Wednesday, February 17, 2010

नक्सली हिंसा में हो सकती है वृद्धि



रमेश नैयर

वरिष्ठ पत्रकार, रायपुर


नक्सलियों के विरुद्ध संयुक्त अभियान ऑपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत छत्तीसगढ़ से हुई। यह ठीक भी था, क्योंकि यहाँ के दक्षिण बस्तर में नक्सलियों का "मुक्त क्षेत्र" लगभग बन चुका था। शासन-प्रशासन उनके दबाव में था। अब नक्सली दबाव में हैं। सुरक्षा दस्तों का पलड़ा कोई तीन दशकों बाद पहली बार भारी पड़ रहा है। कुछ स्थानों से नक्सली उखड़ कर छत्तीसगढ़ के अन्य हिस्सों में पहुँच गए हैं। कुछ उन सीमावर्ती राज्यों में चले गए हैं, जहॉं सुरक्षा कर्मियों के अभियान को अभी पूरी गति नहीं मिली है। परंतु, देर-सबेर नक्सलियों के पैर वहां से भी उखड़ेंगे।


पहली बार नक्सलियों के हमदर्दों की भाषा भी बदली हुई मालूम हो रही है। १९६८-६९ के बाद पहली बार नक्सली कैडर में कहीं-कहीं मायूसी दिख रही है तो कहीं-कहीं मोह भंग की स्थिति भी बन रही है। युवक-युवतियाँ उनका साथ छोड़ रही हैं। उनकी गिरफ्त से बाहर निकल रही हैं। यह कहने का साहस किया जाने लगा है कि नक्सली नेता उनका हर प्रकार से शोषण करते थे। छोटे स्तर पर वर्षों सक्रिय रही नक्सली युवतियाँ बयान देने लगी हैं कि उनका जंगलों में देह शोषण होता था। स्पष्ट है, सुरक्षाकर्मियों के समन्वित अभियान ने नक्सली दहशत का असर कुछ कम करने में सफलता प्राप्त की है। नक्सली भय से सहमे रहे शिबू सोरेन जैसे नेता भी यह कहने की हिम्मत जुटाने लगे हैं कि वे लोग पहले हथियार डालें, तब उनके साथ बातचीत की जा सकती है। बातचीत का प्रस्ताव तो नक्सली नेताओं ने भी रखा है, लेकिन इस अव्यावहारिक शर्त के साथ कि पहले उन तमाम स्थानों से पुलिस को हटा लिया जाए, जहाँ उनकी प्रभावी उपस्थिति है। यह भी कि उनके नेताओं को पुलिस हिरासत से मुक्त किया जाए। न केंद्र की और न ही किसी राज्य की सरकार वर्तमान स्थिति में इस माँग को स्वीकार करना चाहेगी। बेहतर तो यही होगा कि नक्सली नेता पेशकश इस बात की करें कि वे अपनी तरफ से हर प्रकार की हिंसा को इस प्रत्याशा में स्थगित करते हैं कि पुलिस भी अपने आक्रमण बातचीत का वातावरण बनाने के लिए एक निश्चित समय-सीमा तक मुल्तवी रखे।


नक्सलियों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अपने शस्त्र पुलिस को सौंप कर बातचीत का धरातल तैयार करें। यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि नक्सल विरोधी अभियान किसी निर्णायक सफलता के निकट है। नक्सली दबाव में अवश्य हैं, परंतु पराजय बोध से ग्रस्त नहीं हैं। मनोवैज्ञानिक युद्ध को वे बरोबर संभाले हुए हैं। उनका प्रचार तंत्र सक्रिय है। नक्सल विरोधी समन्वित रणनीति के नायक भी जानते होंगे कि लड़ाई लंबी चलेगी और केवल गोली-बारूद से ही नक्सलवाद या माओवाद पराभूत नहीं हो जाएगा। यह सही है कि जिस असंयत हिंसा का सहारा नक्सली पिछले कुछ वर्षों से ले रहे थे और अपनी आक्रामक शक्ति बढ़ाने के लिए संसाधनों की लूट में जुटे हुए थे, उसे समाप्त करने के लिए सशस्त्र बल का सघन प्रयोग आवश्यक हो गया था।


देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सली असंदिग्ध रूप से बड़ा संकट बने हुए हैं। उनकी औचक आक्रमण करने की शैली सुरक्षा तंत्र को रह-रह कर आहत करती रहती है। इसी आधार पर केंद्रीय गृहमंत्री ने स्वीकार भी किया है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में स्थिति गंभीर बनी हुई है। उनका यह आकलन भी सही है कि २०१० में हालात २००९ से भी कुछ अधिक कठिन हो सकते हैं। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में १५ फरवरी को ईस्टर्न फ्रंटियर रायफल्स के शिविर पर हुआ नक्सली हमला जताता है कि उनकी छापामार संहारक शक्ति बरकरार है। राज्य में हुआ नक्सलियों का यह सबसे बड़ा आक्रमण था, जिसमें २६ सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए। इससे यह आभास भी होता है कि चरमपंथियों की तुलना में सरकारी गुप्तचर तंत्र कमजोर है। प्राप्त संकेतों के अनुसार अधिक हिंसा होने की आशंका है।


एक अखबारी रपट का कहना है कि एकीकृत माओवादी छापामारों की वाहिनी का सुप्रीम कमांडर बनने में एम-कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी को सफलता मिलती दिख रही है, पश्चिमी मिदनापुर पुलिस शिविर पर किए गए हमले की जिम्मेदारी किशन जी ने ली है। वर्तमान प्रमुख गणपति की तुलना में किशनजी को अधिक हिंस्र माना जाता है। जाहिर है कि नक्सली हिंसा में वृद्घि हो सकती है। हताशा में किशनजी क्या कदम उठाएँगे, इसका आभास सुरक्षा तंत्र को भी होगा। कोई कारण नहीं है कि नक्सल विरोधी शासकीय सुरक्षा तंत्र की क्षमता पर कोई संदेह किया जाए। सुरक्षा तंत्र की रणनीति कैसी होनी चाहिए, इस पर कुछ कहना अनाधिकार चेष्टा ही मानी जाएगी। फिर भी यह कहना आवश्यक प्रतीत होता है कि सरकारें अधिक जनाभिमुख और ईमानदार होकर जनता के कमजोर और वंचित समूहों का विश्वास जीतने की हरसंभव कोशिश करें, क्योंकि नक्सलियों को सबसे अधिक शक्ति उन वर्गों से मिलती है जो राजनीति और सरकारी अमले के भ्रष्टाचार तथा ज्यादतियों के कारण नक्सलियों को अपना हमदर्द मानने लगते हैं।


अतीत में नक्सलियों को जो जनाधार मिला, वह कमजोर वर्गों के शासनतंत्र एवं एक हद तक न्यायपालिका के प्रति आक्रोश के कारण संभव हुआ। राजनीतिक उदासीनता और प्रश्रय ने नौकरशाही को भ्रष्ट, काहिल और गैर जिम्मेदार बनाया। सचिव स्तर से पटवारी, फारेस्ट रेंजर और बाबू तक जब भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए तो उनसे त्रस्त आदिवासियों को नक्सली "मुक्तिदाता" के रूप में नजर आने लगे। लोकतंत्र आदि पारदर्शी और संवेदनशील बनने में अब भी कोताही बरतता हूँ तो फिर हिंसक हो चुके नक्सलियों का शमन बेहद दुष्कर हो जाएगा। आंतरिक सुरक्षा के जानकार और नक्सली आंदोलन के विशेषज्ञ प्रकाश सिंह का तो मानना है कि यदि स्वच्छ, चुस्त और संवेदनशील प्रशासन देश में चलने लगे तो नक्सलियों अथवा माओवादियों के पैरों तले से जमीन खिसकने में अधिक समय नहीं लगेगा। राजनीतिज्ञों और अफसरों को सोचना चाहिए कि उनकी गलतियों और उनके लोभ का खामियाजा सुरक्षा कर्मी आखिर कब तक भुगतेंगे।

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