Sunday, April 18, 2010

इस अप्रत्यक्ष हिंसा को भी समझिए


तेवाड़ा में केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल के 76 जवानों की नक्सली हमले में मृत्यु के बाद हमारे राजनीतिक और मीडियाई इलाकों में जिस तरह की फौरी हलचल की उम्मीद थी वैसी हुई।

नक्सल विरोधियों ने कठोरतम भाषाई विरोध दर्ज कराया और नक्सलवादियों को हत्यारा, आतंकवादी, देशद्रोही तथा इसी तरह के अन्याय निंदक पदों से नवाजा और उनके विरूद्ध कड़ी कार्रवाई न करने के लिए सरकार को धिक्कारा भी और आगे कठोर कदम उठाने के लिए नसीहतें भी दी।

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस समूचे भाषाई प्रलाप में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के आदिवासियों की आर्थिक, ऐतिहासिक सांस्कृतिक परिस्थितियों और इनसे मौजूदा राज्य व्यवस्था की नीतियों के साथ टकराहट की आधारभूत समझ सिरे से गायब थी। अगर इनमें से किसी ने भी दंतेवाड़ा क्षेत्र में जाकर वस्तुस्थिति को खुले दिमाग से देखा होता तो शायद उनका नजरिया दूसरा होता। वे नक्सलवादी हिंसा के समर्थक तो नहीं ही होते मगर इस हिंसा की जड़ों तक पहुंचने में जरूर सफल होते। अगर उन्हें जहां जाकर देखने में असुविधा होती थी तो वे कम से कम उन लोगों के विचारों और वर्णनों को ही पढ़ लेते जिन्होंने लगातार आदिवासियों के बीच काम किया है। और समय-समय पर उनके शोषण-दोहन-बंधन को विविध तरीकों से उजागर किया है।

ऐसा करने वालों में उचक्के कलमकारों के विरूद्ध वे कलमकार ज्यादा रहे हैं जो इस देश में एक न्यायपूर्ण लोकतंत्र के हामी रहे हैं और जो वंचित तबकों की कठिनाइयों-समस्याओं के प्रति सरोकारी तथा संवेदनशील नजरिया अपनाए रहे हैं। अगर हमारे कथित देशप्रेमियों और लोकतंत्रवादियों ने अपने विचारों में वनवासियों के हालात की थोड़ी सी भी समझ शामिल कर ली होती तो उनका थोड़ा बहुत गुस्सा हिंसा और प्रतिहिंसा के दुराचक्र को पैदा करने वाले राज्यतंत्र की आ॓र अवश्य ही स्थानांतरित हो गया होता। मैंने आदिवासी इलाकों को थोड़ा बहुत जानने-समझने की कोशिश की है।

1984 में मैंने मध्यप्रदेश के (तब छत्तीसगढ़ अलग राज्य नहीं था) कुछ आदिवासी क्षेत्रों का दौरा किया था। तब मेरे सामने उनके कदम-कदम कठिन जीवन के ऐसे डरावने रूप उजागर हुए थे जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकते थे। यहां सिर्फ एक घटना बताना चाहता हूं। मेरी एक ऐसे आदिवासी से मुलाकात हुई थी जो छह महीने जेल में बिता कर आया था। उसका अपराध सिर्फ इतना था कि उसे अपने खेत की जुताई के लिए हल की जरूरत थी जिसके लिए उसने जंगल से लकड़ी काट ली थी। वन अधिकारी ने इसे पकड़ लिया और इसके सामने शर्त रखी कि अगर वह अपनी औरत को उसके पास छोड़ जाएगा तो उसे छोड़ दिया जाएगा अन्यथा पुलिस के हवाले कर दिया जायेगा। क्योंकि उसने वन अधिकारी की बात नहीं मानी इसलिए उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया। उस साल वह खेती नहीं कर सका और उसका पूरा परिवार तबाह हो गया। मैं यहां यह भी बता दूं कि यह सिर्फ उस अकेले आदिवासी की कहानी नहीं थी बल्कि एक महागाथा थी जो समूचे आदिवासी क्षेत्र में पसरी हुई थी।

जो दूसरी बात मेरे देखने में आयी थी वह यह थी कि चुनाव राजनीति ने जिन गिने-चुने आदिवासी नेताओं को जन्म दिया था, वे आदिवासियों के पक्ष में कम अपने लालच के चलते दोहन करने वालों के दलाल के रूप में ज्यादा सक्रिय थे। जो वर्तमान चुनावी लोकतंत्र की कुटिलताओं को समझते हैं वे इसका कारण भी समझ सकते हैं। अब मैं राज्य की भूमिका के संदर्भ में उन जवानों को बात करना चाहता हूं जो दंतेवाड़ा में शहीद हो गये और श्रद्धांजलि स्वरूप जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को प्रकाशित करने का पुनीत कार्य इधर ‘राष्ट्रीय सहारा’ कर रहा है। इनमें से एक भी जवान, बड़े की बात तो छोड़ दें, किसी छोटे नेता, व्यवसायी, अधिकारी या किसी माफिया का भी बेटा नहीं है। सबके सब बेहद निम्न पृष्ठभूमि से आये लड़के थे। जो अपने से थोड़ी और निम्न पृष्ठभूमि के हथियारबंद आदिवासियों से मुठभेड़ के लिए भेजे गये थे। जाहिर है कि ये लोग नक्सली आदिवासियों के साथ गलबहियां करने नहीं गये थे। अगर नक्सली इनके हत्थे चढ़ जाते तो ये भी उन पर गोलियों की बौछार करते। परंतु जंगल के युद्धक्षेत्र में नक्सली अधिक चालाक निकले। परिणामत: 76 जवानों को अपनी जान से हाथ धोने पड़े।

मारक स्थिति देखिए कि मारने और मरने वाले एक ही विसंगति के शिकार हैं। और यह विसंगित किसी आ॓र ने नहीं, आपाद भ्रष्ट और संवेदनहीन हो चुके राज्यतंत्र ने पैदा की है। सारतत्व यह है कि जब तक मौजूदा चुनावी राज्यतंत्र का नैतिक चरित्र नहीं बदलेगा, तब तक नक्सली समस्या का कोई समाधान नहीं निकलेगा। बल्कि यह समस्या और अधिक उग्र होगी। निरीह जवानों और निरीह आदिवासियों की जानें जाती रहेंगी। जिनकी हवस और कुत्सित महत्वाकांक्षा के चलते यह सब हो रहा है, वे इसी तरह मजे में बने रहेंगे। जवान मरें या आदिवासी, उनके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए वे लोग, जो नक्सलियों को भर-भर गरिया रहे हैं, अपना थोड़ा बहुत ध्यान इस राज्यतंत्र के सुधार की आ॓र भी लक्षित करें। उन्हें समझना चाहिए कि झारखंड जैसे राज्य का एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री रातोंरात अरबों में खेलने लगता है या मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का एक अधिकारी अरबों की अवैध संपत्ति जुटा लेता है तो यह सब किसके हकों पर डकैती होती है।

यह वह मौन अप्रत्यक्ष हिंसा होती है जो प्रत्यक्ष हिंसा से कहीं अधिक क्रूर और भयावह है। इसको समाप्त किये बिना प्रत्यक्ष हिंसा समाप्त नहीं हो सकती।

विभांशु दिव्याल

लेखक

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