़ताल जैसे प्रजातांत्रिक विरोध की मान्यता है वह भी अहिंसक और शांतिपूर्ण तरीकों से किन्तु विरोध के नाम पर देश, समाज और व्यक्ति के समक्ष हिंसक गतिविधियों और भयग्रस्त माहौल की छुट किसी को नहीं दी जा सकती । रहा सवाल शासकीय दमन का तो सभी पढ़े लिखे लोग जानते हैं कि कानून का हनन करनेवाले देश के बड़े से बड़े ओहदेदार को भी नहीं बख्शा जाता । न केवल भारत जैसे डेमोक्रेसी में, अपितु संसार के सभी सूबों में चाहे वह हिंसक और गैरकानूनी गतिविधियों के लिए दंड का प्रावधान है । इसे भले ही माओवादी नहीं मानते किन्तु भारत की पढ़ी-लिखी जनता और बुद्धिजीवी जानते हैं । हिंसा के ख़िलाफ कार्यवाही माफिया का काम नहीं, हिंसा का समर्थन माफियागिरी है जिसके लिए आज माओवादी एक गिरोह की तरह आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय हैं । देश के भीतर प्रजातंत्र और उसके बरक्स कथित माओतंत्र से जनता की खुशहाली का स्वांग नक्सली भर रहे हैं और जनतंत्र और हिंसातंत्र के मध्य सरहदें खींच रहे हैं । यह सरहदें ही तो हैं जिसमें एक ओर प्रजातंत्र के करोड़ों हिमायती आंतकित हैं और दूसरी ओर माओवादी नक्सली आंतककारी हैं । हिंसा को रोकने के अभियान को हुकूमती हिंसा का शिकार वे ही कह सकते हैं जो देश में अपनी मनमानी की वैधता चाहते हैं । इसका मक़सद सबसे ग़रीब आदिवासी, किसानों और खदानों में काम करने वाले मजदूरों के जुल्म के खिलाफ लड़ने के हौसले को तोड़ना नहीं उन्हें हिंसामुक्त वातावरण देना है । हिंसामुक्त वातावरण की गति को रोकने की शासकीय कार्यवाही यदि दमन है, जैसा कि माओवादी बुद्धिजीवी निरूपित कर रहे हैं तो यह देशवासी को उकसाने या दिग्भ्रमित करने की नाकामयाब कोशिश ही है जिसे कोई भी मानने के लिए तैयार नहीं होगा । प्रजातंत्र में प्रतिरोध का आशय हिंसा से ही समस्या का समाधान नहीं होता है, प्रतिरोध का आशय मारकाट, लूटपाट, अवैध वसूली, विचारात्मक दमन, सार्वजनिक संपक्ति का सर्वनाश नहीं होता है । यदि इसे माओवादी मान्यता चाहते हैं, इसी रास्ते को जनमुक्ति का मार्ग सिद्ध करना चाहते हैं तो वह संभव नहीं हो सकता । माओवादियों और उनके भाड़े के टट्टू बने आत्मघाती बुद्धिजीवियों ने देश भर में सरकारों, सरकार पर बैठे जनप्रतिनिधियों, शासकीय कर्मियो के रूप कार्यरत पुलिस, सेना और अन्य विभाग के अधिकारियों, कर्मचारियों के खिलाफ़ अनर्गल दुष्प्रचार की झड़ी लगा दी है ताकि आम आदमी प्रजातांत्रिक इकाइयों के खिलाफ सोचने लगे और इसी लय में वह हिंसक माओवाद का भी समर्थन करने लगे । यह माओवादियों द्वारा अपनी करतूतों को ढँकने का नाकामयाब प्रयास है, दुस्साहस है ।

दंडकारण्य में हिंसा और विध्वंस का तांडव
01 . बस्तर, दंतेवाडा आदि का वनांचल जनपद, जिसे माओवादी साहित्य में दंडकारण्य कहा जाता है, आज पूरी तरह से हिंसा और विध्वंस का गढ़ बन चुका है । गाँव या तो सूने पड़े हैं या फिर नक्सलियों के आधिपत्य स्वीकार करने वाले दो चार ग्रामीण वहाँ दिखते हैं । हाट बाजार पर शून्य पसरा हुआ है । आदिवासी पहले भूख से त्रस्त थे, अब माओवादियों के भय से त्रस्त हैं । यहाँ प्रत्येक आदिवासी को अपने नन्हें-मुन्नों का पेट काटकर दादाओं (माओवादी नक्सली नेता) साप्ताहिक या मासिक चावल, चाल, मूर्गी, सब्जी आदि देना पड़ता है । जिससे उनके बच्चे लगातार कुपोषण के शिकार हो रहे हैं । आदिवासी औरतें दिन दहाड़े उठी ली जाती हैं । आदिवासियों के अपने पारंपरिक धर्म और कर्म के आधार पूजा पाठ पर माओवादियों ने प्रतिबंध लगा दिया है । जो आदिवासी ग्रामीण वनोपज और छोटी-मोटी खेती से अपने परिवार का पेट भरते थे, आज बंदूक की नोक पर संघम सदस्य बनकर माओवादियों के साथ जंगल-जंगल भटकने को विवश हैं । इन्हीं आदिवासी संघम सदस्यों को ही माओवादी दादाओं द्वारा पुलिस सर्चिंग में आगे कर दिया जाता है और अंततः मुठभेड़ में आदिवासी ही मारा जाता है, माओवादी दादा बिलकुल सुरक्षित बच निकलते हैं । दंडकारण्य के आदिवासी यदि दादाओं की हुकूमत या फरमान का पालन करने पर एतराज करते हैं तो सरेआम उनके हाथ पाँव काट दिये जाते हैं । हिंसक माओवादी साथ नहीं देनेवाले आदिवासी ग्रामीणों को अपना विरोधी करार देकर जनसुनवाई में हत्या कर देते हैं । यानी कि माओवादियों के अनुसार यही जनविकास की असली रणनीति है । इसे ही वे जनविकास कमेटियाँ कहते हैं । दंडकारण्य में केवल आदिवासी ग्रामीण ही नहीं, वहाँ पदस्थ शासकीय कर्मचारी भी माओवादियों की हिंसा से भयग्रस्त होकर काम पर नहीं जाना चाहते । शासकीय चिकित्सालय डाक्टरों के बिना सूने पड़े हैं । स्कूलों में माओवादी गुरिल्लों ने डेरा जमा लिया है । वनकर्मी नक्सलियों को जंगल काटने और लुटने देने की शर्त पर जिंदा रहने को लाचार हैं । वहाँ सरकारी राशन की दुकान वही चला सकता है, जो उनके इशारों पर कार्य करे । उन्हें हिस्सा पहुँचाये । दंडकारण्य में रातों-रात सड़क खोद दिये जाते हैं । बिजली के सैकड़ों ट्रांसफार्मर उड़ाये जा चुके हैं। दर्जनों बार सैकड़ों गाँवों-घरों को अंधेरे में तब्दील किया जा चुका है । सैकडों पंचायत भवन, सामुदायिक भवन, अस्पताल जमींदोज किये जा चुके हैं । हजारों ट्रक, ट्रेक्टर, बस, क्रेशर, आदि के साधनों-संपत्तियों को जलाकर राख में तब्दील किया जा चुका है । दर्जनों बैंको, सहकारी संस्थाओं को लुट लिया गया है । कई गाँवों के खेतो, खलिहानों को आग के हवाले सौंप कर भस्म कर दिया गया है । ऐसी परिस्थितियों में नये विकास कार्यों को अंजाम देने के लिए वहाँ कोई एजेंसी आने को कैसे तैयार हो सकता है ? अरबों-खरबों रूपयों की संपत्ति नष्ट हो चुकी है । सच कहें तो आज दंडकारण्य हिंसा और विध्वंस का गढ़ बन चुका है । क्या माओवादियों के अनुसार यही वे तरीके हैं जो आदिवासियों को साम्राज्यविरोधी पूँजी की जकड़ और उसके आदेशों से मुक्त कर देंगे ? क्या इन्हीं कार्यों को सच्ची देशभक्ति और ताकत कहते हैं ? जैसा कि माओवादी कहते हैं । बात इतनी ही नहीं है – माओवादी ने पांरपरिक ग्रामीण व्यवस्था के अनुसार पंच, सरपंच, कोटवार, ग्राम प्रधान, मुखिया के स्थान पर अपने कैडर के लोगों को बिठा दिया है । दंडकारण्य में वहीं होगा, जो नक्सली चाहेंगे । इसका जीता जागता उदाहरण माओवादियों के खिलाफ शुरू हुआ आदिवासियों का ‘सलवा जुडूम’ जनांदोलन है जिसके प्रमुख आदिवासी नेताओं को एक-एक कर मारा जा रहा है । जिसके विरोध में देश और विदेश में माओवादियों के किराये पर पलनेवाले बुद्धिजीवियों ने हो-हल्ला मचाया । उसे अलग-थलग करने की सारी कोशिश की गई । इतना ही नहीं जब जब माओवादियों की हिंसा, आंतक और भय से डरकर ग्रामीण गाँव छोड़ने को विवश हुए, उन्हें बहला-फूसलाकर गाँव लाया गया और अंत में उन्हें चुन-चुनकर मार डाया गया ।

02 ऐसे माओवादियों के द्वारा आदिवासियों के लिए खेती, बागवानी की शिक्षा दिये जाने, मछली पालन, सिंचाई, बांध, तालाब बनाने के एक भी एक उदाहरण स्थानीय निवासियों को देखने को नहीं मिलते किन्तु राज्य से बाहर के माओवादी दर्शनार्थियों, शोधार्थियों को यह दिखता है तो उन्हें उसकी लोकेशन सहित अन्य ब्यौरे भी देने चाहिए ताकि कम से कम दंडकारण्य के आदिवासियों को विश्वास हो चले कि वास्तव में माओवादियों के पास विकास का कोई माडल है । यह कोरा झूठ है कि माओवादियों ने चावल के मीलें दंडकारण्य क्षेत्र में स्थापित किया है, स्कूल खोला है, अस्पताल खोला है । यदि वे ऐसा करने के लिए लालायित होते तो वहाँ पहले से बने स्कूलों, अस्पतालों, खाद वितरण केंद्रों, सामुदायिक भवनों को बंद नहीं कराते फिरते । हाँ गाँव-गाँव में आतंककारियों का संघम है जिसे वे जन संगठन कहते हैं । महिलाओं और बच्चों का भी दस्ता है जिसे वे अपने हितों के लिए छापामारी युद्ध के लिए तैयार कर रहे हैं ।

पत्र-पत्रिकाओं, पोस्टर, इंटरनेट के साइट्स, ब्लॉग्स के माध्यम से देश के लोगों को बताया जा रहा है कि ऐसे माओवादी देश की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है । वे गरीब, दलित, पिछड़े और आदिवासी जनता के लिए संघर्ष कर रहे हैं । उनके सिद्धातों पर चलकर ही आदिवासियों सहित आम भारतीय का विकास संभव है ।

आयें जागें । आयें विचार करें । आव्हान करें कि लोग ऐसे देशद्रोहियों, अराजक, हिंसावादियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करें ताकि देश के आदिवासियों को अमन-चैन की जिंदगी जीने का हक मिले । विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बच सके ।
डॉ. बलदेव
वरिष्ठ साहित्यकार एवं संस्कृति कर्मी