प्रफुल्ल बिदवई
हजारों साल तक विश्व के अधिकतर लोग तानाशाह शहंशाहों, बादशाहों और शहजादों की रियाया बन कर रहते रहे। अभी पिछली सदी में ही कहीं जाकर बहुत से लोग नागरिक बन पाए जिनके कुछ राजनीतिक अधिकार थे। इतिहास के ज्यादातर हिस्से में कोई कानून का शासन नहीं था। राजा की मर्जी ही चलती थी। अभी हाल ही तक वास्तविक सशस्त्र सेनाओं और पुलिस के बीच कोई भेद नहीं था। सिपाही संदिग्ध अपराधियों को गिरफ्तार करके न्यायिक जांच केलिए न्यायाधीशों के सामने ले आते थे, जो बादशाह से स्वतंत्र नहीं होते थे। सेना और पुलिस के बीच का फर्क आधुनिक युग में ही पैदा हुआ।
भारत में यह फर्क उपनिवेशीय काल में ही साफ तौर पर कायम हो गया था। लेकिन आजादी के बाद इसके मजबूत हो पाने से पहले ही नई परासैनिक इकाइयां उभर कर सामने आईं। पुनर्गठित केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और उसकी राज्यस्तरीय किस्म की इकाइयां-सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बती सीमा पुलिस, रैपिड एक्शन फोर्स, राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड आदि। परासैनिक बल भारत के सुरक्षा, पुलिस अमले का सबसे तेजी से बढता हुआ घटक हैं।
फिर भी परासैनिक बलों और सशस्त्र सेनाओं के बीच एक स्पष्ट, स्वस्थ सीमा रेखा कायम हो चुकी है। परासैनिक बल गृहमंत्रालय को रिपोर्ट करते हैं जबकि सशस्त्र सेनाएं रक्षा मंत्रालय को रिपोर्ट करती हैं। परासैनिक बल आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने का काम करते हैं, जबकि सशस्त्र सेनाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे बाहरी खतरों से निबटें। इस फर्क के चलते यह एक मजबूत आम राय रही है कि परासैनिक बल 'संस्कृति, प्रकृति और प्रशिक्षण के लिहाज से गैर सैनिक ही हों। रक्षा सेनाओं के बरअक्स ,उनका मकसद मुखालिफों को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पंहुचाना नहीं, बल्कि उन्हें सिर्फ नियंत्रण में रखना होता है, ताकि उनपर सामान्य, दीवानी और फौजदारी कानूनों के अंतर्गत मुकदमा चलाया जा सके। आज कानून का शासन और परासैनिक बलों तथा सशस्त्र सेनाओं के बीच का फर्क दोनों ही खतरे में पड ग़ए हैं। सुरक्षा कट्टरपंथियों और आत्मघोषित विद्रोह विशेषज्ञों की ओर से कानून के शासन को ताक पर रखने और परासैनिक बलों की संस्कृति को बदलकर और उनके प्रशिक्षण और बल प्रयोग के स्तर को बढा कर उनका सैन्यीकरण करने के लिए दबाव डाला जा रहा है। छत्तीसगढ क़े दांतेवाडा जिला में केंद्रीय सुरक्षा बल की कंपनी पर माओवादियों के हमले ने, जिसमें 76 परासैनिक कर्मी मारे गए थे, जिस बहस को जन्म दिया है उसके जहरीले प्रभावों में से एक है महादबाव। नक्सलवाद या माओवाद को एक विद्रोह परिभाषित करने के किए कर्कश आवाजें उठाई जा रही हैं ठीक कश्मीर और उत्तरपूर्व में सैन्यवादी अलगाव वाद की तरह और इस प्रकार ऑपरेशन ग्रीन हंट में तैनात परासैनिक बलों की भूमिका को साफ तौर पर सेना की भूमिका का रूप दिया जा सके। जिस सनसनीखेज अंदाज में इन हत्याओं को मीडिया ने युध्द, कत्लेआम और निर्मम हत्या बताया दांतेवाडा बहस को शक्ल देने में उसका बहुत बडा हाथ था। टीवी ऐंकरों ने जनता को एक तरफ भारतीय राज्य, लोकतंत्र और तिरंगे और दूसरी तरफ विनाश, अराजकता और हिंसा के बलों के बीच किसी एक को चुनने के लिए प्रबोधित किया। नक्सलवाद, चरमपंथ और आतंकवाद को एक कोटि में रख दिया गया। बंदूकधारी माओवादियों, आदिवासियों के लिए न्याय के समर्थकों, नागरिक स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं, यहां तक कि गांधीवादियों के बीच का सारा भेदभाव मिटा कर रख दिया गया। यदि आप भारतीय राज्य के साथ नहीं हैं, तो आप माओवादियों के साथ हैं-उनके सहअपराधियों और सहयोगियों की तरह।
उन्मादपूर्ण संदेश यह दिया जा रहा था '' गोली पहले चलाओ, सोचो बाद में'' इस हत्या की घटना को लेकर गृह मंत्री पी चिदम्बरम से लेकर राज्य के पुलिस निदेशकाें तक के शीर्ष सरकारी पदधारियों की प्रतिक्रिया एक जैसी थी। दांतेवाडा की घटना एक ऐतिहासिक मोड अौर चरम पंथियों की ओर से, जो राज्य को नष्ट करना चाहते हैं, की गई एक युध्द की कार्रवाई है। राज्य को इसका जवाब बल की परिधि और उसका स्तर बढाकर देना चाहिए। चिदम्बरम ने यह धमकी दे डाली कि राज्य माओवादियों के खिलाफ हवाई ताकत के इस्तेमाल पर विचार कर सकती है, जिसके बारे में अब तक कोई जनादेश नहीं है। माओवादियों के साथ बातचीत की अब कोई संभावना नहीं रह गई है क्योंकि वैसा करके 76 जवानों की शहादत का मजाक उडाना होगा। स्पष्ट बात यह है कि काफी बेरोजगार और गरीब भारतीय परासैनिक बलों में भर्ती होने को तैयार हैं। इन बलों के आका, उन्हें पर्याप्त नेतृत्व, प्रशिक्षण और अनुशासन के बिना ही क्षेत्र में भेज देंगे। दांतेवाडा में उन्होंने अपने शिविर की रखवाली करने की मानक कार्यविधि तक का पालन नहीं किया और उन्होंने लौटते समय वही रास्ता भी नहीं अपनाया, जिस रास्ते से वे गए थे। हमारे परासैनिक बलों में सामान्य साक्षरता, कुशलता और बुनियादी निपुणता की कमी के चलते जो कि संभवत: नियमित पुलिस की तुलना में जरा सी बेहतर होती है- यह मान पाना मुश्किल है कि वे थोडी सी अवधि में एकदम बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगे, या यह कि उनका नेतृत्व उन्हें तोप के निवाले के तौर पर इस्तेमाल करना बंद कर देगा।
ये सब बातें राज्य की सदोषता को हमारे सामने लाती हैं। और यह सदोषता गंभीर किस्म की है। वनों, खनिजों और भूमि की विशाल संपदा के निजीकरण की नवउदारवादी नीति को कार्यान्वित करने के प्रयास में उसने आदिवासी क्षेत्रों में गृहयुध्द छेड दिया है। वेदांत, पास्को, जिंदल और टाटा जैसे ग्रुपों के साथ उसने खनन के पट्टों के सैकडाें समझौता ज्ञापनों पर दस्तखत किए हैं जिनसे जनता को लोहे की कच्ची धातु के प्रतिटन के लिए मात्र 27 रुपए की अल्प रायल्टी मिलती है, जबकि यह धातु 4000 रुपए प्रतिटन के हिसाब से बिकती है। समझौता ज्ञापनों को कार्यान्वित करने के लिए राज्य ने लाखों बेबस लोगों को बेघर कर दिया है। इससे पर्यावरण नष्ट हो रहा है, जिसमें नदियां, पर्वत और वन शामिल हैं। इन नवउदारवादी नीतियों को मिलीभगत की व्यवस्थाओं के जरिए कार्यान्वित किया जा रहा है, जिनमें हितों का जबरदस्त टकराव होता है। राज्य के उच्च पदधारी, जिनमें पी चिदम्बरम भी शामिल हैं, इन कंपनियों के निदेशक रहे हैं, या उन्होंने उनका कानूनी प्रतिनिधित्व किया है। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी इन कंपनियों में अपने शेयर होने की बात स्वीकार की है लेकिन उन्होंने इन कंपनियों के खिलाफ मामलों की सुनवाई करने से इंकार नहीं किया। नवउदारवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू और पूर्व शर्त है उन लोगों के खिलाफ जोरजबरदस्ती, जिन्होंने बेघर होने और अपनी जायदाद से बेदखल किए जाने का विरोध किया है जिसके लिए राज्य ढांचागत हिंसा का इस्तेमाल करता है। ग्रीनहंट ऑपरेशन में तेजी लाने से आदिवासी क्षेत्रों में निर्दोष नागरिकों को जबरदस्त क्षति पहुंचेगी। पुलिस और परासैनिक बलोें और सलवाजुडूम की निरंतर हिंसा के कारण तीन लाख आदिवासी बेघर हो चुके हैं। इस सहायक सेना को राज्य द्वारा प्रायोजित और हथियारबंद किया गया है और उसका सारा खर्चा भी राज्य सरकार उठाती है।
इस घटना को लेकर तीन सवाल उठते हैं। क्या माओवादियों के दांतेवाडा हमले को जरा भी जायज ठहराया जा सकता है? क्या 60,000 से भी ज्यादा ग्रीनहंट परासैनिकों की मदद से माओवादियों के खिलाफ जबरदस्त बल का प्रयोग करना राज्य का सही कदम है? इसमें अनिवार्य रूप से असंख्य नागरिक हताहत होंगे। क्या माओवादियों से निपटने की कोई समझदार रणनीति हो सकती है?
बडे पैमाने पर हिंसा की और वहशियाना कार्रवाईयों द्वारा माओवादी, जो पिछड़ों की रक्षा करने और एक न्यायपूर्ण समाज का समर्थक होने का दम भरते हैं, अपने लिए कोई श्रेय अर्जित नहीं कर पाएंगे। इन कार्रवाइयों से तो उन्हीं आदिवासियों के खिलाफ जिनकी रक्षा करने का वे दावा करते हैं, जबरदस्त जवाबी कार्रवाई करने की संभावना पैदा हो जाएगी।
हजारों साल तक विश्व के अधिकतर लोग तानाशाह शहंशाहों, बादशाहों और शहजादों की रियाया बन कर रहते रहे। अभी पिछली सदी में ही कहीं जाकर बहुत से लोग नागरिक बन पाए जिनके कुछ राजनीतिक अधिकार थे। इतिहास के ज्यादातर हिस्से में कोई कानून का शासन नहीं था। राजा की मर्जी ही चलती थी। अभी हाल ही तक वास्तविक सशस्त्र सेनाओं और पुलिस के बीच कोई भेद नहीं था। सिपाही संदिग्ध अपराधियों को गिरफ्तार करके न्यायिक जांच केलिए न्यायाधीशों के सामने ले आते थे, जो बादशाह से स्वतंत्र नहीं होते थे। सेना और पुलिस के बीच का फर्क आधुनिक युग में ही पैदा हुआ।
भारत में यह फर्क उपनिवेशीय काल में ही साफ तौर पर कायम हो गया था। लेकिन आजादी के बाद इसके मजबूत हो पाने से पहले ही नई परासैनिक इकाइयां उभर कर सामने आईं। पुनर्गठित केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और उसकी राज्यस्तरीय किस्म की इकाइयां-सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बती सीमा पुलिस, रैपिड एक्शन फोर्स, राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड आदि। परासैनिक बल भारत के सुरक्षा, पुलिस अमले का सबसे तेजी से बढता हुआ घटक हैं।
फिर भी परासैनिक बलों और सशस्त्र सेनाओं के बीच एक स्पष्ट, स्वस्थ सीमा रेखा कायम हो चुकी है। परासैनिक बल गृहमंत्रालय को रिपोर्ट करते हैं जबकि सशस्त्र सेनाएं रक्षा मंत्रालय को रिपोर्ट करती हैं। परासैनिक बल आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने का काम करते हैं, जबकि सशस्त्र सेनाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे बाहरी खतरों से निबटें। इस फर्क के चलते यह एक मजबूत आम राय रही है कि परासैनिक बल 'संस्कृति, प्रकृति और प्रशिक्षण के लिहाज से गैर सैनिक ही हों। रक्षा सेनाओं के बरअक्स ,उनका मकसद मुखालिफों को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पंहुचाना नहीं, बल्कि उन्हें सिर्फ नियंत्रण में रखना होता है, ताकि उनपर सामान्य, दीवानी और फौजदारी कानूनों के अंतर्गत मुकदमा चलाया जा सके। आज कानून का शासन और परासैनिक बलों तथा सशस्त्र सेनाओं के बीच का फर्क दोनों ही खतरे में पड ग़ए हैं। सुरक्षा कट्टरपंथियों और आत्मघोषित विद्रोह विशेषज्ञों की ओर से कानून के शासन को ताक पर रखने और परासैनिक बलों की संस्कृति को बदलकर और उनके प्रशिक्षण और बल प्रयोग के स्तर को बढा कर उनका सैन्यीकरण करने के लिए दबाव डाला जा रहा है। छत्तीसगढ क़े दांतेवाडा जिला में केंद्रीय सुरक्षा बल की कंपनी पर माओवादियों के हमले ने, जिसमें 76 परासैनिक कर्मी मारे गए थे, जिस बहस को जन्म दिया है उसके जहरीले प्रभावों में से एक है महादबाव। नक्सलवाद या माओवाद को एक विद्रोह परिभाषित करने के किए कर्कश आवाजें उठाई जा रही हैं ठीक कश्मीर और उत्तरपूर्व में सैन्यवादी अलगाव वाद की तरह और इस प्रकार ऑपरेशन ग्रीन हंट में तैनात परासैनिक बलों की भूमिका को साफ तौर पर सेना की भूमिका का रूप दिया जा सके। जिस सनसनीखेज अंदाज में इन हत्याओं को मीडिया ने युध्द, कत्लेआम और निर्मम हत्या बताया दांतेवाडा बहस को शक्ल देने में उसका बहुत बडा हाथ था। टीवी ऐंकरों ने जनता को एक तरफ भारतीय राज्य, लोकतंत्र और तिरंगे और दूसरी तरफ विनाश, अराजकता और हिंसा के बलों के बीच किसी एक को चुनने के लिए प्रबोधित किया। नक्सलवाद, चरमपंथ और आतंकवाद को एक कोटि में रख दिया गया। बंदूकधारी माओवादियों, आदिवासियों के लिए न्याय के समर्थकों, नागरिक स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं, यहां तक कि गांधीवादियों के बीच का सारा भेदभाव मिटा कर रख दिया गया। यदि आप भारतीय राज्य के साथ नहीं हैं, तो आप माओवादियों के साथ हैं-उनके सहअपराधियों और सहयोगियों की तरह।
उन्मादपूर्ण संदेश यह दिया जा रहा था '' गोली पहले चलाओ, सोचो बाद में'' इस हत्या की घटना को लेकर गृह मंत्री पी चिदम्बरम से लेकर राज्य के पुलिस निदेशकाें तक के शीर्ष सरकारी पदधारियों की प्रतिक्रिया एक जैसी थी। दांतेवाडा की घटना एक ऐतिहासिक मोड अौर चरम पंथियों की ओर से, जो राज्य को नष्ट करना चाहते हैं, की गई एक युध्द की कार्रवाई है। राज्य को इसका जवाब बल की परिधि और उसका स्तर बढाकर देना चाहिए। चिदम्बरम ने यह धमकी दे डाली कि राज्य माओवादियों के खिलाफ हवाई ताकत के इस्तेमाल पर विचार कर सकती है, जिसके बारे में अब तक कोई जनादेश नहीं है। माओवादियों के साथ बातचीत की अब कोई संभावना नहीं रह गई है क्योंकि वैसा करके 76 जवानों की शहादत का मजाक उडाना होगा। स्पष्ट बात यह है कि काफी बेरोजगार और गरीब भारतीय परासैनिक बलों में भर्ती होने को तैयार हैं। इन बलों के आका, उन्हें पर्याप्त नेतृत्व, प्रशिक्षण और अनुशासन के बिना ही क्षेत्र में भेज देंगे। दांतेवाडा में उन्होंने अपने शिविर की रखवाली करने की मानक कार्यविधि तक का पालन नहीं किया और उन्होंने लौटते समय वही रास्ता भी नहीं अपनाया, जिस रास्ते से वे गए थे। हमारे परासैनिक बलों में सामान्य साक्षरता, कुशलता और बुनियादी निपुणता की कमी के चलते जो कि संभवत: नियमित पुलिस की तुलना में जरा सी बेहतर होती है- यह मान पाना मुश्किल है कि वे थोडी सी अवधि में एकदम बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगे, या यह कि उनका नेतृत्व उन्हें तोप के निवाले के तौर पर इस्तेमाल करना बंद कर देगा।
ये सब बातें राज्य की सदोषता को हमारे सामने लाती हैं। और यह सदोषता गंभीर किस्म की है। वनों, खनिजों और भूमि की विशाल संपदा के निजीकरण की नवउदारवादी नीति को कार्यान्वित करने के प्रयास में उसने आदिवासी क्षेत्रों में गृहयुध्द छेड दिया है। वेदांत, पास्को, जिंदल और टाटा जैसे ग्रुपों के साथ उसने खनन के पट्टों के सैकडाें समझौता ज्ञापनों पर दस्तखत किए हैं जिनसे जनता को लोहे की कच्ची धातु के प्रतिटन के लिए मात्र 27 रुपए की अल्प रायल्टी मिलती है, जबकि यह धातु 4000 रुपए प्रतिटन के हिसाब से बिकती है। समझौता ज्ञापनों को कार्यान्वित करने के लिए राज्य ने लाखों बेबस लोगों को बेघर कर दिया है। इससे पर्यावरण नष्ट हो रहा है, जिसमें नदियां, पर्वत और वन शामिल हैं। इन नवउदारवादी नीतियों को मिलीभगत की व्यवस्थाओं के जरिए कार्यान्वित किया जा रहा है, जिनमें हितों का जबरदस्त टकराव होता है। राज्य के उच्च पदधारी, जिनमें पी चिदम्बरम भी शामिल हैं, इन कंपनियों के निदेशक रहे हैं, या उन्होंने उनका कानूनी प्रतिनिधित्व किया है। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी इन कंपनियों में अपने शेयर होने की बात स्वीकार की है लेकिन उन्होंने इन कंपनियों के खिलाफ मामलों की सुनवाई करने से इंकार नहीं किया। नवउदारवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू और पूर्व शर्त है उन लोगों के खिलाफ जोरजबरदस्ती, जिन्होंने बेघर होने और अपनी जायदाद से बेदखल किए जाने का विरोध किया है जिसके लिए राज्य ढांचागत हिंसा का इस्तेमाल करता है। ग्रीनहंट ऑपरेशन में तेजी लाने से आदिवासी क्षेत्रों में निर्दोष नागरिकों को जबरदस्त क्षति पहुंचेगी। पुलिस और परासैनिक बलोें और सलवाजुडूम की निरंतर हिंसा के कारण तीन लाख आदिवासी बेघर हो चुके हैं। इस सहायक सेना को राज्य द्वारा प्रायोजित और हथियारबंद किया गया है और उसका सारा खर्चा भी राज्य सरकार उठाती है।
इस घटना को लेकर तीन सवाल उठते हैं। क्या माओवादियों के दांतेवाडा हमले को जरा भी जायज ठहराया जा सकता है? क्या 60,000 से भी ज्यादा ग्रीनहंट परासैनिकों की मदद से माओवादियों के खिलाफ जबरदस्त बल का प्रयोग करना राज्य का सही कदम है? इसमें अनिवार्य रूप से असंख्य नागरिक हताहत होंगे। क्या माओवादियों से निपटने की कोई समझदार रणनीति हो सकती है?
बडे पैमाने पर हिंसा की और वहशियाना कार्रवाईयों द्वारा माओवादी, जो पिछड़ों की रक्षा करने और एक न्यायपूर्ण समाज का समर्थक होने का दम भरते हैं, अपने लिए कोई श्रेय अर्जित नहीं कर पाएंगे। इन कार्रवाइयों से तो उन्हीं आदिवासियों के खिलाफ जिनकी रक्षा करने का वे दावा करते हैं, जबरदस्त जवाबी कार्रवाई करने की संभावना पैदा हो जाएगी।
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