Monday, March 1, 2010

"नक्सलियों की बात भी सामने आनी चाहिए"

सरकार ने जिस भी मंशा से अधिनियम बनाया हो, प्रकट तो यही होता है कि वह नक्सलवाद पर नियंत्रण करना चाहती है। छग की परिस्थितियां साधारण नहीं हैं, जब परिस्थितियां साधारण ना हों तो सरकार को ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं, लेकिन सरकार का जो काम करने वाला तंत्र होता है, उसके काम करने का अपना तरीका होता है, जिसमें कई बार कानूनों का दुरुपयोग होता है। कानून का दुरुपयोग ना हो यह सावधानी सरकार के राजनीतिक तंत्र और कार्यकर्ताओं को रखनी होगी। पुलिस और प्रशासन का जो मौजूदा तंत्र है, वह किसी भी चीज में गड़बड़ी का रास्ता तलाश ही लेता है। अगर सरकार इसे काबू में कर ले तो कोई समस्या नहीं है। हम एक डेमोक्रेटिक सेटअप में रहते हैं और उसमें कोई अखबार दूसरे पक्ष को छापता है तो वह गलत नहीं है। वामपंथी विचारधारा वाले लोगों की सहानुभूति उनके साथ होती है, इस तरह के जो राजनैतिक कार्यकर्ता हैं वो अपनी बात कहते हैं, उनकी बात छपती भी है। इसको छापने और न छापने को लेकर तो मैं बात नहीं कर सकता क्योंकि सबको अपनी बात कहने का हक है। अगर किसी को हक दे रहा है अपनी बात कहने का तो इसमें कोई बुराई नहीं है। आपने देखा होगा कि टेलीविजन चैनलों पर बड़े-बड़े माफियाओं, दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील-बड़ा शकील सबसे बात की जाती है। उस तरह से नक्सली बात कह रहे हैं। बात कहने में कोई बुराई नहीं, वे बात कह सकते हैं और उनकी बात सामने आनी ही चाहिए।

नक्सली बयानों की प्रामाणिकता के बारे में हमें जरूर विचार करना चाहिए। हम लोग इस बात की सावधानी रखते हैं कि जो लोग प्रकट रूप में सामने नहीं आते उनकी बात का क्या औचित्य और कितना आधार है। मुझे नहीं लगता कि अखबार वाले इसे लेकर कोई गंभीर रवैया अपनाते हैं क्योंकि इतना समय नहीं होता कि हर चीज की जांच की जा सके। जो लोग समाज में हैं ही नहीं और भूमिगत तरीके से अपना आंदोलन चला रहे हैं, उनके बारे में जांच करना कठिन हो जाता है। उसका तरीका यही है कि हम इस तरह की चीजों को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं देते। कम से कम मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैं इन चीजों को अपने अखबार में ज्यादा तवाो नहीं देता। नक्सलियों को ट्रेस करने का काम सरकार का है, इसमें कोई मदद मांगेगा तो की जाएगी। दरअसल यह अखबार वाले का काम नहीं है कि वह नक्सलियों के पीछे लगे और उसकी जांच करे। यह सरकार का काम है कि वह अपने तरीके से इन चीजों की जांच करे और पता लगाए।

इस मामले में मैं अपने आप को असहाय महसूस करता हूं। क्योंकि मेरे सामने कोई प्रकट रूप में आता तो नहीं है, और न यह कहकर आता है कि मैं नक्सली हूं। दिनभर में बहुत सारे लोग अखबार के दफ्तरों में विज्ञप्ति देकर जाते हैं, इसमें एक-एक को वॉच तो नहीं किया जा सकता है और हमारे यहां क्लोज सर्किट का इंतजाम भी नहीं है। आप कैसे वॉच करेंगे कि वह कौन सी विज्ञप्ति देकर गया है, पता चला किसी धार्मिक आयोजन की विज्ञप्ति देने वाला अंदर हो गया क्योंकि उसकी पुलिसवाले से दुश्मनी थी। इस तरह के प्रयोगों के बहुत सारे खतरे हैं।

अधिनियम तो सरकार ने बनाया है, उसे जो बिंदु शामिल करने थे उसने शामिल कि ए हैं। ये तो कानून बनाने वालों से ही पूछा जाना चाहिए कि वे इन चीजों को क्यों कर रहे हैं। दूसरी बात मैं नक्सलियों से बातचीत करने, संवाद करने को गलत नहीं मानता। क्योंकि सरकार भी कहीं न कहीं ये कहती रही है कि हम नक्सलियों से बात करेंगे, आंध्र जैसे कई राज्यों में नक्सलियों से चर्चा की भी गई। वे टेबल पर आए और सरकार ने इनसे बात की।
अनेक जगहों पर जहां हिंसक आंदोलनों या आतंकवादी आंदोलनों में जो लोग रहे उनसे बात की गई। बात की भी जाती है, क्योंकि हम जिस गणतंत्र में रहते हैं, जिस लोकतंत्र की बात कहते हैं , उसमें अंतत: बातचीत से ही चीजें हल होंगी। समस्या यही है ना कि नक्सली बंदूक लेकर आ रहा है, कहा उससे यह जा रहा है कि हथियार रखकर आइए और बात कीजिए। अगर वह हथियार रखकर बातचीत करता है या संवाद का रास्ता अपनाता है तो लोकतंत्र में बातचीत के अलावा समाधान क्या है। लोकतंत्र में तो बातचीत करने का स्पेस है ही और यह अकेली व्यवस्था है कि सबको बातचीत के आधार पर अपनी समस्या का समाधान खोजने का हक है। और मुझे लगता है कि अगर नक्सली इस प्लेटफार्म पर आते हैं तो यह बहुत अच्छी बात है। उनसे बातचीत हो जाए विमर्श हो जाए तो इससे अच्छी क्या बात हो सकती है, अगर ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाए तो मुझे लगता है कि पूरे देश को इससे राहत मिलेगी, छत्तीसगढ़ को भी फौरी तौर पर फायदा होगा।

लेकिन बातचीत का जो इस्तेमाल है, या बातचीत के समय का जो इस्तेमाल है, नक्सली इसे अपनी रणनीति बनाने, अपनी तैयारी करने और विश्रामकाल के लिए करते हैं कि बातचीत करके सरकार को गुमराह करते हैं, ताकि सरकार थोड़े समय के लिए आपरेशन बंद कर दे। ये जो चालाकियां हैं वह ठीक नहीं हैं और मुझे लगता है कि इसमें सरकार जो है-जैसी है वो तो ठीक है पर नक्सलियों का इरादा भी बहुत बातचीत करके समाधान निकालने का नही है।

सूचनाएं देना नैतिकता और अनैतिकता का प्रश्न नही है। हमारा काम सूचना देना है, हम इसके चक्कर में फंसेंगे तो बहुत सारी सूचनाओं से अपने पाठकों को वंचित कर देंगे। हम बहुत सारे ऐसे लोगों की खबर छापते हैं, तमाम ऐसे राजनेता हैं जो बहुत गलत कामों में लिप्त हैं, बड़े-बड़े अपराधों में शामिल लोगों की भी चीजें छपती हैं तो नक्सली भी अगर कोई अपनी बात कह रहा है या किसी विचार के तहत अपनी बात कहना चाह रहा है तो उसकी बात और चीजें छपेंगी। कोई बड़ी घटना हो गई जिस पर वह वक्तव्य देना चाहता है तो ये छापी जातीं हैं। बेनजीर भुट्टो की हत्या हुई, एक आतंकवादी संगठन ने कहा कि हमने हत्या की है, तो उसका नाम तो हमें छापना ही पड़ेगा। वह किसी भी स्रोत से बताए, ई-मेल भेजकर या विज्ञप्ति के माध्यम से या अखबार के दफ्तर में फोन करके। हम अपने पाठक को सूचना से वंचित नहीं कर सकते।

हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी सूचना देने की है, उसमें हम कहीं नक्सली या आतंकवादी के पक्ष में दिखें तो आप हमारी नैतिकता-अनैतिकता पर प्रश्न उठा सकते हैं। हमें जहां से भी सूचना प्राप्त होती है, हो सकता है कि वह अधूरी हो, कच्ची हो, जो हमें सूचना दे रहा है गलत भी हो , तो हम उनके मार्फत ही छापते हैं। जांच करने का काम हमारा नहीं है, और इसके लिए न सरकार ने कोई हथियार या अधिकार हमें दिए हैं। यह जिम्मेदारी हम ले भी नहीं सकते। हमारा काम सूचना को सामने ला देना है।

पत्रकार को कोई विशेषाधिकार तो है नहीं, न कोई मजिस्ट्रेट पॉवर है। गलत काम में लिप्त पत्रकार जेल जाते रहे हैं, पहली बार पत्रकार कोई जेल गया है, ऐसा तो है नहीं। जो भी कोई गलत काम करता है तो सरकार के पास पर्याप्त अधिकार और कानून हैं, जनसुरक्षा कानून की भी जरूरत नहीं है। ऑलरेडी आपके पास इतने सारे कानून हैं, राजद्रोह जैसा कानून है, जिसके तहत गलत काम करने वालों को अंदर कीजिए। मगर इतना भर ध्यान रखने की जरूरत है जिसे मैं बार-बार कह रहा हूं कि इसके चलते किसी निरीह और निर्दोष आदमी का गला सरकार-पुलिस के हाथ में नहीं आना चाहिए।

कलम की आजादी पर हमले होते रहे हैं, अगर कोई अतिरिक्त आजादी लेता है तो उसे सजाएं भी होती रही हैं। यह पहली बार थोड़ी है कि पत्रकार जेल गया है। अभी मिड डे के पत्रकारों को सजा हुई है एक मामले में। तो पत्रकारों को सजा होना, जेल जाना यह नई बात नहीं है, ये तो होता रहेगा। लेकिन कानून का दुरुपयोग न हो इस पर अगर सरकार रख ले तो उसे पत्रकारों का भी समर्थन मिलेगा। हम खुद भी नहीं चाहते कि हमारी बिरादरी के लोग बदनाम हों या गलत काम में शामिल हों।
रीडर,
जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचा विश्वविद्यालय प्रेस कॉम्पलेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल, मध्यप्रदेश - ४६२००१


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