Tuesday, April 6, 2010

बर्बर माओवादी

पी। चिदंबरम से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या सोचकर उन्होंने माओवादियों के खिलाफ "ऑपरेशन ग्रीन हंट" शुरू किया था जो एक ही हफ्ते में हमारे सुरक्षाकर्मियों को तीसरा हमला झेलना पड़ा? क्या कोई भी गृहमंत्री पूरी रणनीति बनाए बिना और इलाके के दुर्गम भूगोल को समझे बिना अपने सुरक्षाकर्मियों को इस तरह "युद्ध" में झोंकता है? चिदंबरम कह रहे हैं कि इस संघर्ष में कोई चीज बुरी तरह गलत साबित हुई है और हो सकता है कि हमारे सुरक्षाकर्मी दंतेवाड़ा में घात लगाकर बैठे माओवादियों के जाल में फँस गए हों। सबसे पहली बात तो यह है कि इतने बड़े पैमाने पर हुए इस हमले की भनक तक हमारी सुरक्षा एजेंसियों को क्यों नहीं लगी? नक्सलवादी एक हजार के लगभग थे और तीन बसों में लौट रहे सुरक्षाकर्मी थे १२० जिनमें से ७६ के मारे जाने की खबर है। कई बुरी तरह जख्मी हैं। नक्सलियों ने ऊँची पहाड़ियों और ऊँचे घने पेड़ों से सुरक्षाकर्मियों की इस पेट्रोल-टुकड़ी पर नृशंस हमला किया। घात लगाकर ऐसे हमले या तो कोई शत्रु करता है या फिर बर्बर आतंकवादी। घना जंगल होने के कारण वहाँ सुरक्षा बलों की और टुकड़ियाँ भेजने और राहत कार्य करने में बाँधा आ रही है। दूसरी बात यह है कि इन नक्सलियों के पास भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद है और साफ है कि नक्सलियों ने न केवल अपनी संगठित और बड़ी सेना बना ली है, बल्कि उन्हें जंगल वारफेयर में या जंगल में युद्ध लड़ने में भी महारत हासिल है। इस ऑपरेशन को केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स और स्थानीय पुलिस फोर्स की मदद से अंजाम दिया जा रहा है और इन दोनों बलों के बीच समन्वय का अभाव बताया है। जंगल और जंगलवासियों के समूह जहाँ युद्ध में नक्सलवादियों के अनुकूल पड़ते दिखाई दे रहे हैं, वहाँ शहरों में रहकर कानून और व्यवस्था का जिम्मा संभालने वाली पुलिस फोर्स की कार्यशैली के ये प्रतिकूल है। केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार को यहाँ तक मालूम नहीं कि एक हजार लोगों की इस नक्सली सेना को हथियार कहाँ से मिल रहे हैं? इसलिए यह कहना वाजिब होगा कि सरकार को नक्सलियों की असल ताकत का आभास तक नहीं था। जो प्रारंभिक तस्वीर उभर रही है, वह बताती है कि नक्सलियों ने अपने को कहीं तमिल मुक्ति चीतों "लिट्टे" की तरह तो संगठित नहीं कर लिया है? कहीं यह एक अपरिभाषित से गृह युद्ध की दस्तक तो नहीं है? यदि सरकार को ऐसा जरा सा भी संदेह लग रहा हो तो उसे अपनी लड़ाई को आमूल-चूल बदलना होगा और इन इलाकों में ऐसे लोगों को भेजना होगा जो जंगल वारफेयर में दक्ष हों। उन्हें आधुनिकतम हथियार उपलब्ध कराने होंगे। आदिवासियों के हक की यह लड़ाई बंदूक के बल पर सत्ता परिवर्तन की लड़ाई के रूप में कहीं बदल तो नहीं रही है? ऐसा ही नेपाल में हो चुका है और नेपाली माओवादियों के साथ भारत के माओवादियों के सक्रिय संबंध रहे हैं। हमने कल लिखा था कि इन लोगों के साथ संवाद का रास्ता भी बनना चाहिए, लेकिन आज हम कहना चाहेंगे कि सबसे पहला काम नक्सलियों को निरस्त्र करने का होना चाहिए क्योंकि वे खुद तो हिंसा छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। अतीत में भी उन्होंने अन्यत्र संघर्ष विराम के मौके का लाभ अपने को फिर से संगठित करने में किया है। सरकार एक मोटी-मोटी राजनीतिक सर्वानुमति बनाकर इस समस्या से निपटने के लिए जो भी उचित हो तत्काल करे। हाँ, यह ध्यान रखा जाए कि निर्दोष आबादी की जानमाल का नुकसान न हो।
संपादकीय, नई दुनिया, इंदौर, ७ अप्रैल

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