ललित सुरजन
प्रधान संपादक, देशबंधु, रायपुर
इस समय देश की सबसे बडी चिंता शायद यही है कि नक्सल समस्या का समाधान कैसे हो। गत पांच वर्षों के दौरान खासकर छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का जो क्रूर स्वरूप सामने आया है वह अकल्पनीय था। हम नक्सलवाद को उसके उदयकाल याने 1967 से देखते आए हैं। अविभाजित म.प्र. में आदिवासियों की हितरक्षा के प्रश्न अपने प्रारंभिक दिनों में जब नक्सलवादियों ने उठाए तो एक बहुत बड़े वर्ग का यह मानना था कि वे एक जरूरी काम कर रहे हैं। उन दिनों उनके संघर्ष सरकार के सशस्त्र बलों के साथ हुआ करते थे तथा आधी रात को वे निहत्थे आदिवासियों पर हमला नहीं किया करते थे। 'देशबन्धु' देश का पहला समाचार पत्र था जिसने उस समय नक्सलियों के गुप्त ठिकानों तक पहुंचकर उनसे बातचीत की थी। तब ऐसे किस्से भी सुनने में आते थे कि किसी गांव में नक्सलियों ने तहसीलदार को लूटकर उससे रिश्वत के पैसे छीन लिए लेकिन वेतन की राशि वापिस कर दी। उन्हीं दिनों में अनेक तेंदूपत्ता व्यापारी भी मजे के साथ बतलाते थे कि उन्होंने 'दादा' लोगों को चंदा दिया; उनके द्वारा निर्धारित दर पर तुड़ाई का पैसा भी आदिवासियों को दिया और इस तरह अपना काम भी बना लिया।
ये सब पुरानी बातें हो गईं। आज नक्सलवाद जिस रूप में सामने है वह वैचारिक रूप से रत्तीभर भी आश्वस्त नहीं करता, बल्कि आतंक की छाया गहराती जा रही है। फिर भी यह तो सोचना ही होगा कि समाधान कैसे निकले। बड़ी-बड़ी बातें करने से कोई समस्या हल नहीं होती। धीरज और जतन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जनता को, उसके सामने जो भी खबरें आ रही हैं उनका तर्कसंगत विश्लेषण करने की जरूरत है। जब सूचनाओें का अंबार लगा हो तो उसमें सत्य और तथ्य घास के ढेर में सुई की तरह छुप जाते हैं। सुई को बाहर निकालना है याने सही निष्कर्ष तक पहुंचना है तो यह काम आनन-फानन में नहीं हो सकता। आज यह तय करना कठिन है कि किस पर विश्वास करें: टीवी पर चल रही बहसों पर, अखबारों में छपे लेखों पर, नेताओं के बयानों पर या सामाजिक कार्यकर्ताओं के वक्तव्यों पर। इस बात का परीक्षण कुछ उदाहरणों से किया जा सकता है।
'द स्टेट्समेन' भारत का एक प्रमुख अखबार है। इसे सामान्य तौर पर पूंजी समर्थक पत्र माना जाता है। पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार का लगातार विरोध यह पत्र करते आया है, लेकिन इसी अखबार ने पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदम्बरम पर गंभीर आरोप लगाते हुए उनके इस्तीफे की मांग की। एक तरफ भाजपा के प्रवक्ता चिदम्बरम की प्रशंसा करते हैं, उनसे इस्तीफा न देने की अपील करते हैं व उनकी योग्यता में अपना विश्वास प्रकट करते हैं; दूसरी तरफ एक अखबार कहता है कि पी. चिदम्बरम को पद छोड़ देना चाहिए। 'द स्टेट्समेन' के वरिष्ठ पत्रकार सैम राजप्पा लिखते हैं कि 'जिस दिन नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए गृहमंत्री ने इस्तीफा दिया था प्रधानमंत्री को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए था।' राजप्पा कहते हैं कि श्री चिदम्बरम के वेदांता समूह के साथ गहरे रिश्ते रहे हैं। वे इस कंपनी के संचालक मंडल के सदस्य भी रहे हैं। अत: वे नक्सलवाद के खिलाफ जो कठोर रुख अपनाए हुए हैं उसके पीछे वेदांता समूह के आर्थिक हित याने आदिवासी अंचल में बेरोकटोक माइनिंग कार्य आदि हो सकते हैं। श्री राजप्पा श्री चिदम्बरम पर यह आरोप भी लगाते हैं कि वेदांता से केन्द्रीय उत्पाद शुल्क की ढाई सौ करोड़ की राशि वसूल करने में उन्होंने कोताही बरती।
इसी लेख में राजप्पा रोहित पोद्दार की किताब 'वेदांताज बिलियन्स' का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि यह पुस्तक भारत में बिकने के लिए प्रतिबंधित है। जब एक जिम्मेदार पत्रकार इस तरह के आरोप लगाए और एक विश्वसनीय समाचार पत्र उन्हें छापे तो यह शंका होना लाजिमी है कि श्री चिदम्बरम का असली मंतव्य क्या है। क्या वे सचमुच एक 'नो नॉन्सेंस' गृहमंत्री हैं, या उन्होंने किन्हीं निहित स्वार्थों के लिए एक आवरण धारण किया हुआ है। इस आशंका के घेरे में फिर भारतीय जनता पार्टी भी आ जाती है कि गृहमंत्री की हिमायत करने के पीछे उसके असली इरादे क्या हैं। क्या दोनों मिलकर कुछेक कार्पोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए यह सब कुछ कर रहे हैं। और क्या स्वयं नक्सलियों को इससे कोई लाभ नहीं पहुंच रहा है?
जिस दिन यह लेख मेरे देखने में आया, उसी दिन सलवा जुड़ूम के प्रणेता महेन्द्र कर्मा का भी एक बयान प्रकाशित हुआ। वे इस बयान में क्या कहना चाहते थे, यह मुझे ठीक से समझ नहीं आया। इसे मेरी कमअक्ली मान लीजिए। जितना समझ में आया वह यह कि श्री कर्मा राष्ट्रीय स्तर पर बहस करने और राष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति कायम करने की इच्छा रखते हैं। वे गांधी के देश में लोक अभियानों के माध्यम से नए विकल्पों पर बहस करवाना चाहते हैं। उन्हें अहिंसात्मक सत्याग्रह ब्रह्मास्त्र प्रतीत होता है। जो कुछ भी हो, श्री कर्मा ने स्वयं इस बारे में अब तक क्या किया है? कुछ समय पहले तक तो उन्हें विधानसभा के गोपनीय सत्र में अपनी बात रखना ही श्रेष्ठ विकल्प प्रतीत होता था। वे आम सहमति बनाना चाहते हैं, अच्छी बात है। भाजपा की तरफ उन्होंने दोस्ती का हाथ भी शायद इसीलिए बढ़ाया था, लेकिन आम जनता की याद उन्हें शायद चुनाव हारने के बाद ही आई। वे अब गांधीवाद के भीतर उत्तर ढूंढ रहे हैं, लेकिन ये वही कर्मा हैं जिन्हें छठवीं अनुसूची लागू करने से घोर एतराज है और जो पांचवी अनुसूची याने 'पेसा' कानून लागू है उस पर ठीक से अमल करने में अब तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। अंत में मैं पाठकों का ध्यान रायपुर के दो अखबारों में 20 अप्रैल को एक प्रकाशित समाचार की ओर भी आकर्षित करना चाहता हूं। उस दिन दैनिक हरिभूमि में एक फोटो के साथ खबर छापी कि 76 शहीदों को श्रध्दांजलि देने के लिए 'उमड़ पड़ा जन सैलाब'। रायपुर की किसी संस्था ने 19 तारीख की शाम संभवत: किसी श्रध्दांजलि सभा का आयोजन किया था जिसकी यह खबर थी। लेकिन उसी दिन नई दुनिया ने कुछ ज्यादा विस्तार के साथ खबर छापी- 'नहीं उमड़ा जन सैलाब'। उन्होंने जानकारी दी कि कुछ गिने-चुने लोग ही श्रध्दांजलि देने पहुंचे। सवाल यह है कि पाठक किस खबर को सच मानें। अगर एक छोटी सी स्थानीय घटना की रिपोर्टिंग में इतना भरम है तो बड़े व पेंचदार मुद्दों पर क्या नहीं होता होगा! साफ पता चलता है कि सिर्फ राजनेता ही नहीं, निहित स्वार्थ वाले बहुत से लोग नक्सलवाद के मुद्दे पर आम जनता को अपने-अपने तरीके से भरमाने में लगे हैं। इसे समझिए और भावावेश में कोई निष्कर्ष निकालने से बचिए।
lalitsurjan@gmail.com
प्रधान संपादक, देशबंधु, रायपुर
इस समय देश की सबसे बडी चिंता शायद यही है कि नक्सल समस्या का समाधान कैसे हो। गत पांच वर्षों के दौरान खासकर छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का जो क्रूर स्वरूप सामने आया है वह अकल्पनीय था। हम नक्सलवाद को उसके उदयकाल याने 1967 से देखते आए हैं। अविभाजित म.प्र. में आदिवासियों की हितरक्षा के प्रश्न अपने प्रारंभिक दिनों में जब नक्सलवादियों ने उठाए तो एक बहुत बड़े वर्ग का यह मानना था कि वे एक जरूरी काम कर रहे हैं। उन दिनों उनके संघर्ष सरकार के सशस्त्र बलों के साथ हुआ करते थे तथा आधी रात को वे निहत्थे आदिवासियों पर हमला नहीं किया करते थे। 'देशबन्धु' देश का पहला समाचार पत्र था जिसने उस समय नक्सलियों के गुप्त ठिकानों तक पहुंचकर उनसे बातचीत की थी। तब ऐसे किस्से भी सुनने में आते थे कि किसी गांव में नक्सलियों ने तहसीलदार को लूटकर उससे रिश्वत के पैसे छीन लिए लेकिन वेतन की राशि वापिस कर दी। उन्हीं दिनों में अनेक तेंदूपत्ता व्यापारी भी मजे के साथ बतलाते थे कि उन्होंने 'दादा' लोगों को चंदा दिया; उनके द्वारा निर्धारित दर पर तुड़ाई का पैसा भी आदिवासियों को दिया और इस तरह अपना काम भी बना लिया।
ये सब पुरानी बातें हो गईं। आज नक्सलवाद जिस रूप में सामने है वह वैचारिक रूप से रत्तीभर भी आश्वस्त नहीं करता, बल्कि आतंक की छाया गहराती जा रही है। फिर भी यह तो सोचना ही होगा कि समाधान कैसे निकले। बड़ी-बड़ी बातें करने से कोई समस्या हल नहीं होती। धीरज और जतन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जनता को, उसके सामने जो भी खबरें आ रही हैं उनका तर्कसंगत विश्लेषण करने की जरूरत है। जब सूचनाओें का अंबार लगा हो तो उसमें सत्य और तथ्य घास के ढेर में सुई की तरह छुप जाते हैं। सुई को बाहर निकालना है याने सही निष्कर्ष तक पहुंचना है तो यह काम आनन-फानन में नहीं हो सकता। आज यह तय करना कठिन है कि किस पर विश्वास करें: टीवी पर चल रही बहसों पर, अखबारों में छपे लेखों पर, नेताओं के बयानों पर या सामाजिक कार्यकर्ताओं के वक्तव्यों पर। इस बात का परीक्षण कुछ उदाहरणों से किया जा सकता है।
'द स्टेट्समेन' भारत का एक प्रमुख अखबार है। इसे सामान्य तौर पर पूंजी समर्थक पत्र माना जाता है। पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार का लगातार विरोध यह पत्र करते आया है, लेकिन इसी अखबार ने पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदम्बरम पर गंभीर आरोप लगाते हुए उनके इस्तीफे की मांग की। एक तरफ भाजपा के प्रवक्ता चिदम्बरम की प्रशंसा करते हैं, उनसे इस्तीफा न देने की अपील करते हैं व उनकी योग्यता में अपना विश्वास प्रकट करते हैं; दूसरी तरफ एक अखबार कहता है कि पी. चिदम्बरम को पद छोड़ देना चाहिए। 'द स्टेट्समेन' के वरिष्ठ पत्रकार सैम राजप्पा लिखते हैं कि 'जिस दिन नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए गृहमंत्री ने इस्तीफा दिया था प्रधानमंत्री को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए था।' राजप्पा कहते हैं कि श्री चिदम्बरम के वेदांता समूह के साथ गहरे रिश्ते रहे हैं। वे इस कंपनी के संचालक मंडल के सदस्य भी रहे हैं। अत: वे नक्सलवाद के खिलाफ जो कठोर रुख अपनाए हुए हैं उसके पीछे वेदांता समूह के आर्थिक हित याने आदिवासी अंचल में बेरोकटोक माइनिंग कार्य आदि हो सकते हैं। श्री राजप्पा श्री चिदम्बरम पर यह आरोप भी लगाते हैं कि वेदांता से केन्द्रीय उत्पाद शुल्क की ढाई सौ करोड़ की राशि वसूल करने में उन्होंने कोताही बरती।
इसी लेख में राजप्पा रोहित पोद्दार की किताब 'वेदांताज बिलियन्स' का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि यह पुस्तक भारत में बिकने के लिए प्रतिबंधित है। जब एक जिम्मेदार पत्रकार इस तरह के आरोप लगाए और एक विश्वसनीय समाचार पत्र उन्हें छापे तो यह शंका होना लाजिमी है कि श्री चिदम्बरम का असली मंतव्य क्या है। क्या वे सचमुच एक 'नो नॉन्सेंस' गृहमंत्री हैं, या उन्होंने किन्हीं निहित स्वार्थों के लिए एक आवरण धारण किया हुआ है। इस आशंका के घेरे में फिर भारतीय जनता पार्टी भी आ जाती है कि गृहमंत्री की हिमायत करने के पीछे उसके असली इरादे क्या हैं। क्या दोनों मिलकर कुछेक कार्पोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए यह सब कुछ कर रहे हैं। और क्या स्वयं नक्सलियों को इससे कोई लाभ नहीं पहुंच रहा है?
जिस दिन यह लेख मेरे देखने में आया, उसी दिन सलवा जुड़ूम के प्रणेता महेन्द्र कर्मा का भी एक बयान प्रकाशित हुआ। वे इस बयान में क्या कहना चाहते थे, यह मुझे ठीक से समझ नहीं आया। इसे मेरी कमअक्ली मान लीजिए। जितना समझ में आया वह यह कि श्री कर्मा राष्ट्रीय स्तर पर बहस करने और राष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति कायम करने की इच्छा रखते हैं। वे गांधी के देश में लोक अभियानों के माध्यम से नए विकल्पों पर बहस करवाना चाहते हैं। उन्हें अहिंसात्मक सत्याग्रह ब्रह्मास्त्र प्रतीत होता है। जो कुछ भी हो, श्री कर्मा ने स्वयं इस बारे में अब तक क्या किया है? कुछ समय पहले तक तो उन्हें विधानसभा के गोपनीय सत्र में अपनी बात रखना ही श्रेष्ठ विकल्प प्रतीत होता था। वे आम सहमति बनाना चाहते हैं, अच्छी बात है। भाजपा की तरफ उन्होंने दोस्ती का हाथ भी शायद इसीलिए बढ़ाया था, लेकिन आम जनता की याद उन्हें शायद चुनाव हारने के बाद ही आई। वे अब गांधीवाद के भीतर उत्तर ढूंढ रहे हैं, लेकिन ये वही कर्मा हैं जिन्हें छठवीं अनुसूची लागू करने से घोर एतराज है और जो पांचवी अनुसूची याने 'पेसा' कानून लागू है उस पर ठीक से अमल करने में अब तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। अंत में मैं पाठकों का ध्यान रायपुर के दो अखबारों में 20 अप्रैल को एक प्रकाशित समाचार की ओर भी आकर्षित करना चाहता हूं। उस दिन दैनिक हरिभूमि में एक फोटो के साथ खबर छापी कि 76 शहीदों को श्रध्दांजलि देने के लिए 'उमड़ पड़ा जन सैलाब'। रायपुर की किसी संस्था ने 19 तारीख की शाम संभवत: किसी श्रध्दांजलि सभा का आयोजन किया था जिसकी यह खबर थी। लेकिन उसी दिन नई दुनिया ने कुछ ज्यादा विस्तार के साथ खबर छापी- 'नहीं उमड़ा जन सैलाब'। उन्होंने जानकारी दी कि कुछ गिने-चुने लोग ही श्रध्दांजलि देने पहुंचे। सवाल यह है कि पाठक किस खबर को सच मानें। अगर एक छोटी सी स्थानीय घटना की रिपोर्टिंग में इतना भरम है तो बड़े व पेंचदार मुद्दों पर क्या नहीं होता होगा! साफ पता चलता है कि सिर्फ राजनेता ही नहीं, निहित स्वार्थ वाले बहुत से लोग नक्सलवाद के मुद्दे पर आम जनता को अपने-अपने तरीके से भरमाने में लगे हैं। इसे समझिए और भावावेश में कोई निष्कर्ष निकालने से बचिए।
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