Wednesday, January 20, 2010

चौंथी दुनिया का फर्जीवाड़ा

चौंथी दुनिया नामक एक अख़बार ने एक आलेखनुमा ख़बर प्रकाशित किया है - ख़ामोश ! यह छत्तीसगढ़ है और लिखा है कि दंतेवाड़ा में अगर सात जनवरी की जन सुनवाई होती तो ऐतिहासिक होती, लेकिन ऐसा नहीं होने दिया गया । जनसुनवाई ऐतिहासिक क्यों होती, यह अख़बार ने नहीं बताया है । वह बता भी नहीं सकता ।

जो अख़बार हिंसा के दिन-प्रतिदिन तांडवी क्षेत्र बस्तर या दंतेवाड़ा के बारे में जानते हैं, वहाँ पसरे आंतक के माहौल को क़रीब से देख चुके हैं – वे बखूबी जानते हैं कि वहाँ ‘जनसुनवाई’ कौन कर सकता है ? सिर्फ़ नक्सली दादा, जो मूलतः माओवादी हैं या सरकार जिसके पास ऐसा करने का अधिकार है और ऐसी जनसुनवाई हेतु आवश्यक संसाधन भी । सारा देश जानता है कि माओवादी यह जनसुनवाई सरकार के समानांतर करते हैं । परन्तु उनकी जनसुनवाई में सिर्फ़ मौत का दंड दिया जाता है । चीन के माओवादियों की तरह लातों से मारा जाता है, बीच बस्ती में पीछे हाथ बाँधकर गला रेत दी जाती है । यानी जनसुनवाई का सीधा मतलब मृत्युदंड से है । वहाँ किसी को आज तक राहत मिली है सुनने को नहीं मिला । यह दीगर बात है कि माओवादी इसे संवैधानिक न्याय के विकल्प में खड़ा करते हुए त्वरित न्याय की संज्ञा देते हैं जहाँ विपक्ष केवल वही होता है जो माओवाद का समर्थन नहीं करता, सहयोग नहीं करता, माओवाद का विरोध करता है । ऐसी जनसुनवाई की सबसे बड़ी विशेषता होती है – यहाँ पक्ष, जिरहकर्ता यानी वकील और न्यायाधीश भी माओवादी होते हैं जिन सबों का एक ही उद्देश्य होता है माओवादी नक्सलियों की हर बात को सच ठहराना और विपक्ष यानी माओवादी विरोधियों को नेस्तनाबूद करना ।

सबसे बड़ी बात कि जिस दंतेवाड़ा में पुलिस, अर्धसैनिक बल के लोग भी अपनी पोस्टिंग से घबराते हैं, ऐसे नक्सलियों से भय खाते हैं, आख़िर वहीं या ऐसे क्षेत्रों में ही जनसुनवाई का यह निर्णय किस बात का संकेत है? इसका सीधा मतलब तो यही है कि जो लोग वहाँ जनसुनवाई करना चाहते हैं उन्हें नक्सलियों या माओवादी हिंसकों से कोई भय नहीं है । यानी उनके और जनसुनवाई करनेवालों के मध्य कोई गुप्त समझौता है ।

अख़बार द्वारा हिमांशु कुमार को गांधीवादी कहना भी शर्मनाक और अधूरी जानकारी का शिकार होना है । हिमांशु का बस्तर के आदिवासी घोर विरोध कर रहे हैं । नक्सली नहीं कर रहे हैं । यानी वह नक्सलियो का हिमायती हो सकता है स्थानीय जनता का नहीं । हिमांशु कुमार दंतेवाड़ा में पिछले 15-17 वर्षों से एनजीओ का काम कर रहे हैं, देश-विदेश से भारी भरकम रूपये लेकर । गांधीवादी होते तो एक भी बार इतने वर्षों के दरमियान कभी नक्सली हिंसा के विरूद्ध आवाज़ उठाते । पदयात्रा करते । नक्सलियों से अपील करते । उनसे हिंसक अस्त्र-शस्त्र समर्पित कराते । उन्हें मूलधारा के शांतिपूर्ण जीवन में शामिल कराने के लिए कोशिश करते । नक्सलियों के खिलाफ लेख लिखते । कोर्ट में जनहित याचिका लाते । गांधीवाद के नाम पर दंतेवाड़ा में दुकान चलानेवाले इस नेतापुत्र का एकमात्र उद्देश्य – गांधी वाद के नाम पर रूपया कमाना ही थी । कहते हैं उनके एनजीओ – वनवासी चेतना आश्रम – का सारा पैसा उनके और उनकी पत्नी के संयुक्त नाम पर जमा है । उनकी संस्था में ऐसा कोई नहीं है जिस पर वे विश्वास करते । हजारों आदिवासियों द्वारा आदिवासी हित के नाम पर मिलने वाली सहायता राशि की जाँच के लिए निकाली गई रैली, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल और पुलिस महानिदेशक को लिखे शिकायत पत्र इसकी गवाही देते हैं ।

जो भ्रष्ट्र गांधीवादी हिमांशु कुमार के बारे में जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि यह जनसुनवाई नक्सलियों के विरोध, हिंसा के विरोध, विध्वंस के विरोध में नहीं था । मात्र पुलिस द्वारा एकाध प्रकरण में किये गये मानवाधिकार के हनन में था । वे इसके लिए बकायदा छत्तीसगढ़ के बाहर के पत्रकारों को लाकर छत्तीसगढ़ में हो रहे पुलिस द्वारा किये जा रहे मानवाधिकार के हनन को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाना चाहते थे । वर्षों से हिंसक माओवादी द्वारा किये जा रहे मानवाधिकारों के हनन से उनका कोई रिश्ता नहीं था । बहरहाल इसके लिए उन्होंने सारे देश के एनजीओ के समक्ष एक चाल चली – कि उनके जनसुनवाई में केंद्रीय गृहमंत्री चिदाम्बरम आ रहे हैं । यह एक सौ फीसदी झूठ था । नागरिक अधिकारों से जुड़े और प्रकारांतर से माओवादी विकास प्रकिया पर विश्वसा करनेवाले एनजीओ हिंमाशु कुमार की चाल में फँस गये । उधर जब जनसुनवाई टल गयी तो वह गांधीवादी उपवास पर बैठ गया । और एक दिन अचानक रात में गांधीवादी उपवास के बीच ही फरार हो गया ।

अख़बार ने लिखा है - राज्य सरकार की योजना डॉ. विनायक सेन की तरह उन्हें भी जेल की हवा खिलाने की थी । यह तो नहीं पता । किन्तु वे फरार नहीं होते तो उन्हें स्थानीय जागरूक आदिवासियों के हाथ ज़रूर मार पड़ती, क्योंकि वे हिमांशु कुमार को टोटली फ्राड और आदिवासी अस्मिता के विरोध में काम करनेवाला गांधीवादी मानते रहे हैं ।

जिस अख़बार को यह नहीं पता कि सोड़ी शंबों ने सीआरपीएफ के खिलाफ मानवाधिकार और स्थानीय पुलिस को शिकायत की थी, उसके आवेदन पत्र पर कार्यवाही के लिए पुलिस कई बार उसके गांव में बयान के लिए जा चुकी थी । सच तो यह है कि हिमांशु कुमार उसे अपने आश्रम मे लगभग किडनैप करके रखे हुए थे । जब पुलिस ने उन्हें भी हाजिर करने की जानकारी दी तब भी हिमांशु कुमार का गांधी मौन साधे रखा । यह मेडिको लीगल का मामला था । हिमांशु कुमार यदि गांधीवादी होते तो संवैधानिक व्यवस्था, नियम और कानून को तोड़ते नहीं । पुलिस को सहयोग करते । हिमांशु कुमार से न तो सोडी संबों ने सहायता माँगी न उसके पति या पिता ने । उसके पिता और पति ने तो स्थानीय पुलिस को उसकी तलाश के लिए माँग की थी कि उसे हिमांशु कुमार ने जबरन अपन आश्रम में रख लिया है । यह तो बात में जब हिमांशु कुमार के लोग संबो सोड़ी को लेकर दिल्ली या कहीं अन्यत्र फरार हो रहा थे तब उसके बयान और ईलाज के लिए स्थानीय पुलिस ने कांकेर में उसे मुक्त किया ।

हम नहीं कहते कि बस्तर या दंतेवाड़ा की पुलिस या अर्धसैनिक बल दुध के धुले हुए हैं किन्तु हिमांशु कैसे गांधीवादी हो सकता जिसे सिर्फ पुलिस का ही विरोध करने में मजा आता रहा है ।

हम यहाँ यह भी बताना चाहेंगे कि उनकी चाल में फँसकर मेधा पाटकर और उनके जैसे कई लोगों को दंतेवाड़ा आना पड़ा । आने पर उन्हें पता चला कि वे तो कबके फरार हो चुके हैं । हिमांशु कुमार ने यह भी सूचित करना उचित नहीं समझा कि जनसुनवाई स्थगित हो गई है । इससे ही मेधा पाटकर को आदिवासियों का विरोध अनायास झेलना पड़ा । उन्हें तो रायपुर में भी पत्रकारों, नक्सलियों द्वारा हताहत परिवार के बच्चों का भी भारी विरोध झेलना पड़ा । हिमांशु कुमार कैसे गांधी हैं, इन बातों से समझा जा सकता है ।

जो इंटरनेट की दुनिया को जानते हैं वे बखूबी समझ सकते हैं कि कैसे उसने प्रियंका बोरपुजारी नामक बंबईया छोकरी के माध्यम से नेट पर प्रतिदिन लिखवाया कि वे बस्तर के गांधी हैं । यह बोरपुजारी वहीं उनके आश्रम में डेरा डाली हुई थी । पता नहीं अब कहाँ है ? हिमांशु के पक्ष में जिन लोगों ने इंटरनेट की सहायता लेकर मुहिम चलायी वे सारे के सारे वहीं हैं जो विनायक सेन के मामले में हो हल्ला मचा रहे थे । ज्ञातव्य हो कि विनायक सेन को अभी केवल जमानत मिली है । माफी नहीं । प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है । उनपर लगे आरोप अभी जाँच में हैं । शायद अखबार को यह जानना चाहिए कि मानवाधिकार से बड़ा होता है प्रजातंत्र, आम नागरिकों की रक्षा । जब प्रजातंत्र ही नहीं रहेगा तब कहाँ और किसका प्रजातंत्र ?

विश्वास किया जाना चाहिए चौथी दुनिया अपनी विश्वसनीयता पर वॉट लगाने वालों से सतर्क रहेगी ।

4 comments:

  1. बढिया लेख आंखे खोलने वाला.

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  2. फर्जी तो ये हैं
    हिन्दी का पहला साप्ताहिक अख़बार लिखते हैं अपने आप को ???

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  3. apan ne vaha ye comment kiya hai dekhiye publish hota hai ya nahi....

    "आदियोग जी, कभी छत्तीसगढ़ आना हुआ है आपका?
    कभी यहाँ रहे हैं? खासतौर पर बस्तर में, जहा के बारे में लिख रहे हैं , वहां कभी लम्बे अरसे तक रहे हैं?

    स्वागत है, आइये रहिये देखिये फिर कही ज्यादा अच्छा लगेगा बंधू .

    हिमांशु कुमार जी ने रायपुर में प्रेस वार्ता ली थी , मै बैठा था उसमे लेकिन उनके पास कहने के लिए था क्या. शायद उन्हें ही समझ में नहीं आया होगा क्योंकि सवालों का उनके पास एक ही जवाब था की ऐसा है तो सरकार मुझे गिरफ्तार कर ले, क्यों नहीं करती. वो तो स्वीकार कर रहे थे की हाँ मै नक्सलियों के पास जाता हूँ उनसे बाते करता हूँ , खैर, आइये कभी आप"

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  4. chhattisgarh ko jyada to nahi janta par itna jaroor kahunga yahan ke haalaat bahut achhe nahi hai (kuchh shahron ko chhod kar)... waise aalekh achha hai... kayi jaankari haasil ho gayi...

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