Saturday, April 17, 2010

मुख्यधारा में आदिवासी


सच्चाई तो यह है कि मर्ज बहुत ज्यादा बढ़ चुका है। सबसे पहले हमें आदिवासियों के हाथ से हथियार लेने होंगे और उन्हें समझाना होगा कि इस तरीके से कोई रास्ता नहीं निकल सकता। फिर हमें उनके नेताओं से बातचीत करनी होगी। हमें जंगल की जमीनें उन्हें लौटाते हुए उन्हें भारतीय समाज की मुख्यधारा में लाना होगा। हमें ‘आदिवासी’ शब्द को चलन से बाहर कर देना है।

नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 75 जवानों की मौत ने हमें झकझोर दिया है। हम तो यह मानने लगे थे कि देश में सब ठीक चल रहा है और हम मजे से दिन में भी सपने देखते रह सकते हैं। लेकिन लगता है कि दंतेवाड़ा में कुछ भी सही नहीं हुआ। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और उनके प्रशासनिक अधिकारियों को अब कई सवालों के जवाब देने हैं।

सैकड़ों देहातियों तक हथियारों की खेप पहुंचाई जा रही थी, वे सिपाहियों की तरह कवायदें करते थे और फिर भी पुलिस की नींद नहीं खुली। निश्चित ही उन्हें पता होगा कि क्या चल रहा है। तो फिर गैरलाइसेंसी हथियारों को बिना जांचे गांव में कैसे जाने दिया गया? जंगल की जमीन का बड़ा हिस्सा खंदक में तब्दील कर दिया गया था और इसके बावजूद सीआरपीएफ को कोई चेतावनी नहीं दी गई कि उसके जवान मौत की राह पर बढ़े चले जा रहे हैं।

मुझे इस बात में कम ही संदेह है कि अगर केंद्र सरकार माओवादियों को कुचलना चाहे तो अपनी सेना और वायुसेवा के जरिये चंद दिनों में ऐसा कर सकती है। लेकिन फिर भी यह बहुत समझदारी भरा फैसला नहीं होगा। इससे हमें बस ऊपरी राहत ही मिलेगी। सच्चाई तो यह है कि मर्ज बहुत बढ़ चुका है। हमने शोषकों को जनजातीय लोगों का शोषण करने का अवसर दिया, जो अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं।


हमें हथियारबंद गिरोहों से उनके संघर्ष को ऐसे बढ़ावा नहीं देना चाहिए कि देश में किसी छोटे-मोटे गृहयुद्ध की नौबत आ जाए। सबसे पहले हमें उनके हाथ से हथियार लेने होंगे और उन्हें यह समझाना होगा कि इस तरीके से कोई रास्ता नहीं निकल सकता। फिर हमें उनके नेताओं से बातचीत करनी होगी। हमें जंगल की जमीनें उन्हें लौटाते हुए उन्हें भारतीय समाज की मुख्यधारा में लाना होगा। हमें ‘आदिवासी’ शब्द को चलन से बाहर कर देना है।

खुशवंत सिंह
दिल्ली

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