कानू सान्याल ने 1967 में चारू मजूमदार के साथ मिलकर नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरूआत की थी। ये मुख्यतः सशस्त्र तरीकों से नई व्यवस्था की स्थापना करना चाह रहे थे। मूल रूप से इनका जोर था, भूमि का न्याय पूर्ण वितरण, उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा वर्ग का नियंत्रण। इसकेलिए वे कार्ल मार्क्स लेनिन और माओ के सिंद्धांतो को सबसे बेहतर मानते थे।
उनका मानना था कि किसी भी व्यवस्था में जाकर आप उसे बदलने में सफल नहीं हो सकते। पिनोशे के अलावा और कई देशों में मार्क्सवादी सिद्घांतो को लोकतंत्र के द्वारा स्थापित करने का प्रयास किया गया। जो सर्वथा विफल रहा। हांलाकि कानू सान्याल हाल के कुछ वर्षों में नक्सलवादी आंदोलन से पूरी तरह निराश थे। वह मानते थे कि नक्सलवादी आंदोलन दिशा से भटक गया है।
हांलाकि एक उल्लेखनीय बात ये भी है कि खुद वर्तमान नक्सलियों ने संशोधन वादी या परिवर्तनवादी मानने लगे थे। 1968 में नक्सलवादी आंदोलन के दौरान कई बार वे जेल भी गए। 1972 में चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में रहस्मयी मौत के बाद सान्याल नक्सलवादी आंदोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे थे। और कई बड़ी घटनाओं में उनका हाथ माना गया था। हांलाकि पिछले कुछ वर्षों से वे एकाकी जीवन गुजार रहे थे लेकिन लगातार किसान औऱ अन्य समस्याओं को लेकर कोलकत्ता में अपनी उपस्थिती दर्ज कराते रहते थे।
उनका मानना था कि किसी भी व्यवस्था में जाकर आप उसे बदलने में सफल नहीं हो सकते। पिनोशे के अलावा और कई देशों में मार्क्सवादी सिद्घांतो को लोकतंत्र के द्वारा स्थापित करने का प्रयास किया गया। जो सर्वथा विफल रहा। हांलाकि कानू सान्याल हाल के कुछ वर्षों में नक्सलवादी आंदोलन से पूरी तरह निराश थे। वह मानते थे कि नक्सलवादी आंदोलन दिशा से भटक गया है।
हांलाकि एक उल्लेखनीय बात ये भी है कि खुद वर्तमान नक्सलियों ने संशोधन वादी या परिवर्तनवादी मानने लगे थे। 1968 में नक्सलवादी आंदोलन के दौरान कई बार वे जेल भी गए। 1972 में चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में रहस्मयी मौत के बाद सान्याल नक्सलवादी आंदोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे थे। और कई बड़ी घटनाओं में उनका हाथ माना गया था। हांलाकि पिछले कुछ वर्षों से वे एकाकी जीवन गुजार रहे थे लेकिन लगातार किसान औऱ अन्य समस्याओं को लेकर कोलकत्ता में अपनी उपस्थिती दर्ज कराते रहते थे।
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