Sunday, January 3, 2010

घुट-मर रहा नक्सलवाद का कथा पुरुष

हाथीघिसा [मधुरेश]। यहा की एक झोपड़ी में नक्सलवाद का कथा पुरुष घुट, मर रहा है। भाई पैसा न दे, तो वह सास चालू रखने वाली दवा भी न खा सके। ठीक बगल की झोपड़ी में रोज मौत की मनौती मानती एक औरत, साथियों की चरम दगाबाजी है। फिर भी दोनों को कोई मलाल नहीं; मदद की अपेक्षा भी नहीं। और ऐसे ही कई और गुणों के चलते दोनों जनता के लड़ाकों, उनके रहनुमाओं के लिए इकट्ठे कई-कई नसीहतें हैं। दोनों गवाह हैं कि कैसे और क्यों कोई आदोलन बीच रास्ते से भटक जाता है; जनता बेच दी जाती है? वाकई, कानू सान्याल और लखी होना मुश्किल है। अभी की दौर में तो असंभव।

बात इन्हीं की हो रही है। कानू दा, नाम के मोहताज नहीं हैं। मगर लखी को हाथीघिसा पहुंचकर ही जाना। वे भारत में नक्सलवादी आदोलन के प्रारंभिक कमानदारों में एक जंगल संथाल की बेवा हैं। जंगल, नक्सलबाड़ी का लड़ाका। चारू मजूमदार, खोखोन मजूमदार, सोरेन बोस, कानू सान्याल का हमकदम। खैर, कानू दा 81 साल के हो चुके हैं। बीमार हैं। दो अखबार। सामने के खेत, खुला आकाश, उड़ते पंछी, चरते जानवर, चिथड़ों में लिपटे नंगे पाव स्कूल जाते नौनिहाल., अपना कुछ भी न हो सका; कुछ भी तो नहीं बदला! यही उनकी घुटन है। उनका जमाना था। उन्होंने भारतीय व्यवस्था को चुनौती दी थी। कई राज्यों की पुलिस तलाशती थी। और अब तो गुटीय लाइन पर पुराने अपने भी मिलने नहीं आते। [हा, महासचिव के नाते सीपीआई एमएल खोज-खबर लेता है]।

उनकी जिंदगी बड़ी मुश्किल से गुजर रही है। प्रदीप सान्याल [भाई] के पैसे से दवा खरीदी जाती है। चूंकि कार या पेट्रोल की हैसियत नहीं है, सो चाहते हुए भी कहीं निकल नहीं पाते। कानू दा को यह बात बहुत कचोटती है कि कभी साथी रहे लोग या उनकी सरकार [पश्चिम बंगाल का माकपा राज] ने मरणासन्न अवस्था में उनकी सुधि नहीं ली, जबकि सभी जानते हैं कि वे अभी जिंदा हैं।

मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य सार्वजनिक सभाओं में अक्सर कहते हैं-पश्चिम बंगाल में अब कोई नक्सली न रहा। एक कानू बाबू है। उनको भी हम अपने साथ करना चाहते हैं। यह मुनादी है कि कैसे नक्सल आदोलन के किरदारों को उनके ही पुराने साथियों [माकपा] ने दबाया, कुचला? ऐसे में सहयोग की अपेक्षा बेकार है।

कानू दा बोले। एक मर्तबा हाथी ने उनका घर तोड़ दिया। नई झोपड़ी, पहले की तुलना में मजबूत दिखती है। तब गृह मंत्रालय को संभालने वाले तस्लीमुद्दीन आए थे। मदद की पेशकश की। मगर कानू दा ने व्यवस्था, उसकी चालाकी को प्रणाम कर लिया, खुद को जनता के रंग-ढंग में रखा। बैचलर रह गए। एक बुजुर्ग महिला चाय तथा खाने लायक कुछ बना देती है। दिन कट जाता है। बहुत जरूरत पड़ने पर पार्टी के प्रदीप सान्याल को बुलवा लेते हैं। दिन कट रहा है।

जंगल संथाल के परिजनों की हालत और भी खराब है। लखी को देखकर ही सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। एक लंबी कहानी। थीम यही कि कैसे अपने, अपनों को भुला देते हैं? वह किसी भी कोण से साबुत आदमी नहीं लगती। गरीबी-बेबसी का पर्याय है। बेटा [उपेंद्र] है। लेकिन भूख व लाचारी ने मा-बेटे के संबंध को बिगाड़ा हुआ है। कानू सान्याल कहते हैं-मैंने कई बार उपेंद्र को कहा कि बुढि़या से काम मत कराओ। ठीक से रखो। नहीं तो मर जाएगी। वह बेचारा भी क्या करे? बड़ी मुश्किल से अपनी रोटी का इंतजाम कर पाता है। लखी, बस टुकुर-टकुर सबको देखती रहती है। उसे सब कुछ भुला दिया है या कुछ बताना नहीं चाहती।

कानू दा भी कहते हैं-मैं सब कुछ भूल चुका हूं। क्या था, क्या हूं-सब कुछ। ..गलती से भी याद आता है, तो तड़प जाता हूं। उनकी तड़प के कारणों की कमी नहीं है। वे माओवादियों से बहुत गुस्से में हैं। उसे अराजकतावादी कहते हैं। बोले-वह मा‌र्क्सवाद-लेनिनवाद के खिलाफ काम कर रहे हैं। हथियार तो लादेन भी उठाए हुए है। .. बंदूक के पीछे राजनीति और अनुशासन होना ही चाहिए।

हालाकि बातचीत के क्त्रम में बूढ़ी हड्डियों की ललक दिखती है। मुकाम पाने की यह तकनीक भी कि सबको एकताबद्ध कर शिक्षित करना होगा। आम आदमी को लेकर लड़ाई करना होगा। जनता को हथियारबंद करना होगा। एक दिन ऐसा होगा। उनके अनुसार अभी तो फैलने की बहुत गुंजाइश है लेकिन कोई इस लायक काम नहीं कर रहा है। .. माकपा संशोधनवादी है। और हमारे साथियों को टूटने, अलग गुट बनाने से फुर्सत नहीं है।

चारू मजूमदार के पुत्र तथा सीपीआई एमएल के नेता अभिजीत मजूमदार कानू दा के बारे में कुछ नहीं बोलना चाहते।

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