Sunday, March 7, 2010

हमें भारतीय संविधान पर गर्व है

डॉ इंदिरा मिश्र
वरिष्ठ लेखिका एवं सेवानिवृत अ मुख्य सचिव
छत्तीसगढ़

भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 को भारत की जनता ने अपने आप को सौंपा था। इस संविधान में कुल 395 धाराएं, 12 अनुसूचियां तथा 3 परिशिष्ट हैं और यह विश्व के सबसे बड़े संविधान में आता है।


यह एक ऐसी विलक्षण पुस्तक है, जिसके माध्यम से हमने अपने समाज को एक प्रशासनिक ढांचा सौंपा है, तथा एक दो को छोड़कर जीवन के हर पहलू को वह ढांचा प्रभावित करता है। यहां रहने तथा आने वाले को भारतीय संविधान के अनुरूप अपने को चलाना होगा।

यह कहना अतिश्योक्तिनहीं होगी, कि भारतीय संविधान में वेदों का ज्ञान, भारतीय संवेदना की कोमलता एवं वसुधैव कुटुम्बकम् की व्यापक धारणा, अंग्रेज की तर्कसम्मत व्यवस्था, फ्रांस की मानवता, भाईचारे की भावना व स्वतंत्रता, अमरीका की न्यायप्रियता एवं संतुलन सभी का अर्क समाहित है।

इन दिनों एक सम्मानीय फिल्मी हस्ती (गुलजार) यह कहते हुए टीवी पर दिखाई देते हैं, कि हमें अपने संविधान पर गर्व है। हो भी क्यों नहीं? आखिर इस संविधान ने पिछले 60 वर्षों से हमारे देश को आगे बढ़ाया है, हरेक नागरिक को बराबरी का दर्जा दिया है, गरिमा दी है, अभिव्यक्ति का अधिकार व आजादी ही नहीं, बल्कि महिलाओें तथा समाज के कमजोर वर्गों के लिए विशेष सम्मान व स्थान दिया है। अब यदि हमें सचमुच में अपने संविधान पर गर्व है, तो हमें हृदय से, तन-मन-धन से इसका पोषण करना होगा, अन्यथा यह पुस्तकालयों में सजी एक लम्बी चौड़ी पुस्तक बनकर रह जाएगा। इस शुरुआत को करने के लिए उन पर अधिक भरोसा किया जाना चाहिए, जो इस संविधान की बदौलत, सबके बराबर होते हुए भी सबसे ऊंचे हैं (ऑल आर इक्वल बट सम आर मोर इक्वल दैन अदर्स) अर्थात देश के उच्च पदस्थ राजनेता, मुख्य मंत्रीगण, मंत्रिपरिषद के सदस्य, प्रधानमंत्री, सांसदगण, विधायकगण, मुख्य न्यायाधीश, प्रशासनिक पदाधिकारी तथा धनाढय व्यक्ति। चूंकि उनके एक वाक्य का अनेकों पर प्रभाव पड़ता है। पूरा स्थानीय माहौल बनता या बिगड़ता है।

हमारे अघोषित कर्तव्य
जाहिर बात है कि जब तक हमारी कथनी और करनी एक नहीं होगी, तब तक लोगों को हमारी नसीहत स्वीकार नहीं होगी। साथ ही, हम अपने अधिकारों को लेकर जितने सजग हैं अपने कर्तव्यों को लेकर भी उतने ही सजग होने चाहिए। कर्तव्य भी संविधान का उतना ही भाग है। अधिकतर लोग अपने मौलिक अधिकारों का तो ज्ञान रखते हैं, परंतु एक नागरिक के रूप में अपने कर्तव्यों से कन्नी काट जाते हैं। इसके अलावा बहुत से लोग देश में आज भी अनपढ़ हैं। वे अपने देश के प्रधानमंत्री का नाम भी नहीं जानते, फिर वे यह क्या जानेंगे कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, उनके विचारों में, जीवन स्तर में सुधार लाना- क्या यह हमारा अघोषित कर्तव्य नहीं है? कानून व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस की मदद करना, यह भी प्रत्येक नागरिक का एक कर्तव्य है।

धारा 51ए: भारतीय नागरिकों के कर्तव्य
भारतीय संविधान की धारा 51ए का समावेश उसमें 1976 से किया गया है। इसके कुछ भूलें बिसरे कर्तव्य नागरिकों से अपेक्षाएं करते हैं जिनका स्मरण करना समय-समय पर जरूरी होता है, जैसे: भारत की संप्रभुता, एकता व अखंडता को बनाए रखना, देश की रक्षा करना और आह्वान हो, तब राष्ट्र सेवा के लिए प्रस्तुत होना क्षेत्रीय अथवा आंचलिक भेदभाव से ऊपर उठकर लोगों में सामंजस्य तथा सामान्य भाईचारे की भावना प्रोत्साहित करना, तथा, ऐसी प्रथाओं को त्यागना, जो महिलाओं की गरिमा के प्रतिकूल हैं।

अपनी सम्पन्न सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना , वनों, तालाबों, नदियों तथा वन्य प्राणियों सहित समूचे प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण करना तथा उसमें गुणात्मक सुधार लाना। एक विज्ञापन परक दृष्टिकोण सहित मानवता पूर्ण मनोभाव का विकास करना तथा तथ्यपरक जांच के प्रति रूझान पैदा करना सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना, तथा हिंसा का त्याग करना वैयक्तिक तथा सामूहिक समस्त गतिविधियों में उच्चतर गुणवत्ता लाने के लिए सतत प्रयासशील रहना, ताकि देश उपलब्धियों के नवीन शिखरों तक उठ सके।

द्यप्रत्येक नागरिक ऐसा अभिभावक बने, कि उसके 6 से 14 वर्ष के बालक को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो।
ये कर्तव्य अपेक्षा करते हैं कि व्यक्ति स्वप्रेरणा से ही इनका पालन करेगा। यदि वह नहीं करता, तो उसे दंड तो नहीं दिया जा सकता केवल उसकी भर्त्सना की जा सकती है।

मुम्बई केवल मराठी भाषी लोगों के लिए हो, जब हम ऐसे विचार पढ़ते हैं, तो तिलमिला जाते हैं। हमारा संविधान कांप उठता है। तब सवाल उठता है, कि कहां से यह फिरकापरस्ती चली आई? हमने तो बात वसुधैव कुटुम्बकम से शुरू की थी।

भविष्यफल तथ्यपरक नहीं है
इसी प्रकार, जब अखबारों की टनों स्टेशनरी 'आज आपका भविष्यफल' जैसी अटकलों पर बरबाद होते देखते हैं तो हमें गुस्सा आना चाहिए। भविष्य बताने वाले क्या हमारे पहनने के रंग, काम के दिन, दिशाएं, सब तय करेंगे? हमें अपने चक्षु बंद करने होंगे? अपना विवेक ताक पर रखना होगा? बच्चों को स्कूल में पढ़ने भेजने की अपेक्षा जब होटलों में, खेतों या रेलवे स्टेशनों में काम करते या भिक्षा वृत्ति करते जब तय देखते हैं, तब हमें अकेले अपना ही नहीं, सबका भविष्यफल स्याह नजर आना चाहिए। दहेज के बिना लड़की की शादी दूभर होना बुरा है और दहेज के आधार पर शादी होकर अगली संतति की नैया भी बहुत सुरक्षित नहीं है। ये प्रश्न हमें सताने चाहिए।

समेकित बाल विकास योजना (आई.सी.डी.एस.) यह बताती है कि देश की 80 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं रक्त की कमी (अनीमिया) से पीड़ित है। उनकी संतानें भी रक्त की कमी के कारण कमजोर होती हैं, जिससे उनके शरीर व मस्तिष्क दोनों का स्वस्थ विकास नहीं हो पाता। दूसरी ओर हमारे गोदामों में अन्न की कमी नहीं।

हमारे यहां शिक्षा अब तक व्यक्ति को व्यावहारिक ज्ञान नहीं दिलाती आई है, जिसका नतीजा होता है कि व्यक्ति स्वरोजगार तलाश नहीं पाता और या तो कृषि से होने वाली न्यून आय पर गुजर करता है या इनी-गिनी नौकरियों की ही प्रतीक्षा करता रह जाता है। हाल ही में इस ओर केन्द्र व राय सरकारों ने कुछ अच्छे कदम उठाए हैं, जिससे आशा जागी है। उनके एक प्रवक्ता का कथन है कि शीघ्र हम इतने अधिक युवाओं को हुनरमंद बनाएंगे और आशा है कि वर्ष 2022 तक भारत के साढ़े पांच करोड़ लोग अपने हुनर के बल पर मुद्रा कमा कर सम्पन्न बन सकेंगे।
जब लोग सम्पन्न बनेंगे, युवाओं को काम मिलेगा, नए-नए छोटे-बड़े उद्योग खुलेंगे, तब भारत एक बार फिर सोने की चिड़िया बन जाएगी। हम सत्य ही कह उठेंगे 'सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा।' तभी सच्चे अर्थों में हम कह सकेंगे कि हमें अपने संविधान पर गर्व है। (देशबंधु से साभार )

No comments:

Post a Comment