श्री विश्वजीत, पटना
अगर कभी कोटेश्वर से मेरी बात होती, तो मैं उनसे कहता- "बयान देने से बचें।" लालगढ़ आंदोलन की शुरुआत से लेकर आज तक माओवादी नेता कोटेश्वर ने इतने प्रकार के बयान दिए हैं, जो किसी भी आदमी को विक्षिप्त कर देने के लिए पर्याप्त है। कभी वह लालगढ़ में आलू के गिरते भाव से चिंतित, कभी उन्हीं के आह्वान पर हुए बंद के दौरान प्याज की गाड़ियाँ घूमकर आ रही हैं, जिसके चलते प्याज के भाव बढ़ रहे हैं। इसे लेकर मायूस और फिर सिल्दा शिविर पर माओवादी हमले के बाद यह घोषणा की, "मैं स्वयं उस हमले का नेतृत्व कर रहा था"-इन सारे बयानों को एकत्रित करने पर एक कार्टून फिल्म के शाट्स उभरते हैं, जिसका नायक अलग-अलग भेष बनाकर दर्शकों का मनोरंजन कर रहा है। लेकिन, इस नायक की असलियत तब दर्शकों के सामने आती है, जब बंगला दैनिक "संवाद प्रतिदिन" को दिए गए एक साक्षात्कार में कोटेश्वर कहते हैं, "यद्यपि में ब्राह्मण हूँ, मैंने अपना जीवन आदिवासियों के बीच काम करते बिताया है। मेरे लिए जंगल शुरुआत है और जंगल ही अंत।" (संवाद प्रतिदिन-२६.१०.०९)।
इस बयान में ऊँची जाति का गुरूर कूट-कूट कर भरा है। कोटेश्वर के मुँह से भले ही यह बात असावधानीवश निकली हो, लेकिन बयान उनकी असलियत को बिल्कुल बेपर्द कर देता है। "मैं ब्राह्मण हूँ", यानी की मैं श्रेष्ठ हूँ । मैंने, अपना जीवन आदिवासियों के बीच काम करते बिताया है यानी कि मैं श्रेष्ठ होते हुए भी निकृष्ट लोगों के बीच काम करते हुए बिताया है। मानो कि मेरा त्याग कितना बड़ा है, मेरी तपस्या कितनी कठोर है आदि-आदि। "जंगल शुरुआत है और जंगल ही अंत" यानी कि मैंने अपने ऐशोआराम की जरा भी परवाह नहीं की। कुल मिलाकर, "आदिवासी मेरे एहसान के बोझ के तले दबे पड़े हैं।"
कोटेश्वर हो सकता है ब्राह्मण हो, लेकिन ब्राह्मणों के इतिहास से वे अनभिज्ञ हैं। ब्राह्मणों के विヒद्घ तमाम बगावतों का नेतृत्व तो ब्राह्मणों ने ही किया। इतिहास ऐसे उदाहरणों से पटा पड़ा है। दूसरी बात यह है कि अपनी जातिगत पहचान को कोटेश्वर आज भी धोते चले आ रहे हैं। इसका अर्थ है कि उनका मस्तिष्क बारहवीं सदी से आगे नहीं बढ़ पाया। धार्मिक पहचान को लुत्फ करने की बात तो दूर जो व्यक्ति अपनी जाति पहचान से ही बाहर नहीं आ सका। वह क्या नेतृत्व करेगा दबी-कुचली जनता का? भले ही आदिवासी आज हाशिए पर चले गए हों (जिसके लिए कोटेश्वर जैसा नेता कम जवाबदेह नहीं हैं।) फिर भी हम उनके ऋ णी है। मूर्खों को झेलने की क्रिया जिस अपार सहिष्णुता की माँग करती है, उसे हमने उन्हीं के बतौर कर्ज लिया है।
(लेखक नक्सल विषयों के जानकार हैं।)
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