Friday, February 19, 2010

मंत्रियों पर अफसरी नकेल

आलोक मेहता
संपादक, नई दुनिया
सचमुच गंगा उल्टी बहने लगे तो कितनी तबाही होगी ? युद्ध के मैदान में सेनापति घोड़े की पीठ के बजाय पूँछ से बँधा हो तो कौन-सी लड़ाई जीती जा सकेगी ? यदि मेहनतकश धोबी किसी तरह कपड़े धोकर सुखाए और गधा दुलत्तियों से धूल-कीचड़ उड़ाकर कपड़ों तथा धोबी का चेहरा खराब कर दे । तुलना कड़वी हो सकती है,लेकिन लोकतंत्र पर गौरव करने वाली भारत सरकार का ऐसा ही एक फार्मूला मंत्रियों तथा जनतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वालों को बेचैन किए हुए है । एक सरकारी फरमान में व्यवस्था की गई है कि अब उच्च अधिकार प्राप्त अफसर केंद्रीय मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा कर पास या फेल की रिपोर्ट बनाएँगे। पराकाष्ठा यह है कि इस व्यवस्था के लिए अनुबंधनुमा एक दस्तावेज पर मंत्रियों के हस्ताक्षर करवाए गए हैं। गनीमत यह है कि कुछ स्वाभिमानी और सक्षम मंत्रियों ने इस तरह के गैर लोकतांत्रिक "दंड सहमति-पत्र" पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया है। पं.जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गाँधी के विचारों, आदर्शों से पे्ररणा लेने वाले चार केंद्रीय मंत्रियों श्रीमती अंबिका सोनी, कमलनाथ, गुलाम नबी आजाद और जयराम रमेश ने अफसरों को सिर पर लादने से साफ इनकार कर दिया है । आखिरकार आजादी की लड़ाई और लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना चुने गए जन प्रतिनिधियों के मार्गदर्शन से स्वच्छ और कुशल प्रशासन देने के लिए हुई थी। पं. नेहरू ने १९५७ में भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की बैठक में स्पष्ट शब्दों में कहा था-"प्रशासन को केवल अच्छा ही नहीं होना चाहिए, बल्कि यह भी जरूरी है कि वे लोग भी उसे अच्छा समझें,जिन पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह और भी जरूरी है ।" केंद्र सरकार में इस समय सुशासन के नाम पर कुछ सेवानिवृत्त या उच्च पदों पर बैठे अफसरों की सलाह सर्वाधिक उपयोगी और महत्वपूर्ण समझी जाने लगी है। असल में अफसरों को जनता की असली समस्याओं के समाधान और कल्याण से अधिक चिंता "रिपोर्ट कार्ड", विश्व बैंक को दिए जा सकने वाले जादुई आँकड़ों की रहती है । इसलिए वे मंत्रियों की नकेल भी खुद संभालना चाहते हैं । वैसे मंत्रियों की कमजोरियों और गड़बड़ियों पर अंकुश रखने का दायित्व प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के नेतृत्व का ही होता है । अंबिका सोनी, कमलनाथ और गुलाम नबी आजाद राजनीति में ४० वर्षों से सक्रिय हैं और इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, नरसिंह राव जैसे प्रधानमंत्रियों के साथ उन्होंने काम किया है । फिर वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ भी कम से कम २० वर्षों से उनका सीधा तालमेल रहा है। पार्टी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी ने उन्हें अपनी पार्टी की सरकार को सफल बनाने के लिए ही मंत्री पद संभालने की जिम्मेदारी दी है । वे ही क्यों, प्रणव मुखर्जी और पी. चिदंबरम सहित कई अनुभवी नेता हैं। यदि उन्हें प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष और सबसे महत्वपूर्ण आम जनता के बजाय कुछ खजांचीनुमा अफसरों के प्रति जवाबदेह रहना होगा तो लोकतांत्रिक व्यवस्था सचमुच कलंकित होगी और भविष्य के लिए भी गलत परंपरा बन जाएगी।लोकतंत्र में आवश्यकता इस बात की होती है कि प्रशासक की छाप जन अपेक्षाओं को पूरी करने वाली बने । निश्चित रूप से कोई भी प्रशासक हर व्यक्ति की इच्छा को पूरा नहीं कर सकता,लेकिन उसके काम का तरीका ऐसा होना चाहिए, जिससे जनता को विश्वास हो कि उसकी इच्छानुसार सत्ता-व्यवस्था चल रही हो। इसी दृष्टि से चुनाव और जनप्रतिनिधियों- संसद-विधानसभा का महत्व रखा गया। केवल अफसरशाही की मनमानी होने पर ही नक्सली माओवादी संगठनों तथा राष्ट्रविरोधी बाहरी ताकतों को बल मिलता है । वे गरीब लोगों को उग्र हिंसा का तरीका अपनाने के लिए भड़काने में सफल होते हैं । लोकतंत्र में अब दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यकों को यह विश्वास हो गया है कि वे चुनाव के समय पंच, सरपंच, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक को बदल सकते हैं । यदि उन्हें यह भरोसा होने लगे कि सब कुछ करने के बाद भी भ्रष्ट और सिरफिरे अफसरों की मनमानी से मुक्ति नहीं मिल सकती तो वे हिंसा का रास्ता अपनाने पर मजबूर होने लगेंगे । पिछले वर्षों के दौरान राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा गठित किए गए व्यापक सर्वेक्षणों में सिद्ध हुआ है कि भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार नासूर की तरह फैल गया है । प्रशासनिक भ्रष्टाचार ही गरीबी और पिछड़ेपन का मूल कारण है । हर साल करीब २५ हजार करोड़ रुपए अफसरी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं । सतर्कता आयोग, सीबीआई और प्रदेशों की जाँच एजेंसियों के पास भ्रष्ट अधिकारियों के हजारों मामले हैं और लाखों प्रकरण अदालतों में विचाराधीन हैं। लालफीताशाही ने कुछ ऐसा जाल फैलाया हुआ है कि भ्रष्टाचार के प्रकरण वर्षों तक उलझे रहें और वे कड़े दंड से बचते रहें । प्रशासनिक भ्रष्टाचार का ही नतीजा है कि लगभग २० हजार अरब रुपए से अधिक काली पूँजी अवैध तरीकों से विदेशी बैंकों में जमा है। विडंबना यह है कि व्यवस्था गड़बड़ाने से ईमानदार और सक्षम अधिकारी उपेक्षित तथा असहाय हो जाते हैं । उनके साथ काम करने वाले ईमानदार और परिश्रमी सहयोगी भी विचलित होते हैं। इसका असर पूरे समाज पर पड़ता है । पिछले २० वर्षों के दौरान लाइसेंस-परमिट राज बहुत हद तक खत्म हुआ है । नेताओं, अफसरों और अपराधियों के बीच गठजोड़ की प्रवृत्ति से बहुत नुकसान हुआ है । इस बात को कम से कम चार प्रधानमंत्री मान चुके हैं । फिर भी राजनीति और प्रशासन में एक नया वर्ग सामने आया है, जो सड़ांध दूर कर व्यवस्था को संवारना चाहता है, लेकिन अफसर ही मंत्रियों के कामकाज की रिपोर्ट बनाने लगेंगे तो उनके गठजोड़ से गलत काम की गुंजाइश बढ़ जाएगी।

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