Sunday, April 18, 2010

विकास ही माओवाद के हल की कुंजी


दंतेवाड़ा नरसंहार की घटना से समूचा राष्ट्र स्तब्ध है। हर तरफ से इस नक्सली कार्रवाई की निन्दा के स्वर उठ रहे हैं लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविघालय के वामपंथी छात्र संगठनों ने नरसंहार का समर्थन कर सबको सकते में डाल दिया है।

‘फोरम अगेंस्ट वार ऑन पीपुल’ के बैनर तले इन छात्रों ने नक्सलियों के तांडव का समर्थन करते हुए जश्न मनाया और पोस्टरबाजी की। हालांकि इसे महज बचकाना मार्क्सवाद ही कहेंगे और निहायत ही अपरिपक्व और अराजनीतिक समझ, क्योंकि खुद माआ॓वादियों ने दंतेवाड़ा कांड पर यह कहते हुए दुख जताया है कि उन्होंने यह सब बहुत मजबूरी में किया है।

बहरहाल, इस घटना के बाद से ही नक्सल समस्या से निपटने को लेकर केंद्र सरकार की पहल पर भी अंगुलियां उठ रही हैं। हिंसा के जरिए कानून को हाथ में लेने वाले नक्सलियों से निपटने का रास्ता क्या हो, यह अहम सवाल है? इसकी आड़ में खनिज सम्पदा का दोहन, विकास कार्यों में रंगदारी और तरह-तरह की अराजक गतिविधियां भी फल-फूल रही हैं और आदिवासियों का जीवन स्तर ऊपर उठाने का असल सवाल दबता जा रहा है। देश के लगभग आठ राज्य आज नक्सल समस्या से बुरी तरह प्रभावित हैं।

गरीबी, अशिक्षा और असंतुलित विकास ही इसकी जड़ हैं किंतु सरकार का ध्यान आकृष्ट करने का हिंसा ही एकमात्र रास्ता नहीं हो सकता। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अपनी मांगें मनवाने का यह बहुत कारगर तरीका भी नहीं है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही देश को आजाद कराया था। इसलिए हिंसा के जरिए सत्ता परिवर्तन की राजनीतिक विचारधारा रखने वालों को भली-भांति समझ लेना चाहिए कि उन्हें अपनी राजनीतिक विचारधारा क्रियान्वयन के तरीके पर पुनर्विचार करना होगा।

गरीब आदिवासियों के हक की लड़ाई के और भी लोकतांत्रिक तरीके हैं। गरीबी हिंसा का बहाना नहीं बन सकती। यह इस आतंक को जायज ठहराने का कारण भी नहीं बन सकती। गरीबी और दमन को हथियार उठाने की वजह समझना बड़ी भूल होगी। इस तरह की राजनीतिक सोच रखने वालों को इस समस्या की जड़ में जाकर देखना-सोचना होगा क्योंकि इसके प्रवर्तक माआ॓वादी राज्य-व्यवस्था को मुख्य शत्रु और वर्ग संघर्ष को ही युद्ध का मुख्य रास्ता मानते हैं। दंतेवाड़ा की लोमहर्षक घटना उनकी इस सोच की परिणति है, जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए हैं। उनकी इस चरमपंथी सोच के प्रति सहानुभूति रखने वालों को भी अब आत्मलोचन करने की जरूरत है कि क्या माआ॓वादी बिना बड़े जनांदोलन के किसी क्रांति की बुनियाद रख सकते हैं।

एक खुफिया रिपोर्ट पर यकीन करें तो उसमें कहा गया है कि देश में विकास कार्यों के लिए बढ़ रहे सरकारी बजट का सीधा असर नक्सलियों की लेवी वसूली पर पड़ रहा है। नक्सली संगठनों ने वसूली के लक्ष्य में पच्चीस प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी है। वर्ष 2010 के लिए 1500 करोड़ रूपये वसूली का लक्ष्य है। इसमें अकेले बिहार-झारखंड से 500 करोड़ रूपये की वसूली की जानी है। इसी वसूली के लिए इन नक्सलियों ने अभी हाल के कुछ महीनों में निर्माण एजेंसियों के दर्जनों वाहनों को जला दिया और ये लगातार उनके निशाने पर हैं।

छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में यह समस्या और विकट है। यहां इनकी समानांतर सरकार चलती है और दरअसल इसी पहलू में इस समस्या की जड़ें भी तलाशनी होंगी। गौरतलब है कि अबूझमाड़ का इलाका लगभग चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैला है, इसकी सीमाएं महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश से सटी हैं। यहां विकास की कौन कहे, सरकारी तंत्र के लोग वर्षों से झांकने तक नहीं गये। कुछ तो माआ॓वादियों के भय और ज्यादातर सरकारी तंत्र की नौकरशाहाना जकड़न, उदासीनता और प्रतिबद्धता के अभाव के चलते आदिवासी इलाकों में विकास कार्य हो ही नहीं रहे हैं। सचाई यह है कि नक्सल प्रभावित अति संवेदनशील 33 जिलों के लिए केंद्र सरकार ने साढ़े छह हजार करोड़ रूपये का प्रावधान किया है, किंतु अभी तक मात्र दो हजार करोड़ रूपये ही खर्च हुए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण योजना के तहत महाराष्ट्र, आंध्र, बिहार और छत्तीसगढ़ में औसतन पांच से बारह प्रतिशत ही कार्य हुए हैं।

दरअसल नक्सल समस्या केवल केंद्र सरकार की चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। राज्य सरकारों को भी राजनीति से ऊपर उठकर इससे निजात पाने के लिए एकजुटता दिखानी होगी, जो अभी तक नहीं दिख रही है। नक्सलियों ने अभी तक इसी कमजोरी का फायदा उठाया और एक से दूसरे राज्य में भागते रहे हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री पर माआ॓वादियों की मदद से चुनाव जीतने का आरोप है। अभी कुछ दिन पहले उन्होंने एक अपहृत अधिकारी को छुड़ाने के बदले में एक माआ॓वादी को जेल से छोड़ दिया। बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं किंतु दंतेवाड़ा के हमले के बाद इस आतंक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के लिए नई राजनीतिक सहमति बनी है।

इस आतंक के सफाये में सरकार को दृढ़ता दिखानी होगी क्योंकि माआ॓वादी सुरक्षा बलों के खिलाफ आदिवासी महिलाओं और बच्चों को आगे कर हमले कर रहे हैं। दंतेवाड़ा की घटना में भी महिला के शामिल होने की पुष्टि हुई है। उनके इस खतरनाक खेल का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए। इस कठोर कार्रवाई की पहल अब राज्यों को ही करनी होगी। सरकार को भी यह समझना होगा कि हिंसा के जरिये सत्ता परिवर्तन की राजनीतिक विचारधारा रखने वाले ये माआ॓वादी भटके हुए लोग हैं। जेएनयू के वामपंथी छात्र संगठनों की हरकत भयंकर भटकाव और राजनीतिक दिवालियापन की ही परिचायक है। माआ॓वादियों पर पुलिस कार्रवाई को गलत ठहराने वाले अब पुलिस बल पर उनके हमले को कैसे जायज ठहरा रहे हैं।

उनकी यह सोच राष्ट्र विरोधी है, जो उन्हें जेहादी आतंक के करीब ले जाती है। इसीलिए इसकी पुरजोर निंदा होनी चाहिए। किसी समस्या का हल हिंसा कतई नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक तरीके से ही हल ढूंढा जा सकता है। खासतौर पर उन राजनीतिक दलों को, जिनसे इनका जुड़ाव है, उन्हें उनकी सोच को बदलने के लिए पहल करनी चाहिए। यह सच है कि नक्सलियों ने इतनी बड़ी चोट कभी नहीं दी, इसलिए सरकार को इनसे निपटने के लिए कड़े से कड़े कदम उठाने से हिचकना नहीं चाहिए। तरीका क्या हो, यह उसे खुद तय करना है। साथ ही साथ उसे ईमानदार समर्पण, संवाद और विकास की अपनी नीति को और अधिक प्रभावी बनाना होगा। इस अभियान में प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को विश्वास में लेकर आगे बढ़ना होगा। इन क्षेत्रों में इस तरह विकास किया जाना चाहिए कि आमजन को लगे कि सरकार से बड़ा उनका कोई हितैषी नहीं है। उनका उत्थान सरकार के प्रयास से ही होगा, किसी अन्य तरीके से नहीं।

उनके मन में भरना होगा कि हथियारों के सहारे परिवर्तन की वकालत करने वाले उनके दुश्मन हैं और उनकी यह नीति विकास में बाधक है। वह उनकी आड़ में निर्माण एजेंसियों से वसूली के साथ ही साथ प्राकृतिक संपदा का दोहन कर रहे हैं। इस अभियान के जरिये भटके हुए लोगों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जानी चाहिए तभी उनके दिलों में विश्वास पैदा हो सकेगा और नक्सलियों से निपटने में उनकी मदद मिल सकेगी। अगर वाकई केन्द्र और राज्य सरकारें इस समस्या के प्रति गंभीर हैं तो उन्हें भी एक परिपक्व राजनीतिक समझ का परिचय देना होगा। हमारे गृहमंत्री से और परिपक्व समझ और गंभीर व ईमानदार पहल अपेक्षित है।

क बड़ा तबका है और मुख्यधारा के दलों में भी है, जो मानता है कि नक्सलवाद एक राजनीतिक समस्या है। तो फिर राजनीतिक समस्या का कोई राजनीतिक हल ही होना चाहिए चाहे वह कितना ही जटिल और कठिन क्यों न हो। ऐसे में चिदम्बरम साहब को भी ऐसे बयानों से बचना चाहिए कि नक्सली देश के दुश्मन हैं। खुद कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर मानते हैं कि पंचायतों को मजबूत कर ही हम इसके हल की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। सिर्फ फौज और अर्धसैनिक बलों के जरिए यह समस्या नहीं हल होने वाली। विकास ही वह कुंजी है जिसमें इसका हल छिपा है। अब विकास कैसे हो, यह तो सरकार को ही सोचना होगा। सरकार राजनीतिक और रणनीतिक कौशल का सही इस्तेमाल कर अपने मिशन में कामयाब हो सकती है।

रणविजय सिंह

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