Sunday, January 24, 2010

प्रियदर्शन का अप्रिय दर्शन


दिल्ली के प्रियदर्शन भड़का रहे हैं खूनी वारदात के लिए

इंटरनेट पर खंगालते खंगालते हमें एक लेखक मिले । नाम है उनका प्रियदर्शन । उन्होंने जो कुछ लिखा है उसे पढ़कर तो लगता है उनका नाम अप्रियदर्शन रखना अधिक सार्थक होता । लगता है वे दिल्ली से बैठे बैठे सब कुछ देख लेते हैं, परन्तु उनके इस देखने का जो नज़रिया है वह एकतरफा है । पूर्वाग्रहपूर्ण है । भड़काऊ है । हिंसाबोधक है । वे चाहते हैं कि नक्सली वह सब कुछ करते रहें जो वे पिछले 40 साल से कर रहे हैं और देश के सारे युवा उनके साथ बंदूक पकड़कर समूची व्यवस्था के साथ बगावत कर दें । अपने ही लोगों को मार गिरायें । फिर जो कुछ बचेगा उनके साथ मिलकर वे माओवादी शासन पद्धति अपनालें । जय हो प्रियदर्शी बाबा की !


उनके इस लेख को पढ़ने से पता चलता है कि माओवादी चाहते क्या हैं आख़िर – “माओवाद एक पूरी विचारधारा है। यह विचारधारा संसदीय लोकतंत्र पर ही भरोसा नहीं करती। संसदीय लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप को उखाड़ फेंकना उसके चरम लक्ष्यों में एक है। क्योंकि सत्ता की यह धूरी नष्ट किए बिना वह पूंजीवादी व्यवस्था ख़त्म नहीं की जा सकती जिसमें शोषण और दमन अंतर्निहित है। यह विचारधारा मानती है कि उसका स्थानीय प्रतिरोध धीरे−धीरे एक बड़ी शक्ल अख्तियार करेगा एक ऐसे जनांदोलन में बदल जाएगा जिसके विरुद्ध सेना भी नहीं जाएगी और आखिरकार वह एकदलीय साम्यवादी व्यवस्था की नींव रखेगा । लेकिन माओवादी बातचीत की मेज पर क्यों आएं ।”


वे भी लिखते हैं कि वह शोषण है जो सरकारी कायदों के मुताबिक और कानून और तरक्की की आड़ में किया जाता है। शोषण की दूसरी परत और भयावह है। इसका वास्ता इन इलाकों के संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से है। इस काम में अलग−अलग महकमों के आला अफसर से लेकर नेताओं के गुर्गे तक लगे होते हैं। वे जंगल की बेशकीमती लकड़ियां उठा लाते हैं, वे खनिज पदार्थों पर बंदूक का पहरा बिठाए रखते हैं और खुलेआम रंगदारी वसूलते हैं। वे श्रम कानूनों का मजाक बनाते हैं और अगर किसी गरीब ने उन्हें इनकी याद दिलाने की कोशिश की तो उसे मार भी डालते हैं। झारखंड के कोयलांचल में जो माफिया गिरोहबंदी है उसकी कहानी किसी से छुपी नहीं है। छत्तीसगढ़ के मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी को कई साल पहले जिस तरह मारा गया था उसके पीछे भी ऐसे ही लोग थे।


यहाँ वे यह नहीं लिखना चाहते कि ऐसा ही शोषण तो वे माओवादी बस्तर में पिछले 40 साल से कर रहे हैं जो स्वंय शोषण का विरोध कर रहे हैं । वे भी बस्तर की वादी और वहाँ बसे हज़ारों लोगों की पढ़ाई-लिखाई पिछले 4 दशक में रोककर उन्हें बंदूक पकड़ा चुके हैं । जिन्हें पढ़लिखकर नौकरी पेशा में होना चाहिए वे अब खूंखार आंतककारी बन चुके हैं । पूरी की पूरी पीढ़ी को वे गुरिल्ला सैनिक में तब्दील कर चुके हैं । माओवादी नक्सली जंगल के ठेकेदारों से रंगदारी लाखों-करोड़ों में वसूलते हैं । छोटे-मोटे खनिज के खदान में लगे मालिक, ठेकेदारों, मुंशी और मजदूरों से भय दिखाकर अवैध वसूली करते हैं । जंगल के सिपाहियों यानी जंगल विभाग के लोगों की तनख्वाह से हर माह कुछ राशि हड़प लेते हैं । बस्तर में चलनेवाले बसों के मालिक से प्रतिमाह नियमित चंदा लेते हैं । ग़रीब आदिवासियों के घर से राशन, चावल, दाल मुर्गी की वसूली करते हैं । उनके बच्चे क्या कुपोषण के शिकार नहीं बनाये जा रहे हैं इस तरह । विरोध करने पर गाँववासी सरेआम जनसुनवाई में मार दिये जाते हैं । जनविकास की बात तो दूर अब तक अरबों रूपयों की सार्वजनिक संपत्ति का विनाश कर चुके हैं । रेल पटरी उखाड़ना, स्कूल, पंचायत भवन, अस्पताल भवन को विस्फोट से बर्बाद करना, ट्रांसफार्मर उड़ाना, सड़क खोदना, थाना लूटना, नागरिकों को बंधक बनाना, बलात्कार करना आदि कौन –सा विकास कार्य है जो नित्यप्रति नक्सली बस्तर, दंतेवाड़ा, राजनांदगाँव, सरगुजा आदि जगहों में किये जा रहे हैं ? प्रियदर्शन को यह सब क्यों नहीं दिखाई देता, साफ़ समझ में आता है कि वे ऐसे कार्यों को ही विकास कहते हैं और पिछले सालों में व्यवस्था द्वारा हुए बुनियादी विकास को विनाश साबित करते हैं ।

वे यह भी कहते हैं कि- दस राज्यों में उनका गलियारा अब जाना−पहचाना है और इसके विरुद्ध कार्रवाई में हिस्सा लेने से एक तरह से वायुसेना इनकार कर चुकी है। बहुत झूठ कहते हैं लेखक महोदय । वायुसेना अपनी सेवा देने को पहले भी तैयार थी और अब भी है ।

प्रियदर्शन उवाच देखिए - चिदंबरम जिस राजनीतिक तंत्र को साथ लेकर माओवादियों का सामना करना चाहते हैं वह अपने चरित्र में इतना लुंजपुंज, निकम्मा, भ्रष्ट, अपराधी और हिंसक है कि किसी भी कार्रवाई की वैधता खो देता है। राज्य की हिंसा अपनी तमाम शक्लों में कहीं ज्यादा ख़ौफ़नाक हो उठती है। उसके पास दमन के सारे औजार हैं− बारीक से बारीक बड़े से बड़े। उसके पास शोषण के सारे उपाय हैं− विकास से लेकर बंदूक तक। वह अपने लिए हवाई अड्डे बनाता है तो आदिवासियों को बेदखल करता है वह अपने लिए बिजलीघर बिठाता है तो आदिवासी घरों में अंधेरा होता है वह अपने लिए बड़ी बांध परियोजनाएं लागू करता है तो आदिवासियों को विस्थापित करता है।


अर्थात् प्रियदर्शन के अनुसार माओवादी हिंसा करें किन्तु सरकार या व्यवस्था से जुड़े लोग उनकी हिंसा को रोकने की कार्रवाई में वैध नहीं है । अतः उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए । वे बड़े भोले लेखक हैं या चतुराई कर रहे हैं । वे जानबूझकर इस तथ्य को छुपा रहे हैं कि माओवादी न्यायव्यवस्था में तो जनसुनवाई में केवल मौत की सजा दी जाती है और राजनीतिक तंत्र (शायद उन्हें प्रजातंत्र शब्द का नाम लेने से भी परहेज है) में तो पुलिस है, न्यायालय है, संविधान है जहाँ इनकी सुनवाई होती है, देर ही सही न्याय तो मिलता है, कहने, शिकायत करने, आंदोलन करने की छूट तो है । माओवादी तो अपने विरोध में उठ खड़े हुए आंदोलन – सलवा जुडूम को भी सरकारी बताकर चाल चलते हैं । जैसे आदिवासी उनका विरोध करना ही नहीं जानता । धन्य है ऐसे लेखक जो आदिवासी को बस्तर के जंगल में ही सड़े रहने के लिए विवश देखना चाहते हैं । वहाँ बिजली, रोड़, उद्योग धंधे का ही विरोध करते हैं । यह दीगर बात है कि ऐसे लेखक बिना बिजली के एक मिनट भी अपने घरों में नहीं रह सकते । ऐसे लेखक कच्चे सड़क पर चलते ही सरकार को कोसने लगते हैं । अपने गाँव घर की खेती बाड़ी के लिए बांध, नहर की वकालत करते फिरते हैं । दरअसल यह ऐसे लेखकों का दोहरा व्यक्तित्व ही है जो केवल अपने मतलब के लिए ही ऐसे लेखों से जनता को भ्रमित करते रहते हैं ।

लेखक संसदीय व्यवस्था को भी पसंद नहीं करते । वे कहते हैं कि संसदीय राजनीति को दरअसल इन लोगों ने एक जनविरोधी उपक्रम में बदल डाला है और कानून और संविधान को अपने बचाव की छतरी में। यही वजह है कि नक्सलवाद जैसी हिंसक अवधारणा भी गरीबों और आदिवासियों में लोकप्रिय हो रही है। हे लेखक, नक्सलवाद जैसी हिंसक अवधारणा गऱीबों और आदिवासियों में लोकप्रिय होती तो क्यों बस्तर, दंतेवाड़ा, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र और आन्ध्र आदि के आदिवासी उसके विरोध में सड़क पर उतरे । उनका पूतला फूँकते । सलवा जुडूम जैसा आंदोलन होता । आदिवासी एसपीओ बनकर नक्सलियों के खात्मा का शपथ लेते । और हे लेखक, क्या पिछले 40 -50 सालों में आपके माओवाद ने कौन सा विकास कार्य किया जिसके दंभ पर आदिवासी उनके साथ जुड़ना चाहेंगे ? हिंसा और सिर्फ विध्वंस ना ।
प्रियदर्शन के लेख का एकमात्र उद्देश्य, लगता है, प्रजातंत्र के बरक्स माओवादी व्यवस्था के लिए लोगों को तैयार करना है । इसीलिए वह केवल नकारात्मक उदाहरणों के कंधों पर सवार होकर पेशाब करना चाहते हैं, एक शिशु की तरह । वे भूल जाते हैं कि रामायण और महाभारत के बाद भारतीय तासीर में हिंसा आधारित विकास पद्धति को कोई स्वीकृति नहीं दिखाई देती । प्रजातंत्र की बुराईयों को प्रजातांत्रिक तरीके से ही दूर किया जाना चाहिए । हिंसात्मक नहीं अहिंसात्मक तरीकों से ही उससे निजात पाया जा सकता है । नक्सली हिंसा और उत्पात मचा कर किसे मार रहे हैं ? एक भी कार्पोरेट मालिक नहीं मारा जा रहा । एक भी नेता नहीं मारा जा रहा । एक भी बड़ा आफिसर नहीं मारा जा रहा । एक भी धनी या पूँजीवादी नहीं मारा जा रहा । वे केवल आदिवासी, गरीब, दलित, पिछड़े आदमी को मार कर क्रांति लाना चाहते हैं । यह आख़िर कैसी क्रांति है, क्या भारतीय लोग इसे नहीं समझ रहे हैं, आप भूल कर रहे हैं लेखक महोदय ।

मुझे समझ नहीं आता कि आख़िर वे नक्सलियों के इतने हमदर्द क्यों हैं जो कहते फिर रहे हैं कि गृह मंत्री को पहले अपना घर देखना होगा और फिर नक्सली इलाकों में पत्थर उछालने होंगे। वे नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई तो करने निकले हैं लेकिन ये कार्रवाई आसान नहीं होगी। क्यों नहीं होगी भाई आसान । पंजाब में क्या आंतकवाद नहीं रोका गया । वहां तो सेना ने रोका । नक्सलवाद के खिलाफ तो पुलिस और अर्धसैनिक बल ही लगे हैं । फिर आपको कैसे पता चल गया कि नक्सली और आम आदमी में फर्क नहीं है । लंका की बात करके आप राजनीति कर रहे हैं । यह नरसंहार नहीं, नक्सलियों को पकड़ने, खदेडने, अस्त्र डलवाने, आदिवासियों के मन में व्याप्त भय और आंतक को खत्म करने का अभियान है । तो वह तो उसी दिशा में चलेगा ना । नरसंहार जब माओवादी कर रहे थे बस्तर में तब ऐसे लेखक पता नहीं कहाँ छूपे होते हैं ?

2 comments:

  1. सरकार इनकी हरकतों का संज्ञान क्यो नहीं लेती

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  2. http://rammalviya.blogspot.com/2010/01/gappe-bazi_8481.html

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