कुलदीप नैयर
छत्तीसगढ क़े घने जंगलों में स्थित है एक लघु आदिवासी ग्राम तमार। इस ग्राम के दो कृषक एक युवा कांग्रेसी सांसद के विरुध्द लड़ाई लड रहे हैं, जिसमें वे हार के कगार पर खडे लग रहे हैं। जिसने उनके खेतों में बलात् एक फैक्ट्री बना ली है, जो 10 एकड से अधिक में फैली है। वह हरियाणा के एक प्रौद्योगिक वंश से संबध्द है। एक किसान, जिसकी डेढ एकड भूमि है, पुलिसकर्मी रहा है, जिसने अपनी भूमि वापस पाने के लिए अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया है।
उसने तथा दूसरे किसान ने जिसकी साढे सात एकड भूमि है, अक्सर रायपुर तक की चार सौ किलोमीटर की यात्रा की है, जो राज्य की राजधानी है, ताकि शीर्ष अधिकारियों के द्वार पर दस्तक दे सके, क्योंकि इन किसानों को जिला मुख्यालय रायगढ में कोई इंसाफ नहीं मिल पाया।
दोनों किसानों को माओवादी कह कर आरोप लगाया गया है जो अपने नितांत वामपंथी दृष्टिकोण के लिए चर्चित हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बल को ''भारत के लिए एकमात्र सुरक्षा चुनौती'' बताया है। इन दोनों किसानों का माओवादियों अथवा नक्सलियों से, जो उन उग्रपंथियो का समूह है, जिन्होंने 1967 में पश्चिम बंगाल में एक ग्राम से जिसे नक्सलबाडी क़हा जाता है, सशस्त्र संघर्ष शुरू किया था, कोई सरोकार नहीं है। ऐसे माहौल में सरकार के लिए इन दोनों किसानों को माओवादी बताना भी आसान हो गया है ताकि भूमि पर बलात कब्जे के प्रसंग से ध्यान हटाया जा सके। किंतु ये दोनों किसान भी कोई अपवाद नहीं हैं। मैं इस सप्ताह रायपुर में कई आदिवासियों से मिला, जिन्हें अपनी भूमि और ग्रामों से निष्कासित होना पड़ा है, ताकि वहां विभिन्न श्रेणियों के उद्योगपतियों जिनमें भारतीय और विदेशी दोनों ही शामिल हैं, गुंजाइश हो सके और वे उनके कोयले तथा लौह अयस्क जैसे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सकें। राज्य सरकार ने 105 सहमति पत्रों (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं। लपट-झपट जैसा सलवा-जुडूम बल एक सशस्त्र प्राइवेट संगठन है, जिसे सरकार ने आदिवासियों को बलपूर्वक बाहर भगाने के लिए गठित किया है। उजडे अादिवासी, जिनकी संख्या लगभग दो लाख है, छत्तीसगढ क़ी सीमा पार कर महाराष्ट्र उडीसा और आंध्र प्रदेश के जंगलों में चले गए हैं। अनेक पुनर्वास की प्रतीक्षा में हैं (चालीस हजार अभी भी शिविरों में हैं)। आदिवासियों द्वारा अपने विषाक्त बाणों का उपयोग आत्मरक्षार्थ किया जा सकता था, जैसा कि वह अतीत में करते रहे हैं। किंतु वे कहते हैं कि उन्हें सरकार पर भरोसा है, जिसने उन्हें आश्वस्त किया है कि इन लोगों को अलग भूमि पर बसाया जाएगा, जहां उन्हें अपने अपने बच्चों को स्कूल भेजने की और रोगियों को आसानी से स्वास्थ्य केंद्रों पर भेजने की सुविधाएं सुलभ होंगी। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने आदिवासियों से किए जाने वाले व्यवहार को लेकर एक आलोचनात्मक रिपोर्ट दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस रिपोर्ट के आधार पर छत्तीसगढ सरकार को निर्देश दिया है कि वे अपने स्थानों से हटाए गए आदिवासियों का पुनर्वास करे। हर कलेक्टर से कहा गया कि वह अपने स्थान से हटाए गए लोगों को पुन: बसाए। परंतु अभी तक न तो कोई कार्रवाई हुई है और न ही कोई भूमि चिन्हित हुई है। दरअसल छत्तीसगढ में ऐसे कुछ जिले हैं, जहां कलेक्टरों को यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि उनका उस क्षेत्र में वश नहीं चलता जो उसके तहत हैं।
गृहसचिव जी.के.पिल्लै कहते हैं कि नक्सली केंद्र में 2050 तक सत्ता पर हावी हो जाने का सपना देख रहे हैं। किंतु जब माओवादी जो नवीनतम हथियारों से लैस होकर उन्हें धमकी देते हैं तो आदिवासियों के समक्ष विकल्प ही क्या रह जाता है? आदिवासी बुनियादी तौर पर तो निवास की कमी और भ्रष्टाचार से दंशित हैं। दरअसल वे खुद को सरकार द्वारा अपेक्षा और माओवादियों की बंदूक इन दो के बीच फंसा पाते हैं। आदिवासी अपने उस पुराने जीवन की ओर लौटना चाहते हैं, जब जंगल उन्हें उनकी आवश्यकता की हर चीज सुलभ कराते थे। जल, जमीन और जंगल की उदारता। वस्तुत: यही उनकी मांग है और वे इन सबकी वापसी हेतु ही आंदोलित हैं। सरकार और निगमित क्षेत्र के बीच गठजोड क़े निर्मम बल और जोड़-तोड क़ो ये भोलेभाले लोग समझ पाने में असमर्थ हैं। माओविदियों ने उनके लिए कठिनाइयां और अधिक बढा दी है, क्योंकि उन के युध्दघोष और उनके द्वारा की जा रही हिंसा ने राज्य को फासिस्ट तौर-तरीके अपनाने पर प्रेरित किया है। नई दिल्ली ने अपने ऑपरेशन को ग्रीन हंट की संज्ञा दी है। यदि यह कुल मिलाकर हंट (शिकार) ही है तो रेड का है और यह जो कुछ बचा-खुचा ग्रीन (हरीतिमा) है, उसके लिए भी खतरा है। जंगलों में कार्रवाई विध्वंसक हो सकती है। निर्दोषों को ही इसकी तपिश झेलनी होगी। यह बात समझ में नहीं आती किसरकार ने दमित आदिवासियों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष पर इतना रोष क्यों दर्शाया। ऐसे लोगों को तो उनके उस शुभ कार्य के लिए मान्यता मिलनी चाहिए जो वे आदिवासियों को माओवादियों के पंजों मे फंसने से बचाने के लिए कर रहे हैं। जो लोग बन्दूक के बल पर रहते हैं, वे बन्दूक से ही मरते भी हैं। हिंसा की संस्कृति शांति की संस्कृति से श्रेष्ठ कैसे हो सकती है? बुलेट बैलेट की स्थान नहीं ले सकती। नक्सलियों का लाभ वह भय नहीं है जो वे सृजित करते हैं अपितु वह आशा है जो समानतापरक समाज के वादे से वे जगाते हैं।
भारतीय राजनीति का संकर-जैसा कि मैं देखता हूं, वह परिवर्तन की संकट है। यह राज्यव्यवस्था और उसके ढांचे के बीच बढते अतंर में झलकता है। गृह मंत्री पी.चिदंबरम, सरकार ने कानून और व्यवस्था के नाम पर जो विपुल यत्र-तत्र व्यवस्था खड़ी की है, उसका उपयोग कर माओवादियों का दमन तो कर सकते हैं जबकि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। किंतु उन्हें यह अनुभूति होनी चाहिए कि यदि 70 प्रतिशत लोग निर्धन रहते हैं और लोगों के तथा क्षेत्रों के बीच जो असमानता है, वह कम से कमतर नहीं हो पाती तो कुछ अन्य माओवादी गुट उभर उठेंगे। चिदंबरम ने माओवादियों को हित त्यागने की जो सलाह दी है वह तब बेहतर ढंग से असर करती या करेगी, यदि वह आर्थिक पैकेज की भी घोषणा साथ ही कर देते । उन्हें यह देखना ही होगा कि जो-जो आंदोलन लगभग 50 वर्ष पूर्व पश्चिम बंगाल के कुछ ग्रामों तक सीमित था, वह अब उडीसा बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ तथा आंध्र प्रदेश तक फैल गया है।
छत्तीसगढ क़े घने जंगलों में स्थित है एक लघु आदिवासी ग्राम तमार। इस ग्राम के दो कृषक एक युवा कांग्रेसी सांसद के विरुध्द लड़ाई लड रहे हैं, जिसमें वे हार के कगार पर खडे लग रहे हैं। जिसने उनके खेतों में बलात् एक फैक्ट्री बना ली है, जो 10 एकड से अधिक में फैली है। वह हरियाणा के एक प्रौद्योगिक वंश से संबध्द है। एक किसान, जिसकी डेढ एकड भूमि है, पुलिसकर्मी रहा है, जिसने अपनी भूमि वापस पाने के लिए अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया है।
उसने तथा दूसरे किसान ने जिसकी साढे सात एकड भूमि है, अक्सर रायपुर तक की चार सौ किलोमीटर की यात्रा की है, जो राज्य की राजधानी है, ताकि शीर्ष अधिकारियों के द्वार पर दस्तक दे सके, क्योंकि इन किसानों को जिला मुख्यालय रायगढ में कोई इंसाफ नहीं मिल पाया।
दोनों किसानों को माओवादी कह कर आरोप लगाया गया है जो अपने नितांत वामपंथी दृष्टिकोण के लिए चर्चित हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बल को ''भारत के लिए एकमात्र सुरक्षा चुनौती'' बताया है। इन दोनों किसानों का माओवादियों अथवा नक्सलियों से, जो उन उग्रपंथियो का समूह है, जिन्होंने 1967 में पश्चिम बंगाल में एक ग्राम से जिसे नक्सलबाडी क़हा जाता है, सशस्त्र संघर्ष शुरू किया था, कोई सरोकार नहीं है। ऐसे माहौल में सरकार के लिए इन दोनों किसानों को माओवादी बताना भी आसान हो गया है ताकि भूमि पर बलात कब्जे के प्रसंग से ध्यान हटाया जा सके। किंतु ये दोनों किसान भी कोई अपवाद नहीं हैं। मैं इस सप्ताह रायपुर में कई आदिवासियों से मिला, जिन्हें अपनी भूमि और ग्रामों से निष्कासित होना पड़ा है, ताकि वहां विभिन्न श्रेणियों के उद्योगपतियों जिनमें भारतीय और विदेशी दोनों ही शामिल हैं, गुंजाइश हो सके और वे उनके कोयले तथा लौह अयस्क जैसे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सकें। राज्य सरकार ने 105 सहमति पत्रों (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं। लपट-झपट जैसा सलवा-जुडूम बल एक सशस्त्र प्राइवेट संगठन है, जिसे सरकार ने आदिवासियों को बलपूर्वक बाहर भगाने के लिए गठित किया है। उजडे अादिवासी, जिनकी संख्या लगभग दो लाख है, छत्तीसगढ क़ी सीमा पार कर महाराष्ट्र उडीसा और आंध्र प्रदेश के जंगलों में चले गए हैं। अनेक पुनर्वास की प्रतीक्षा में हैं (चालीस हजार अभी भी शिविरों में हैं)। आदिवासियों द्वारा अपने विषाक्त बाणों का उपयोग आत्मरक्षार्थ किया जा सकता था, जैसा कि वह अतीत में करते रहे हैं। किंतु वे कहते हैं कि उन्हें सरकार पर भरोसा है, जिसने उन्हें आश्वस्त किया है कि इन लोगों को अलग भूमि पर बसाया जाएगा, जहां उन्हें अपने अपने बच्चों को स्कूल भेजने की और रोगियों को आसानी से स्वास्थ्य केंद्रों पर भेजने की सुविधाएं सुलभ होंगी। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने आदिवासियों से किए जाने वाले व्यवहार को लेकर एक आलोचनात्मक रिपोर्ट दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस रिपोर्ट के आधार पर छत्तीसगढ सरकार को निर्देश दिया है कि वे अपने स्थानों से हटाए गए आदिवासियों का पुनर्वास करे। हर कलेक्टर से कहा गया कि वह अपने स्थान से हटाए गए लोगों को पुन: बसाए। परंतु अभी तक न तो कोई कार्रवाई हुई है और न ही कोई भूमि चिन्हित हुई है। दरअसल छत्तीसगढ में ऐसे कुछ जिले हैं, जहां कलेक्टरों को यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि उनका उस क्षेत्र में वश नहीं चलता जो उसके तहत हैं।
गृहसचिव जी.के.पिल्लै कहते हैं कि नक्सली केंद्र में 2050 तक सत्ता पर हावी हो जाने का सपना देख रहे हैं। किंतु जब माओवादी जो नवीनतम हथियारों से लैस होकर उन्हें धमकी देते हैं तो आदिवासियों के समक्ष विकल्प ही क्या रह जाता है? आदिवासी बुनियादी तौर पर तो निवास की कमी और भ्रष्टाचार से दंशित हैं। दरअसल वे खुद को सरकार द्वारा अपेक्षा और माओवादियों की बंदूक इन दो के बीच फंसा पाते हैं। आदिवासी अपने उस पुराने जीवन की ओर लौटना चाहते हैं, जब जंगल उन्हें उनकी आवश्यकता की हर चीज सुलभ कराते थे। जल, जमीन और जंगल की उदारता। वस्तुत: यही उनकी मांग है और वे इन सबकी वापसी हेतु ही आंदोलित हैं। सरकार और निगमित क्षेत्र के बीच गठजोड क़े निर्मम बल और जोड़-तोड क़ो ये भोलेभाले लोग समझ पाने में असमर्थ हैं। माओविदियों ने उनके लिए कठिनाइयां और अधिक बढा दी है, क्योंकि उन के युध्दघोष और उनके द्वारा की जा रही हिंसा ने राज्य को फासिस्ट तौर-तरीके अपनाने पर प्रेरित किया है। नई दिल्ली ने अपने ऑपरेशन को ग्रीन हंट की संज्ञा दी है। यदि यह कुल मिलाकर हंट (शिकार) ही है तो रेड का है और यह जो कुछ बचा-खुचा ग्रीन (हरीतिमा) है, उसके लिए भी खतरा है। जंगलों में कार्रवाई विध्वंसक हो सकती है। निर्दोषों को ही इसकी तपिश झेलनी होगी। यह बात समझ में नहीं आती किसरकार ने दमित आदिवासियों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष पर इतना रोष क्यों दर्शाया। ऐसे लोगों को तो उनके उस शुभ कार्य के लिए मान्यता मिलनी चाहिए जो वे आदिवासियों को माओवादियों के पंजों मे फंसने से बचाने के लिए कर रहे हैं। जो लोग बन्दूक के बल पर रहते हैं, वे बन्दूक से ही मरते भी हैं। हिंसा की संस्कृति शांति की संस्कृति से श्रेष्ठ कैसे हो सकती है? बुलेट बैलेट की स्थान नहीं ले सकती। नक्सलियों का लाभ वह भय नहीं है जो वे सृजित करते हैं अपितु वह आशा है जो समानतापरक समाज के वादे से वे जगाते हैं।
भारतीय राजनीति का संकर-जैसा कि मैं देखता हूं, वह परिवर्तन की संकट है। यह राज्यव्यवस्था और उसके ढांचे के बीच बढते अतंर में झलकता है। गृह मंत्री पी.चिदंबरम, सरकार ने कानून और व्यवस्था के नाम पर जो विपुल यत्र-तत्र व्यवस्था खड़ी की है, उसका उपयोग कर माओवादियों का दमन तो कर सकते हैं जबकि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। किंतु उन्हें यह अनुभूति होनी चाहिए कि यदि 70 प्रतिशत लोग निर्धन रहते हैं और लोगों के तथा क्षेत्रों के बीच जो असमानता है, वह कम से कमतर नहीं हो पाती तो कुछ अन्य माओवादी गुट उभर उठेंगे। चिदंबरम ने माओवादियों को हित त्यागने की जो सलाह दी है वह तब बेहतर ढंग से असर करती या करेगी, यदि वह आर्थिक पैकेज की भी घोषणा साथ ही कर देते । उन्हें यह देखना ही होगा कि जो-जो आंदोलन लगभग 50 वर्ष पूर्व पश्चिम बंगाल के कुछ ग्रामों तक सीमित था, वह अब उडीसा बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ तथा आंध्र प्रदेश तक फैल गया है।
No comments:
Post a Comment