Monday, April 5, 2010

गेहूं के साथ पिसता घुन

यह केवल संयोग नहींहै कि गृहमंत्री पी. चिदंबरम जब प.बंगाल के नक्सल प्रभावित क्षेत्र लालगढ़ के दौरे पर पहुंचते हैं, उसके ठीक पहले नक्सली उसी इलाके में विस्फोट करते हैं और जब वे केंद्रीय सुरक्षा बलों को वापस न हटाने, हथियार छोड़कर वार्ता की मेज पर आने जैसी बातें कहते हैं तो उड़ीसा के मलकानगिरी में बारूदी सुरंग विस्फोट कर 10 जवानों को शहीद कर जाते हैं। उड़ीसा की घटना पर मुख्यमंत्री नवीन पटनायक इसे नक्सलियों की कायराना हरकत करार देते हैं और जनता को भरोसा दिलाते हैं कि हमारे जवान नक्सलविरोधी गतिविधियां रोकने के लिए प्रयासरत हैं। जबकि लालगढ़ में हेलीकाप्टर से उतर कर पी. चिदंबरम स्थानीय लोगों से मिलते हैं। उनकी जमीनी सच्चाई से वाकिफ होने का उपक्रम करते हैं और वहां के लोगों को बताते हैं कि नक्सली कायर हैं, वो जंगलों में क्यों छिपे हुए हैं। अगर उन्हें विकास चाहिए तो उन्हें जंगल से निकल कर बात करनी चाहिए। उन्होंने आदिवासी संगठनों व स्थानीय जनता से अपील की है कि वे नक्सलियों का साथ न दें। नक्सली कायर हैं, अविचारित हिंसा पर उतारू हैं, उनके आतंक के कारण आदिवासी इलाकों में विकास कार्य नहींहो पा रहे हैं, सड़कें, अस्पताल, विद्यालय नहींखुल रहे हैं, नक्सली आदिवासियों को बहका कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, उनमें सीधे बात करने की हिम्मत नहींहै, वे हथियार छोड़ने तैयार नहींहैं, जबकि हम वार्ता के लिए तैयार हैं, हमने उन्हें 72 घंटे संघर्ष विराम का प्रस्ताव दिया, जबकि वे हमारी ओर से 72 दिनों का संघर्ष विराम चाहते हैं। कड़ी सुरक्षा में नक्सल विरोधी गतिविधियों का जायजा लेते साहब बहादुरों के ये सारे तर्क सही हैं, इनमें एक भी बात गलत नहींहै। लेकिन इतनी सरल भी नहींहै कि स्याह-सफेद दो रंगों में बांट कर सही-गलत का फैसला कर लिया जाए।
बेशक आज की तारीख में नक्सली आतंक फैलाने के अलावा कोई कार्य नहींकर रहे। उनकी लड़ाई सरकार से, समाज के सामंती तौर-तरीकों से है, लेकिन इसमें मौत निरीह जनता की हो रही है और लाभ फूटी कौड़ी का नहींहो रहा। छिप कर वार करने वालों को कायर कहते हैं तो नक्सली कायर भी हैं, लेकिन सरकार की ओर से कौन सी बहादुरी दिखाई जा रही है। नक्सली क्षेत्रों में तैनात पुलिसकर्मी, सुरक्षा बलों के जवान जरूर जांबाजी दिखाते हैं, उनके पास इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहींहै। कुछेक हजार के वेतन पर वे मौत हथेली पर रख कर चलते हैं और जब शहीद होते हैं तो घटना की वीभत्सता के मुताबिक कुछ लाख का मुआवजा और निकट परिजन को नौकरी का वादा मिल जाता है। अपना मंतव्य नक्सली बारंबार स्पष्ट कर रहे हैं कि वे हिंसा के रास्ते ही लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। हांलाकि उनके साध्य व साधन दोनों संदिग्ध हैं। पर सरकार का उद्देश्य भी साफ नहींहै। वह नक्सलियों के सफाए की बात कहती है, लेकिन किस तरह से इस कार्य को करना चाहती है, स्पष्ट नहींहै। अभी ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है। हो सकता है सरकार को इसमें सफलता मिले और जंगलों में छिपे नक्सलियाेंका सफाया हो जाए, गेहूं के साथ घुन पिसेगा ही। तब जंगल की विपुल प्राकृतिक संपदा पर किसका कब्जा होगा, आदिवासी क्षेत्रों से उजड़े लोग नागर सभ्यता में कैसे अवस्थित होंगे, इनके जीवन-यापन व सांस्कृतिक, सामाजिक जीवन की सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा? प्रश्न अनेक हैं और उत्तर शायद एक भी नहीं। ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाने से पहले भी कई नक्सलविरोधी अभियान विभिन्न नामों से केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा चलाए गए। इनमें एक भी लक्ष्य के करीब नहींपहुंच सका।

साल दर साल बजट में नक्सलविरोधी अभियान व नक्सलप्रभावित क्षेत्रों के लिए आबंटित राशि की मात्रा बढ़ाई जाती रही। इसका लाभ आदिवासियों या नक्सल प्रभावित इलाकों तक नहींपहुंचा। नक्सलविरोधी अभियानों में सफलता तब तक नहींमिलेगी, जब तक सरकारें दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ आदिवासियों के दूरगामी हित की सुस्पष्ट नीति सामने नहींरखेंगी। ऐसी नीतियां जिन के क्रियान्वयन पर लोगों को भरोसा हो। आज अगर नक्सली जंगल में अपना राज चला रहे हैं तो इसकी पृष्ठभूमि सरकारी नीतियों की वजह से ही बनी है। नक्सलियों के कब्जे के पहले भी आदिवासी इलाकों में विकास कार्य नगण्य था और शोषण चरम पर था, अब भी स्थिति भिन्न नहींहै। नक्सली अविचारित हिंसा छोड़ें और सरकारें जनता को विश्वास में लेकर अभियान चलाएं, तभी कोई हल निकल सकता है।
संपादकीय, देशबंधु, अप्रैल, रायपुर

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