श्री अनिल अग्रवाल की रपट
बार-बार यह बात उठती है कि कौन-कौन से शासकीय विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी नक्सलियों के मददगार हैं, इस संबंध में कई शिकायत पुलिस विभाग को मिलाती है पर न जाने किन कारणों से पुलिस इन पर कार्यवाही नहीं करती, जबकि शासन पर बैठे शासकीय अधिकारी की जिम्मेदारी आम आदिवासियों से ज्यादा है। पुलिस छ.ग. राज्य जनसुरक्षा कानून के तहत नक्सलियों के मददगारों को जेल भेजती है जो कि स्वागत योग्य है पर उन शासकीय अधिकारियों को भी छ.ग. राज्य जनसुरक्षा के तहत जेल भेजा जाना चाहिए जो वन प्रबंधन समिति एवं वन सुरक्षा समिति के खातों का शासकीय धन को नक्सलियों की मदद के लिए खर्च कर अपनी कुर्सी का सलामती चाहते हैं।
सघन जंगल जहां नक्सलियों को भी ठीक से रास्ता नहीं मालूम उन रास्तों को वन विभाग के अधिकारी बखूबी अच्छे से जानते हैं, उन वनों में यदि कोई आम आदमी प्रवेश करता है तो उसे वन विभाग उनके खिलाफ पी.ओ.आर. काट सकती है (जिस प्रकार पुलिस विभाग में एफ.आई.आर. होता है उसी प्रकार से वन अपराधियों के रोकथाम के लिए वन अधिकारियों को पी.ओ.आर. काटने का अधिकार है) परन्तु किसी भी नक्सलियों या उनके समर्थकों के लिए कभी भी पी.ओ.आर. नहीं काटा जाता, उल्टा उन्हें निरोध, बिस्कुट, पायोडिन्-आयोडीन मलहम, डिस्प्रिन, जूता-मौजा, रायफल की नली साफ करने के लिए ग्रीस, आयल, लुब्रिकेन्ट, नायलोन रस्सी, छाता बरसाती झिल्ली, चश्मा, विक्स, झंडू बाम, लाल कपडा दी जाती है।
इन सबको जंगल के अंदर तक कौन लेकर जाता है, इसकी भी जांच करना चाहिए। जो समान नक्सलियों को बरामद होता है, उसकी सप्लाई कौन करता है, इसकी भी जांच किया जाना चाहिए। नक्सलियों के मददगार यदि नक्सलियों की मदद न करे तो वे बीमार होकर चार दिन में अपने आप मर जाए, परन्तु वन विभाग के कुछ अधिकारी अपने स्वार्थ के चलते अपने डिप्टी रेंजर, फारेस्ट गार्ड, बीट गार्ड, वन प्रबंधन समिति एवं वन सुरक्षा समिति को निर्देश देकर रोजमर्रा के सामानों की पूर्ति करते हैं।
यदि इन सामानों की पूर्ति न की जाए तो नक्सली वन विभाग के सारे कार्य को रुकवा देंगे, जिससे वन अधिकारी भ्रष्टाचार नहीं कर पाएंगे। इस कारण वन विभाग अपने स्वार्थ के चलते नक्सलियों के मददगार बन जाते हैं। चूंकि शिकायत पर सिर्फ खाना पूर्ति वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी अपने मुख्यालय या अरण्य भवन, रायपुर से ही रिपोर्ट बनाकर शिकायत पत्र को दीमक के हवाले कर देते हैं। कुछ दिनों में दीमक इस शिकायत पत्र को चाट जाते हैं, इन कारणों से रोज हमारे पुलिस के जवान शहीद हो रहे हैं। क्या उन शहीद के बेवाओं एवं बच्चों के आंसू किसी कीमत पर रोका जा सकता है। एक तरफ हम नक्सली रुपी डाकू को मारने का योजना बनाते हैं तो दूसरी तरफ वन विभाग के कुछ भ्रष्ट अधिकारी उनके मददगार हैं।
यह व्यवस्था कितनी भी खराब हो पर उसे ठीक करने का तरीका नक्सलियों ने जो ठहराए हैं वो बिल्कुल भी उचित नहीं है। नक्सलियों एवं उनके मददगारों का नारको टेस्ट एवं ब्रेन मैपिंग अनिवार्य रुप से होनी चाहिए तभी सच्चाई सामने आएगी कि कौन उनका मददगार है, अन्यथा प्रदेश हमेशा शहीद वी.के. चौबे जी जैसे वीरों को खोकर सिर्फ अफसोस जाहिर करेगा ।
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