कुलदीप नैयर
वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली
सरकारी तंत्र की विद्यमान प्रणाली से अनेक लोग प्रसन्न नहीं हैं। इसके चलते अनेक गहन असमानताओं ने उभार पाया है और बहुत से लोग एक छोर पर जा पडे हैं। नौकरशाही और राजनीतिक आकाओं का भ्रष्टाचार में संलिप्तता भी नितांत उजागर है। यह एक रुढ बात हो सकती है, किंतु स्थिति को सुस्पष्ट तो करती ही है कि अपराध का राजनीतिकरण हो गया है और राजनीति का अपराधीकरण। आज राष्ट्र के समक्ष जो प्रश्न उपस्थित है, वह यह है कि इस प्रणाली को बदला कैसे जाए? क्या बंदूकके बल पर जैसी कि माओवादी और सिविल समाज में उनके साथ सहानुभूति रखने वालों की धारणा है, अथवा मत पत्र के द्वारा लोग इस कार्य को करें। अब जबकि माओवादी हत्या करने को उन्मत हो उठे हैं, यह प्रश्न और अधिक प्रासंगिक और सटीक हो गया है। इस सप्ताह छत्तीसगढ में दंतेवाड़ा के गहन वनों में एक त्रासदी घटित हुई है, जहां 76 पुलिसकर्मी मारे गए हैं, यह एक सुस्पष्ट प्रमाण है, क्या इससे भी अधिक प्रमाण जताने के लिए जरूरी है कि माओवादी बंदूक के बल पर सत्ता हथियाना चाहते हैं। और भी अधिक बुरी यह हकीकत है कि उन्होंने मात्र हमले को ही नियोजित नहीं किया, अपितु वे पुलिस से सभी हथियार और गोला बारूद भी छीन कर ले गए। इससे यह तथ्य रेखांकित होता है कि माओवादियों ने अपने तौर-तरीकों को तो और अधिक आधुनिक किया ही है। साथ ही आधुनिक शस्त्रास्त्रों का भंडार भी बढाया है। दूसरी ओर पुलिस पूर्णत: सुसज्ज नहीं है साथ ही पूर्णत: प्रशिक्षित भी नहीं हैं। गुप्तचर व्यवस्था के लिहाज से भी वह पर्याप्त जानकारी प्राप्त नहीं कर पाती। एक रिपोर्ट में संकेत दिया गया है कि आंध्र प्रदेश में चार शीर्ष माओवादी काडरों ने घात लगाकर हुए इस हमले की योजना बनाई थी। जिन काउंटर इन्सरजेन्सी विशेषज्ञों ने छत्तीसगढ में हुए इस नरसंहार की विश्लेषण किया है, उनके अनुसार पुलिस को भ्रमित कर मौत के घेरे में फंसाया गया था।
माओवादियों का सशस्त्र क्रांति पथ है नरसंहार। जब भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता प्राप्त की तो विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली सत्ता पर एक भी गोली नहीं दागी गई थी। महात्मा गांधी का ऐसी राह अपनाने का कारण यह था कि उनके पीछे लोगों की ताकत थी। निर्धन निरक्षर और पिछडे वर्गो का उन्हें समर्थन प्राप्त था। दरअसल समृध्दजन में से तो अधिसंख्यक व्रिटिश सत्ता के पक्ष में थे ताकि सुख सुविधाओं से भरपूर जीवन यापन कर सकें। नौकरशाही भी साम्राज्यवादी सत्ता का ही हिस्सा थी। फिर भी महात्मा गांधी विजयी हुए। यदि माओवादी निर्धन, निरक्षरों और पिछडाें का प्रतिनिधित्व करते हैं तो उन्हें यह प्रमाणित करना चाहिए। उन्हें बरगला कर अथवा बंदूक का उपयोग करके नहीं अपितु जो चुनाव होते हैं उनके माध्यम से। तब जब हर कसौटी पर ये चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र रहे। इसके लिए समझाने का रास्ता अपनाने और धैर्य तथा तर्क के बल पर लोगों को कायल करने की आवश्यकता है। माओवादियों की सोच है कि ऐसा करने की उन्हें आवश्यकता नहीं है। यही साम्राज्यवादियों की भी भाषा रही थी।
माओवादी जिस बात को नहीं समझ रहे अथवा अनुभूत नहीं कर रहे, वह यह है कि राज्य के पास उनकी अपेक्षा कहीं अधिक बंदूकें हैं। और अन्ततोगत्वा वे उनकी बंदूकों को खामोश कर सकती है। आज के शासक भले ही उन्हे पसंद नहीं हों, किंतु वे उस प्रक्रिया के माध्यम से सत्ता में आए हैं, जिसमें लोगों ने मतदान केंद्रो पर पक्तियां लगाकर अपना वोट दिया था। यदि बंदूक ही उन्हे सत्ता से हटाने का रास्ता है तो फिर शासकों द्वारा माओवादियों का दमन करने के लिए बंदूकों या अन्य उपायों का अवलंबन भी उचित मानना होगा। आज के विश्व में हिंसा की कोई सार्थकता नहीं है। क्योंकि सीमित सी हिंसा भी नितांत घातक रूप ले सकती है। भारत में जहां अनेक संकीर्ण और विघटनकारी प्रवृत्तियां हैं, हिंसा कैसा भी रूप ले सकती है। बंदूकों से आह्लादित होने वाले वर्ग या कतिपय अनेक ताकतें, जब बंदूकधारी ही निर्णायक मान लिए जाएं, सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास कर सकती हैं। भगत सिंह भी क्रांतिकारी थे। उनको भी सशस्त्र संघर्ष में भरोसा था। फिर भी उन्होंने कभी हिंसा की सीख नहीं दी। न तो उन्होंने और न ही उनके संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट आर्मी ने किसी व्यक्ति का सिर कलम किया। माओवादियाें को उनसे वहुत कुछ सीख लेने की आवश्यकता है। ब्रिटिश सत्ता ने भगत सिंह को फांसी दी थी, क्योंकि वह उनसे नहीं उनके चिंतन-दर्शन से भयभीत थी। अपने लेख 'बम का दर्शनशास्त्र' में भगत सिंह ने, जो उन्होंने 21 वर्ष की आयु में लिखा था, उन्होंने कहा था कि क्रांतिकारी अपनी आलोचना और अपने आदर्शों अथवा कृत्यों की जन कसौटी पर कसे जाने की अपेक्षा नहीं करते। वे तो इनका स्वागत करते और जो लोग वास्तव में आकांक्षा रखते हैं, उन्हें समझने-समझाने का इन्हें अवसर मानते हैं। क्रांतिकारी आंदोलन के मूलभूत सिध्दांत और उच्च एवम पावन आदर्श प्रेरणा और शक्ति संचय का चिरंतन स्त्रोत है। परंतु माओवादी तो वार्ता करने से ही भागते हैं। इन हत्याओं से वे यह नहीं बता पाते कि वे चाहते क्या हैं। माओवादी इस बारे में चिंतन और आत्म निरीक्षण, विश्लेषण कर सकते हैं कि उनकी सशस्त्र क्रांति कैसे एक विवेकपूर्ण हिंसा का रुप लेता जा रही है।
गृहमंत्री पी चिदंबरम जो कुछ करते हैं, उन सभी बातों को मैं पसंद नहीं करता। किंतु माओवादियों के मामले में वह उनके साथ वार्ता के लिए बहुत आगे तक चले गए हैं। उन्होंने उनसे हथियार डालने को नहीं कहा और न ही अपनी विचारधारा त्यागने को कहा है। उन्होंने तो सिर्फ हिंसा त्यागने भर की बात कही है। यदि वे ऐसा करते हैं तो केंद्र सरकार वार्ता की मेज पर उनसे वार्ता करेगी। इस बीच यदि सरकार उद्योगपतियों और व्यापारियों को खनिजों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संचयन से रोक देती है, जो कि आदिवासियों का धन संपदा है तो बेहतर होगा। उन्हें उन उद्यमों में भागीदार बनाया जाना चाहिए जो संसाधनों को उपयोग आने लायक बनाते हैं। माओवादी आदिवासियों की कठिनाइयों और शिकायतों का लाभ अपनी सशस्त्र क्रांति के लिए उठा रहे हैं। एक बार आदिवासी जब यह जान लेंगे कि उनका प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण है, वे माओवादियों का समर्थन करना बंद का देंगे। क्रांति के नाम पर माओवादी ऐसे सूत्रों से धन और हथियार पा रहे हैं, 'जिन पर प्रश्न चिन्ह लग सकते हैं।' वे भारतीय राज्य व्यवस्था से खिलवाड नहीं कर सकते, सरकार में चाहे कुछ भी कमजोरी क्यों नहीं हो। शासकों को चुनावों में अपदस्थ किया जा सकता है। किंतु भारत पर जो प्रहार हुए हैं, जो आघात लगे हैं, उन्हें भरा तो नहीं जा सकता। माओवादी सरकार व भारत को एक ही मानने की भूल कर रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली
सरकारी तंत्र की विद्यमान प्रणाली से अनेक लोग प्रसन्न नहीं हैं। इसके चलते अनेक गहन असमानताओं ने उभार पाया है और बहुत से लोग एक छोर पर जा पडे हैं। नौकरशाही और राजनीतिक आकाओं का भ्रष्टाचार में संलिप्तता भी नितांत उजागर है। यह एक रुढ बात हो सकती है, किंतु स्थिति को सुस्पष्ट तो करती ही है कि अपराध का राजनीतिकरण हो गया है और राजनीति का अपराधीकरण। आज राष्ट्र के समक्ष जो प्रश्न उपस्थित है, वह यह है कि इस प्रणाली को बदला कैसे जाए? क्या बंदूकके बल पर जैसी कि माओवादी और सिविल समाज में उनके साथ सहानुभूति रखने वालों की धारणा है, अथवा मत पत्र के द्वारा लोग इस कार्य को करें। अब जबकि माओवादी हत्या करने को उन्मत हो उठे हैं, यह प्रश्न और अधिक प्रासंगिक और सटीक हो गया है। इस सप्ताह छत्तीसगढ में दंतेवाड़ा के गहन वनों में एक त्रासदी घटित हुई है, जहां 76 पुलिसकर्मी मारे गए हैं, यह एक सुस्पष्ट प्रमाण है, क्या इससे भी अधिक प्रमाण जताने के लिए जरूरी है कि माओवादी बंदूक के बल पर सत्ता हथियाना चाहते हैं। और भी अधिक बुरी यह हकीकत है कि उन्होंने मात्र हमले को ही नियोजित नहीं किया, अपितु वे पुलिस से सभी हथियार और गोला बारूद भी छीन कर ले गए। इससे यह तथ्य रेखांकित होता है कि माओवादियों ने अपने तौर-तरीकों को तो और अधिक आधुनिक किया ही है। साथ ही आधुनिक शस्त्रास्त्रों का भंडार भी बढाया है। दूसरी ओर पुलिस पूर्णत: सुसज्ज नहीं है साथ ही पूर्णत: प्रशिक्षित भी नहीं हैं। गुप्तचर व्यवस्था के लिहाज से भी वह पर्याप्त जानकारी प्राप्त नहीं कर पाती। एक रिपोर्ट में संकेत दिया गया है कि आंध्र प्रदेश में चार शीर्ष माओवादी काडरों ने घात लगाकर हुए इस हमले की योजना बनाई थी। जिन काउंटर इन्सरजेन्सी विशेषज्ञों ने छत्तीसगढ में हुए इस नरसंहार की विश्लेषण किया है, उनके अनुसार पुलिस को भ्रमित कर मौत के घेरे में फंसाया गया था।
माओवादियों का सशस्त्र क्रांति पथ है नरसंहार। जब भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता प्राप्त की तो विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली सत्ता पर एक भी गोली नहीं दागी गई थी। महात्मा गांधी का ऐसी राह अपनाने का कारण यह था कि उनके पीछे लोगों की ताकत थी। निर्धन निरक्षर और पिछडे वर्गो का उन्हें समर्थन प्राप्त था। दरअसल समृध्दजन में से तो अधिसंख्यक व्रिटिश सत्ता के पक्ष में थे ताकि सुख सुविधाओं से भरपूर जीवन यापन कर सकें। नौकरशाही भी साम्राज्यवादी सत्ता का ही हिस्सा थी। फिर भी महात्मा गांधी विजयी हुए। यदि माओवादी निर्धन, निरक्षरों और पिछडाें का प्रतिनिधित्व करते हैं तो उन्हें यह प्रमाणित करना चाहिए। उन्हें बरगला कर अथवा बंदूक का उपयोग करके नहीं अपितु जो चुनाव होते हैं उनके माध्यम से। तब जब हर कसौटी पर ये चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र रहे। इसके लिए समझाने का रास्ता अपनाने और धैर्य तथा तर्क के बल पर लोगों को कायल करने की आवश्यकता है। माओवादियों की सोच है कि ऐसा करने की उन्हें आवश्यकता नहीं है। यही साम्राज्यवादियों की भी भाषा रही थी।
माओवादी जिस बात को नहीं समझ रहे अथवा अनुभूत नहीं कर रहे, वह यह है कि राज्य के पास उनकी अपेक्षा कहीं अधिक बंदूकें हैं। और अन्ततोगत्वा वे उनकी बंदूकों को खामोश कर सकती है। आज के शासक भले ही उन्हे पसंद नहीं हों, किंतु वे उस प्रक्रिया के माध्यम से सत्ता में आए हैं, जिसमें लोगों ने मतदान केंद्रो पर पक्तियां लगाकर अपना वोट दिया था। यदि बंदूक ही उन्हे सत्ता से हटाने का रास्ता है तो फिर शासकों द्वारा माओवादियों का दमन करने के लिए बंदूकों या अन्य उपायों का अवलंबन भी उचित मानना होगा। आज के विश्व में हिंसा की कोई सार्थकता नहीं है। क्योंकि सीमित सी हिंसा भी नितांत घातक रूप ले सकती है। भारत में जहां अनेक संकीर्ण और विघटनकारी प्रवृत्तियां हैं, हिंसा कैसा भी रूप ले सकती है। बंदूकों से आह्लादित होने वाले वर्ग या कतिपय अनेक ताकतें, जब बंदूकधारी ही निर्णायक मान लिए जाएं, सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास कर सकती हैं। भगत सिंह भी क्रांतिकारी थे। उनको भी सशस्त्र संघर्ष में भरोसा था। फिर भी उन्होंने कभी हिंसा की सीख नहीं दी। न तो उन्होंने और न ही उनके संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट आर्मी ने किसी व्यक्ति का सिर कलम किया। माओवादियाें को उनसे वहुत कुछ सीख लेने की आवश्यकता है। ब्रिटिश सत्ता ने भगत सिंह को फांसी दी थी, क्योंकि वह उनसे नहीं उनके चिंतन-दर्शन से भयभीत थी। अपने लेख 'बम का दर्शनशास्त्र' में भगत सिंह ने, जो उन्होंने 21 वर्ष की आयु में लिखा था, उन्होंने कहा था कि क्रांतिकारी अपनी आलोचना और अपने आदर्शों अथवा कृत्यों की जन कसौटी पर कसे जाने की अपेक्षा नहीं करते। वे तो इनका स्वागत करते और जो लोग वास्तव में आकांक्षा रखते हैं, उन्हें समझने-समझाने का इन्हें अवसर मानते हैं। क्रांतिकारी आंदोलन के मूलभूत सिध्दांत और उच्च एवम पावन आदर्श प्रेरणा और शक्ति संचय का चिरंतन स्त्रोत है। परंतु माओवादी तो वार्ता करने से ही भागते हैं। इन हत्याओं से वे यह नहीं बता पाते कि वे चाहते क्या हैं। माओवादी इस बारे में चिंतन और आत्म निरीक्षण, विश्लेषण कर सकते हैं कि उनकी सशस्त्र क्रांति कैसे एक विवेकपूर्ण हिंसा का रुप लेता जा रही है।
गृहमंत्री पी चिदंबरम जो कुछ करते हैं, उन सभी बातों को मैं पसंद नहीं करता। किंतु माओवादियों के मामले में वह उनके साथ वार्ता के लिए बहुत आगे तक चले गए हैं। उन्होंने उनसे हथियार डालने को नहीं कहा और न ही अपनी विचारधारा त्यागने को कहा है। उन्होंने तो सिर्फ हिंसा त्यागने भर की बात कही है। यदि वे ऐसा करते हैं तो केंद्र सरकार वार्ता की मेज पर उनसे वार्ता करेगी। इस बीच यदि सरकार उद्योगपतियों और व्यापारियों को खनिजों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संचयन से रोक देती है, जो कि आदिवासियों का धन संपदा है तो बेहतर होगा। उन्हें उन उद्यमों में भागीदार बनाया जाना चाहिए जो संसाधनों को उपयोग आने लायक बनाते हैं। माओवादी आदिवासियों की कठिनाइयों और शिकायतों का लाभ अपनी सशस्त्र क्रांति के लिए उठा रहे हैं। एक बार आदिवासी जब यह जान लेंगे कि उनका प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण है, वे माओवादियों का समर्थन करना बंद का देंगे। क्रांति के नाम पर माओवादी ऐसे सूत्रों से धन और हथियार पा रहे हैं, 'जिन पर प्रश्न चिन्ह लग सकते हैं।' वे भारतीय राज्य व्यवस्था से खिलवाड नहीं कर सकते, सरकार में चाहे कुछ भी कमजोरी क्यों नहीं हो। शासकों को चुनावों में अपदस्थ किया जा सकता है। किंतु भारत पर जो प्रहार हुए हैं, जो आघात लगे हैं, उन्हें भरा तो नहीं जा सकता। माओवादी सरकार व भारत को एक ही मानने की भूल कर रहे हैं।
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