Wednesday, March 24, 2010

कानू सान्याल: अंतिम बात, आखिरी यादें

समझ नहीं आता कहां से शुरू करूं! नक्सलबाड़ी के 'थ्येन आनमन स्क्वायर आफ इंडिया' पर बांस की घेराबंदी में बुत बने लेनिन, स्टालिन, माओ त्से तुंग, लीन पियाओ, चारू मजूमदार, सरोज देव, महादेव मुखर्जी से; कि भारत में नक्सल आंदोलन के उभार की कामयाब भ्रूण बने ग्यारह शहीदों से; 'जन्मभूमि' पर मरते आंदोलन से; चौतरफा फैलाव से; आग है, अकुलाहट है पर नेता नहीं की विडंबना से; पवन सिंघो की इस कसक से कि साथी ही दुश्मन बना; कामरेडों की गुटीय लड़ाई से; भटकाव से; 'लालगढ़ दूसरा नक्सलबाड़ी है' के माओवादी ऐलान से; या कि चारू मजूमदार के पुत्र व सीपीआई एमएल लिबरेशन के नेता अभिजीत मजूमदार के भरोसे से?

दरअसल, हाथीघीसा (पश्चिम बंगाल) की एक झोपड़ी और उसके बाशिन्दे ने इन तमाम संदर्भो (सवालों) से मुझे बहुत दिन तक मथा था। यह कानू सान्याल की झोपड़ी थी। उनके रूप में मैंने यहां नक्सलवाद के 'कथा पुरुष' को घुटते-मरते देखा था। और आज खबर आई कि कानू दा फंदे में झूल गए। खुद सबको छोड़ गए। दुनिया ने तो उन्हे पहले ही छोड़ दिया था। (हां, कुछ लोग जरूर अपवाद रहे)। भाई पैसा न देते तो दादा, सांस चालू रखने वाली दवा भी नहीं खा सकते थे।

कामरेड बताएंगे-'दादा की अस्वाभाविक मौत सिर्फ उनकी उम्र का तकाजा थी?' नहीं, बिल्कुल नहीं। 78 साल के दादा को दुनियावी मोर्चे पर कोई मलाल न था। उन्होंने अपेक्षा भी नहीं की। हां, उनको यह बात जरूर कचोटती रही कि कभी साथी रहे लोग या उनकी सरकार (पश्चिम बंगाल का माकपा राज) ने मरणासन्न अवस्था में भी उनकी सुधि न ली। हां, आज पोस्टमार्टम को ले जाने वाली पुलिस इसी राज की थी। आज बुद्धदेव भट्टाचार्य (मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल) की यह मुनादी पूरी हुई कि 'अब पश्चिम बंगाल में कोई नक्सली नहीं बचा।' वे सिर्फ कानू बाबू को नक्सली मानते थे। सभाओं में अक्सर कहते थे -'हम कानू बाबू को अपने साथ करना चाहते है।' वस्तुत: यह गवाही थी कि कैसे नक्सल आंदोलन के किरदारों को उनके ही पुराने साथियों (माकपा) ने दबाया, कुचला? अक्खड़ कानू दा, घोर घुटन के ऐसे कई कारणों को जीते रहे।

मैं, कुछ दिन पहले उनसे मिला था। बैठने नहीं दे रहे थे। मीडिया से बात को तैयार नहीं। किसी तरह बात शुरू हुई। थोड़ी देर बाद मेरे फोटोग्राफर का फ्लैश चमका, तो दादा फिर भड़क गए। बेहद चिढ़े हुए, पूरी व्यवस्था से। अपनों से, खुद से भी। बोले-'अब जीने का मन नहीं करता है।' मैं जब मिला था, वे बीमार थे। सामने दो अखबार। चाय की केतली। उनका बाडी लैंग्वेज यही बता रहा था कि अपना कुछ भी न हो सका; कुछ भी तो नहीं बदला! उनके घुटन के मूल में यही था। उन्होंने तमाम संदर्भो का हवाला देते हुए कहा भी था-'अब मैं सब कुछ भूल चुका हूं। क्या था, क्या हूं-सब कुछ। .. गलती से भी याद आता है, तो तड़प जाता हूं।' तड़प के कारण भी गिनाए। माओवादियों पर भड़क गए थे, उन्हे अराजकतावादी कहा था। उनके अनुसार 'माओवादी, मा‌र्क्सवाद-लेनिनवाद के खिलाफ काम कर रहे है। हथियार तो लादेन भी उठाये हुए है। .. बंदूक के पीछे राजनीति और अनुशासन होना ही चाहिये।'

तब, यह नहीं लगा था कि दादा खुद को इस तरह खत्म करेगे। दरअसल बीमारी के बावजूद उनकी बूढ़ी हड्डियों में बेजोड़ ललक दिखी थी। उन्होंने मुकाम पाने की तकनीक भी बताई थी-'सबको एकताबद्ध कर शिक्षित करना होगा। आम आदमी को लेकर लड़ाई करना होगा। जनता को हथियारबंद करना होगा। देखना, एक दिन ऐसा होगा।'

वे इस बात से भी निराश थे कि 'अभी फैलने की बहुत गुंजाइश है मगर कोई इस लायक काम नहीं कर रहा है। .. माकपा संशोधनवादी है। और हमारे साथियों को टूटने, अलग गुट बनाने से फुर्सत नहीं है।'

खैर, दादा तो चले गये। वे जनता के 'लड़ाकों', उनके रहनुमाओं के लिए हमेशा नसीहत रहेगे। हमेशा इस बात की गवाही देते रहेगे कि कैसे और क्यों कोई आंदोलन बीच रास्ते से भटक जाता है; कितनी सहूलियत से जनता बेच दी जाती है? अभी के दौर में कानू सान्याल होना असंभव सा है। और शायद इसलिए नक्सल आंदोलन चाहे जिस भी स्वरूप को अख्तियार करे, मंजिल दूर, बहुत दूर नजर आ रही है।

एक और बड़ा संकट है-अब लखी को कौन पूछेगा? वह नक्सली आंदोलन के उद्भव के प्रमुख किरदार जंगल संथाल की बेवा है। दादा, उनका ख्याल रखते थे। वह दादा के ठीक बगल की झोपड़ी में अपनी मौत की रोज मनौती मनाती है।


मधुरेश, पटना

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