Thursday, February 11, 2010

माओवादी इतिहास का पुनरावलोकन


'भारत में नक्सलवाद वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक हालात से उभरा है। आर्थिक असमानता, शोषण तथा अन्याय जैसे मूल प्ररेक-तत्वों की अनदेखी करके इसे महज 'लॉ एंड ऍार्डर' की समस्या मानना, वास्तविकता से आंखें मूंदना है। साथ ही 'माओवाद' का हल्ला मचाकर अपनी हिफाजत की मांग करने वाला नेतृत्व जिस तरह इससे पल्ला झाड़ रहा है, वह मौकापरस्ती की इंतिहा है। सीपीई (एमएल) लिबरेशन जब नक्सली पार्टियों-समूहों के बीच चल रहे हत्या के दौरों से खुद को अलग कर पाक बन जाता है और दूसरों को आतंकवादी- अराजकतावादी द्घोषित करता है तो यह न सिर्फ इतिहास से भागना है, बल्कि वैचारिक दिवालिएपन की निशानी भी है । प्रस्तुत है संडे पोस्ट में पूर्व प्रकाशित आलेख
आजकल जिस मात्रा में और जिस तरीके से नक्सलवाद व माओवाद के इतिहास पर लिखा जा रहा है उससे इतनी बात जरूर समझ में आ गई है कि मुद्दा गंभीर है और कुछ गड़बड़ियां चल रही हैं। 'जनसत्ता' में छपे एक लेख में नक्सलवाद, माओवाद की सारी गड़बड़ी का ठीकरा चारु मजूमदार के सिर पर फोड़ा गया है। 'समकालीन जनमत' में यह आरोय सीपीआई (माओवादी) के महासचिव गणपति के सिर पर मढ़ा गया है। उत्तर प्रदेश के एक संगठन ने अपने ऊपर 'माओवाद' के नाम पर पुलिस द्वारा उत्पीड़ित होने की चीख-पुकार मीडिया, पर्चों से लेकर भाषणों तक में खूब की। इस तरह बहुत सारे तरीकों से 'माओवाद' व 'नक्सलवाद' की गड़बड़ियों, उनसे उपजे खतरों और कठमुल्ला सिद्धातों की खूब आलोचना की गयी और की जा रही है। इससे कम से कम एक बात को पुरजोर तरीके से स्थापित करने का प्रयास किया गया कि माओवाद इतिहास की गड़बड़ी है और चंद व्यक्ति के चलते यह पैदा होकर सरकार, जनता तथा विभिन्न वामपंथी पार्टियों को परेशान किये हुए है। इन निष्कर्षों को स्वीकार करने के पहले इनके दिये हुए तथ्यों पर गौर करें तो पूरे मामले में गड़बड़ी नजर आने लगती है। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर, बनाकर व खींच-खांच कर एक निष्कर्ष तक ले जाने से व्यक्तिगत संतोष चाहे जितना हो लेकिन उससे नुकसान होना तय है।
भारत में सशस्त्र क्रांति का 'चीन का रास्ता' को अपनाने का प्रस्ताव १९४४ में आंध्र प्रदेश कमेटी ने प्रस्तावित किया था। माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन में चल रहे गुरिल्ला युद्ध की रणनीति उस समय तक क्रांति सम्पन्न करने तक नहीं पहुंची थी तथा इस तरह अभी वह 'मॉडल' भी नहीं बना था। भाकपा के नेतृत्व ने इसे स्वीकार नहीं किया और ऊहापोह बना रहा। लेकिन तेलंगाना की लड़ाई में इस रास्ते को एक सीमा तक अख्तियार किया गया जिसे १९५०-५१ में भाकपा नेतृत्व छोड़ने के लिए मजबूर होकर समर्पण व अवसरवाद की ओर बढ़ा। वस्तुतः 'चीन का रास्ता' अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट समुदाय में चल रहे बहस के माध्यम से आया। स्टालिन की प्रस्तुत रणनीति-कार्यनीति चीन में असफल हो चुकी थी और माओ का नेतृत्व स्थापित हो चुका था। अतः 'चीन का रास्ता' एक व्यापक बहस के बीच से उभरा।

वर्ष १९६४ में रूस व चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच वैचारिक, राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ। इसे 'महान बहस' के नाम से जाना जाता है। इस बहस में मार्क्सवाद व दुनिया की राजनीतिक परिस्थिति को लेकर आकलन पेश किया गया। इस बहस के केन्द्र में स्टालिन एक विषय बने रहे। इस पूरी बहस में सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियां शामिल हुईं। स्टा लिन के मुद्दा बनने पर बहुत से बुद्धिजीवियों, चिंतकों इत्यादि ने भी खूब रुचि ली। इस पूरी बहस से मार्क्सवाद पर एक नये तरह की रोशनी पड़ी। रूस के समाजवादी प्रयोग और स्टालिन की सीमाओं के द्घेरे टूटने से दर्शन व विचार के क्षेत्र में नयी दृष्टि पैदा हुई। माओत्से तुंग की रचनाओं से लेकर लेनिन, मार्क्स सभी की रचनाओं का पुनर्पाठ शुरू हुआ। चीन में सांस्कूतिक क्रांति की उपलब्धियों व प्रयोगों को लेकर पूरी दुनिया में बहस मुबाहिसे का दौर चला। १९६४ से लेकर १९८० के बीच मार्क्सवादी साहित्य में नवोन्मेष आया। मार्क्स, लेनिन के राजनीति अर्थशास्त्र, दर्शन पर लिखी रचनाओं के पुनर्पाठ, मार्क्सवाद के इतिहास पर पुस्तकों की श्रृंखला बढ़ती गयी। अल्पूजर, पालस्वीजी, हैटी मैगडॉफ, इपी थामसन, विलियम हिंटन जैसे सैकड़ों चिंतक, दार्शनिक, लेखक उभरकर आये। माओत्से तुंग की विचारधारा मार्क्सवाद का अभिन्न हिस्सा बन गयी। चीन की क्रांति भविष्य के समाज, दर्शन को व्याख्यायित करने का ठोस उदाहरण बना।

भारत में १९६४ में भाकपा-माकपा का विभाजन दुनिया के स्तर पर चल रहे 'महान बहस' के नतीजे के तौर पर नहीं अपितु चंद कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की अतीत में हुई कुछ खामियों के चलते हुआ। 'महान बहस' के दौरान माकपा ने माओत्से तुंग की विचारधारा को ऊपरी तौर पर स्वीकार करते हुए विभ्रम की स्थिति को बनाये रखा। माकपा के राज्य व जिला इकाइयों में 'महान बहस' को लेकर उद्वेलन चल रहा था। यह बहस पर्चों, पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं, स्टडी सर्किल के माध्यमों से चल रही थी। १९६७ में नक्सलबाड़ी की द्घटना से माकपा के भीतर कार्यक्रम, रणनीति, कार्यनीति को लेकर स्पष्ट विभाजन हो गया। यह विभाजन नेतृत्व के स्तर पर नहीं हुआ लेकिन निचली इकाइयां, कार्यकर्ता अलग होने की स्थिति में 'गुमराह', 'आदर्शवादी', 'भटके हुए' इत्यादि द्घोषित हो जाते हैं। जब वे अपनी राह बनाकर चलने लगते हैं तो वे 'अवसरवादी' इत्यादि हो जाते हैं। यही उस समय नक्सलियों के लिए सीपीएम, सीपीआई ने कहा। चारु मजूमदार के नेतृत्व में स्थिति थोड़ी भिन्न थीः (१) नेतृत्व व जनता के बीच सीधा रास्ता (२) जमीन व साधनों पर सीधा अधिकार (३) संद्घर्ष के लिए उपलब्ध साधनों का प्रयोग (४) मुख्य दुश्मन का खात्मा (५) जन कमेटियों का निर्माण। यह सह अस्तित्व व शांतिपूर्ण समझौते के अंत की द्घोषणा थी। चारू मजूमदार के नेतृत्व में सीपीआई (एमएल) की स्थापना हुई और अब तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास को अंगीकार करते हुए इसका आठवां कांग्रेस द्घोषित किया गया। नक्सलवादी धारा इसी इतिहास की अनवरत धारा का नवीनतम रूप थी। ज्ञात हो कि सीपीआई (माओवादी) ने भी २००५ में हुई अपनी कांग्रेस (अधिवेशन) में इसी इतिहास को अंगीकार करते हुए ९वां कांग्रेस द्घोषित किया।
भारत में जिस तरह से पुरानी धारा से अलग हो माओत्से तुंग की विचारधारा को अपनाते हुए एक नयी पार्टी (नक्सलवादी) का जन्म हुआ वैसी ही परिद्घटनाएं पूरी दुनिया के स्तर पर अलग-अलग समय तथा परिस्थिति में हुईं। पेरू फिलीपिन्स, टर्की जैसे देशों में माओवादी पार्टी का जन्म सत्तर के दशक के अंतिम दौर में हो चुका था। भारत में नक्सलवाद 'चीन की सप्लाई' से नहीं आया अपितु यह देश व दुनिया के वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैचारिक परिस्थितियों से उपज कर आया। यह नक्सलवादी पार्टियों के बीच एकता, उनके इतिहास से उपजी समझ व सहमति इत्यादि से एक नये रूप में अवतरित हुआ। निश्चय इसकी प्रक्रिया सामान्य व सीधी-सरल नहीं थी। वर्ष १९७० के बाद अंतहीन विभाजनों व आपसी कलह, मारपीट हत्या का काला अध्याय नक्सलबाड़ी धारा के साथ जुड़ा हुआ है। वैचारिक बहस भी उतना ही उलझी हुई है। नक्सलबाड़ी धारा की कोई भी पार्टी न तो इससे पल्ला झाड़कर अलग हो सकती है और न ही जिम्मेदारी से भाग सकती है। लेकिन आज भी यह भागना जारी है। 'माओवाद' का हल्ला मचाकर अपनी रक्षा-सुरक्षा की मांग करने वाले संगठन के नेतृत्वकर्ता जिस तरह पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं वह अवसरवाद की इंतिहा है। इस नेतृत्वकर्ता समूह ने अपनी एक पुस्तिका 'माओवाद क्यों' में बहुत पहले माओवाद को अपनाने की द्घोषणा व अपील की थी। इसी तरह सीपीआई (एमएल) लिबरेशन जब नक्सलवादी पार्टियों-समूहों के बीच चले हत्या के दौरों से खुद को अलग कर पाक-साफ बन जाता है व दूसरों को 'आतंकवादी- अराजकतावादी' द्घोषित कर देता है तो यह न केवल इतिहास से भागना है अपितु वैचारिक दिवालिएपन की तरफ बढ़ना भी है। जब कानू सान्याल और रेड फ्लैग ग्रुप के सी रामचन्द्रन जैसे नेतृत्व 'माओवादियों' के खत्म हो जाने का इंतजार करते हों तब एक बार सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि इनके विचार का 'लाइन ऑफ कंट्रोल' कहां है।

किसी भी देश-समाज में राजनीति के विविध पहलू अपनी जमीनी हकीकत से तय होते हैं। यह हमारी इच्छा व निष्कर्षों से नहीं अपितु 'राज्य' व 'जन' के बीच चल रहे निरन्तर तनावों, संद्घर्षों, निर्माणों व समझौते के साथ-साथ स्वरूप ग्रहण करता है। जिस तरह 'राज्य' का स्वरूप बदलता है उसी तरह 'जन' का भी स्वरूप बदलता है। इन बदलती सच्चाइयों व उसके इतिहास को खूंटी पर टांग कर हिंसा, अराजकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद इत्यादि पर खोखली बातें हो सकती हैं। इससे विभ्रम व झूठ का पुलिंदा बन सकता है। लेकिन यह प्रश्न बना रहेगा कि आप ऐसा क्यों करते हैं क़्यों कर रहे हैं।

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