Friday, April 16, 2010

नक्सली आतंकवादी ही हैं




एक तरफ दिल्ली में 7 फरवरी, 2010 को आंतरिक सुरक्षा पर मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह कहते हैं, ‘नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है।’ वहीं दूसरी ओर, 4 अप्रैल को पश्चिम बंगाल के नक्सलवाद प्रभावित इलाकों-लालगढ़ और मिदनापुर के दौरे पर गए हमारे गृहमंत्री पी. चिदंबरम माओवाद विरोधी अभियान में सेना को शामिल किए जाने की मांग को ठुकरा देते हैं और कहते हैं, ‘हमने माओवादियों के सामने वार्ता का ताजा प्रस्ताव रखा है।’ और इस दौरे के महज दो दिन बाद 06 अप्रैल, 2010 को नक्सली छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में बर्बर हमले कर सीआरपीएफ के 74 जवानों को घेर कर मार डालते हैं। वास्तव में नक्सलियों ने लोकतांत्रिक भारत के अस्तित्व को चुनौती दी है।

नक्सलियों को नेस्तनाबूत करने का साहस गृहमंत्री को दिखाना चाहिए तो वो अच्छी अंग्रेजी में पिलपिला बयान देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। सवाल ये है कि आखिर कब तक यह सिलसिला चलता रहेगा? कब तक गरीब, आदिवासियों, किसानों की लाशें ढेर होती रहेंगी? कब तक हमारे जवान नालायक नेताओं की वजह से नक्सली-आतंक के शिकार होते रहेंगे? कब जागेगी हमारी सरकार और कब जागेंगे हम? आख़िर कब?

पिछले चार दशकों से हमारा देश नक्सली आतंकवाद का दंश झेल रहा है। नक्सली आतंक से उपजे हालात ने आज देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी है। नक्सलियों के साथ समझौती करनेवाली कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार के शासन में उनके हौंसले बुलंद हैं। वे सुरक्षा बलों और निर्दोष लोगों के खून से न जाने कौन सी क्रांति की इबारत लिख रहे हैं? स्कूल भवनों, रेल पटरियों, सड़कों, पुलों, स्वास्थ्य केन्द्रों को बमों से उड़ाकर न जाने किस तरह के विकास का वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत कर रहे हैं।

25 मई, 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में हुए भूमि विवाद में जमींदार और किसानों के बीच संघर्ष हुआ। बंगाल पुलिस ने 11 किसानों को मौत के घाट उतार दिया। यहीं से नक्सलवाद की चिंगारी भड़की। माकपा से अलग हुए चारू मजूमदार व कानू सान्याल ने इस असंतोष का नेतृत्व किया।

21 सितंबर 2004 में पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन हुआ। माओवादियों का सैनिक संगठन ‘पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) है।’

माओवादियों से प्रभावित क्षेत्र को ‘रेड कॉरिडोर’ के नाम से जाना जाता है। यह ‘रेड कॉरिडोर’ आंध्र प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार से होते हुए नेपाल के माओवादी ठिकानों को जोड़ता है। नक्सलियों के प्रभाव क्षेत्र का बड़ा हिस्सा आदिवासी बाहुल्य है। ये ऐसे जंगलवासी हैं जो सदियों से शोषण का शिकार हैं।

नक्सली समस्या भारतीय शासन व्यवस्था की विफलता की निशानी है। आज भी आजादी के 62 साल बाद बहुसंख्यक आबादी को पीने का साफ पानी नसीब नहीं है। बेरोजगारी ने विकराल रूप धारण कर लिया है। अशिक्षा के चलते लोगों का जीवन अंधकारमय है। भूख व कुपोषण से मौतें हो रही है। जानलेवा कर्ज है। ईलाज के अभाव में लोग दम तोड़ रहे हैं। नक्सलवादी इसी स्थिति का लाभ उठाकर अपना संकीर्ण स्वार्थ साधते हैं। वे लोगों को जनता के राज का सपना दिखाकर उन्हें अपने साथ जोड़ लेते हैं।

अब युवा माओवादी विचारधारा से प्रभावित होकर क्रांतिकारी नहीं बनते। माओवादियों ने अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए बेरोजगार युवाओं को गुमराह करना शुरू कर दिया है। माओवादियों ने उनसे जुड़ने वाले हर युवा को 3 हजार रूपए प्रतिमाह तनख्वाह तथा रंगदारी से उगाही गई रकम में से भी कमीशन देने की बात कही है। इस लालच में फंस कर माओवादियों से जुड़ रहे युवाओं को लेकर गृहमंत्रालय ने चिंता जताई है।

दूसरी ओर, सर्वहारा के शासन का सपना देखनेवाले नक्सलियों के शिविर में अब बंदूक और साहित्य बरामद नहीं होते। कुछ दिनों पहले एक नक्सली Bangetudi शिविर में छापे के दौरान पुलिस ने ब्लू फिल्म की सीडी, प्रयुक्त और अप्रयुक्त कंडोम, माला डी की गोलियां और शक्तिवर्धक आयुर्वेदिक दवाएं जब्त कीं। इसके साथ ही यह रहस्योद्धाटन हुआ कि बड़ी तेजी से नक्सली एचआईवी/एड्स से पीड़ित हो रहे हैं और इसके चलते कई नक्सलियों की मौतें भी हुई हैं। नक्सलियों पर यौन शोषण का इतना भूत सवार हो रहा है कि वे नाबालिगों को भी नहीं बख्श रहे है। संगठन में शामिल युवती चाहकर भी इसके खिलाफ न आवाज उठा पा रही है और न ही अपने घर वापस लौट पा रही हैं। समूचे रेड कॉरिडोर में अनपढ़ आदिवासी महिलाओं को बिन ब्याही मां बनाया जा रहा है। वास्तव में महिलाओं का यौन शोषण और निर्दोष लोगों की हत्या ही तो नक्सली क्रांति का असली रूप है।

पिछले दिनों केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने मानवाधिकार विभाग के सम्मेलन में भरोसा दिलाया कि देश के माओवाद प्रभावित इलाकों को अगले तीन साल में नक्सलियों के चंगुल से मुक्त करा लिया जाएगा। गृह सचिव जी. के. पिल्लई ने रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) में एक जनसमूह को संबोधित करते हुए 06 मार्च 2010 को कहा कि वर्ष 2050 तक नक्सली भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। पिल्लई ने स्वीकार किया कि नक्सलवाद प्रभावित राज्यों को नक्सलियों को कुचलने की स्थिति में आने में अभी सात से 10 वर्ष लगेंगे।

केन्‍द्र सरकार नक्सली हिंसा को रोकने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं कर रही है। इसी के चलते नक्सली हिंसा में लगातार इजाफा होता जा रहा है। नक्सलवाद के खात्मे के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत हैं, जिसका संप्रग सरकार में अभाव दिखता है। कभी सरकार नक्सलवाद को आतंकवाद की श्रेणी में रखती है तो कभी बातचीत के लिए टेबल पर बुलाती हैं। सरकार का यह ढुलमुल रवैया बेहद चिंताजनक हैं।

नक्सलवाद का सिद्धान्त है ‘सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।’ नक्सलवादी ‘वर्ग शत्रुओं’ का कत्लेआम कर क्रांति लाना चाहते हैं। उनका भारतीय लोकतंत्र मे विश्वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। वे हिंसा के माध्यम से सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करना चाहते हैं।

नक्सलवाद के पक्ष में तर्क गिनाने वाले उनके समर्थक दंडकारण्य का उदाहरण देते हैं, जहां आदिवासियों का बड़े पैमाने पर शोषण हुआ। उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य क्षेत्र में नक्सलियों ने तेंदुपत्ता तोड़ाई की मजदूरी बढ़वाने के लिए अभियान चलाया। शराबबंदी को लेकर महिलाओं को लामबंद किया। नक्सल आंदोलन के चलते आदिवासियों ने हजारों एकड़ वनभूमि पर कब्जा कर लिया। नक्सलवादियों का कहना है कि उन पर पूंजीपतियों, पुलिसकर्मियों, अधिकारियों की हत्या का जो आरोप लगता है वह आत्मरक्षा में उठाया गया कदम है। उनकी हिंसा ‘टारगेटेड वाइलेंस’ है।

प्रवक्‍ता डॉट कॉम का मानना है नक्सलवाद का सामाजिक परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं है, वस्तुत: यह एक विशुद्ध आतंकवाद है, जिसका लक्ष्य येन-केन-प्रकारेण सत्ता कब्जाना है। नक्सलवाद मानवता का दुश्मन है। यह भारतीय लोकतंत्र पर काला धब्बा है। यह सिरफिरे लोगों का गिरोह है जो जनता व जवान के खून से भारत की धरती को बस लाल करना जानते हैं। सच में ये रक्तपिपासु हैं। ये राष्ट्रद्रोही हैं।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, इसलिए नक्‍सली हिंसा का रास्‍ता छोडे। वे चुनावों में भाग लेकर अपने विचारों की श्रेष्‍ठता साबित करें। वहीं केन्‍द्र सरकार हिंसक माओवादियों से बातचीत का स्‍यापा छोडे और उस पर सीधे प्रहार करें। आज जिस तरीके से देशभर में नक्सली हमले बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए केन्द्र और राज्य में समन्वय स्‍थापित करे। पुलिस संख्या बल में इजाफा हो। सुरक्षा बलों को बेहतर प्रशिक्षण मिले। अत्याधुनिक हथियार मिले। वास्तव में अब सख्त कार्रवाई का वक्त आ गया है। इसके साथ ही आम जनता को भी एकजुट होकर नक्सली आतंकवाद के खात्मे के लिए जन-अभियान चलाना चाहिए।

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