प्रकाश सिंह, बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस प्रकार से जवानों का खून बहाया है, वह देश के लिए एक गंभीर चुनौती है। ऐसी चुनौती जिसका जवाब उन्हीं की भाषा में उन्हें देना होगा। नक्सलवाद आतंकवाद से कम गंभीर समस्या नहीं है। दंतेवाड़ा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) और स्थानीय पुलिस बल के जवानों की हत्या से एक बात साफ है कि नक्सली बोली की भाषा नहीं, गोली की भाषा से ही काबू में आएँगे। कहने का मतलब है कि नक्सलियों के खिलाफ सशस्त्र कार्रवाई का समय अब आ गया है। मैं मानता हूँ कि स्थानीय पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों के बीच समन्वय की कमी और खुफिया तंत्र में खामी इस हमले का प्रमुख कारण रहा है।
मैं इसे नक्सलियों की सफलता नहीं मान रहा बल्कि पुलिस बल की लापरवाही को इस घटना की वजह मानता हूँ। मैं छत्तीसगढ़ जाता रहता हूँ और वहाँ मैं विभिन्न सुरक्षा बलों और पुलिस बल के जवानों से अनौपचारिक चर्चा करता रहा हूँ तो एक ही बात सुुनने को मिलती है कि नक्सलियों के खिलाफ सरकारी तंत्र में हर स्तर पर समन्वय की कमी है। यहाँ मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि लड़ाई सरकार नहीं बल्कि जवान लड़ता है। लड़ाई में उतरने से पहले इस बात की भलीभांति पड़ताल या कहें दुश्मन की कमजोर और मजबूती का पता लगा लेना चाहिए। सीआरपीएफ के जो जवान छत्तीसगढ़ में नक्सलियों से मुकाबला कर रहे हैं वे असल में स्थानीय पुलिस के ही भरोसे लड़ाई लड़ रहे हैं।
स्थानीय पुलिस जो जानकारी बल को उपलब्ध करवाती है उसी के आधार पर केंद्रीय बल के जवान अपनी योजना बनाते हैं। यह वह कड़ी है जिसमें जरा-सी चूक बड़ी घटना का कारण बनती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है कि लड़ाई के क्षेत्र में उतरते समय या कार्रवाई करते समय ऐसी योजना बनानी चाहिए जिसका आभास भी दुश्मन को न हो। मसलन ऐसे रास्तों से दुश्मन पर हमला किया जाए जिसका आभास भी उसे न हो कि हमला इस ओर से होगा। नक्सली या आतंकवादी आम रास्तों पर घात लगाए रखते हैं। जहाँ तक सरकार का सवाल है तो बात चाहे मुख्यमंत्री रमनसिंह की हो या फिर केंद्रीय गृहमंत्री पी। चिदंबरम की। दोनों को ही मैं ऐसा नेता मानता हूँ जिनकी नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता। रमनसिंह भी नक्सलवाद का खात्मा चाहते हैं और चिदंबरम भी। दोनों के बीच कोई मतभेद नहीं हैं। कमी खुफिया तंत्र में है जिसे राज्य सरकार को सुधारना होगा। केंद्र सरकार को भी अब नक्सली समस्या के खिलाफ कोई उदारता नहीं दिखानी चाहिए और न ही इस समस्या को राज्य की कानून-व्यवस्था का प्रश्न बनाकर छोड़ देना चाहिए। बिना किसी दवाब के सरकार को नक्सलियों के खिलाफ ग्रीन हंट अभियान जारी रखना चाहिए।
नई दुनिया से साभार
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस प्रकार से जवानों का खून बहाया है, वह देश के लिए एक गंभीर चुनौती है। ऐसी चुनौती जिसका जवाब उन्हीं की भाषा में उन्हें देना होगा। नक्सलवाद आतंकवाद से कम गंभीर समस्या नहीं है। दंतेवाड़ा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) और स्थानीय पुलिस बल के जवानों की हत्या से एक बात साफ है कि नक्सली बोली की भाषा नहीं, गोली की भाषा से ही काबू में आएँगे। कहने का मतलब है कि नक्सलियों के खिलाफ सशस्त्र कार्रवाई का समय अब आ गया है। मैं मानता हूँ कि स्थानीय पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों के बीच समन्वय की कमी और खुफिया तंत्र में खामी इस हमले का प्रमुख कारण रहा है।
मैं इसे नक्सलियों की सफलता नहीं मान रहा बल्कि पुलिस बल की लापरवाही को इस घटना की वजह मानता हूँ। मैं छत्तीसगढ़ जाता रहता हूँ और वहाँ मैं विभिन्न सुरक्षा बलों और पुलिस बल के जवानों से अनौपचारिक चर्चा करता रहा हूँ तो एक ही बात सुुनने को मिलती है कि नक्सलियों के खिलाफ सरकारी तंत्र में हर स्तर पर समन्वय की कमी है। यहाँ मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि लड़ाई सरकार नहीं बल्कि जवान लड़ता है। लड़ाई में उतरने से पहले इस बात की भलीभांति पड़ताल या कहें दुश्मन की कमजोर और मजबूती का पता लगा लेना चाहिए। सीआरपीएफ के जो जवान छत्तीसगढ़ में नक्सलियों से मुकाबला कर रहे हैं वे असल में स्थानीय पुलिस के ही भरोसे लड़ाई लड़ रहे हैं।
स्थानीय पुलिस जो जानकारी बल को उपलब्ध करवाती है उसी के आधार पर केंद्रीय बल के जवान अपनी योजना बनाते हैं। यह वह कड़ी है जिसमें जरा-सी चूक बड़ी घटना का कारण बनती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है कि लड़ाई के क्षेत्र में उतरते समय या कार्रवाई करते समय ऐसी योजना बनानी चाहिए जिसका आभास भी दुश्मन को न हो। मसलन ऐसे रास्तों से दुश्मन पर हमला किया जाए जिसका आभास भी उसे न हो कि हमला इस ओर से होगा। नक्सली या आतंकवादी आम रास्तों पर घात लगाए रखते हैं। जहाँ तक सरकार का सवाल है तो बात चाहे मुख्यमंत्री रमनसिंह की हो या फिर केंद्रीय गृहमंत्री पी। चिदंबरम की। दोनों को ही मैं ऐसा नेता मानता हूँ जिनकी नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता। रमनसिंह भी नक्सलवाद का खात्मा चाहते हैं और चिदंबरम भी। दोनों के बीच कोई मतभेद नहीं हैं। कमी खुफिया तंत्र में है जिसे राज्य सरकार को सुधारना होगा। केंद्र सरकार को भी अब नक्सली समस्या के खिलाफ कोई उदारता नहीं दिखानी चाहिए और न ही इस समस्या को राज्य की कानून-व्यवस्था का प्रश्न बनाकर छोड़ देना चाहिए। बिना किसी दवाब के सरकार को नक्सलियों के खिलाफ ग्रीन हंट अभियान जारी रखना चाहिए।
नई दुनिया से साभार
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