कभी-कभी किसी की मौत पर दुख होता है,तो कभी किसी की मौत पर न दुख और न कोई अन्य बोध। मन तटस्थ भाव से उस खास व्यक्ति की पिछली जिंदगी और उसके निष्कर्षों से तारतम्य बैठाने की कोशिश करती है। खबर आयी कि नक्सल आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल नहीं रहे। आत्महत्या कर ली। हमारी पीढ़ी ने कानू सान्याल के आंदोलन को नहीं देखा, लेकिन जिसने भी देखा या जो गवाह हैं, वे सिहर उठते हैं। उस दौर के साहित्य को पढ़कर एक वैचारिक आवेग का अहसास होता है कि कैसे वह दौर परिवर्तन को लिये हुए थे। एक प्रवाह था, जिसमें व्यवस्था को बदलने का उद्देश्य था। लेकिन हिंसा के सहारे कैसी व्यवस्था और कैसा तंत्र। सारा कुछ फेल हो गया। जिस जगह नक्सलबाड़ी आंदोलन की उपज हुई थी, वह इलाका आज, जैसी कि जानकारी है, तुलनात्मक रूप से नक्सल गतिविधियों के मामले में शांत है, लेकिन उससे उठी चिंगारी ने इस कदर आग की लपट पैदा की कि देश का एक चौथाई हिस्सा झुलस रहा है। बंदी के नाम पर नक्सलियों ने कहर बरपा दिया। जहां मन किया, ट्रेन की पटरी उड़ा दी। अपहरण कर लिया और हिंसा कर रहे हैं। हमें कम्युनिस्टों का कान्सेप्ट समझ में नहीं आया। हाल में एक राष्ट्रीय पत्रिका की ही रपट थी कि कैसे एक कम्युनिस्ट नेता को आत्महत्या करनी पड़ी, क्योंकि उनकी पार्टी ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा था। उन्हें जीवन के अंतिम वर्षों में चरित्र दोष के आरोपों का शिकार होना पड़ा। रोजी-रोटी के नाम पर जिस संघर्ष का आह्वान किया जाता है, वह कितना सच है, ये सोचिये। कभी भी क्या समानता का रूप साकार हो सकता है? क्या एक समान पूंजी का वितरण संभव है? क्या शोषण का पूरी तरह से अंत संभव है? हमारा मानना है कि हर पीढ़ी का अपना मत होता है। वह मत उस पीढ़ी के साथ खत्म हो जाती है। कानू सान्याल या अन्य कोई जितने भी कम्युनिस्ट नेता हुए, उन्हें लेकर ये सवाल जरूर खड़ा किया जायेगा कि सुरक्षित जीवन देने के लिए उन्होंने कौन से प्रयास किये। एक बात तो साफ है कि बंदूक के सहारे समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है। कानू सान्याल को लेकर कई सवाल मन में उठ रहे हैं, शायद कभी जवाब मिल जाये।
प्रभात गोपाल
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