प।बंगाल, उड़ीसा के बाद छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस तरह का रक्तपात मचाया है, वह बेहद निंदनीय है। दंतेवाड़ा के जंगलों में सीआरपीएफ व राज्य पुलिस के गश्ती दलों पर घात लगाकर नक्सलियों ने हमले किए, जिसमें अब तक 70 जवानों के शहीद होने की खबर है और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मुठभेड़ जारी है। यह खेदजनक है कि इस स्थान पर लगातार दूसरे दिन नक्सलवादियों की हिंसा पर लिखना पड़ रहा है। गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने इसकी कड़ी निंदा करने की औपचारिकता निभा ली है और सुरक्षा बलों की रणनीतिक चूक को इसका कारण बताया है। आम जनता न सुरक्षा बलों की रणनीति जानती है, न उसमें किस तरह की चूक हुई, यह समझती है। लेकिन इतना समझ में अवश्य आता है कि केंद्र व राज्य सरकारें नक्सलियों से निबटने में अब तक असफल ही रही हैं। मुठभेड़ों में नक्सलियों के मरने या उन्हें गिरफ्तार करने की छोटी-मोटी सफलता भी इसलिए संदिग्ध मानी जाती हैं कि कई बार अपनी काबिलियत दिखाने के लिए निरीह आदिवासियों को बलि का बकरा बनाया जाता है।
इस संदिग्धता की जमीन पर कई मानवाधिकार संगठनों व गैरसरकारी संगठनों की दुकानदारी मजे से चल रही है। इसलिए माननीय केंद्रीय गृहमंत्रीजी रणनीतिक चूक जैसे बयान देने के बजाए वास्तविकता से जनता को अवगत कराएं। दो दिन पहले प।बंगाल के लालगढ़ के दौरे के दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य को नक्सलवाद से निबटने की नसीहत दी। इस नसीहत से उपजा बवाल अभी शांत नहींहुआ है कि अब यह रणनीतिक चूक का मसला सामने है। नक्सलवाद को सरकार आतंकवाद की तरह गंभीर मुद्दा मानती है, और ऐसा है भी। जाहिर है इसके खिलाफ रणनीति भी उतनी ही गंभीरता से बनाई जाती होंगी, जितनी बाहरी दुश्मनों से लड़ने के लिए। तब रणनीतिक चूक की बात बहुत हल्के किस्म की लगती है। देश के कई रक्षा विशेषज्ञ, पुलिस, खुफिया विभाग के श्रेष्ठ अफसर नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बनाते होंगे, अगर इसमें कमी रहती है तो यह बेहद गंभीर बात है। एक बात स्पष्ट है कि राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर पर जरूरत से ज्यादा बयानबाजी इस समस्या को और उलझा रही है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री से लेकर पुलिस अधिकारियों तक हर कोई नक्सलवाद पर बयान देने में लगा है। दूसरी ओर ऐसे भी लोगों की कमी नहींहै जो नक्सलियों की छवि आदिवासियों का तारणहार बनाने में लगे हुए हैं। मानवाधिकार का झंडा बुलंद करने के लिए नक्सलग्रस्त क्षेत्र का दौरा करना और फिर रोमांचक भाषा में इसका वर्णन करना, यह परिपाटी चल पड़ी है। हाल ही में अंग्रेजी की वरिष्ठ लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति रॉय ने दंतेवाड़ा का दौरा कर ऐसा ही लेख अंग्रेजी में लिखा, जिसकी तथाकथित बुध्दिजीवी वर्ग में खासी चर्चा है। उन्होंने जो देखा-समझा, महसूस किया, वह लिखा। लेकिन असली तस्वीर वही है, ऐसा नहींहै। बाहर से नक्सल समस्या को समझने वाले तमाम लोगों की दिक्कत यही है कि वे अब भी इसे वंचित-दलित-दमित वर्ग की लड़ाई तक सीमित रख कर देख रहे हैं। जबकि नक्सलियों का दायरा इससे काफी बढ़ गया है। सरकार को भी इस सच्चाई को समझते हुए अपनी नीतियों में बदलाव करना होगा।
दो क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है रणनीति व कार्यनीति। दंतेवाड़ा जैसा बड़ा हमला बिना स्थानीय सहयोग के नक्सलियों ने कर दिया, यह मानना कठिन है। साम, दाम, दंड, भेद किसी भी तरीके से नक्सलियों ने स्थानीय ग्रामीणों को अपने साथ कर रखा है। ऐसे हमलों की पुनरावृत्ति भविष्य में न हो, इसके लिए ग्रामीणों को विश्वास में लेना सरकार के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। नक्सलबाड़ी से आंदोलन की शुरुआत करने वाले कानु सान्याल व ए।के.मजूमदार ने भी बात में इस विचारधारा को सही नहींमाना। लेकिन नक्सली इसकी आड़ में आतंक का खेल खेल रहे हैं। इसमें किन लोगों के स्वार्थ लिप्त हैं, नक्सलियों का असली मकसद क्या है, इसका विश्लेषण करने के बाद ही सरकार कोई रणनीति बनाए तो शायद किसी नतीजे तक पहुंचने की उम्मीद बंधे।
संपादकीय, देशबंधु, रायपुर, ७ अप्रैल, 2010
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