ह म बात इस प्रश्न से ही शुरू करें कि नक्सल समस्या का हल क्या है। क्या यह ऐसा प्रश्न है जिसे बड़े-बड़े वक्तव्यों से हल किया जा सकता है। क्या पश्चिम बंगाल या छत्तीसगढ़ में राष्ट्रपति शासन लगा देना इसका उत्तर है? क्या सेना की तैनाती कर मामले को सुलझाया जा सकता है?, क्या धरना, बंद और प्रदर्शन मसले को हल करने के लिए उपयोगी हो सकते हैं? क्या मोमबत्तियां जलाकर राह पाई की जा सकती है? क्या एसएमएस, फेसबुक और टि्वटर पर संदेश भेजने से कोई रास्ता खुलता है? क्या अपने आपको जनसामान्य का प्रवक्ता होने का दावा करने वाला मीडिया असंतुलित टिप्पणियां कर समाधान की दिशा में ले जा सकता है? अभी यही सब हो रहा है। अगर थोड़ा भावनाओं पर काबू पाने की कोशिश करें तो उत्तर मिलेगा कि इन सबसे नक्सल समस्या का कोई हल नहीं निकलेगा।
दूसरी तरफ भी देखें। क्या भारत में फर्जी लोकतंत्र या ''फेक डेमोक्रेसी'' है जैसा कि कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं? क्या भारत में नेपाल जैसी स्थितियां हैं या वेनेजुएला जैसी? ऐसा क्यों होता है कि कनु सान्याल जैसे नक्सलवाद के पुरोधा अपने जीवन की संध्या में गांधीवाद की पैरवी करने लगते हैं? क्या इंटरनेट पर लंबे चौड़े बयान जारी करना ही किसी की वामपंथी सामाजिक चेतना का सच्चा सबूत है? क्या निर्दोष नागरिकों की या किसी सिपाही की हत्या कर देना क्रांति का पर्याय है? ये जो 76 सिपाही अभी मारे गए और बहुत से उनके पहले, क्या ये वर्गशत्रु थे? अगर इन प्रश्नों पर भी शांत और संयत मन से विचार किया जाए तो एक बार फिर उत्तर ''नहीं'' में ही मिलेगा।
तब फिर रास्ता क्या है? मैं महाश्वेता देवी का बहुत सम्मान करता हूं। उन्होंने अभी हाल में पुन: चर्चा करने की वकालत की है। लेकिन चर्चा किससे की जाए और कब की जाए और उसका नतीजा क्या निकलेगा? वरवरा राव का भी मैं बहुत आदर करता हूं। किसी समय आंध्र सरकार ने उनकी मध्यस्थता स्वीकार की थी। लेकिन क्या इससे कोई वांछित हल निकल सका? ऐसे ही अनेक संवेदनाओं से भरपूर जिम्मेदार व्यक्ति नक्सलियों अथवा माओवादियों से चर्चा जारी करने का प्रस्ताव जब-तब देते रहते हैं। केंद्र और प्रदेश सरकारों ने भी बीच-बीच में वार्ता के प्रस्ताव रखे हैं। नक्सली नेताओं ने भी कुछ माह पूर्व शस्त्र विराम का प्रस्ताव पेश किया था। लेकिन इनमें कौन कितना गंभीर है और क्या सचमुच वार्ता के लिए अनुकूल माहौल है? मुझे कम से कम इसकी उपयोगिता आज नजर नहीं आती।
दरअसल नक्सल समस्या को बहुत सीमित संदर्भों में देखना ही समाधान पाने की दिशा में सबसे बड़ा अवरोध है। अगर वृहत्तर पृष्ठभूमि में समझने की ईमानदार कोशिश हो तो साफ-साफ दिखाई देता है कि भारतीय जनतंत्र में उसकी तमाम वैधानिकता के बावजूद जनतांत्रिक विमर्श के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। परिणाम स्वरूप जनतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में भी बाधा पहुंच रही है। अगर इसमें सबसे पहले किसी को पहल करना है तो वह सरकार को ही करना होगी। यह हम जानते हैं कि पिछले बीस साल में भारत सहित विश्व के तमाम विकासशील समाजों पर नई प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर पूंजीतंत्र बेतरह हावी हो गया है। उत्पादक और उपभोक्ता के बीच के रिश्ते पूरी तरह से बदल गए हैं। अब इससे न तो बचा जा सकता है और न बीते दौर में लौटना ही संभव है; लेकिन जो शासन व्यवस्था एक स्वस्थ संविधान की बिना पर स्वयं को लोककल्याणकारी राज्य घोषित करती है, उसकी जिम्मेदारी क्या है?
आज ''हिन्द स्वराज'' का समय नहीं है। औद्योगिकीकरण हो रहा है और होते रहेगा। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इस नए दौर की अनिवार्य शर्त है। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि जनता को विश्वास में ही न लिया जाए; उसकी राय भी न पूछी जाए। क्या जनता के द्वारा चुनी गई सरकार को ग्रामसभा जैसी जनतांत्रिक तरीकों का आदर नहीं करना चाहिए? क्या पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के लिए संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रख देना चाहिए? अगर सरकार के निर्णय या मंशा से जनता सहमत नहीं है तो क्या थोड़ा सा धीरज रखना बेहतर नहीं होगा? सरकार के किसी भी कदम का जनतांत्रिक तरीके से विरोध देशद्रोह तो नहीं है न! मुश्किल यह है कि राजनीतिक दलों को लोक शिक्षण का जो अनिवार्य काम करना चाहिए वह उन्होंने बहुत पहले छोड़ दिया है। चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधि जनता से सीधे-सीधे बात करने में कतराने लगे है। सरकारें यद्यपि लोकहित में बहुत सी योजनाएं बना रही हैं लेकिन उसमें जनता को खैरात देने का भाव है, उनके अधिकार की स्वीकृति नहीं है। इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है।
इस मुद्दे पर सरकार को आज गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि औद्योगिकीकरण के माध्यम से विकास का जो सपना संजोया जा रहा है, उसमें आम जनता की भागीदारी किस तरह से सुनिश्चित की जा सकती है। यह मानी हुई बात है कि बांध बनने से, सड़क बनने से, कारखाना खोलने से बहुत से जन विस्थापित होते हैं। किसी की जमीन चली जाती है तो किसी का जंगल छिन जाता है। अगर एक क्षण को हम कल्पना भी कर लें कि मुआवजा देने में कोई कमी नहीं रखी गई है तब भी इतना पर्याप्त नहीं है। जमीन और तालाब और पेड़- ये सब स्थायी परिसंपत्तियां हैं और इनके साथ व्यक्ति का, परिवार का भावनात्मक जुड़ाव होता है। मुआवजे में मिली रकम इस भावनात्मक रिक्ति की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकती। अधिकतर लोग हाथ में आई रकम के दीर्घकालीन उपयोग की योजना बनाने में भी सक्षम नहीं होते। तो जो सरकारें संवेदनशील होने के इतने बड़े-बड़े दावे करती हैं, वे विस्थापित हुए लोगों की मनोदशा समझने में क्यों असमर्थ हो जाती हैं? ऐसे में अगर कहीं असहमति और विरोध का स्वर उठे तो उस पर सरकार की प्रतिक्रिया किस रूप में होनी चाहिए? अगर विरोध करने वाले जुलूस निकाल रहे कर सभा कर रहे हों, पदयात्रा कर रहे हों या अखबार में बयान दे रहे हों तो क्या यह कोई अपराध है? क्या सरकार को शांतिपूर्वक इनकी बात नहीं सुननी चाहिए? यह तो जॉर्ज बुश जैसे अहंकारी व्यक्ति ही कह सकते हैं कि जो हमारे साथ नहीं हैं वे हमारे दुश्मन हैं। इस तरह का दर्प भारत की जनता को कुबूल नहीं हैं; और न भारतीय संस्कृति के अनुकूल है।
जहां तक आज के नक्सलियों या माओवादियों की बात है, ये कौन हैं हम नहीं जानते। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि ये 1967 के नक्सली नहीं हैं। ये 1948 के तेलंगाना के विद्रोही भी नहीं हैं। जो इनमें भगतसिंग का अवतार देखते हैं वे तो सच्चाई को देखने से ही इंकार करते हैं। आज के ये नक्सली तो जॉर्ज बुश की ही तरह उन आदिवासियों को अपना दुश्मन मानकर चलते हैं जो उनके साथ नहीं हैं। सरकार के अपने इरादे जो कुछ भी रहे हों, अगर नक्सलियों में आदिवासियों के प्रति प्रेम होता तो 640 गांव खाली होने की नौबत नहीं आती। और ये जो गांव खाली हो रहे हैं इनका क्या होगा? आने वाले समय में इनकी जमीनें कोई सरकार औद्योगिक घरानों को बेच देगी, बांट देगी तब किसका भला होगा? अगर इनमें आदिवासियों के प्रति ममता होती तो उनके बच्चों को रायपुर के नारायण राव जैसे फर्जी स्वयंसेवकों के आश्रम में आकर रहने पर मजबूर न होना पड़ता। अगर ये सचमुच वर्गयुध्द लड़ रहे होते तो जमीन-जेवर बेचकर सिपाही बने गरीब नौजवानों के खून से अपने हाथ न रंगते। इसके बाद भी जो इन्हें समर्थन या कम से कम संदेह का लाभ दे रहे हैं। उनकी समझ की बलिहारी है।
स्थितियां गंभीर हैं। हल आसान नहीं है। ऐसा कोई राजनेता नहीं है जिस पर जनता का बेहिचक विश्वास हो। जो महात्मा गांधी का नाम लेते हैं, वे गांधीवाद की दुकानें चला रहे हैं। जो नेहरू परंपरा की बात करते हैं, वे नेहरू को कब का भूल चुके हैं। जो लोहिया के वारिस हैं, वे छोटी-छोटी लड़ाईयों में लगे हुए हैं। जो एकात्म मानवतावाद के ध्वजावाहक हैं, उनका मानवतावाद रायपुर के एकात्म परिसर जैसे भवनों तक सीमित हैं। फिर भी आशा की किरणें दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए एक ऐसी किरण मेधा पाटकर के रूप में हमारे सामने हैं। हम सेवाभावी सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात नहीं करते; उनका काम अलग तरह का है। लेकिन जो सामाजिक बदलाव के लिए आंदोलन करना चाहते हैं, उनके सामने सत्याग्रह का रास्ता खुला हुआ है। इस पर चलकर ही समाधान की दिशा में बढ़ा जा सकता है, भले ही उसमें अस्थायी तौर पर हार का सामना क्यों न करना पड़े। यही जनतांत्रिक भावना व परंपरा के अनुकूल होगा। लेकिन हिंसा हर रूप में त्याज्य है क्योंकि उससे प्रतिशोध व प्रतिहिंसा का मार्ग प्रशस्त होता है। दूसरे शब्दों में एक अंतहीन लड़ाई जो किसी लक्ष्य तक नहीं पहुंचाती।
ललित सुरजन, संपादक, देशबंधु,
दूसरी तरफ भी देखें। क्या भारत में फर्जी लोकतंत्र या ''फेक डेमोक्रेसी'' है जैसा कि कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं? क्या भारत में नेपाल जैसी स्थितियां हैं या वेनेजुएला जैसी? ऐसा क्यों होता है कि कनु सान्याल जैसे नक्सलवाद के पुरोधा अपने जीवन की संध्या में गांधीवाद की पैरवी करने लगते हैं? क्या इंटरनेट पर लंबे चौड़े बयान जारी करना ही किसी की वामपंथी सामाजिक चेतना का सच्चा सबूत है? क्या निर्दोष नागरिकों की या किसी सिपाही की हत्या कर देना क्रांति का पर्याय है? ये जो 76 सिपाही अभी मारे गए और बहुत से उनके पहले, क्या ये वर्गशत्रु थे? अगर इन प्रश्नों पर भी शांत और संयत मन से विचार किया जाए तो एक बार फिर उत्तर ''नहीं'' में ही मिलेगा।
तब फिर रास्ता क्या है? मैं महाश्वेता देवी का बहुत सम्मान करता हूं। उन्होंने अभी हाल में पुन: चर्चा करने की वकालत की है। लेकिन चर्चा किससे की जाए और कब की जाए और उसका नतीजा क्या निकलेगा? वरवरा राव का भी मैं बहुत आदर करता हूं। किसी समय आंध्र सरकार ने उनकी मध्यस्थता स्वीकार की थी। लेकिन क्या इससे कोई वांछित हल निकल सका? ऐसे ही अनेक संवेदनाओं से भरपूर जिम्मेदार व्यक्ति नक्सलियों अथवा माओवादियों से चर्चा जारी करने का प्रस्ताव जब-तब देते रहते हैं। केंद्र और प्रदेश सरकारों ने भी बीच-बीच में वार्ता के प्रस्ताव रखे हैं। नक्सली नेताओं ने भी कुछ माह पूर्व शस्त्र विराम का प्रस्ताव पेश किया था। लेकिन इनमें कौन कितना गंभीर है और क्या सचमुच वार्ता के लिए अनुकूल माहौल है? मुझे कम से कम इसकी उपयोगिता आज नजर नहीं आती।
दरअसल नक्सल समस्या को बहुत सीमित संदर्भों में देखना ही समाधान पाने की दिशा में सबसे बड़ा अवरोध है। अगर वृहत्तर पृष्ठभूमि में समझने की ईमानदार कोशिश हो तो साफ-साफ दिखाई देता है कि भारतीय जनतंत्र में उसकी तमाम वैधानिकता के बावजूद जनतांत्रिक विमर्श के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। परिणाम स्वरूप जनतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में भी बाधा पहुंच रही है। अगर इसमें सबसे पहले किसी को पहल करना है तो वह सरकार को ही करना होगी। यह हम जानते हैं कि पिछले बीस साल में भारत सहित विश्व के तमाम विकासशील समाजों पर नई प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर पूंजीतंत्र बेतरह हावी हो गया है। उत्पादक और उपभोक्ता के बीच के रिश्ते पूरी तरह से बदल गए हैं। अब इससे न तो बचा जा सकता है और न बीते दौर में लौटना ही संभव है; लेकिन जो शासन व्यवस्था एक स्वस्थ संविधान की बिना पर स्वयं को लोककल्याणकारी राज्य घोषित करती है, उसकी जिम्मेदारी क्या है?
आज ''हिन्द स्वराज'' का समय नहीं है। औद्योगिकीकरण हो रहा है और होते रहेगा। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इस नए दौर की अनिवार्य शर्त है। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि जनता को विश्वास में ही न लिया जाए; उसकी राय भी न पूछी जाए। क्या जनता के द्वारा चुनी गई सरकार को ग्रामसभा जैसी जनतांत्रिक तरीकों का आदर नहीं करना चाहिए? क्या पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के लिए संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रख देना चाहिए? अगर सरकार के निर्णय या मंशा से जनता सहमत नहीं है तो क्या थोड़ा सा धीरज रखना बेहतर नहीं होगा? सरकार के किसी भी कदम का जनतांत्रिक तरीके से विरोध देशद्रोह तो नहीं है न! मुश्किल यह है कि राजनीतिक दलों को लोक शिक्षण का जो अनिवार्य काम करना चाहिए वह उन्होंने बहुत पहले छोड़ दिया है। चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधि जनता से सीधे-सीधे बात करने में कतराने लगे है। सरकारें यद्यपि लोकहित में बहुत सी योजनाएं बना रही हैं लेकिन उसमें जनता को खैरात देने का भाव है, उनके अधिकार की स्वीकृति नहीं है। इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है।
इस मुद्दे पर सरकार को आज गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि औद्योगिकीकरण के माध्यम से विकास का जो सपना संजोया जा रहा है, उसमें आम जनता की भागीदारी किस तरह से सुनिश्चित की जा सकती है। यह मानी हुई बात है कि बांध बनने से, सड़क बनने से, कारखाना खोलने से बहुत से जन विस्थापित होते हैं। किसी की जमीन चली जाती है तो किसी का जंगल छिन जाता है। अगर एक क्षण को हम कल्पना भी कर लें कि मुआवजा देने में कोई कमी नहीं रखी गई है तब भी इतना पर्याप्त नहीं है। जमीन और तालाब और पेड़- ये सब स्थायी परिसंपत्तियां हैं और इनके साथ व्यक्ति का, परिवार का भावनात्मक जुड़ाव होता है। मुआवजे में मिली रकम इस भावनात्मक रिक्ति की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकती। अधिकतर लोग हाथ में आई रकम के दीर्घकालीन उपयोग की योजना बनाने में भी सक्षम नहीं होते। तो जो सरकारें संवेदनशील होने के इतने बड़े-बड़े दावे करती हैं, वे विस्थापित हुए लोगों की मनोदशा समझने में क्यों असमर्थ हो जाती हैं? ऐसे में अगर कहीं असहमति और विरोध का स्वर उठे तो उस पर सरकार की प्रतिक्रिया किस रूप में होनी चाहिए? अगर विरोध करने वाले जुलूस निकाल रहे कर सभा कर रहे हों, पदयात्रा कर रहे हों या अखबार में बयान दे रहे हों तो क्या यह कोई अपराध है? क्या सरकार को शांतिपूर्वक इनकी बात नहीं सुननी चाहिए? यह तो जॉर्ज बुश जैसे अहंकारी व्यक्ति ही कह सकते हैं कि जो हमारे साथ नहीं हैं वे हमारे दुश्मन हैं। इस तरह का दर्प भारत की जनता को कुबूल नहीं हैं; और न भारतीय संस्कृति के अनुकूल है।
जहां तक आज के नक्सलियों या माओवादियों की बात है, ये कौन हैं हम नहीं जानते। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि ये 1967 के नक्सली नहीं हैं। ये 1948 के तेलंगाना के विद्रोही भी नहीं हैं। जो इनमें भगतसिंग का अवतार देखते हैं वे तो सच्चाई को देखने से ही इंकार करते हैं। आज के ये नक्सली तो जॉर्ज बुश की ही तरह उन आदिवासियों को अपना दुश्मन मानकर चलते हैं जो उनके साथ नहीं हैं। सरकार के अपने इरादे जो कुछ भी रहे हों, अगर नक्सलियों में आदिवासियों के प्रति प्रेम होता तो 640 गांव खाली होने की नौबत नहीं आती। और ये जो गांव खाली हो रहे हैं इनका क्या होगा? आने वाले समय में इनकी जमीनें कोई सरकार औद्योगिक घरानों को बेच देगी, बांट देगी तब किसका भला होगा? अगर इनमें आदिवासियों के प्रति ममता होती तो उनके बच्चों को रायपुर के नारायण राव जैसे फर्जी स्वयंसेवकों के आश्रम में आकर रहने पर मजबूर न होना पड़ता। अगर ये सचमुच वर्गयुध्द लड़ रहे होते तो जमीन-जेवर बेचकर सिपाही बने गरीब नौजवानों के खून से अपने हाथ न रंगते। इसके बाद भी जो इन्हें समर्थन या कम से कम संदेह का लाभ दे रहे हैं। उनकी समझ की बलिहारी है।
स्थितियां गंभीर हैं। हल आसान नहीं है। ऐसा कोई राजनेता नहीं है जिस पर जनता का बेहिचक विश्वास हो। जो महात्मा गांधी का नाम लेते हैं, वे गांधीवाद की दुकानें चला रहे हैं। जो नेहरू परंपरा की बात करते हैं, वे नेहरू को कब का भूल चुके हैं। जो लोहिया के वारिस हैं, वे छोटी-छोटी लड़ाईयों में लगे हुए हैं। जो एकात्म मानवतावाद के ध्वजावाहक हैं, उनका मानवतावाद रायपुर के एकात्म परिसर जैसे भवनों तक सीमित हैं। फिर भी आशा की किरणें दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए एक ऐसी किरण मेधा पाटकर के रूप में हमारे सामने हैं। हम सेवाभावी सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात नहीं करते; उनका काम अलग तरह का है। लेकिन जो सामाजिक बदलाव के लिए आंदोलन करना चाहते हैं, उनके सामने सत्याग्रह का रास्ता खुला हुआ है। इस पर चलकर ही समाधान की दिशा में बढ़ा जा सकता है, भले ही उसमें अस्थायी तौर पर हार का सामना क्यों न करना पड़े। यही जनतांत्रिक भावना व परंपरा के अनुकूल होगा। लेकिन हिंसा हर रूप में त्याज्य है क्योंकि उससे प्रतिशोध व प्रतिहिंसा का मार्ग प्रशस्त होता है। दूसरे शब्दों में एक अंतहीन लड़ाई जो किसी लक्ष्य तक नहीं पहुंचाती।
ललित सुरजन, संपादक, देशबंधु,
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