Thursday, April 29, 2010

बस्तर के पिछड़ेपन के लिए नक्सल हिंसा जिम्मेदार

रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने बस्तर के पिछड़ेपन के लिए नक्सलियों को जिम्मेदार ठहराया है तथा कहा है कि आदिवासियों के विकास में रुकावट डालने वालों को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।

मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कल यहां ''भारत की अनुसूचित जनजातियां: कल, आज और कल'' विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि 21वीं सदी के इस आधुनिक दौर में भी यदि के बस्तर संभाग के आदिवासी 18वीं सदी का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं तो इसके लिए नक्सली और नक्सल हिंसा पूरी तरह जिम्मेदार है जिन्होंने वहां अपनी विध्वंसक गतिविधियों के जरिए जनता के विकास के तमाम रास्ते बंद कर दिए हैं।

मुख्यमंत्री ने कहा कि नक्सलियों ने 'लोकतंत्र की बुनियाद' पंचायतों पर हमले किए, स्कूल भवन, सड़कें और पुल नहीं बनने दिए, बिजली के टावरों को उड़ाकर अंधेरा फैलाया, निहत्थे और निरीह ग्रामीणों की हत्या की, वनवासियों को साल बीज और तेन्दूपत्ता इकट्ठा करने से रोका और उनकी रोजी-रोटी पर हमला किया। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए वचनबद्ध है और उनके जीवन में खुशहाली लाने के लिए वहां कई योजनाएं लागू कर रही है।

रमन सिंह ने कहा कि बस्तर का आदिवासी समाज नक्सल हिंसा से तंग आ चुका है। वह अपनी आत्मा की आवाज पर अहिंसक और गांधीवादी तरीके से सलवा जुडूम जैसे स्वस्फूर्त आंदोलन के जरिए नक्सल हिंसा का प्रतिकार कर रहा है। हमारी महान आदिवासी संस्कृति और देश के जनजातीय समाज में बारूदी हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है।

सिंह ने दावे के साथ कहा कि एक दिन नक्सल हिंसा का खात्मा होगा और नक्सल समस्याग्रस्त बस्तर जैसे इलाकों में एक बार फिर शांतिपूर्ण विकास और खुशहाली का वातावरण बनेगा।

आदिवासी क्षेत्रों के विकास में नक्सल हिंसा को सबसे बड़ी बाधा और सबसे बड़ी चुनौती बताते हुए रमन सिंह ने कहा कि ठेकेदारों और सीधे-सादे छोटे कर्मचारियों को डरा-धमका कर बस्तर से हर साल 300-400 करोड़ रुपए तक तथाकथित लेवी वसूल करने वाले ये नक्सली किसी भी हालत में आदिवासियों के हितैषी नहीं हो सकते।

उन्होंने कहा ''नक्सली वास्तव में वहां का विकास नहीं चाहते हैं। वे अगर वास्तव में भूमि सुधार और आमजनता के जीवन में बेहतरी के इच्छुक हैं तो उन्हें हिंसा छोड़कर सामने आकर मुझ से चर्चा करनी चाहिए। मुख्यमंत्री स्तर से ज्यादा खुला मंच और क्या हो सकता है। वे आएं, चर्चा करें तो मैं उन्हें बताऊंगा कि राज्य सरकार आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए क्या कुछ कर रही है।''मुख्य अतिथि की हैसियत से संगोष्ठी को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों का बेहतर और संतुलित विकास आज के समय की मांग है। उन्होंने बस्तर की वर्षो से लम्बित बोधघाट जल विद्युत परियोजना का उल्लेख करते हुए कहा कि इसके लिए 20 साल पहले ही वैकल्पिक वृक्षारोपण किया जा चुका है, फिर भी 200 करोड़ से भी ज्यादा राशि खर्च होने के बावजूद इस परियोजना का काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है।

मुख्यमंत्री ने कहा कि देश और प्रदेश के वन बहुल आदिवासी क्षेत्रों में सिंचाई तथा अन्य विकास परियोजनाओं के लिए छोटी-छोटी कानूनी रूकावटों को दूर करने के लिए वन और पर्यावरण संबंधी नियमों के सरलीकरण और उन्हें तर्कसंगत ढंग से व्यावहारिक बनाए जाने की जरूरत है ताकि ऐसे इलाकों में सामाजिक-आर्थिक विकास की गति तेज हो सके।

सिंह ने कहा ''विकास के मामले में दोहरी नीति और दोहरे मापदंड नहीं होने चाहिए। कुछ लोग यह चाहते हैं कि टायगर जिंदा रहे, भले ट्रायबल पिछड़ेपन का शिकार होकर पिसता रहे। आज टायगर लॉबी भी देश के लिए खतरनाक साबित हो रही है, जो ऐसे इलाकों में टायगर के नाम पर ट्रायबल का विकास नहीं चाहते।''

संगोष्ठी का आयोजन कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा राज्य शासन के आदिम जाति और अनुसूचित जाति विकास विभाग तथा एक निजी समाजसेवी संस्था के सहयोग से किया गया था।

नक्सली हिंसा से निपटने के प्रशिक्षण के लिए खुलेंगे स्कूल

रायपुर। नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में आतंकवाद और नक्सल हिंसा से निपटने के लिए तीन विशेष प्रशिक्षण स्कूल खोले जाएंगे।

आधिकारिक सूत्रों ने आज यहां बताया कि आतंकवाद और नक्सली हिंसा से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ में तीन विशेष प्रशिक्षण स्कूल खोले जाएंगे जहां राज्य में तैनात पुलिस बल के जवानों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा ताकि वे आतंकवाद और नक्सलियों का मुकाबला कर सकें।

अधिकारियों ने बताया कि राज्य सरकार ने पांचवीं बटालियन जगदलपुर, पुलिस प्रशिक्षण विद्यालय राजनांदगांव और राज्य पुलिस अकादमी चंदखूरी में काउंटर इंसरजेंसी एण्ड एंटी-टेररिस्ट स्कूल की स्थापना के लिए सूबेदारों के 24 और हवलदारों के 45 पदों के सृजन की स्वीकृति प्रदान कर दी है।

उन्होंने बताया कि राज्य के गृह विभाग ने इसके लिए आदेश जारी कर दिया है।

राज्य के गृह विभाग के प्रमुख सचिव एन. के. असवाल ने बताया कि इन विशेष स्कूलों में सूबेदार और हवलदार के पदों पर भर्ती सेना के पूर्व अधिकारियों में से की जाएगी। प्रशिक्षण स्कूलों में अन्य कर्मचारियों की व्यवस्था राज्य पुलिस करेगी।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ राज्य पिछले तीन दशक से नक्सली समस्या से जूझ रहा है। राज्य के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों ने पिछली छह अगस्त को भीषण हमला करके केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और राज्य पुलिस बल के कुल 76 जवानों की हत्या कर दी थी।

देश में अब तक के इस सबसे बड़े नक्सली हमले के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने समस्या से निपटने की कोशिश तेज कर दी है।

नक्सलियों ने फारेस्टर की नृशंस हत्या की

संबलपुर । ३० अप्रैल । नक्सलियों ने बुधवार की रात पश्चिम उड़ीसा के नुंआपाड़ा जिले की एक जांच नाका में तोड़फोड़ करते हुए वहां कार्यरत एक फारेस्टर की नृशंस हत्या कर दी। तोड़फोड़ व हत्या के बाद नक्सली हिन्दी में लिखे दो पोस्टर भी छोड़ गए। बताया जाता है कि नक्सली पड़ोसी छत्तीसगढ़ राज्य के मैनपुर डिवीजन के थे। घटना के बाद से नुंआपाड़ा के निवासी दहशत में हैं।

बताया गया कि बुधवार की रात 40 सशस्त्र नक्सली नुंआपाड़ा जिला के सुनाबेड़ा अभ्यारण्य के भरुआमुंडा जांच नाका पहुंचे और वहां तोड़फोड़ की। इसके बाद वहां कार्यरत फारेस्टर संग्राम केशरी स्वांई को जबरन अपने साथ ले गए। जांच नाका से थोड़ी दूर ले जाने के बाद नक्सलियों ने संग्राम का हाथ-पैर बांध दिया और उसके हाथ-पांव काटने के बाद एसएलआर से उसे गोली मार दी। संग्राम स्वांई की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। घटनास्थल पर पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के नाम से हिन्दी में लिखे पोस्टर भी मिले हैं, जिसमें जल-जंगल-जमीन पर आदिवासियों का अधिकार बताया गया है।

घटना की जानकारी मिलने के बाद गुरुवार को नुंआपाड़ा जिला पुलिस अधीक्षक विवेक रथ और एसडीपीओ प्रसन्न पंडा भरुआमुंडा पहुंचे। जांच पड़ताल के दौरान वहां से एसएलआर का एक खाली खोखा भी बरामद हुआ। खबर लिखे जाने तक तलाशी अभियान शुरू नहीं किया गया था। मृत संग्राम केशरी स्वांई का शव जब्त कर पोस्टमार्टम के लिए खरियार भेजा गया है। बाद में शव को उसके पैतृक गांव कटक जिला के निआली भेजा जाएगा। बताया गया कि फारेस्ट गार्ड के रूप में कार्यरत संग्राम केशरी को वर्ष 2008 में पदोन्नति मिली थी और वह फारेस्टर बना था।

माओवादी हमले में लिप्त दंपत्ति गिरफ्तार

खुर्दा। गत 15 फरवरी, 2008 को माओवादी हमले की घटना के सिलसिले में नयागढ़ जिला के एक माओवादी दंपत्ति को नयागढ़ टाऊन पुलिस ने गुणुपर से गिरफ्तार किया है। उनकी दो वर्ष की एक बेटी भी थी। नयागढ़ न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत में उनकी जमानत नामंजूर होने के बाद पुलिस उन्हे रिमाण्ड पर ले गयी। ये दंपत्ति नयागढ़ जिला रणपुर के लखनपुर कमलाकांत सेठी व उनकी बीबी रायगढ़ा जिला के गुराड़ी सम्बरलेण्डी गांव की चन्द्रावती टुकरा को पुलिस ने गुणपुर से गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। जेल से रिहा होने के बाद पुन: माओवादी घटना मे संलिप्तता के कारण पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया है। माओवादी के बारे में अधिक जानकारी के लिए पुलिस ने उन्हे रिमाण्ड पर लिया है।

माओवादियों ने जमीन हड़पने को ले चिपकाये पर्चे, दहशत


मुंगेर। स्थानीय थाना क्षेत्र के बंगाली टोला गांव के पीछे रेलवे लाइन के समीप असमाजिक तत्वों ने माओवादियों के नाम से रास्ता पर बने पुल में पर्चा साट दिया। इसके साथ ही लगभग बीस बीघे खेत के चारों ओर बड़े तथा छोटे ग्यारह झंडे के साथ ग्यारह पर्चे भी सटे पाये गये। सूचना मिलने पर बरियारपुर पुलिस उक्त स्थल पर पहुंचकर झंडे व पोस्टर को अपने कब्जे में ले लिया और इसे असामाजिक तत्वों की करतूत बताया। इसको लेकर लोगों में दहशत का माहौल व्याप्त है।

जानकारी के मुताबिक सोमवार की रात माओवादियो के नाम लिखे पर्चे जब मंगलवार की सुबह लोगों ने देखा तो जिसमें लहराये गये झंडे वाली जमीन को खरीद बिक्री पर रोक लगाते हुए कहा गया कि जमीनदारों की जमीन की जब्त कर आम जनता के बीच बांट दो, जमीनदारों की जमीन की खरीद बिक्री बंद करो। प्रसादी साह जमींदार की जमीन को खरीदना बंद करो आदि लिखा था। बरियारपुर थाना के एएसआई विजय कुमार ने इसे असामाजिक तत्वों की करतूत बताते हुए कहा कि दो लोगों के वर्चस्व के कारण ऐसा किया गया है। जबकि इस संबंध में जमीन मालिकों व स्थानीय लोगों से पूछा गया तो लोगों ने बताया कि पर्चा में जिसका नाम छापा गया है उसके पास मात्र तीन चार बीघा जमीन है तथा कोई भी जमीदार नहीं है । माओवादियों के नाम पर साटे गये पर्चे से लोगों में दहशत है तथा लोगों का कहना है कि रात ग्यारह बजे तक ऐसा कुछ भी नहीं था। तथा लोगों की आवाजाही भी ज्यादा नहीं हुई थी। उधर झंडा का कपड़ा नया एवं बांस पुरा कच्चा था। जिससे प्रतीत होत था कि आसपास से ही बांस काटकर लाया गया था।

एसटीएफ ने पकड़ी माओवादियों की मिनी गन फैक्ट्री


पटना । एसटीएफ आईजी के निर्देश पर स्पेशल आपरेशन ग्रुप ने बुधवार को मुजफ्फरपुर के पारु थाना क्षेत्र के मंसूरपुर घोटा में छापेमारी नक्सलियों की मिनी गन फैक्ट्री का उद्भेदन किया है। राजधानी से गई एसटीएफ की टीम ने छापेमारी के दौरान एक डीबीबीएल रेगुलर गन, तीन रायफल, दो पिस्तौल, बारूद, बम बनाने का अन्य सामान के साथ ही आधे दर्जन से अधिक अ‌र्द्ध निर्मित हथियारों को बरामद किया। इस क्रम में पुलिस ने एसएलआर की नौ गोली, 12 बोर की 8 गोलियां एवं दो खोखा बरामद किया गया है।

इस बाबत एसटीएफ के एसओजी डीएसपी गोपाल पासवान ने बताया कि आईजी आपरेशन व एसटीएफ एसपी को गुप्त सूचना मिली थी कि माओवादियों द्वारा मिनी गन फैक्ट्री का संचालन किया जा रहा है। तत्काल टीम गठित कर सूचना संग्रह करने लगी। गुरुवार की सुबह को टीम के लोगों ने मुजफ्फरपुर के सरैया थाना क्षेत्र के मधौल गांव में छापेमारी कर नक्सलियों से सांठ-गांठ रखने वाले हथियार तस्कर श्रवण दास को गिरफ्तार किया गया। उसके पास से एक रेगूलर डीबीबीएल गन, एक .315 रायफल, एसएलआर की नौ गोलियां, 12 बोर की 8 गोलियां, बम बनाने का बारूद, सुतली व अन्य अन्य सामान बरामद किया गया। श्रवण की निशानदेही पर इसी जिले के पारू थाना क्षेत्र के मंसूरपुर गांव में छापेमारी कर राजकुमार को गिरफ्तार किया गया। वह नक्सलियों के लिये हथियार का निर्माण करता था। उसके पास से गन बनाने के उपकरणों में ड्रील मशीनें, बट बनाने वाला लोहे का रंदा, लोहे की भांथी, लेथ मशीन, हथौड़ा, हेक्सा ब्लेड, रेती बरामद किया गया। इसके साथ ही .315 बोर का एक देशी रायफल, .22 का एक रायफल, दो पिस्टल, अ‌र्द्ध निर्मित रायफल का दो बट, रेगूलर गन के दो बट एवं रायफल बट बरामद किया गया। राजकुमार ने स्वीकार किया कि वह तैयार हथियारों को माओवादियों को भेजता था। अपराधियों के आपराधिक इतिहास खंगाले जा रहे हैं।

नक्सलियों के कहर से लोग सांसत में

गढ़वा। उग्रवाद प्रभावित गढ़वा जिले में पिछले कुछ माह से भाकपा माओवादी के साथ-साथ टीपीसी तथा जेपीसी जैसे नक्सली संगठनों बढ़ रहे प्रभाव से ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे लोगाें का जीना हराम सा हो गया है। विशेषकर भाकपा माओवादी से अलग हटकर बसंत यादव द्वारा टीपीसी के नामपर पिछले करीब दो माह से जो आतंक कायम किया गया है। वह आम लोगों के लिए चिंता का विषय है। बावजूद इस पूरे प्रकरण पर पुलिस का चुप्पी साधे रहना बेहद आश्चर्य है। विदित हो कि गढ़वा जिले में भाकपा माओवादी के साथ- साथ टीपीसी तथा जेपीसी जैसा संगठन भी इन दिनों काफी सक्रिय हो गया है। स्थिति यह है कि पिछले दिनों गढ़वा शहर के सीमावर्ती महुलिया कल्याणपुर तथा जाटा जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित ईट भठ्ठा मालिकों से हथियार दिखाकर लेवी के नाम पर रुपये वसुल कर चलते बने। जबकि इस संगठन के द्वारा केहुनिया नाला पर ठेकेदार के मुशिंयों की पिटाइ किया गया। यहां तक कि पड़ोसी जिला पलामू के करसो गांव में एक निर्दोष पोस्टमैन की हत्या भी कर दी गयी । ताजा घटना में उचरी में लेवी के लिए आधा दर्जन ग्रामीणों की पिटाई किये जाने जैसी घटना को भी देखी जा सकती है।

उक्त तमाम घटना के मूल में इन नये-नये पनपे संगठनों द्वारा संगठित गिरोह बनाकर पैसा उगाही करना ही उदेश्य रही है। ऐसी परिस्थिति में पुलिस का हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना आश्चर्य का विषय है।

नक्सली कमांडर के खिलाफ मिले अहम सुराग

नई दिल्ली । राजधानी दिल्ली को नक्सलियों का नया ठिकाना बनाने के काम में जुटे स्वयंभू नक्सली कमांडर गोपाल मिश्रा की गिरफ्तारी को दिल्ली पुलिस की बड़ी कामयाबी माना जा रहा है। उसके खिलाफ दिल्ली पुलिस को कुछ अहम सुराग हाथ लगे हैं। स्वयंभू नक्सली कमांडर गोपाल मिश्रा मूलत: पश्चिम बंगाल के मालदा का रहने वाला है। उसने पश्चिम बंगाल के जाधवपुर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है। वह पिछले सात-आठ साल से दिल्ली में रह रहा था। गोपाल के खिलाफ पहले कोई केस दर्ज नहीं है, उसे पहली बार गिरफ्तार किया गया है। पुलिस के अनुसार गोपाल की पत्नी अनु के हाथों में ग्रुप के महिला विंग की कमान थी, जबकि वह पुरुष विंग की कमान संभालता था। गोपाल को मजदूर यूनियन में घुसपैठ कर नक्सली जनाधार बढ़ाने के मिशन पर दिल्ली भेजा गया था। दिल्ली में उसका काम नक्सलियों के लिए ट्रेड यूनियनों का समर्थन जुटाना, नक्सलियों की भर्ती और दिल्ली आने वाले नक्सलवादियों को शरण देना था। वह दिल्ली में होने वाले नक्सलवादी समर्थक धरना-प्रदर्शनों के लिए भीड़ जुटाने का काम भी करता था। गोपाल के कब्जे से मिले दस्तावेजों से खुलासा हुआ है कि पिछले दिनों उसने बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड एवं पश्चिम बंगाल के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया था। उसके पास मिले लैपटाप को पुलिस ने जांच के लिए आईटी एक्सपर्ट के पास भेज दिया है। उसके पास से नक्सली साहित्य भी बरामद हुआ था। उल्लेखनीय है कि मंगलवार को कोबद घंडी समेत कई नक्सलियों से संपर्क रखने के आरोप में गोपाल मिश्रा और उसकी पत्नी अनु को दिल्ली पुलिस ने शाहदरा इलाके से गिरफ्तार किया था।

Wednesday, April 28, 2010

माओवादियों के बंद से ठहरा गांव-शहर


सिमडेगा। माओवादियों के दो दिवसीय बंद के पहले दिन सोमवार को जिला मुख्यालय व ग्रामीण क्षेत्रों में बंद का खासा असर रहा। वाहन नहीं चले और व्यवसायिक प्रतिष्ठान बंद रहे। प्रखंड मुख्यालयों में कई बैंक व डाकघर तक बंद रहे। बंद के कारण रोज कमाने खाने वालों को कोई आमदनी नहीं हुई। जनजीवन पूरी तरह से प्रभावित दिखा। बंद के दौरान बानो में भी इसका व्यापक असर दिखा। हालांकि बानो रेलवे स्टेशन से होकर गुजरने वाली रेलगाडि़यां अपने निर्धारित समय पर चलीं। इधर ठेठईटांगर में सन्नाटा पसरा रहा। बैंक, प्रखंड कार्यालय व अन्य कार्यालयों में लोगों की आवाजाही नहीं के बराबर थी। पुलिस सक्रिय रही। सलगापोंछ, केरेया, पंडरीपानी, बांसजोर, रेंगारीह और कोनमेंजरा सहित कई गांवों में बंद का व्यापक असर देखा गया। बंद के दौरान जिले में कहीं से किसी तरह की अप्रिय घटना का समाचार नहीं है।

नक्सलियों ने की माकपा नेता की हत्या

कोलकाता. 28 अप्रैल. पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में बुधवार को संदिग्ध नक्सलियों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के एक स्थानीय नेता की हत्या कर दी। पुलिस के मुताबिक झाड़ग्राम अनुमंडल के सुकना गांव में रहने वाले माकपा नेता निहार महतो को नक्सलियों ने घर से बाहर बुलाकर उनकी हत्या कर दी। पुलिस महानिरीक्षक (पश्चिम क्षेत्र) जुल्फिकार हुसैन ने कहा कि महतो माकपा के स्थानीय नेता थे। झाड़ग्राम जिले के पुलिस अधीक्षक प्रवीण त्रिपाठी ने कहा कि महतो का शव बुधवार सुबह बरामद किया गया। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के तीन जिले पुरुलिया, पश्चिम मिदनापुर और बांकुरा में नक्सली सक्रिय हैं।

चिदम्बरम, कर्मा और अन्य

ललित सुरजन
प्रधान संपादक, देशबंधु, रायपुर

इस समय देश की सबसे बडी चिंता शायद यही है कि नक्सल समस्या का समाधान कैसे हो। गत पांच वर्षों के दौरान खासकर छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का जो क्रूर स्वरूप सामने आया है वह अकल्पनीय था। हम नक्सलवाद को उसके उदयकाल याने 1967 से देखते आए हैं। अविभाजित म.प्र. में आदिवासियों की हितरक्षा के प्रश्न अपने प्रारंभिक दिनों में जब नक्सलवादियों ने उठाए तो एक बहुत बड़े वर्ग का यह मानना था कि वे एक जरूरी काम कर रहे हैं। उन दिनों उनके संघर्ष सरकार के सशस्त्र बलों के साथ हुआ करते थे तथा आधी रात को वे निहत्थे आदिवासियों पर हमला नहीं किया करते थे। 'देशबन्धु' देश का पहला समाचार पत्र था जिसने उस समय नक्सलियों के गुप्त ठिकानों तक पहुंचकर उनसे बातचीत की थी। तब ऐसे किस्से भी सुनने में आते थे कि किसी गांव में नक्सलियों ने तहसीलदार को लूटकर उससे रिश्वत के पैसे छीन लिए लेकिन वेतन की राशि वापिस कर दी। उन्हीं दिनों में अनेक तेंदूपत्ता व्यापारी भी मजे के साथ बतलाते थे कि उन्होंने 'दादा' लोगों को चंदा दिया; उनके द्वारा निर्धारित दर पर तुड़ाई का पैसा भी आदिवासियों को दिया और इस तरह अपना काम भी बना लिया।

ये सब पुरानी बातें हो गईं। आज नक्सलवाद जिस रूप में सामने है वह वैचारिक रूप से रत्तीभर भी आश्वस्त नहीं करता, बल्कि आतंक की छाया गहराती जा रही है। फिर भी यह तो सोचना ही होगा कि समाधान कैसे निकले। बड़ी-बड़ी बातें करने से कोई समस्या हल नहीं होती। धीरज और जतन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जनता को, उसके सामने जो भी खबरें आ रही हैं उनका तर्कसंगत विश्लेषण करने की जरूरत है। जब सूचनाओें का अंबार लगा हो तो उसमें सत्य और तथ्य घास के ढेर में सुई की तरह छुप जाते हैं। सुई को बाहर निकालना है याने सही निष्कर्ष तक पहुंचना है तो यह काम आनन-फानन में नहीं हो सकता। आज यह तय करना कठिन है कि किस पर विश्वास करें: टीवी पर चल रही बहसों पर, अखबारों में छपे लेखों पर, नेताओं के बयानों पर या सामाजिक कार्यकर्ताओं के वक्तव्यों पर। इस बात का परीक्षण कुछ उदाहरणों से किया जा सकता है।

'द स्टेट्समेन' भारत का एक प्रमुख अखबार है। इसे सामान्य तौर पर पूंजी समर्थक पत्र माना जाता है। पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार का लगातार विरोध यह पत्र करते आया है, लेकिन इसी अखबार ने पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदम्बरम पर गंभीर आरोप लगाते हुए उनके इस्तीफे की मांग की। एक तरफ भाजपा के प्रवक्ता चिदम्बरम की प्रशंसा करते हैं, उनसे इस्तीफा न देने की अपील करते हैं व उनकी योग्यता में अपना विश्वास प्रकट करते हैं; दूसरी तरफ एक अखबार कहता है कि पी. चिदम्बरम को पद छोड़ देना चाहिए। 'द स्टेट्समेन' के वरिष्ठ पत्रकार सैम राजप्पा लिखते हैं कि 'जिस दिन नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए गृहमंत्री ने इस्तीफा दिया था प्रधानमंत्री को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए था।' राजप्पा कहते हैं कि श्री चिदम्बरम के वेदांता समूह के साथ गहरे रिश्ते रहे हैं। वे इस कंपनी के संचालक मंडल के सदस्य भी रहे हैं। अत: वे नक्सलवाद के खिलाफ जो कठोर रुख अपनाए हुए हैं उसके पीछे वेदांता समूह के आर्थिक हित याने आदिवासी अंचल में बेरोकटोक माइनिंग कार्य आदि हो सकते हैं। श्री राजप्पा श्री चिदम्बरम पर यह आरोप भी लगाते हैं कि वेदांता से केन्द्रीय उत्पाद शुल्क की ढाई सौ करोड़ की राशि वसूल करने में उन्होंने कोताही बरती।

इसी लेख में राजप्पा रोहित पोद्दार की किताब 'वेदांताज बिलियन्स' का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि यह पुस्तक भारत में बिकने के लिए प्रतिबंधित है। जब एक जिम्मेदार पत्रकार इस तरह के आरोप लगाए और एक विश्वसनीय समाचार पत्र उन्हें छापे तो यह शंका होना लाजिमी है कि श्री चिदम्बरम का असली मंतव्य क्या है। क्या वे सचमुच एक 'नो नॉन्सेंस' गृहमंत्री हैं, या उन्होंने किन्हीं निहित स्वार्थों के लिए एक आवरण धारण किया हुआ है। इस आशंका के घेरे में फिर भारतीय जनता पार्टी भी आ जाती है कि गृहमंत्री की हिमायत करने के पीछे उसके असली इरादे क्या हैं। क्या दोनों मिलकर कुछेक कार्पोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए यह सब कुछ कर रहे हैं। और क्या स्वयं नक्सलियों को इससे कोई लाभ नहीं पहुंच रहा है?

जिस दिन यह लेख मेरे देखने में आया, उसी दिन सलवा जुड़ूम के प्रणेता महेन्द्र कर्मा का भी एक बयान प्रकाशित हुआ। वे इस बयान में क्या कहना चाहते थे, यह मुझे ठीक से समझ नहीं आया। इसे मेरी कमअक्ली मान लीजिए। जितना समझ में आया वह यह कि श्री कर्मा राष्ट्रीय स्तर पर बहस करने और राष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति कायम करने की इच्छा रखते हैं। वे गांधी के देश में लोक अभियानों के माध्यम से नए विकल्पों पर बहस करवाना चाहते हैं। उन्हें अहिंसात्मक सत्याग्रह ब्रह्मास्त्र प्रतीत होता है। जो कुछ भी हो, श्री कर्मा ने स्वयं इस बारे में अब तक क्या किया है? कुछ समय पहले तक तो उन्हें विधानसभा के गोपनीय सत्र में अपनी बात रखना ही श्रेष्ठ विकल्प प्रतीत होता था। वे आम सहमति बनाना चाहते हैं, अच्छी बात है। भाजपा की तरफ उन्होंने दोस्ती का हाथ भी शायद इसीलिए बढ़ाया था, लेकिन आम जनता की याद उन्हें शायद चुनाव हारने के बाद ही आई। वे अब गांधीवाद के भीतर उत्तर ढूंढ रहे हैं, लेकिन ये वही कर्मा हैं जिन्हें छठवीं अनुसूची लागू करने से घोर एतराज है और जो पांचवी अनुसूची याने 'पेसा' कानून लागू है उस पर ठीक से अमल करने में अब तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। अंत में मैं पाठकों का ध्यान रायपुर के दो अखबारों में 20 अप्रैल को एक प्रकाशित समाचार की ओर भी आकर्षित करना चाहता हूं। उस दिन दैनिक हरिभूमि में एक फोटो के साथ खबर छापी कि 76 शहीदों को श्रध्दांजलि देने के लिए 'उमड़ पड़ा जन सैलाब'। रायपुर की किसी संस्था ने 19 तारीख की शाम संभवत: किसी श्रध्दांजलि सभा का आयोजन किया था जिसकी यह खबर थी। लेकिन उसी दिन नई दुनिया ने कुछ ज्यादा विस्तार के साथ खबर छापी- 'नहीं उमड़ा जन सैलाब'। उन्होंने जानकारी दी कि कुछ गिने-चुने लोग ही श्रध्दांजलि देने पहुंचे। सवाल यह है कि पाठक किस खबर को सच मानें। अगर एक छोटी सी स्थानीय घटना की रिपोर्टिंग में इतना भरम है तो बड़े व पेंचदार मुद्दों पर क्या नहीं होता होगा! साफ पता चलता है कि सिर्फ राजनेता ही नहीं, निहित स्वार्थ वाले बहुत से लोग नक्सलवाद के मुद्दे पर आम जनता को अपने-अपने तरीके से भरमाने में लगे हैं। इसे समझिए और भावावेश में कोई निष्कर्ष निकालने से बचिए।
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नक्सलियों की आहट को लेकर पुलिस गश्त बढ़ी

बालोद ! दंतेवाड़ा के तालमेटला में हुए नक्सली वारदात को ध्यान में रखते हुए दुर्ग जिले में भी नक्सलियों की आहट की खबर से नक्सल प्रभावित क्षेत्र थाने को अलर्ट कर दिया गया है। बालोद थाना क्षेत्र के वनांचल में दो-तीन, दिनों से सर्चिंग शुरू कर दी गई है। दो-तीन दिनों से बालोद के आसपास गांवों में लगभग 20 पुलिस जवानों के सर्चिंग से कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। चर्चा तो इस बात की थी कि नक्सली धमकी के चलते पुलिस बल बालोद पहुंची है। यह जनचर्चा का विषय बना हुआ है। एडीओ पुलिस एआर बैरागी ने बताया कि बालोद क्षेत्र में सर्चिंग के लिए 20 जवानों की टीम आई है। जो पांच दिनों तक क्षेत्र में चौकसी करेगी। वही बालोद थाने में 20 आरक्षक, 1 सहायक उपनिरीक्षक एवं 1 उपनिरीक्षक की पदस्थापना हुई है। जिसमें से 12 जवान बालोद थाने में अपनी उपस्थिति दे चुके हैं। उन्हें भी सर्चिंग में भेज दिया गया है। गौरतलब है कि पूर्व में दल्लीराजहरा के महामाया माइंस में नक्सली वारदात कर चुके हैं। यह क्षेत्र के कुछ गांवों में गत वर्ष नक्सली पर्चे मिले हैं इस दृष्टि से पुलिस के जवान वनांचल गांवों में लगातार सर्चिंग करके जानकारी एकत्र कर रही है। जवानों के अनायास सर्चिंग को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही है।

इनामी नक्सली ने किया आत्मसमर्पण

बीजापुर। बीजापुर जिले के भोपालपटनम क्षेत्र के डेढ़ लाख रुपये इनामी नक्सली यालम रमेश उर्फ यालम दिलीप पिता अच्चैया (24) पत्नी यालम सोमाली उर्फ साधना (22) और साथी नक्सली पूनेम सन्नू 34 मंगू पिता सोमालू (23) के साथ 23 अप्रैल 2010 को पुलिस कप्तान बीजापुर अविनाश मोहंती के समक्ष आत्मसमर्पण किया। नक्सलियों की मौजूदगी में आयोजित पत्रकारवार्ता में पुलिस कप्तान अविनाश मोहंती ने बताया कि यालम दिलीप के विरूध्द शासन ने डेढ़ लाख रुपये के इनाम की घोषणा की थी। 20 स्थाई वारंट जारी है। पुलिस के विभिन्न थानों में यालम के विरूध्द 13 प्रकरण मुठभेड़, आगजनी, वाहन जलाना, हत्या सहित अनेक अपराधिक मामले पंजीबध्द है, और पुलिस को लम्बे समय से यालम की तलाश थी। कप्तान मोहंती ने बताया कि आत्मसमर्पित नक्सली ने पुर्नवास के लिए शासन की घोषणानुरूप आवास हेतु शासकी भूमि के साथ-साथ बुनियादी सुविधायें दी जायेगी। ज्ञात हो कि पुलिस कप्तान के पहल से क्षेत्र के नक्सलियों को शांति से क्रांति और विकास की बात समझ में आने लगी है। गांव, परिवार और क्षेत्र से नाता ही जीवन को आधार की भावना से भूले भटके लोगों में चेतना आने लगी है। नक्सलियों के आत्मसमर्पण एवं पत्रकार वार्ता में एडी एसपी राजेन्द्र नारायण दास, डीएसपी बीजापुर अशोक सिंह और सीएसपी पी सिरमार उपस्थित थे

पांच हजार का ईनामी नक्सली गिरफ्तार

कांकेर। पांच हजार के इनाम नक्सली को जिला पुलिस तथा बीएसएफ के संयुक्त सर्चिंग दल ने उसके निवास से गिरफ्तार किया है। मिली जानकारी के अनुसार पखांजूर थाना क्षेत्र के ग्राम प्रतापपुर के बड़ं पारा से पांच हजार का ईनामी नक्सली मंगल उर्फ सहदेव उर्फ कुमार को गिरफ्तार किया है। पुलिस ने बताया कि पकड़े गये इनामी नक्सली पर पखांजूर थाना में भादवि की भादवि की धारा 395,427 25-27 आर्म्स एक्ट,शासकीय संपत्ति का नूकसान पहुंचाने तथा अन्य नक्सली गतिविधियों में संलग् रहने का मामला दर्ज है जिसमें आरोपी की तलाश जारी थी।

नक्सलियों ने की सलवाजुड़ूम नेता की हत्या

कोड़ेपाल में अज्ञात शव मिला, नक्सली हत्या की आशंका

जगदलपुर !
बीजापुर जिले के पिनकोंडा गांव में आज सुबह नक्सलियों ने एक सलवाजुड़ूम कार्यकर्ता की धारदार हथियार से हत्या कर दी। वहीं ग्राम कोड़ेपाल में एक अज्ञात शव बरामद किया गया है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार ग्राम पिनकोंडा निवासी राजकुमार की नक्सलियों ने धारदार हथियार से गला रेतकर हत्या कर दी। जिसका शव आज गांव के बाहर पड़ा मिला। नक्सलियों की राजकुमार से इसीलिए नाराजगी थी कि उसने नक्सलियों के खिलाफ चलाए गए जनजागरण अभियान सलवाजुड़ूम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। इधर बीजापुर से दस किलोमीटर दूर स्थित ग्राम कोड़ेपाल में एक अज्ञात युवक का शव बरामद हुआ है। परिस्थितान्य साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि युवक की हत्या की गई है। पुलिस छानबीन कर रही है कि हत्या के पीछे नक्सलियों का हाथ है अथवा रंजीश का परिणाम।

प्रेशर बम विस्फोट में बीएसएनएल के दो मजदूर घायल

जगदलपुर ! बीजापुर जिले के घाटी इलाके में आज सुबह नक्सलियों द्वारा बिछाए गए प्रेशर बम विस्फोट में बीएसएनएल के दो मजदूर घायल हो गए, जिन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया गया है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार भोपालपटनम में ध्वस्त टेलिफोन सेवा की लाईन सुधारने बीएसएनएल जेटीओ के नेतृत्व में 5 मजदूर घाटी में पहुंचे थे। लाईन मरम्मत के दौरान लगभग साढ़े 11 बजे नक्सलियों द्वारा बिछाए गए प्रेशर बम में पैर पड़ने से जर्बदस्त विस्फोट हुआ, जिसमें दो मजदूर राजु एवं रवि जख्मी हो गए, जिन्हें तत्काल उपचार हेतु बीजापुर अस्पताल में भरती करवाया गया। रवि की हालत गंभीर बनी हुई है, जिसे जगदलपुर मेडिकल कालेज के लिए रेफर किया गया है।

नक्सलियों ने की एसपीओ की हत्या

चुन-चुन कर बना रहे निशाना

जगदलपुर ! बस्तर के उग्रवाद प्रभावित दंतेवाड़ा जिले के भांसी थाना क्षेत्र में कल रात नक्सलियों ने गामावाड़ा मेले में धावा बोलकर एक एसपीओ की निर्ममत्तापूर्वक हत्या कर दी। मृतक एसपीओ संग्राम गु्रप का सदस्य था।
पुलिस सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार कल देर रात लगभग 12.00 बजे दर्जनों नक्सली गामावाड़ा मेले में पहुंचे। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि हथियारों से लैस इन नक्सलियों ने एक स्थान पर शराब पी रहे एसपीओ जग्गू भास्कर को पकड़ लिया। जग्गू भास्कर को पकड़ने के बाद नक्सलियों ने उसे पीटना प्रारंभ कर दिया। देखते ही देखते जग्गू भास्कर की धारदार हथियार से गला रेत दिया गया। नक्सलियों की इस कार्यवाही के बाद मेले में भगदड़ मच गई। सूत्रों का कहना है कि 28 वर्षीय जग्गू भास्कर ग्राम कामालूर का निवासी था और पिछले कुछ वर्षों से नक्सलियों के विरूध्द चलाये जाने वाले अभियानों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया करता था। भांसी पुलिस थाने से लगभग 8 कि.मी.दूर गामावाड़ा मेले में उक्त वारदात घटने के बाद आज दोपहर पुलिस घटनास्थल पर पहुंची थी। सूत्रों का कहना है कि कल रात अगर पुलिस गामावाड़ा मेले में पहुंच गई होती तो कई नक्सली मारे गए होते। भांसी पुलिस ने एसपीओ जग्गू भास्कर के हत्या के आरोप में अज्ञात नक्सलियों के विरूध्द अपराध कायम कर लिया है।

नक्सलियों ने वन्य सुरक्षाकर्मी की हत्या की

भुवनेश्वर। उड़ीसा में बुधवार देर रात नक्सलियों ने एक वन्य सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी।

पुलिस के अनुसार नुआपाड़ा जिले में बुधवार रात भारुमुंडा वन्य क्षेत्र स्थित एक जांच चौकी पर नक्सलियों ने हमला कर दिया और एक सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी।

एक अन्य घटना में कोरापुट जिले के लक्ष्मीपुर इलाके में नक्सलियों ने बुधवार को एक पुल को विस्फोट कर उड़ा दिया।

Monday, April 26, 2010

माओवादियों के बंद को ले कई ट्रेनें रद

पटना । २६ अप्रैल । माओवादियों के बिहार-झारखंड बंद को ले पूर्व मध्य रेलवे ने एहतियात के तौर पर कई कदम उठाये हैं। किसी तरह की आतंकवादी घटनाओं से बचने के लिये पूर्व मध्य रेल प्रशासन ने पटना से बरकाकाना-गोमो-सिंगरौली को चलने वाली पलामू एक्सप्रेस एवं रांची नई दिल्ली गरीब रथ एक्सप्रेस को दो दिनों के लिये अप व डाउन में रद करने की घोषणा की है। दुर्घटनाओं की संभावना को देखते हुये रेल प्रशासन ने सभी प्रमुख स्टेशनों पर एक्सीडेंट रिलिफ की पूरी व्यवस्था कर रखी है। पटना से झारखंड को जाने वाली सभी ट्रेनों की अधिकतम स्पीड 75 किमी प्रति घंटे की दर से निर्धारित की गई है।

इस बाबत पूर्व मध्य रेलवे के मुख्य जन संपर्क अधिकारी दिलीप कुमार ने बताया कि माओवादियों के बंद को लेकर रेल प्रशासन सतर्क है। सभी ट्रेनों को झुंड में चलाने के साथ-साथ पायलट इंजन की व्यवस्था की गई है। रेलवे ट्रैक पर सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था की गई है। किसी भी घटना की सूचना मिलते ही पन्द्रह से बीस मिनट के अंदर घटना स्थल की घेराबंदी कर ली जायेगी। दुर्घटना को अंजाम देकर कोई भी माओवादी बच नहीं सकता। उन्होंने कहा कि दुर्घटनाओं की आशंका के मद्देनजर रेल प्रशासन ने गोमो-बरवाडीह-डेहरी को जाने वाली सभी सवारी गाड़ियों को रद कर दिया गया है। इसके साथ ही लगभग एक दर्जन ट्रेनों को परिवर्तित मार्ग से चलाने का निर्णय लिया गया है।

गया में पुलिस-नक्सली मुठभेड़, एक बंदी

गया। गया पुलिस और प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा (माओवादी) के बीच शुक्रवार की देररात गुरुआ थाने के पलुहारा गांव में हुई मुठभेड़ में एक नक्सली आनंदी प्रसाद घायल हो गया। गया के अनुग्रह नारायण मगध मेडिकल कालेज में पुलिस हिरासत में उसका इलाज चल रहा है। एसपी अमित लोढ़ा ने बताया कि पुलिस बल का नेतृत्व टिकारी एसडीपीओ हरिशंकर कुमार कर रहे थे। घटनास्थल से पुलिस को दो देसी पिस्तौल व नक्सली पैड मिले हैं। टिकारी एसडीपीओ श्री कुमार ने बताया कि नक्सली मुठभेड़ में टिकारी थानाध्यक्ष प्रवीण कुमार और कोंच थाने का एक आरक्षी जख्मी हुए


नक्सलियों की आर्थिक नाकेबंदी २४ से जारी

संबलपुर । सरकार के नक्सल दमन अभियान के विरोध में दक्षिण उड़ीसा में सक्रिय नक्सली संगठनों की ओर से संयुक्त रूप से 24 से 30 अप्रैल तक दक्षिण उड़ीसा के रायगड़ा, मलकानगिरी, गजपति और कोरापुट जिला बंद की घोषणा की गई है। इधर, गुरुवार आधी रात को 50 से अधिक सशस्त्र माओवादियों ने मलकानगिरी जिले के कुडुमुलुगुम्मा स्थित एक निजी कंपनी के एक मोबाइल टावर को विस्फोट से उड़ाने के बाद विदेशी शराब की एक दुकान में तोड़फोड़ व आगजनी की। दुकान के मालिक रंजीत गुप्ता ने भाग कर अपनी जान बचाई।

माओवादियों की सप्ताव्यापी आर्थिक नाकेबंदी शुरू

भुवनेश्वर। २६ अप्रैल । दक्षिण ओड़िशा के माओवाद प्रभावित अविभक्त कोरापुट जिला में माओवादियों की सात दिवसीय आर्थिक नाकेबंदी के पहले दिन रास्तों के अवरोधों के कारण यातायात पर प्रतिकूल असर पड़ा। हालांकि पहले दिन कहीं से किसी हिंसा की खबर नहीं मिली है, मगर कई इलाकों में सुरक्षा के मद्देनजर प्रशासन ने गाड़ियों की आवाजाही को सामयिक तौर पर बंद कर दिया है। गौरतलब है कि इससे पहले माओवादियों द्वारा बुलाए गए बंद के दौरान ओड़िशा राज्य सड़क परिवहन निगम की तीन बसें जला दी गयीं थीं। प्रशासन ने सुरक्षा के तौर पर फुलवाणी-पारलाखेमुण्डी, मोहना-रायगड़ा-गजपति, जयपुर-मोटू, जयपुर-माछकुण्ड, जयपुर-बईपारीगुड़ा रुट पर सरकारी बसों की आवाजाही को बंद कर दिया है। साथ ही इन इलाकों से होकर गुजरने वाली रेल गाड़ियों में सुरक्षा के अतिरिक्त इंतजाम किए गए है। प्रशासन ने आदेश दिया है कि किसी भी सम्भावित स्थिति से निपटने के लिए अ‌र्द्धसैनिक बल और पुलिस बल तैयार रखा जाए।

ऑपरेशन ग्रीनहण्ट के विरोध में माओवादियों के सप्ताहव्यापी बंद के पहले दिन कोरापुट, रायगड़ा और मालकानगिरी जिला के विभिन्न रास्तों पर पेड़ काटकर रास्ता अवरोध किए जाने के चलते यातायात पर असर पड़ा। कई इलाकों में माओवादियों द्वारा पोस्टर लगाए गए है। जयपुर-मालकानगिरी मुख्य राजमार्ग गोविन्दपाली घाटी और झाड़िरीगुड़ा इलाके में बड़े-बड़े पत्थर और पेड़ काटकर रास्तों पर डाले गए है। माओवादियों ने कई जगहों पर सरकारी सम्पत्तिको नुकसान पहुंचाया है। नारायण पाटना ब्लाक के कोड़ापदर में डीपीईपी द्वारा निर्मित स्कूल के दो कमरों में तोड़फोड़ की गयी है एवं निकटस्थ एलआई सरकारी क्वार्टरों पर भी आक्रमण किया गया है। नारायण पाटना से तीन किमी. की दूरी पर राजमार्ग को माओवादियों ने खोद डाला है, जिससे वाहनों का आवागमन प्रभावित हुआ है। सप्ताह भर चलने वाले आर्थिक अवरोध को देखते हुए प्रशासन फूंक फूंककर कदम उठा रहा है।

माओवादी की निशानदेही पर डेटोनेटर व जिलेटिन बरामद

व‌र्द्धमान। माओवादी से संबंध रखने वाले सुशांत पाल से मिली जानकारी के आधार पर पुलिस ने शनिवार को छापामारी कर भारी मात्रा में जिलेटिन, डिटोनेटर, फ्लैश गन युक्त कैमरा, सीडी जब्त की है। इस क्रम में पुलिस ने डा. विश्वास की मारुति अल्टो कार भी जब्त की है। पुलिस ने रिमांड अवधि पूरी होने पर रविवार को सुशांत पाल को आसनसोल न्यायालय में पेश किया जहां से उसे तीन दिन के लिए पुन: रिमांड पर लिया गया।

बताते चले कि गत दिनों पुलिस ने माओवादी गुरिल्ला वाहिनी का सक्रिय सदस्य होने के आरोप में डा. समीर विश्वास के पचगछिया स्थित क्वार्टर से छापेमारी की थी। इस दौरान पुलिस ने डाक्टर के सहयोगी सुशांत पाल को गिरफ्तार किया था। जबकि डाक्टर मौके से फरार था। पाल की निशानदेही पर पुलिस ने उसकेपैतृक गांव कंडाईपुर से भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री जब्त की है। उक्त सामग्री पाल के पैतृक घर के बगल में स्थित भंडार घर में रखी हुई थी। गांव में छापामारी के क्रम में पुलिस ने गांव से 8 जिलेटिन, 8 डिटोनेटर और विस्फोट कराने वाले तार समेत फ्लैशगन युक्त कैमरा जब्त किया है। उक्त कैमरा शक्तिशाली लैंड माइन विस्फोट कराने में प्रयुक्त होता है। वहीं, पचगछिया स्थित डा. विश्वास के क्वार्टर के पीछे स्थित एक परित्यक्त आवास से डा. विश्वास की मारुति अल्टो कार बरामद की गई। उक्त कार से भी दो जिलेटिन, दो डिटोनेटर और तार बरामद किया गया है।। इसके अलावा पुलिस ने दोनों जगहों से भारी मात्रा में नक्सली पोस्टर, किताब और सीडी बरामद की है। पुलिस सूत्रों के अनुसार, एक सीडी को पुलिस ने देखा, जिसमें माओवादी महिला स्क्वायड को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। पुलिस के अनुसार, अन्य सभी सीडियों की भी जांच की जा रही है। पुलिस ने सुशांत से और जानकारी मिलने की संभावना बताते हुए कोर्ट से अनुरोध किया। इसके बाद न्यायालय ने सुशांत को और तीन दिन के लिये रिमांड पर सौंप दिया।मालूम हो कि इस मामले का मुख्य आरोपी डा. समीर विश्वास अभी भी पुलिस की पहुंच से बाहर है।

माओवादियों का दो दिवसीय बंद आज से

खड़गपुर/झाड़ग्राम/मेदिनीपुर । की ओर से सोमवार व मंगलवार को पश्चिम बंगाल, झारखंड व उड़ीसा राज्य में दो दिवसीय बंद का आह्वान किया गया है। माओवादी नेता खोकन ने दूरभाष पर कहा कि पुलिस व सुरक्षा बलों द्वारा पकड़े गये उनके संगठन के नेता चंद्रशेखर, राजेन, कृष्णा व राजेश को अविलंब अदालत में पेश करने की मांग को लेकर तीनों राज्यों में दो दिनों का बंद बुलाया गया है। इस दौरान यदि पुलिस उक्त लोगों को अदालत में नहीं पेश करती है तो संगठन की ओर से आगे के आदोलन की घोषणा की जायेगी। खोकन ने बताया कि बंद के दौरान पेयजल, दूध, दवाएं सहित अन्य आवश्यक सेवाओं को इससे अलग रखा जायेगा। दूसरी ओर पुलिस संत्रास प्रतिरोध जन साधारण समिति की ओर से पश्चिम मेदिनीपुर, पुरूलिया व बांकुड़ा जिले में जारी अनिश्चितकालीन अवरोध आंदोलन का क्रम रविवार को भी जारी रहा।

नक्सली बंदी को ले ट्रेनें प्रभावित

डालटनगंज/लातेहार, जाटी : भाकपा माओवादी के आहूत बंद की सूचना पर रेल प्रशासन ने एहतियात के तौर पर रविवार की शाम से 26 तक कई ट्रेनों को रद कर दिया जबकि कई के मार्ग बदल दिये। गया।

रद ट्रेनें : रांची-दिल्ली गरीब रथ, बरवाडीह-डेहरी शटर सवारी गाड़ी, बरकाकाना-पटना पलामू एक्सप्रेस व जीडीआर सवारी गाड़ी। इसके साथ ही सोमवार को डेहरी की ओर जाने वाली सभी सवारी गाड़ियां रद कर दिये गये है।

मार्ग परिवर्तन : वाराणसी-रांची इंटरसिटी एक्सप्रेस अप व डाउन, जम्मू तवी टाटा दोनों को वाया गया डेहरी आनसोन होकर चलाया जायेगा। इसी तरह सोमवार को हावड़ा-जबलपुर शक्तिपूंज व झारखंड एक्सप्रेस का मार्ग परिवर्तन किया गया है। वहीं हावड़ा की ओर जाने वाली शक्तिपुंज एक्सप्रेस सहित चोपन-रांची एक्सप्रेस को चलाने की घोषणा की गई है।

माओवादी गतिविधियों से झाड़ग्राम में 500 करोड़ का नुकसान

खड़गपुर। पंद्रहवीं शताब्दी (1560-1565) में जब क्षत्रिय चंद्रवंशी राजपूत चौहान राजा सर्वेश्वर मल्लदेव ने जब झाड़ग्राम रियासत बनायी थी तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन यहां का निवासी हर तरफ से अपने को असहाय महसूस करेगा। न खेती करने को मिलेगी और न व्यापार हो सकेगा। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले में 22.45 डिग्री उत्तर एवं 86.98 डिग्री पूर्व में स्थित झाड़ग्राम तहसील का अब जो हाल है वह किसी से छिपा नहीं रहा। यहां के लोगों से पूछने पर यही बात सामने आती है कि ठप हो गयी खेती, कारोबार का बुरा हाल। वहीं प्रशासनिक वर्ग में झाड़ग्राम की चर्चा करने पर यही जवाब मिलता है कि बंद हो गयी राजस्व उगाही, वन संपदा पर उठ रहे सवाल हैं। हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिंदबरम को प्रशासन की ओर से जो रिपोर्ट सौंपी गयी उसके मुताबिक नवंबर-08 से मार्च 2010 के बीच बंद, अवरोध व माओवादी गतिविधियों के कारण झाड़ग्राम तहसील को करीब पांच सौ करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचा है। इसमें शिक्षा, वन संपदा, परिवहन, राजस्व व कृषि सहित अन्य मदों को शामिल किया गया है। दो नवंबर, 08 को शालबनी में प्रस्तावित जिंदल इस्पात कारखाने का शिलान्यास कर वापस लौट रहे प्रदेश के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य एवं तत्कालीन केंद्रीय इस्पात मंत्री रामविलास पासवान के काफिले पर हुए माओवादी हमले के बाद से यदि कोई सर्वाधिक प्रभावित हुआ है तो वह है झाड़ग्राम महकमा और यहां के लोग। पुलिस ने माओवादियों की धरपकड़ के लिए अभियान शुरू किया और इसका अंजाम भुगतना पड़ा निरीह ग्रामीणों को। आदिवासियों के हितों की रक्षा करने के लिए गठित हुई पुलिस संत्रास प्रतिरोध जन साधारण समिति ने भी बंद व अवरोध के बहाने झाड़ग्राम के कारोबार पर ही बुरा असर पहुंचाया। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक तहसील की कुल आबादी 10,08,030 में एससी-एसटी वर्ग की जनसंख्या 4,88,072 है। इससे भलीभांति समझा जा सकता है कि यहां के लोगों का जीवन-स्तर कैसा होगा? तहसील के झाड़ग्राम, बीनपुर-1, 2, व 3, जामबनी, नयाग्राम, सांकराइल, गोपीबल्लभपुर-1 व 2 में से अधिकांश माओवादी हिंसा से प्रभावित हो चुके हैं। इस कारण सरकारी विभाग जहां राजस्व की वसूली नहीं कर पा रहा है वहीं ग्रामीणों का चूल्हा जलना भी मुश्किल हो गया है।

याद किये गये नक्सली हमले में शहीद जवान

कोलकाता।छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सली हमले में शहीद सीआरपीएफ के जवानों की स्मृति में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की कोलकाता शाखा की तरफ से कालेज स्क्वायर में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। सभा का उद्घाटन सीआरपीएफ के 167 बटालियन के कमांडेंट श्यामल चंद्र दे की पत्नी रुमा दे ने किया। शहीदों को श्रद्धांजलि देने मोर्चा प्रमुख विमल गुरुंग की पत्नी आशा गुरुंग, रिमबिक क्षेत्र में नारी मोर्चा की प्रमुख शशि डोमा, केन्द्रीय कमेटी के सदस्य पूरन थामी समेत मोर्चा के कई विशिष्ट लोग आये थे। श्रीमती गुरुंग ने कोलकाता शाखा द्वारा किये जा रहे कार्यों की सराहना की और इसे जारी रखने को कहा। श्रद्धांजलि सभा के आयोजन में कोलकाता शाखा के अध्यक्ष रतन बहादुर बूढा, संयुक्त उपाध्यक्ष प्रकाश राई व अविनाश छेत्री, संयुक्त सचिव अर्जुन विश्वकर्मा, महासचिव एम के लोपचांद की अहम भूमिका रही। प्रवक्ता किशोर भान ने कहा कि इसके आयोजन का उद्देश्य नौजवानों के सामने जवानों की शहादत पेश कर उनमें देशभक्ति का जज्बा भरना है ताकि वे फौज व केन्द्रीय बलों में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित हों। मोर्चा ने शहीदों के परिजनों को मुआवजा दिलाने के लिए सीआरपीएफ के डीआईजी से बातचीत की है। उन्होंने आश्वासन दिया है कि मुआवजा मिलने में समस्या नहीं होगी। सभी परिवारों को केन्द्रीय नियमों के मुताबिक जल्द मुआवजा दिया जायेगा। श्री भान ने कहा कि सरकार को राज्य के वनांचल के विकास के लिए ठोस कदम उठाने चाहिये। वहां के लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया करानी चाहिये ताकि माओवादियों की मदद की तरफ उनका झुकाव न बढ़े। मोर्चा ने इससे पहले सिलदा कांड में शहीद जवानों की स्मृति में धर्मतल्ला में भी श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया था।

तीन नक्सलियों ने किया आत्मसमर्पण


बीजापुर। छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सली दंपति समेत तीन नक्सलियों ने 24 अप्रैल को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बीजापुर जिले के पुलिस अधीक्षक अविनाश मोहंती ने बताया कि जिले में नक्सली गतिविधियों को अंजाम देने वाले नक्सली कमांडर दिलीप और उसकी पत्नी साधना और एक अन्य नक्सली युवक सन्नू ने आज पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। मोहंती ने बताया कि दिलीप पिछले छह सालों से नक्सलियों के साथ था तथा उसकी पत्नी साधना और सन्नू पिछले दो सालों से नक्सली गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे। उन्होंने बताया कि दिलीप के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास और आगजनी समेत कई मामले दर्ज हैं तथा पुलिस को इसकी लंबे समय से तलाश थी। मोहंती ने बताया कि दिलीप और अन्य नक्सलियों ने इस दौरान पुलिस को बताया कि वे जंगल में पुलिस के बढ़ते दबाव से परेशान थे तथा वे अब आम आदमी की जिंदगी जीना चाहते हैं। नक्सलियों ने बताया कि उन्हें लग रहा है कि नक्सलियों के विचारधारा में परिवर्तन गया है तथा अब वे आम लोगों के लिए नहीं लड़ रहे हैं। पुलिस अधिकारी ने बताया कि दिलीप बीजापुर जिले के मुक्तापुरम गांव तथा साधना और सन्नू गंगालूर गांव के रहने वाले हैं। मोहंती ने बताया कि राज्य सरकार की पुर्नवास नीति के तहत आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की मदद की जाएगी।

Wednesday, April 21, 2010

१ लाख ग्रामीणों ने किया अरुंधती राय का विरोध

नई दुनिया, २१ अप्रैल, रायपुर

डुबान क्षेत्र से लड़कियों को उठा ले गये नक्सली

धमतरी ! धमतरी जिले के गंगरेल डुबान इलाके के गांवों में नक्सली गतिविधियां एक बार फिर तेज हो गई है। सूत्रों के अनुसार नक्सलियों ने क्षेत्र की दो-तीन लड़कियों को भी उठा ले गये,नक्सलियों की गतिविधियों से ग्रामीणों में दहशत है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार गंगरेल डुबान अंतर्गत ग्राम उरपुटी बरबांधा कलारबाहरा चनागांव सहित अन्य गांवो के जंगल में पिछले दो माह से 60-70 नक्सली आए दिन आवाजाही कर रहे है। इस संबंध में जानकारी मिलने पर पिछले दिनों अर्जुनी पुलिस ने सर्चिंग की थी। सर्चिंग के बाद से कुछ दिनों तक नक्सली गायब हो गए थे लेकिन फिर से आवाजाही बढ़ गई है। इस क्षेत्र में उड़ीसा व बस्तर के नक्सली घुसपैठ कर स्थानीय लोगों को अपने साथ जोड़ने की कवायद कर रहे है। पता चला है कि नक्सलियों ने इस क्षेत्र की दो-तीन लड़िकियों को भी उठाकर ले गए थे जिसके बाद से इस क्षेत्र में रहने वाले लोग अपनी जवान बेटियों को गांव से बाहर रिश्तेदारों के घर भेज दिए है। डुबान क्षेत्र में नक्सलियों की आवाजाही माड़मसिल्ली बांध से होकर रिसगांव के जंगल तक होती है। लेकिन रिसगांव-सिहावा इलाके में सर्चिंग तेज होने के बाद वे डुबान के जंगल अपने को सुरक्षित मानकर रूक गए है। हालांकि सिहावा अंचल मं नक्सली गतिविधियां कम हुई है।

इधर डुबान क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों का कहना है कि उनके गांवों के जंगलों में बंदूकधारी नक्सली खलकर घूम रहे है। पुलिस को भी जानकारी दी गई लेकिन अभी तक कोई ठोस कदम नही उठाए गए है। समय से पहले इन नक्सलियों का सफाया नही किया गया तो डुबान जैसा शांत क्षेत्र भी अशांति का नासूर बन जाएगा।

सुराज के दौरान दिनदहाड़े भीषण नक्सली मुठभेड़

अंतागढ़ ! बड़गांव, कोयलीबेड़ा तथा पखांजूर थाना क्षेत्र के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित पखांजूर तहसील के ग्राम पद्नाभपुर के जंगल में पुलिस बल तथा नक्सलियों के बीच 20 अप्रैल को दिनदहाड़े भीषण मुठभेड़ होने की सूचना है।
मिली जानकारी के अनुसार अर्धसैनिक बल तथा स्थानीय पुलिस बल की संयुक्त सर्चिंग पार्टी द्वारा एक महत्वपूर्ण सूचना के आधार पर ग्राम पद्नाभपुर के जंगल में चारों ओर से घेर कर सुनियोजित वारदात के लिए योजना बनाने वाले नक्सलियों को दबोचने का प्रयास करने के दौरान नक्सलियों द्वारा पुलिस पार्टी को निशाना बनाकर गोलीबारी करके जवाबी कार्रवाई किया गया। इस समाचार लिखने समय तक दोनों ओर से गोलाबारी जारी है। इस भीषण गोलीबारी में कोई उपलब्धि या हानि की सूचना फिलहाल अप्राप्त है। बड़गांव थाना क्षेत्र में आने वाले ग्राम पद्नाभपुर, मेंढकी नदी तथा कोमरी नदी का संगम स्थल है और घने जंगल है। कोयलीबेड़ा थाना से बड़गांव दिशा में 20 किमी दूरी पर है। माओवादी उत्तर बस्तर डिवीजन कमेटी के सचिव सुजाता कोरोटी की पद्नाभपुर, बड़गांव में तथा आसपास के इलाके और दुर्गकोंदल, कापसी तथा कोयलीबेड़ा क्षेत्र में कोयलीबेड़ा दलम, रावघाट मिलिट्री दलम भी सक्रिय रहते हैं।

केन्द्र सरकार के जांच अधिकारी पर नक्सली हमला

जगदलपुर ! छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में 76 कर्मियों की शहादत के मामले की जांच हेतु केन्द्र सरकार द्वारा भेजे गए जांच अधिकारी ईएल राममोहन को लक्ष्य कर आज 17 अप्रैल को उस वक्त नक्सलियों ने फायरिंग और विस्फोट किया जब वे चिंतलनार से घटनास्थल ताड़मेटला गांव की ओर सुरक्षा बल के काफिले के साथ पैदल जा रहे थे।
अधिकारिक सूत्रों के अनुसार शनिवार की सुबह बीएसएफ के पूर्व डीजीपी राममोहन संभाग के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों सहित यहां से हेलीकाप्टर से चिंतलनार पहुंचे। चिंतलनार से वे सुरक्षा बलों के साथ पैदल ही घटनास्थल जहां 76 जवान शहीद हुए, ताड़मेटला के लिए रवाना हुए थे और यह काफिला कुछ ही दूरी तय कर पायी थी कि जंगल की ओर से 5-6 राऊंड फायरिंग हुई और दो विस्फोट किए गए। हालांकि हमला जंगल के अंदर काफी दूर से किया गया था, इसीलिए कोई हताहत नहीं हुआ। फायरिंग की आवाज सुनते ही सुरक्षा बल के जवान फौरन मोर्चा संभाल जंगल में फैल गए। समझा जाता है कि फायरिंग के पीछे नक्सलियों के द्वारा जांच अधिकारी को भयभीत करने की सोची-समझी रणनीति रही हो। जांच अधिकारी के साथ भारी संख्या में तैनात सुरक्षा बलों की मौजूदगी से नक्सली किसी वारदात को अंजाम देने की हिम्मत नही जुटा पाए

ओडिशा-बस्तर के नक्सली हुए एक


जगदलपुर। छत्तीसगढ़ के उग्रवाद प्रभावित बस्तर संभाग में माओवादियों से निबटने के लिए तैनात किए गए अद्र्धसैनिक बलों की हालात चिंताजनक स्थिति में जा पहुंची है। एक तरफ सरकार जहां ऑपरेशन ग्रीनहंट अभियान पर करोड़ों रुपए फूंक रही है, वहीं दूसरी तरफ इस अभियान से जुड़े जवानों को बुनियादी मौलिक सुविधाओं से भी महरूम होना पड़ रहा है। बस्तर के दंतेवाड़ा जिले में छह अप्रैल को माओवादी हमले में मारे गए 76 जवानों के बाद भी स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। ठीक इसके विपरीत माओवादियों के छापामार दस्ते आक्रामक रुख बनाए हुए हैं। पुलिस विभाग की खुफिया शाखा के अनुसार, ओडिशा और बस्तर के छापामार दस्तों को माओवादी नेताओं द्वारा एक किया जा चुका है। इस एकता के बाद से सुरक्षा बल के जवानों पर हमले का खतरा ज्यादा बढ़ गया है। दक्षिण-पश्चिम बस्तर के दूरस्थ अंचलों में जबरदस्त अविश्वास का महौल देख जा रहा है। चिंतलनार से जगरगुंडा तक जाने वाली 12 किमी लंबी सड़क को माओवादियों द्वारा जगह-जगह विस्फोट कर ध्वस्त किया जा चुका है। माओवादियों द्वारा सड़क मार्ग को पूरी तरह नष्ट कर दिए जाने के कारण अब जगरगुंडा कैंप में हवाई मार्ग से जवानों को रसद पहुंचाया जा रहा है। सुरक्षा बल के जवानों का कहना है कि छह माह के लिए जगरगुंडा कैंप में राशन एकत्रित कर दिया जाता है। इसी बीच यदि कहीं माओवादियों ने धावा बोल दिए तो स्थिति बिगड़ सकती है। दोरनापाल से चिंतलनार तक फैले 58 किमी लंबे सड़क मार्ग पर वीरानी सी छाई हुई है। इस मार्ग पर सुरक्षा बल के जवान तभी निकलते हैं जब कोई विशेष अभियान चलाना हो। पोलमपल्ली से चिंतागुफा तक तो स्थिति और भी जटिल हो गई है। इस मार्ग पर सर्चिंग ऑपरेशन चला रहे एक अभियान दल में शामिल सुरक्षा बल के जवानों ने स्वीकार किया कि उन्हें बुनियादी सुविधाओं से महरूम किया जा रहा है। यहां तक कि उन्हें अपने परिवार से मोबाइल फोन पर बात किए हुए भी महीनों गुजर जाते हैं। एक जवान ने तो यहां तक कह दिया कि यदि वे बीमार हो जाते हैं तो उन्हें समय पर दवा तक नहीं मिल पाती।

किरंदुल लाईन पर रेल दुर्घटना,नक्सली वारदात की अंदेशा


जगदलपुर ! किरंदुल-कोत्तावलसा रेल मार्ग पर बस्तर जिला के सरहद में स्थित सिलकजोड़ी और डिलमिली रेलवे स्टेशन के मध्य स्थित ग्राम बाटकोंटा में 18 और 19 अप्रैल की दरम्यानी रात्रि 1 बजे किरंदुल से लौह अयस्क भरकर विशाखापटमन की ओर जा रही मालगाड़ी के तीन ईंजन और 17 बोगी क्षतिग्रस्त हो गये। इस मार्ग पर 150 मीटर दूरी तक के पटरी टूटकर अलग हो गया और मालगाड़ी के तीनों ईंजन पटरी से अलग होकर 17 डब्बों के साथ गिर गया। इस दुर्घटना में लौह अयस्क से भरी हुई वैगन एक-दूसरे पर चढ़ गया और उसके कपलिंग और चक्के से यह वैगन उखड़कर दूर जा गिरा। इस लाईन में अबतक घटित सबसे बड़ी इस रेल दुर्घटना में रेलवे को करोड़ों की क्षति हुई और साथ ही साथ इस लाईन पर यातायात कमसे कम 72 घंटे के लिए थम गया। घटनास्थल पर विशाखापटनम से डीआरएम और भुनेश्वर से बड़े अधिकारी पहुंच गये हैं और रेल लाईन दुरूस्थ करने ईंजन और क्षतिग्रस्त वैगनों का काम चल रहा है।

रेल सूत्रों के अनुसार किरंदुल से लौह अयस्क लेकर वाल्टियर की लेकर मालगाड़ी जा रही थी। इसमें लगे तीनों ईंजन के सहारे मालगाड़ी गंतव्य की ओर अग्रसर हो रही थी इस दौरान दंतेवाड़ा और बस्तर जिले के सरहद पर स्थित सिलकजोड़ी रेलवे स्टेशन पार कर यह गाड़ी डिलमिली स्टेशन की ओर जा रही थी। इन दोनों स्टेशनों के मध्य स्थित बाटकुण्डा गांव पहुंचते ही तेज आवाज के साथ मालगाड़ी के तीनों ईंजन एक के बाद एक कर गिर गई और साथ ही साथ उसके पीछे लगी 17 माल भरा बोगी भी एक के ऊपर एक चढ़कर पटरी से अलग होकर गिर गया। इस दुर्घटना में 150 मीटर पटरी टूट कर अलग हो गया। दुर्घटना की सूचना पाते ही रेल प्रशासन किरंदुल, दिल्लीराजहरा और कोरपुट से रिलिफ ट्रेनों सहिर्त ईंजन और वैगन उठाने योग्य के्रन मंगवाकर इस रेल लाईन को सुधारने काम शुरू किया। दुर्घटना की खबर विशाखापटनम में डीआरएम और भुवनेश्वर के अधिकारियों को दी गई और युध्दस्तर पर लाईन ठीक करने के लिए तत्काल स्टॉफ, ठेकेदार और मजदूर भेजे गये। रेलवे सूत्रों के अनुसार 150 मीटर दूरी तक इस मार्ग पर लगभग 33 स्थानों पर फिश प्लेल निकाल ली गई थी। जिससे यहां से गुजरते वक्त यह बड़ी हादसा हो गई। नक्सल प्रभावित इस इलाके में नक्सलियों के द्वारा किया गया यह पहली बड़ी वारदात होने का अंदेशा लगाई जा रही है।

डीआरएम विशाखापटनम की देखरेख में सुधार कार्य चल रहा है और वे मौके पर मौजूद रहकर काम करा रहे हैं। सोमवार की सुबह साढ़े 9 बजे क्षतिग्रस्त रेल ईंजन क्रमांक 21127 को क्रेन के द्वारा उठाकर पटरी में रखकर उसकी मरम्मत कार्य शुरू किया। इसके पश्चात ईंजन क्रमांक 21135 को क्रेन ने लगभग साढ़े 11 बजे के आसपास उठाकर पटरी में खड़े किया। लगभग 12 बजे के आसपास तीसरा ईंजन क्रमांक 31100 को के्रन ने पटरी पर लगा दिया। इन क्षतिग्रस्त ईंजनों का मरम्मत मौके पर ही की जा रही है। दुर्घटना के दौरान माल से भरे 17 डिब्बे एक के ऊपर एक चढ़कर क्षतिग्रस्त हो गया, उसे भी क्रेन के द्वारा निकाली जा रही है। दुर्घटनास्थल पर दो बिजली के पोल भी क्षतिग्रस्त हो गये। इस मार्ग पर अभी बिजली बंद है। डीआरएम दुर्घटनास्थल पर पहुंचकर स्वयं मरम्मत का कार्य का देखरेख कर रहे हैं। यहां बारूदीरोधी वाहन भी ला दिया गया है लेकिन इसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। इस दुर्घटना के कारणों के संबंध में रेल प्रशासन कुछ भी कहने से मना कर दिया है। यह क्षेत्र नक्सल प्रभावित है और यहां पहली वारदात है जिसमें इतनी बड़ी क्षति हुई है। इस दुर्घटना में रेल प्रशासन को करोड़ों की क्षति हुई है वहीं माल परिवहन में बाधा उत्पन्न होने से एनएमडीसी और रेल प्रशासन को और अधिक हानि होने की सूचना है। रेलवे सूत्रों के अनुसार इस रेल लाईन का सुधार युध्द स्तर पर चल रहा है और यातायात पुन: स्थापित करने में लगभग 72 घंटा लगने की संभावना व्यक्त की जा रही है।

इस घटना के संबंध में बस्तर एसपी सुंदरराज पी से इस प्रतिनिधि के चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि जगदलपुर से लगभग 40 किमी दूर यह दुर्घटना हुई है। उन्होंने कहा कि फिश प्लेट निकाला जाना ग्रामीणों का नहीं हो सकता है लेकिन इस घटना को नक्सली वारदात से जोड़कर कुछ कहना जल्दबाजी होगी। उन्होंने कहा कि दुर्घटना के संबंध में जांच के बाद ही नक्सलियों के हाथ होने के संबंध में कुछ कहा जा सकता है लेकिन अभी इसकी पुष्टि किया जाना मुमकिन नहीं है।

दंतेवाडा हत्याओं से सबक


प्रफुल्ल बिदवई

हजारों साल तक विश्व के अधिकतर लोग तानाशाह शहंशाहों, बादशाहों और शहजादों की रियाया बन कर रहते रहे। अभी पिछली सदी में ही कहीं जाकर बहुत से लोग नागरिक बन पाए जिनके कुछ राजनीतिक अधिकार थे। इतिहास के ज्यादातर हिस्से में कोई कानून का शासन नहीं था। राजा की मर्जी ही चलती थी। अभी हाल ही तक वास्तविक सशस्त्र सेनाओं और पुलिस के बीच कोई भेद नहीं था। सिपाही संदिग्ध अपराधियों को गिरफ्तार करके न्यायिक जांच केलिए न्यायाधीशों के सामने ले आते थे, जो बादशाह से स्वतंत्र नहीं होते थे। सेना और पुलिस के बीच का फर्क आधुनिक युग में ही पैदा हुआ।

भारत में यह फर्क उपनिवेशीय काल में ही साफ तौर पर कायम हो गया था। लेकिन आजादी के बाद इसके मजबूत हो पाने से पहले ही नई परासैनिक इकाइयां उभर कर सामने आईं। पुनर्गठित केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और उसकी राज्यस्तरीय किस्म की इकाइयां-सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बती सीमा पुलिस, रैपिड एक्शन फोर्स, राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड आदि। परासैनिक बल भारत के सुरक्षा, पुलिस अमले का सबसे तेजी से बढता हुआ घटक हैं।

फिर भी परासैनिक बलों और सशस्त्र सेनाओं के बीच एक स्पष्ट, स्वस्थ सीमा रेखा कायम हो चुकी है। परासैनिक बल गृहमंत्रालय को रिपोर्ट करते हैं जबकि सशस्त्र सेनाएं रक्षा मंत्रालय को रिपोर्ट करती हैं। परासैनिक बल आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने का काम करते हैं, जबकि सशस्त्र सेनाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे बाहरी खतरों से निबटें। इस फर्क के चलते यह एक मजबूत आम राय रही है कि परासैनिक बल 'संस्कृति, प्रकृति और प्रशिक्षण के लिहाज से गैर सैनिक ही हों। रक्षा सेनाओं के बरअक्स ,उनका मकसद मुखालिफों को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पंहुचाना नहीं, बल्कि उन्हें सिर्फ नियंत्रण में रखना होता है, ताकि उनपर सामान्य, दीवानी और फौजदारी कानूनों के अंतर्गत मुकदमा चलाया जा सके। आज कानून का शासन और परासैनिक बलों तथा सशस्त्र सेनाओं के बीच का फर्क दोनों ही खतरे में पड ग़ए हैं। सुरक्षा कट्टरपंथियों और आत्मघोषित विद्रोह विशेषज्ञों की ओर से कानून के शासन को ताक पर रखने और परासैनिक बलों की संस्कृति को बदलकर और उनके प्रशिक्षण और बल प्रयोग के स्तर को बढा कर उनका सैन्यीकरण करने के लिए दबाव डाला जा रहा है। छत्तीसगढ क़े दांतेवाडा जिला में केंद्रीय सुरक्षा बल की कंपनी पर माओवादियों के हमले ने, जिसमें 76 परासैनिक कर्मी मारे गए थे, जिस बहस को जन्म दिया है उसके जहरीले प्रभावों में से एक है महादबाव। नक्सलवाद या माओवाद को एक विद्रोह परिभाषित करने के किए कर्कश आवाजें उठाई जा रही हैं ठीक कश्मीर और उत्तरपूर्व में सैन्यवादी अलगाव वाद की तरह और इस प्रकार ऑपरेशन ग्रीन हंट में तैनात परासैनिक बलों की भूमिका को साफ तौर पर सेना की भूमिका का रूप दिया जा सके। जिस सनसनीखेज अंदाज में इन हत्याओं को मीडिया ने युध्द, कत्लेआम और निर्मम हत्या बताया दांतेवाडा बहस को शक्ल देने में उसका बहुत बडा हाथ था। टीवी ऐंकरों ने जनता को एक तरफ भारतीय राज्य, लोकतंत्र और तिरंगे और दूसरी तरफ विनाश, अराजकता और हिंसा के बलों के बीच किसी एक को चुनने के लिए प्रबोधित किया। नक्सलवाद, चरमपंथ और आतंकवाद को एक कोटि में रख दिया गया। बंदूकधारी माओवादियों, आदिवासियों के लिए न्याय के समर्थकों, नागरिक स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं, यहां तक कि गांधीवादियों के बीच का सारा भेदभाव मिटा कर रख दिया गया। यदि आप भारतीय राज्य के साथ नहीं हैं, तो आप माओवादियों के साथ हैं-उनके सहअपराधियों और सहयोगियों की तरह।

उन्मादपूर्ण संदेश यह दिया जा रहा था '' गोली पहले चलाओ, सोचो बाद में'' इस हत्या की घटना को लेकर गृह मंत्री पी चिदम्बरम से लेकर राज्य के पुलिस निदेशकाें तक के शीर्ष सरकारी पदधारियों की प्रतिक्रिया एक जैसी थी। दांतेवाडा की घटना एक ऐतिहासिक मोड अौर चरम पंथियों की ओर से, जो राज्य को नष्ट करना चाहते हैं, की गई एक युध्द की कार्रवाई है। राज्य को इसका जवाब बल की परिधि और उसका स्तर बढाकर देना चाहिए। चिदम्बरम ने यह धमकी दे डाली कि राज्य माओवादियों के खिलाफ हवाई ताकत के इस्तेमाल पर विचार कर सकती है, जिसके बारे में अब तक कोई जनादेश नहीं है। माओवादियों के साथ बातचीत की अब कोई संभावना नहीं रह गई है क्योंकि वैसा करके 76 जवानों की शहादत का मजाक उडाना होगा। स्पष्ट बात यह है कि काफी बेरोजगार और गरीब भारतीय परासैनिक बलों में भर्ती होने को तैयार हैं। इन बलों के आका, उन्हें पर्याप्त नेतृत्व, प्रशिक्षण और अनुशासन के बिना ही क्षेत्र में भेज देंगे। दांतेवाडा में उन्होंने अपने शिविर की रखवाली करने की मानक कार्यविधि तक का पालन नहीं किया और उन्होंने लौटते समय वही रास्ता भी नहीं अपनाया, जिस रास्ते से वे गए थे। हमारे परासैनिक बलों में सामान्य साक्षरता, कुशलता और बुनियादी निपुणता की कमी के चलते जो कि संभवत: नियमित पुलिस की तुलना में जरा सी बेहतर होती है- यह मान पाना मुश्किल है कि वे थोडी सी अवधि में एकदम बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगे, या यह कि उनका नेतृत्व उन्हें तोप के निवाले के तौर पर इस्तेमाल करना बंद कर देगा।
ये सब बातें राज्य की सदोषता को हमारे सामने लाती हैं। और यह सदोषता गंभीर किस्म की है। वनों, खनिजों और भूमि की विशाल संपदा के निजीकरण की नवउदारवादी नीति को कार्यान्वित करने के प्रयास में उसने आदिवासी क्षेत्रों में गृहयुध्द छेड दिया है। वेदांत, पास्को, जिंदल और टाटा जैसे ग्रुपों के साथ उसने खनन के पट्टों के सैकडाें समझौता ज्ञापनों पर दस्तखत किए हैं जिनसे जनता को लोहे की कच्ची धातु के प्रतिटन के लिए मात्र 27 रुपए की अल्प रायल्टी मिलती है, जबकि यह धातु 4000 रुपए प्रतिटन के हिसाब से बिकती है। समझौता ज्ञापनों को कार्यान्वित करने के लिए राज्य ने लाखों बेबस लोगों को बेघर कर दिया है। इससे पर्यावरण नष्ट हो रहा है, जिसमें नदियां, पर्वत और वन शामिल हैं। इन नवउदारवादी नीतियों को मिलीभगत की व्यवस्थाओं के जरिए कार्यान्वित किया जा रहा है, जिनमें हितों का जबरदस्त टकराव होता है। राज्य के उच्च पदधारी, जिनमें पी चिदम्बरम भी शामिल हैं, इन कंपनियों के निदेशक रहे हैं, या उन्होंने उनका कानूनी प्रतिनिधित्व किया है। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी इन कंपनियों में अपने शेयर होने की बात स्वीकार की है लेकिन उन्होंने इन कंपनियों के खिलाफ मामलों की सुनवाई करने से इंकार नहीं किया। नवउदारवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू और पूर्व शर्त है उन लोगों के खिलाफ जोरजबरदस्ती, जिन्होंने बेघर होने और अपनी जायदाद से बेदखल किए जाने का विरोध किया है जिसके लिए राज्य ढांचागत हिंसा का इस्तेमाल करता है। ग्रीनहंट ऑपरेशन में तेजी लाने से आदिवासी क्षेत्रों में निर्दोष नागरिकों को जबरदस्त क्षति पहुंचेगी। पुलिस और परासैनिक बलोें और सलवाजुडूम की निरंतर हिंसा के कारण तीन लाख आदिवासी बेघर हो चुके हैं। इस सहायक सेना को राज्य द्वारा प्रायोजित और हथियारबंद किया गया है और उसका सारा खर्चा भी राज्य सरकार उठाती है।

इस घटना को लेकर तीन सवाल उठते हैं। क्या माओवादियों के दांतेवाडा हमले को जरा भी जायज ठहराया जा सकता है? क्या 60,000 से भी ज्यादा ग्रीनहंट परासैनिकों की मदद से माओवादियों के खिलाफ जबरदस्त बल का प्रयोग करना राज्य का सही कदम है? इसमें अनिवार्य रूप से असंख्य नागरिक हताहत होंगे। क्या माओवादियों से निपटने की कोई समझदार रणनीति हो सकती है?

बडे पैमाने पर हिंसा की और वहशियाना कार्रवाईयों द्वारा माओवादी, जो पिछड़ों की रक्षा करने और एक न्यायपूर्ण समाज का समर्थक होने का दम भरते हैं, अपने लिए कोई श्रेय अर्जित नहीं कर पाएंगे। इन कार्रवाइयों से तो उन्हीं आदिवासियों के खिलाफ जिनकी रक्षा करने का वे दावा करते हैं, जबरदस्त जवाबी कार्रवाई करने की संभावना पैदा हो जाएगी।

दिग्विजय, अरुंधती और अन्य


ललित सुरजन

थोड़ा इतिहास में लौटें। यह सन् 2000 की बात है। दिग्विजय सिंह तब म.प्र. के मुख्यमंत्री थे। नई सदी का पदार्पण हो गया था और समाज के विभिन्न वर्ग अपने-अपने ढंग से उसका स्वागत कर रहे थे। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने कॉलमों में सन् 2020 को प्रस्थान बिन्दु मानकर भविष्य का एक खाका खींचा। इसमें दिग्विजय सिंह को 'पूर्व प्रधानमंत्री' के रूप में चित्रित किया गया। हम नहीं जानते कि यह टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकारों का अति उत्साह था या दिग्विजय सिंह के मीडिया प्रबंधन का कमाल कि उन्हें भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जा रहा था। वे दूसरी बार म.प्र. की सत्ता पर काबिज थे और नाम के अनुरूप उन्हें अपराजेय माना जाता था। कांग्रेस की संस्कृति में कोई भी व्यक्तिएक सीमा के आगे सपने नहीं देखता और यदि देखता हो तो किसी को बतलाता नहीं है। वैसा करने में खतरे ही खतरे हैं।

केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम के बयानों और रणनीति पर सुदूर अमेरिका में बैठे व निजी चिंताओं में डूबे दिग्विजय सिंह ने जो प्रतिक्रिया व्यक्तकी वह किसी की भी समझ में नहीं आ रही है। एक बेहद संवेदनशील मुद्दे पर सत्तापक्ष के एक बेहद जिम्मेदार पदाधिकारी को क्या अपनी ही पार्टी के एक बेहद महत्वपूर्ण विभाग संभाल रहे मंत्री की इस तरह से सार्वजनिक आलोचना करना चाहिए? क्या इसके लिए यह सही मौका था? क्या यह बात अमेरिका से लौटने के बाद नहीं की जा सकती थी? क्या इस बात को पार्टी की आंतरिक बैठक में नहीं उठाया जा सकता था? कुछ नेता बहुत कम बोलते हैं जैसे अर्जुनसिंह; उनके कथनों का मर्म समझना अक्सर कठिन होता है। दूसरी तरफ कुछ लोग बहुत ज्यादा बोलते हैं जैसे दिग्विजय सिंह; और वे वास्तव में क्या कहना चाहते हैं इसे संभवत: उनके निकटस्थ व्यक्ति भी नहीं जानते।

अभी कुछ पर्यवेक्षक श्री सिंह के बयान को सिंह-चिदंबरम के बीच अहम् के टकराव से उपजी प्रतिक्रिया के रूप में देख रहे हैं। लेकिन मामला शायद इतना सीधा-सरल नहीं है। दिग्विजय सिंह को सामान्यत: सिविल सोसायटी और एनजीओ क्षेत्र का शुभचिंतक माना जाता है। नक्सलवाद के प्रति उनका रुख कुछ-कुछ इस सोच के अनुकूल ही है। लेकिन उनके कार्यकाल में नर्मदा पर म.प्र. सरकार ने जो रुख अपनाया वह पूरी तरह से सिविल सोसायटी के खिलाफ था। उनके कार्यकाल में ही देश में शिक्षा के अद्भुत प्रयोग 'होशंगाबाद विज्ञान' को बंद कर दिया गया था। आज जब वे चिदंबरम के खिलाफ सार्वजनिक व्यक्तव्य दे रहे हैं तो उनका एक और विरोधाभास प्रकट होता है। महेंद्र कर्मा उनके पट्टशिष्य हैं। श्री कर्मा ही क्या, रविंद्र चौबे, चरणदास महंत, भूपेश बघेल जैसे नेताओं की प्रथम निष्ठा उनके साथ है। इनका वश चले तो दिग्विजय सिंह जी को छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनाकर ले आएं।

ऐसे में होना तो ये चाहिए था कि श्री सिंह आज से पांच साल पहले सलवा जुड़ूम की शुरुआत करने के लिए महेंद्र कर्मा को आड़े हाथों लेते, लेकिन हमें ध्यान नहीं आता कि इन पांच सालों में उन्होंने कोई ठोस प्रतिक्रिया दी हो; जबकि दूसरी ओर उनके कट्टर विरोधी अजीत जोगी सलवा जुड़ूम का लगातार विरोध करते रहे हैं। जोगी जी एक तरफ। कर्मा एंड कंपनी दूसरी तरफ। श्री सिंह के बयान के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि उन्होंने पार्टी हाईकमान के इशारे पर ऐसा किया है। यह बात भी कुछ जमती नहीं है। अगर ऐसा होता तो संसद में चिदंबरम के बयान के समय सोनिया गांधी पूरे समय वहां तल्लीन होकर बैठे न रहतीं। यह अवश्य है कि दिग्विजय सिंह को इस समय राहुल गांधी का अत्यंत करीबी माना जाता है। म.प्र. और अन्यत्र उनकी पुरानी असफलताओं को नजरअंदाज कर दिया गया है। इधर चिदंबरम की महत्वाकांक्षा को लेकर भी चर्चाएं होने लगी हैं। कुल मिलाकर एक धुंधली तस्वीर बनती है और कहीं हल्का सा कयास होता है कि दिग्विजय सिंह कहीं टाइम्स ऑफ इंडिया की भविष्यवाणी को फलीभूत करने के प्रयत्नों में तो नहीं जुटे हैं।

यह उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं व उनके समर्थकों ने अभी तक दिग्विजय सिंह को अपना निशाना नहीं बनाया है। कुछ भी हो, वे कद्दावर राजनेता हैं और वे अगर प्रदेश यात्रा पर आना चाहेंगे तो उन्हें भला कौन रो पाएगा! यह अरुंधती राय का दुर्भाग्य है कि वे राजनेता नहीं हैं। इसलिए उन्हें आगे कभी छत्तीसगढ़ आने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। राजनेताओें पर जब-तब मुकदमे लगा दिए जाते हैं और अनुकूल समय में वापिस भी ले लिए जाते हैं। अरुंधती राय पर अगर मुकदमा चला तो उससे उन्हें अगले बीस साल निजात नहीं मिलेगी। उन्होंने 'आउटलुक' में जो लंबा निबंध लिखा, वह मेरी निजी राय में कठोर वास्तविकता से हटकर एक रूमानी वक्तव्य है। ये अरुंधती वही हैं जिन्हें अपने पहले उपन्यास पर बुकर पुरस्कार साम्यवाद विरोधी तस्वीर के कारण मिला था। बहरहाल, उनके अपने विचार हैं और उनसे हर किसी का सहमत होना आवश्यक नहीं है। किंतु यह विचारणीय है कि असहमति का स्वरूप क्या हो।

अरुंधती राय के लेख में ऐसे बहुत से बिन्दु हैं जिनको तर्कों से खारिज किया जा सकता है। यदि सुश्री राय पर मुकदमा चलता भी है तो अदालत में लेख को तर्क की तुला पर ही तौला जाएगा। लेकिन मुझे नहीं लगता कि छत्तीसगढ़ में एकाध दर्जन व्यक्तियों को छोड़कर किसी ने भी इस लेख को पूरा पढ़ा है। अगर पढ़ा होता तो जवाब देने का ढंग दूसरा होता। रायपुर के विश्वजीत मित्रा नामधारी स्वघोषित सामाजिक कार्यकर्ता अपने भाग्य को सराह सकते हैं कि अरुंधती के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराकर वे राष्ट्रीय तो क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यात हो गए हैं। हमारे पत्रकार बंधु बबन प्रसाद मिश्र ने भी एक लेख में मेधा पाटकर, अरुंधती राय और महाश्वेता देवी की तुलना क्रमश: ताड़का, शूर्पणखा और मेनका से कर दी है। मिश्र जी को लेख लिखते समय शायद यही उपमाएं ध्यान में आईं। वे मंथरा, कैकयी, सुरसा आदि से भी तुलना कर सकते थे। मैं फिलहाल उनसे सिर्फ इतना समझना चाहता हूं कि 82 साल की महाश्वेता देवी की तुलना उन्होंने क्या सोचकर मेनका से की है!(देशबंधु से साभार)

(लेखक, देशबंधु रायपुर के प्रधान संपादक हैं )

Sunday, April 18, 2010

इस युद्ध में नक्सलियों का सफाया ज़रूरी है


युद्ध की परिभाषा क्या होनी चाहिए? क्या कोई माई का लाल हमारी सरकार को ये समझा सकता है? देश के सामने आज यही सवाल खड़ा है। हम युद्धरत हैं। हमारी सरकार को ये समझ में नहीं आ रहा है। विपक्षी पार्टियां भी उसे समझा नहीं पा रही हैं। कुछ अपनी सरकारों की नाकामी को छिपाने के लिए तो कुछ इसलिए कि हम्माम में सारे नंगे हैं। लोकतंत्र में सरकार भले ही गूंगी-बहरी और निकम्मी हो जाए लेकिन अगर विपक्ष का हाल भी ऐसा हो तो कैसे जागेगी सरकार? कैसे समझेगी और कौन समझाएगा? जनता की बारी तो पांच साल पर आती है।

नक्सलवाद की लाल धारा देश के कम से कम 13 राज्यों में बह रही है। नक्सलियों ने अपने इलाके में रहने वाले करोड़ों लोगों को बंधक बना रखा है। लाखों वर्ग किलोमीटर पर इनका अवैध कब्ज़ा है। वहां सरकार और कानून का राज नाम की कोई चीज़ नहीं है। नक्सली हज़ारों सिपाहियों को हर साल मौत की गोद में पहुंचा देते हैं। करोड़ों की सम्पत्ति बर्बाद करते हैं। खुद गृह मंत्री और प्रधानमंत्री भी नक्सलियों को देश का सबसे बड़ा खतरा और यहां तक कि ‘वार अगेंस्ट पीपुल्स एंड स्टेट’ यानी ‘देश और जनता पर हमला’ बता चुके हैं। वो ये भी कह चुके हैं कि ये सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। वो इसे खुल्लम-खुल्ला युद्ध का नाम नहीं देना चाहते हैं।

वजह साफ है। साहस नदारद है। नक्सलियों का सफाया करने की बात तो की जाती है लेकिन कहा जाता है, इसमें समय लगेगा। दो-तीन साल या उससे ज़्यादा भी लग सकते हैं। सरकार पूरी कोशिश कर रही है। लेकिन युद्ध की सारी परिभाषाओं पर खरा उतरने के बावजूद नक्सलियों को देश का दुश्मन कहने से परहेज़ हो रहा है। युद्ध को युद्ध कहने की हिम्मत नहीं हो रही है। युद्ध को विद्रोह का नाम देकर नेताओं की जमात पूरे देश को बहला रही है। इसकी एक वजह और है कि सरकारें नहीं चाहती है कि कल को उन्हें जनता को ये जबाव देना पड़े कि आखिर इस युद्ध के लिए ज़िम्मेदार कौन है?

ज़िम्मेदारी तो सरकार की है कि क्योंकि युद्ध देश के नागरिकों ने ही छेड़ा है। कदाचित अपनी सतत उपेक्षा से अपमानित होकर। अपनी अमिट गरीबी और शोषण से प्रताड़ित होकर। अपनी ही सरकार के खिलाफ। लेकिन दुर्भाग्य से बगैर किसी राजनीतिक लक्ष्य के। नक्सलियों की सिर्फ यही कमज़ोरी है। उनका राजनीतिक लक्ष्य साफ नहीं है। वो मौजूदा व्यवस्था के तो विरोधी है लेकिन नयी व्यवस्था का जो मॉडल उनके पास है, उसमें भी न्याय और बराबरी नहीं है। सच्चाई और इमानदारी नहीं है। समाज को कहां पहुंचाना चाहते हैं, इसकी रणनीति नहीं है। वो सिर्फ एक खराब और गैरजबावदेह तंत्र के ऐसे विकल्प के रूप में खड़े हैं, जो खुद बर्बर, नृशंस, आतंकी और अमानवीय है। उसका न्याय ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ जैसा है।

इसीलिए सरकार को सबसे पहले युद्ध को युद्ध कहने और मानने का साहस दिखाना चाहिए। युद्ध मान लें तो फिर कमान सेना के हवाले होनी चाहिए। सेना का काम ही है — युद्ध करना औऱ दुश्मन को परास्त करके उसे अनुशासित और अधीन बनाना। सेना को भी आक्रमण की ललकार आधे-अधूरे मन से नहीं दी जानी चाहिए। उसे पूरी ताकत से दुश्मन के सफाये का राजनीतिक आदेश सत्ता के शीर्ष से सरेआम मिलना चाहिए। सेना पर ये अंकुश नहीं होना चाहिए कि तो तोप का इस्तेमाल नहीं करेगी, मिसाइल नहीं दागेगी, टैंक नहीं दौड़ाएगी या हवाई हमले नहीं करेगी। क्योंकि युद्ध तो युद्ध है। उसकी श्रेणियां बनाएंगे तो कश्मीर और नगालैंड के किस्से ही दोहराए जाएंगे। हज़ारों और सिपाही शहीद करने पड़ेंगे। उन माताओं के लाल औऱ बहन-बेटियों का सुहाग कुर्बान करना पड़ेगा जो युद्ध को विद्रोह मानने के लिए मज़बूर होकर मुकाबले में अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हैं।

अब ज़रा हमारे शहीद सिपाहियों का कसूर तो देखिए! नक्सलवाद की वजह से निपटने का ज़िम्मा हमारे जिन हुक्मरानों के पास है, वो नाकाम रहे हैं। कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। पुलिस का काम है। राज्य सरकारों ने पुलिस और अदालत को निकम्मा बनाकर रखा है। वो सत्ताधारी पार्टी के लठौत से ज़्यादा और कुछ नहीं है। आम आदमी को न्याय देने और कानून का राज सुनिश्चित करने के लिए पुलिस का इस्तेमाल होता ही कब है! कभी हुआ भी ही नहीं है। वो नेताओं और प्रभावशाली लोगों के लिए निजी सुरक्षा गार्ड की तरह है जिसका बोझ जनता के टैक्स के पैसों से उठाया जाता है। बाकी जनता को अपनी सामान्य ज़रूरतों के लिए भी अलग से और अपने बूते सुरक्षा गार्ड का इंतज़ाम करना पड़ता है।

हुकूमत के निक्कमेपन से जब हालात बेकाबू हो जाते हैं तो भ्रष्ट और पतित पुलिस से उम्मीदें की जाती हैं। कल तक नाइंसाफी की मिसाल बनी रही पुलिस से सरकार इंसाफ बहाल करने की उम्मीद करती है। ऐसी उम्मीद न तो पुलिस से पूरी हो सकती है और ना ही होती है। केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों के पाप को धोने के लिए अर्धसैनिक बल को लगाया जाता है। ये पुलिस का विकल्प कभी नहीं बन पाते। बन भी नहीं सकते और बनना भी नहीं चाहिए। पुलिस की वेशभूषा वाले अर्धसैनिकों से न तो पुलिस के काम की अपेक्षा होती है और ना ही सेना के दायित्व की। ये पुलिस के काम में भी कमज़ोर होते हैं और सेना के भी। इनकी ट्रेनिंग ही ऐसी होती है। इसकी क्षमता और प्रतिभा इनके नाम ‘अर्धसैनिक’ से ही साफ समझी जा सकती है। ये सिर्फ पुलिस से बेहतर चौकीदारी कर सकते हैं। युद्ध ये लड़ ही नहीं सकते। ये तो बेचारे सरकार के नाम पर शहीद होने के लिए ही बने हैं। ज़्यादा से ज़्यादा पुलिस और अर्धसैनिक बल में इतना ही फर्क हो सकता है कि पहला राज्य सरकार की खातिर और दूसरा केन्द्र सरकार की खातिर शहीद होने के लिए अभिशप्त है।

युद्ध लड़ना सेना का काम है। उसे युद्ध के लिए ही तैयार किया जाता है। युद्ध ही उसका संकल्प है और विजय ही उसका धर्म। सेना में ही साधनहीनता के बावजूद फतह हासिल करने का कौशल और मनोबल होता है। यही उसका सबसे बड़ा पराक्रम है। सेना को साधन मुहैया कराने के लिए देश किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर होता है। जबकि पुलिस के साधनों का दायरा स्वार्थी सरकारें तय करती है।

कश्मीर और बाकी अशांत क्षेत्रों में युद्ध को लेकर सरकार की ये सीमा तो समझ में आती है कि दुश्मन सीमा पार से दांव खेल रहा है। सीमा लांघने से अंतर्राष्ट्रीय दबाव की समस्या खड़ी हो जाएगी। परमाणु युद्ध की आशंका पैदा हो जाएगी। महाविनाश की नौबत आ जाएगी। अर्थव्यवस्था पर विकराल बोझ पड़ेगा। इससे गरीब और बदहाल हो जाएंगे। लेकिन नक्सलियों के मामले में तो ऐसा नहीं है कि उनके प्रशिक्षण शिविर पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे हैं। वहां भारत सरकार की लाचारी है। नक्सली तो सब कुछ देश में ही कर रहे हैं। देश में ही इनके प्रशिक्षण शिविर हैं। यहीं पुलिस की हत्या करके वो उनके हथियार लूट लेते हैं। मौका लगे तो जेल पर धावा बोल देते हैं। थाना लूट लेते हैं। सड़क और रेल की पटरी उखाड़ देते हैं।

इसीलिए सरकार का युद्ध का एलान करना चाहिए। सेना को हर हाल में फतह का हुक्म मिलना चाहिए। सेना पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए। न ज़मीनी और ना ही हवाई। मानवाधिकारों की कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति जुटाई होगी। ये कहने से बात नहीं बनेगी कि नक्सली तृणमूल के नज़दीकी हैं या वामपंथियों के। चंद बंधकों की रिहाई के लिए अगर कंधार जाकर आतंकवादियों को छोड़ा जा सकता है तो ज़रा सोचिए नक्सलियों ने जिन करोड़ों लोगों को बंधक बना रखा है, उनके लिए हुकूमत को किस सीमा तक जाना चाहिए! संविधान में कहां ऐसा लिखा कि अगर देश के ही कुछ भटके हुए लोग देश के ही खिलाफ युद्ध छेड़ दें तो भी सरकार को उसे युद्ध नहीं मानना चाहिए! मानवाधिकारों को लेकर अगर किसी को संदेह है तो सरकार को युद्ध की परिभाषा को साफ करना चाहिए। वर्ना नक्सलियों जैसे खराब नागरिकों के सामने सिपाहियों जैसे तिरंगा प्रमियों की बलि जारी रहेगी। फिर भले ही हम अपनी सुविधा के मुताबिक बलि को शहीद के रूप में परिभाषित करते रहें।


कुमार सिंह

वरिष्ठ विशेष संवाददाता ,जी न्यूज़

mukesh1765@gmail.com

विकास ही माओवाद के हल की कुंजी


दंतेवाड़ा नरसंहार की घटना से समूचा राष्ट्र स्तब्ध है। हर तरफ से इस नक्सली कार्रवाई की निन्दा के स्वर उठ रहे हैं लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविघालय के वामपंथी छात्र संगठनों ने नरसंहार का समर्थन कर सबको सकते में डाल दिया है।

‘फोरम अगेंस्ट वार ऑन पीपुल’ के बैनर तले इन छात्रों ने नक्सलियों के तांडव का समर्थन करते हुए जश्न मनाया और पोस्टरबाजी की। हालांकि इसे महज बचकाना मार्क्सवाद ही कहेंगे और निहायत ही अपरिपक्व और अराजनीतिक समझ, क्योंकि खुद माआ॓वादियों ने दंतेवाड़ा कांड पर यह कहते हुए दुख जताया है कि उन्होंने यह सब बहुत मजबूरी में किया है।

बहरहाल, इस घटना के बाद से ही नक्सल समस्या से निपटने को लेकर केंद्र सरकार की पहल पर भी अंगुलियां उठ रही हैं। हिंसा के जरिए कानून को हाथ में लेने वाले नक्सलियों से निपटने का रास्ता क्या हो, यह अहम सवाल है? इसकी आड़ में खनिज सम्पदा का दोहन, विकास कार्यों में रंगदारी और तरह-तरह की अराजक गतिविधियां भी फल-फूल रही हैं और आदिवासियों का जीवन स्तर ऊपर उठाने का असल सवाल दबता जा रहा है। देश के लगभग आठ राज्य आज नक्सल समस्या से बुरी तरह प्रभावित हैं।

गरीबी, अशिक्षा और असंतुलित विकास ही इसकी जड़ हैं किंतु सरकार का ध्यान आकृष्ट करने का हिंसा ही एकमात्र रास्ता नहीं हो सकता। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अपनी मांगें मनवाने का यह बहुत कारगर तरीका भी नहीं है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही देश को आजाद कराया था। इसलिए हिंसा के जरिए सत्ता परिवर्तन की राजनीतिक विचारधारा रखने वालों को भली-भांति समझ लेना चाहिए कि उन्हें अपनी राजनीतिक विचारधारा क्रियान्वयन के तरीके पर पुनर्विचार करना होगा।

गरीब आदिवासियों के हक की लड़ाई के और भी लोकतांत्रिक तरीके हैं। गरीबी हिंसा का बहाना नहीं बन सकती। यह इस आतंक को जायज ठहराने का कारण भी नहीं बन सकती। गरीबी और दमन को हथियार उठाने की वजह समझना बड़ी भूल होगी। इस तरह की राजनीतिक सोच रखने वालों को इस समस्या की जड़ में जाकर देखना-सोचना होगा क्योंकि इसके प्रवर्तक माआ॓वादी राज्य-व्यवस्था को मुख्य शत्रु और वर्ग संघर्ष को ही युद्ध का मुख्य रास्ता मानते हैं। दंतेवाड़ा की लोमहर्षक घटना उनकी इस सोच की परिणति है, जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए हैं। उनकी इस चरमपंथी सोच के प्रति सहानुभूति रखने वालों को भी अब आत्मलोचन करने की जरूरत है कि क्या माआ॓वादी बिना बड़े जनांदोलन के किसी क्रांति की बुनियाद रख सकते हैं।

एक खुफिया रिपोर्ट पर यकीन करें तो उसमें कहा गया है कि देश में विकास कार्यों के लिए बढ़ रहे सरकारी बजट का सीधा असर नक्सलियों की लेवी वसूली पर पड़ रहा है। नक्सली संगठनों ने वसूली के लक्ष्य में पच्चीस प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी है। वर्ष 2010 के लिए 1500 करोड़ रूपये वसूली का लक्ष्य है। इसमें अकेले बिहार-झारखंड से 500 करोड़ रूपये की वसूली की जानी है। इसी वसूली के लिए इन नक्सलियों ने अभी हाल के कुछ महीनों में निर्माण एजेंसियों के दर्जनों वाहनों को जला दिया और ये लगातार उनके निशाने पर हैं।

छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में यह समस्या और विकट है। यहां इनकी समानांतर सरकार चलती है और दरअसल इसी पहलू में इस समस्या की जड़ें भी तलाशनी होंगी। गौरतलब है कि अबूझमाड़ का इलाका लगभग चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैला है, इसकी सीमाएं महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश से सटी हैं। यहां विकास की कौन कहे, सरकारी तंत्र के लोग वर्षों से झांकने तक नहीं गये। कुछ तो माआ॓वादियों के भय और ज्यादातर सरकारी तंत्र की नौकरशाहाना जकड़न, उदासीनता और प्रतिबद्धता के अभाव के चलते आदिवासी इलाकों में विकास कार्य हो ही नहीं रहे हैं। सचाई यह है कि नक्सल प्रभावित अति संवेदनशील 33 जिलों के लिए केंद्र सरकार ने साढ़े छह हजार करोड़ रूपये का प्रावधान किया है, किंतु अभी तक मात्र दो हजार करोड़ रूपये ही खर्च हुए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण योजना के तहत महाराष्ट्र, आंध्र, बिहार और छत्तीसगढ़ में औसतन पांच से बारह प्रतिशत ही कार्य हुए हैं।

दरअसल नक्सल समस्या केवल केंद्र सरकार की चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। राज्य सरकारों को भी राजनीति से ऊपर उठकर इससे निजात पाने के लिए एकजुटता दिखानी होगी, जो अभी तक नहीं दिख रही है। नक्सलियों ने अभी तक इसी कमजोरी का फायदा उठाया और एक से दूसरे राज्य में भागते रहे हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री पर माआ॓वादियों की मदद से चुनाव जीतने का आरोप है। अभी कुछ दिन पहले उन्होंने एक अपहृत अधिकारी को छुड़ाने के बदले में एक माआ॓वादी को जेल से छोड़ दिया। बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं किंतु दंतेवाड़ा के हमले के बाद इस आतंक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के लिए नई राजनीतिक सहमति बनी है।

इस आतंक के सफाये में सरकार को दृढ़ता दिखानी होगी क्योंकि माआ॓वादी सुरक्षा बलों के खिलाफ आदिवासी महिलाओं और बच्चों को आगे कर हमले कर रहे हैं। दंतेवाड़ा की घटना में भी महिला के शामिल होने की पुष्टि हुई है। उनके इस खतरनाक खेल का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए। इस कठोर कार्रवाई की पहल अब राज्यों को ही करनी होगी। सरकार को भी यह समझना होगा कि हिंसा के जरिये सत्ता परिवर्तन की राजनीतिक विचारधारा रखने वाले ये माआ॓वादी भटके हुए लोग हैं। जेएनयू के वामपंथी छात्र संगठनों की हरकत भयंकर भटकाव और राजनीतिक दिवालियापन की ही परिचायक है। माआ॓वादियों पर पुलिस कार्रवाई को गलत ठहराने वाले अब पुलिस बल पर उनके हमले को कैसे जायज ठहरा रहे हैं।

उनकी यह सोच राष्ट्र विरोधी है, जो उन्हें जेहादी आतंक के करीब ले जाती है। इसीलिए इसकी पुरजोर निंदा होनी चाहिए। किसी समस्या का हल हिंसा कतई नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक तरीके से ही हल ढूंढा जा सकता है। खासतौर पर उन राजनीतिक दलों को, जिनसे इनका जुड़ाव है, उन्हें उनकी सोच को बदलने के लिए पहल करनी चाहिए। यह सच है कि नक्सलियों ने इतनी बड़ी चोट कभी नहीं दी, इसलिए सरकार को इनसे निपटने के लिए कड़े से कड़े कदम उठाने से हिचकना नहीं चाहिए। तरीका क्या हो, यह उसे खुद तय करना है। साथ ही साथ उसे ईमानदार समर्पण, संवाद और विकास की अपनी नीति को और अधिक प्रभावी बनाना होगा। इस अभियान में प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को विश्वास में लेकर आगे बढ़ना होगा। इन क्षेत्रों में इस तरह विकास किया जाना चाहिए कि आमजन को लगे कि सरकार से बड़ा उनका कोई हितैषी नहीं है। उनका उत्थान सरकार के प्रयास से ही होगा, किसी अन्य तरीके से नहीं।

उनके मन में भरना होगा कि हथियारों के सहारे परिवर्तन की वकालत करने वाले उनके दुश्मन हैं और उनकी यह नीति विकास में बाधक है। वह उनकी आड़ में निर्माण एजेंसियों से वसूली के साथ ही साथ प्राकृतिक संपदा का दोहन कर रहे हैं। इस अभियान के जरिये भटके हुए लोगों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जानी चाहिए तभी उनके दिलों में विश्वास पैदा हो सकेगा और नक्सलियों से निपटने में उनकी मदद मिल सकेगी। अगर वाकई केन्द्र और राज्य सरकारें इस समस्या के प्रति गंभीर हैं तो उन्हें भी एक परिपक्व राजनीतिक समझ का परिचय देना होगा। हमारे गृहमंत्री से और परिपक्व समझ और गंभीर व ईमानदार पहल अपेक्षित है।

क बड़ा तबका है और मुख्यधारा के दलों में भी है, जो मानता है कि नक्सलवाद एक राजनीतिक समस्या है। तो फिर राजनीतिक समस्या का कोई राजनीतिक हल ही होना चाहिए चाहे वह कितना ही जटिल और कठिन क्यों न हो। ऐसे में चिदम्बरम साहब को भी ऐसे बयानों से बचना चाहिए कि नक्सली देश के दुश्मन हैं। खुद कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर मानते हैं कि पंचायतों को मजबूत कर ही हम इसके हल की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। सिर्फ फौज और अर्धसैनिक बलों के जरिए यह समस्या नहीं हल होने वाली। विकास ही वह कुंजी है जिसमें इसका हल छिपा है। अब विकास कैसे हो, यह तो सरकार को ही सोचना होगा। सरकार राजनीतिक और रणनीतिक कौशल का सही इस्तेमाल कर अपने मिशन में कामयाब हो सकती है।

रणविजय सिंह

इस अप्रत्यक्ष हिंसा को भी समझिए


तेवाड़ा में केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल के 76 जवानों की नक्सली हमले में मृत्यु के बाद हमारे राजनीतिक और मीडियाई इलाकों में जिस तरह की फौरी हलचल की उम्मीद थी वैसी हुई।

नक्सल विरोधियों ने कठोरतम भाषाई विरोध दर्ज कराया और नक्सलवादियों को हत्यारा, आतंकवादी, देशद्रोही तथा इसी तरह के अन्याय निंदक पदों से नवाजा और उनके विरूद्ध कड़ी कार्रवाई न करने के लिए सरकार को धिक्कारा भी और आगे कठोर कदम उठाने के लिए नसीहतें भी दी।

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस समूचे भाषाई प्रलाप में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के आदिवासियों की आर्थिक, ऐतिहासिक सांस्कृतिक परिस्थितियों और इनसे मौजूदा राज्य व्यवस्था की नीतियों के साथ टकराहट की आधारभूत समझ सिरे से गायब थी। अगर इनमें से किसी ने भी दंतेवाड़ा क्षेत्र में जाकर वस्तुस्थिति को खुले दिमाग से देखा होता तो शायद उनका नजरिया दूसरा होता। वे नक्सलवादी हिंसा के समर्थक तो नहीं ही होते मगर इस हिंसा की जड़ों तक पहुंचने में जरूर सफल होते। अगर उन्हें जहां जाकर देखने में असुविधा होती थी तो वे कम से कम उन लोगों के विचारों और वर्णनों को ही पढ़ लेते जिन्होंने लगातार आदिवासियों के बीच काम किया है। और समय-समय पर उनके शोषण-दोहन-बंधन को विविध तरीकों से उजागर किया है।

ऐसा करने वालों में उचक्के कलमकारों के विरूद्ध वे कलमकार ज्यादा रहे हैं जो इस देश में एक न्यायपूर्ण लोकतंत्र के हामी रहे हैं और जो वंचित तबकों की कठिनाइयों-समस्याओं के प्रति सरोकारी तथा संवेदनशील नजरिया अपनाए रहे हैं। अगर हमारे कथित देशप्रेमियों और लोकतंत्रवादियों ने अपने विचारों में वनवासियों के हालात की थोड़ी सी भी समझ शामिल कर ली होती तो उनका थोड़ा बहुत गुस्सा हिंसा और प्रतिहिंसा के दुराचक्र को पैदा करने वाले राज्यतंत्र की आ॓र अवश्य ही स्थानांतरित हो गया होता। मैंने आदिवासी इलाकों को थोड़ा बहुत जानने-समझने की कोशिश की है।

1984 में मैंने मध्यप्रदेश के (तब छत्तीसगढ़ अलग राज्य नहीं था) कुछ आदिवासी क्षेत्रों का दौरा किया था। तब मेरे सामने उनके कदम-कदम कठिन जीवन के ऐसे डरावने रूप उजागर हुए थे जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकते थे। यहां सिर्फ एक घटना बताना चाहता हूं। मेरी एक ऐसे आदिवासी से मुलाकात हुई थी जो छह महीने जेल में बिता कर आया था। उसका अपराध सिर्फ इतना था कि उसे अपने खेत की जुताई के लिए हल की जरूरत थी जिसके लिए उसने जंगल से लकड़ी काट ली थी। वन अधिकारी ने इसे पकड़ लिया और इसके सामने शर्त रखी कि अगर वह अपनी औरत को उसके पास छोड़ जाएगा तो उसे छोड़ दिया जाएगा अन्यथा पुलिस के हवाले कर दिया जायेगा। क्योंकि उसने वन अधिकारी की बात नहीं मानी इसलिए उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया। उस साल वह खेती नहीं कर सका और उसका पूरा परिवार तबाह हो गया। मैं यहां यह भी बता दूं कि यह सिर्फ उस अकेले आदिवासी की कहानी नहीं थी बल्कि एक महागाथा थी जो समूचे आदिवासी क्षेत्र में पसरी हुई थी।

जो दूसरी बात मेरे देखने में आयी थी वह यह थी कि चुनाव राजनीति ने जिन गिने-चुने आदिवासी नेताओं को जन्म दिया था, वे आदिवासियों के पक्ष में कम अपने लालच के चलते दोहन करने वालों के दलाल के रूप में ज्यादा सक्रिय थे। जो वर्तमान चुनावी लोकतंत्र की कुटिलताओं को समझते हैं वे इसका कारण भी समझ सकते हैं। अब मैं राज्य की भूमिका के संदर्भ में उन जवानों को बात करना चाहता हूं जो दंतेवाड़ा में शहीद हो गये और श्रद्धांजलि स्वरूप जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को प्रकाशित करने का पुनीत कार्य इधर ‘राष्ट्रीय सहारा’ कर रहा है। इनमें से एक भी जवान, बड़े की बात तो छोड़ दें, किसी छोटे नेता, व्यवसायी, अधिकारी या किसी माफिया का भी बेटा नहीं है। सबके सब बेहद निम्न पृष्ठभूमि से आये लड़के थे। जो अपने से थोड़ी और निम्न पृष्ठभूमि के हथियारबंद आदिवासियों से मुठभेड़ के लिए भेजे गये थे। जाहिर है कि ये लोग नक्सली आदिवासियों के साथ गलबहियां करने नहीं गये थे। अगर नक्सली इनके हत्थे चढ़ जाते तो ये भी उन पर गोलियों की बौछार करते। परंतु जंगल के युद्धक्षेत्र में नक्सली अधिक चालाक निकले। परिणामत: 76 जवानों को अपनी जान से हाथ धोने पड़े।

मारक स्थिति देखिए कि मारने और मरने वाले एक ही विसंगति के शिकार हैं। और यह विसंगित किसी आ॓र ने नहीं, आपाद भ्रष्ट और संवेदनहीन हो चुके राज्यतंत्र ने पैदा की है। सारतत्व यह है कि जब तक मौजूदा चुनावी राज्यतंत्र का नैतिक चरित्र नहीं बदलेगा, तब तक नक्सली समस्या का कोई समाधान नहीं निकलेगा। बल्कि यह समस्या और अधिक उग्र होगी। निरीह जवानों और निरीह आदिवासियों की जानें जाती रहेंगी। जिनकी हवस और कुत्सित महत्वाकांक्षा के चलते यह सब हो रहा है, वे इसी तरह मजे में बने रहेंगे। जवान मरें या आदिवासी, उनके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए वे लोग, जो नक्सलियों को भर-भर गरिया रहे हैं, अपना थोड़ा बहुत ध्यान इस राज्यतंत्र के सुधार की आ॓र भी लक्षित करें। उन्हें समझना चाहिए कि झारखंड जैसे राज्य का एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री रातोंरात अरबों में खेलने लगता है या मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का एक अधिकारी अरबों की अवैध संपत्ति जुटा लेता है तो यह सब किसके हकों पर डकैती होती है।

यह वह मौन अप्रत्यक्ष हिंसा होती है जो प्रत्यक्ष हिंसा से कहीं अधिक क्रूर और भयावह है। इसको समाप्त किये बिना प्रत्यक्ष हिंसा समाप्त नहीं हो सकती।

विभांशु दिव्याल

लेखक

Saturday, April 17, 2010

दंतेवाड़ा हमले पर सांसद आमने-सामने

रायपुर। दंतेवाड़ा जिले के चिंतलनार में 76 जवानों के शहीद होने के मामले में प्रदेश के सांसद आमने-सामने हो गए हैं। संसद में बहस के दौरान कांग्रेस सांसद चरणदास महंत ने राज्य की भाजपा सरकार और यहां के सांसदों पर निशाना साधा। इसका भाजपा सांसदों ने विरोध किया। छत्तीसगढ़ भाजपा अध्यक्ष विष्णुदेव साय ने श्री महंत के बयान की आलोचना की है।

श्री महंत ने कहा कि राज्य में जब कांग्रेस की सरकार थी तब केवल 44 जाने गई थीं। रमन सरकार के आने के बाद 203 लोगों की मौत हो गई। भाजपा ने बस्तर में चुनाव प्रबंधन से 11 में से 10 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की है। कांग्रेस को धोखे से एक में जीत मिल गई।

सांसद बलीराम कश्यप पर उन्होंने नक्सलियों से समझौता करने का आरोप लगाया। छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार नक्सलियों के लिए मुफीद हो गई है। प्रदेश में नक्सलियों के समर्थक माने जाने वाले विधायक को प्रदेश का गृहमंत्री बना दिया जाता है। सांसद सरोज पांडे ने श्री महंत पर आरोप लगाया कि नक्सली हिंसा पर वे राजनीति कर रहे हैं। श्री महंत को उन्होंने आरोपों को साबित करने की चुनौती दी।

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और सांसद विष्णुदेव साय ने श्री महंत की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ सांसद बलिराम कश्यप का अपमान किया है। उन्हें अपने कृत्य के लिए सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए। असर में कांग्रेस छत्तीसगढ़ में बिखर रही है। दिग्विजय सिंह जैसे नेता अपने ही गृहमंत्री की आलोचना कर रहे हैं। इससे कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति सामने आ रही है।

उन्होंने कहा कि नक्सलवाद की समस्या के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है। प्रदेश ही नहीं पूरे देश में कांग्रेस ने नक्सली समस्या विरासत में दी है। कांग्रेसी ही नहीं चाहते कि नक्सलियों के लिए खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए। भाजयुमो के प्रदेश अध्यक्ष संजय श्रीवास्तव ने कहा कि महंत मनगढ़ंत आरोप लगाकर प्रदेश को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं।

देश के गृहमंत्री राजनीतिक विचारधारा से ऊपर उठकर नक्सलियों के खिलाफ आरपार की लड़ाई लड़ रहे हैं तब महंत इस तरह का बयान देकर अभियान को डिस्टर्ब करने का प्रयास कर रहे हैं।