Wednesday, January 20, 2010

भ्रम और भय फैलाते नेट अखबार

जन सुनवाई का सामना क्यों जरूरी?

चौंथी दुनिया कहता है कि छत्तीसगढ़ के राज्यपाल नरसिंहन ने कभी नहीं चाहा कि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम सात जनवरी 2010 की दंतेवाड़ा जन सुनवाई में हिस्सा लें ।

- यह समझ से परे है कि चौंथी दुनिया को कैसे पता चला कि छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने कभी गृहमंत्री पी. चिदम्बरम राज्य आयें, बस्तर आयें । चौंथी दुनिया लगता है नेट में खंगालना भी नहीं चाहता कि उसे वास्तविकता का पता चल सके । केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम एक नहीं दो – दो बार राज्य में आ चुके हैं । और तीसरी बार फिर 22 जनवरी, 2010 को आ रहे हैं । यह भी नेट पर अख़बारों में उपलब्ध है ।
- यह चौंथी दुनिया को तय करने का अधिकार नहीं है कि राज्यपाल उससे पूछकर तय करें कि कब किसे और कहाँ आना चाहिए ? जिस जनसुनवाई का जिक्र चौंथी दुनिया कर रहा है वह सरकार का आयोजन नहीं था । छद्म मानवाधिकारवादियों का था । जिसकी झूठी सूचना हिमांशु कुमार ने दी थी कि गृहमंत्री उनके चेतना आश्रम की सुनवाई में आ रहे हैं । गृहमंत्री की सहमति की सूचना सबसे पहले राज्य शासन को मिलती, न कि चौंथी दुनिया या हिमांशु कुमार को ।

- चौंथी दुनिया को यह स्पष्ट करना चाहिए कि - जिस पत्र का जिक्र कर रहा है और जिसमें लिखा है कि चिदाम्बरम दंतेवाड़ा जनसुनवाई में न आयें क्या वह उसके किसी प्रतिनिधि ने पढ़ा है ? उसकी कोई फोटोकॉपी उसके पास है ? यदि नहीं तो कैसे तय हो गया कि उन्होंने मना ही किया हो ?

- चौंथी दुनिया को यह भी क्या नहीं जानना चाहिए कि पी. चिदम्बरम् या कोई भी गृहमंत्री किसी राज्य में जाना चाहेंगे तो वे सबसे पहले किससे इसकी पुष्टि करेंगे कि क्या वहाँ जाना समयोचित है ? जाहिर है राज्यपाल से । यह वे किसी जनसुनवाई करनेवाले संगठन या हिमांशु कुमार जैसे झूठे गांधीवादी से तो तय नहीं कि वहाँ कि राजनीतिक, सामाजिक, कानून और व्यवस्था की स्थिति कैसी है ? जिसका स्वयं हजारों आदिवासी दंतेवाड़ा में विरोध कर रहे थे । किसी गृहमंत्री के राज्य या किसी स्थल विशेष का दौरे के लिए सामयिक और वांछित जानकारी देने का हक और पात्रता राज्यपाल को है किसी पत्रकार या किसी संगठन या किसी चौथी दुनिया जैसे अख़बार को नहीं । राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि हैं ।

- क्या चिदम्बरम या कोई भी राज्यपाल केंद्रीय गृहमंत्री को वहाँ और तभी बुलाना चाहेगा जहाँ और जब हिंसक वारदातें लगातार हो रही हैं । माओवादी की लगातार हिंसक और वारदातों से प्रदूषित हो चुके दंतेवाड़ा के बारे में शायद चौंथी दुनिया को संदेश भेजनेवाले पत्रकार की जानकारी नहीं । जब वहाँ लगातार मुठभेड़ हो रहे हों, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा प्रतिबंधित भाकपा (माले) के गुरिल्ले दिन प्रतिदिन हत्यायें कर रहे हों । उनसे निपटने के लिए संयुक्त अभियान की जमीनी तैयारी की जा रही हो वहाँ संयुक्त अभियान के विरूद्ध में ही किये जा रहे किसी भी जनसुनवाई का क्या औचित्य बच जाता है जहाँ कि पी. चिदम्बरम् आयें ही । जाहिर है जनसुनवाई करनेवाले पी. चिदम्बरम को माओवादी के विरोध में नहीं बुला रहे थे, वे तो कथित पुलिस, एसपीओ, सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं के विरोध में जनसुनवाई कराने ही बुला रहे थे । प्रकारांतर से उनका लक्ष्य माओवादियों के विरोध में केंद्र और राज्यों में बन रहे वातावरण को शिथिल करना ही है । प्रकारांतर से उनक उद्देश्य व्यवस्था, पुलिस, अर्धसैनिक बल और तंत्र द्वारा किये जा रहे कथित मानवाधिकार हनन की चुगली के बहाने माओवादी गतिविधियों को लगाम लगाने के लिए कटिबद्ध कार्यवाही को हतोत्साहित करना ही है । क्या चौंथी दुनिया के संपादक यदि गलती से किसी प्रदेश के राज्यपाल बना दिये जायें तो ऐसी स्थिति में ही केंद्रीय गृहमंत्री को आमंत्रित करना चाहेंगे ?

- चौंथी दुनिया में यह भी लिखा गया है कि - सनद रहे कि कोई दो माह पहले चिदंबरम खुद ही कह चुके थे कि वह जन सुनवाई में शामिल हो सकते हैं । क्या चौंथी दुनिया से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि वे कथित गांधीवादी और अब चेतना आश्रम छोड़कर फरार हो चुके हिमांशु कुमार द्वारा दी गई सूचना और प्रेस विज्ञप्ति के अलावा केंद्रीय गृहमंत्रालय, नई दिल्ली से पुष्ट कर चुके हैं कि पी. चिदम्बरम् जनसुनवाई में आने की सहमति दे चुके थे ? क्या पी. चिदम्बरम, उनका निजी स्टाफ, मंत्रालय इसकी पुष्टि करता है । नहीं ना ! फिर सुनी सुनवाई बातों को ही सच मान लेने से चौंथी दुनिया की विश्वसनीयता का क्या होगा ? क्या यह मीडिया का सवाल नहीं हो सकता ?

- चौंथी दुनिया लिखता है - दंतेवाड़ा में गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का उपवास गत 26 दिसंबर को शुरू हुआ था । उन्हें देश के विभिन्न जन संगठनों और अभियानों का समर्थन मिला । जन संगठन कितने जनहितैषी हैं, कितने जन विरोधी इसकी जानकारी जनता को भी है और देश के पत्रकारों और अखबारों को भी । एनजीओ क्या क्या कर रहे हैं यह समाज जानने लगा है । यदि हिमांशु का मकसद बस्तर के हालातों को सामान्य करना होता तो बीस साल से वे यही कर रहे होते । बस्तर को अशांति और हिंसा का टापू वहाँ के आदिवासियों ने नहीं, पंचायत प्रतिनिधियों, विधायकों, सरकारी कर्मचारियों ने नहीं, माओवादियों ने बना रखा है जो प्रजातंत्र को उखाड़ फेंककर वहाँ ही नहीं सारे देश में माओवादी हिंसा आधारित व्यवस्था के लिए कथित जनसंहार किये जा रहे हैं । हिमांशु कुमार को यह तो पता होगा कि गांववाले नक्सलियों के डर और आंतक से गांव छोड़कर भग रहे हैं । फिर उन्होंने नक्सलियो के खिलाफ क्या क्या किया पिछले 20 सालों में, इसका ब्यौरा क्यों नहीं मांगता चौंथी दुनिया ?

- उपवास आत्मावलोकन होता तो हिमांशु कुमार बीच में ही फरार नहीं होता । गांधीवादी फरार नहीं होते ।

- बस्तर के असामान्य हालात, ख़ौ़फ एवं ज़ुल्मोसितम का दौर, विस्थापन का बेक़ाबू ग्राफ, आदिवासियों को बेज्जती और बराबरी के साथ जीने का गैरअधिकार के लिए नक्सली भी जिम्मेदार हैं और कुछ वे एनजीओ भी जो इन्हीं कार्यो के लिए करोड़ों रूपये देश-विदेश से बटोर रहे हैं । उन पर भी निगरानी क्यों कर न हो ?

- बस्तर में वन और पर्यावरण अधिनियम लागू है । वहां किसी कंपनी या उद्योग स्थापित करना मामूली खेल नहीं । वहाँ एकाध उद्योग के अलावा किसी को अनुमति दी ही नहीं गई है न ही दी जा सकती । यह तो कुतर्क है उनका जो इसी बात का बहाना बनाकर जनता को दिग्भ्रमित करना चाहते हैं । चौंथी दुनिया को यह बतान चाहिए कि बस्तर में कहाँ-कहाँ, कितनी-कितनी जमीन पर कौन-कौन सा उद्योग है, नया कहाँ प्रस्तावित है, किसे अनुमति दी जा रही है किसे अनुमति दी जायेगी और किसे अनुमति दे दी गई है सरकारों द्वारा । यदि नहीं बता सकते तो फिर झूठ छापने का क्या आशय है आपका ?

- चौंथी दुनिया की शब्दावली पर गौर करें – “14 दिसंबर को, जिस दिन से पदयात्रा शुरू होनी थी, हिमांशु कुमार की नज़रबंदी कर दी गई। सरकारी आतंक और हिंसा का यह ताज़ा क़िस्सा छत्तीसगढ़ और देश के बाहर तक पहुंचा. लोकतंत्र और मानव अधिकारों के पैरोकारों ने इसकी कड़ी निंदा की। नई दिल्ली से लेकर लखनऊ, मुंबई, बंगलूर, चेन्नई, कलकत्ता तक से आवाज़ें उठ रही हैं, लेकिन चिकने घड़ों पर पानी कहां ठहरता है. राज्य सरकार हक़ और इंसा़फ की आवाज़ को कुचल देने की जिद पर आमादा है। ठीक वैसे ही, जैसे राज्य सरकार पर तब भी कोई असर नहीं पड़ा था, जब डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए पूरी दुनिया से मांग उठ रही थी कि उनकी क़ैद ज़म्हूरियत की क़ैद है।” ऐसा और यह कहना एकतरफा भी हो सकता है । दरअसल जिसे नजरबंदी कहा जा रहा है वह पुलिस प्रोटेक्शन है । क्योंकि उनके खिलाफ किसी आदिवासी द्वारा या फिर नक्सली द्वारा अकेले उपवास के दरमियान कुछ अवांछित हो जाता तो वही कहता फिरता कि यह सब पुलिस के द्वारा जानबूझकर किया गया । पुलिस प्रोटेक्शन मिलना बूरी बात नहीं, नजरबंदी नहीं । हो सकता है कि खुद हिमांशु भी कहता कि उसे पुलिस से खतरा है । जैसा कि वह कहता ही रहता है । लिखता ही रहता है ।

- हिमांशु जैसे माओवादी हितैषी और चौथी दुनिया जैसे लोकप्रिय अखबारों को यह जानना चाहिए कि लडकियों को बलात्कार सिर्फ एसपीओज ही नहीं वर्षों से माओवादी नक्सली भी करते आ रहे हैं । अब तो सुना है गांव के घर घर से नन्ही लड़कियाँ और लड़के वे बंदूक के बल पर अपने साथ ले जा रहे हैं । क्या यह मानवाधिकार का प्रश्न नहीं है ? क्या ऐसे प्रकरणो की संख्या हिमांशु जैसे गांधीवादी बतायेंगे जिनमें माओवादियों ने बलात्कार किये हैं ? और उनके विरोध में गांधीवाद के हितैषी बनकर हिमांशु आगे आते रहे हैं ? हम चौंथी दुनिया के माध्यम से ही यह जानना चाहेंगे कि वह कुछ पहल करे...

- कोपा कुंजाम पर हत्या का मामला दर्ज है । यह सभी जानते हैं ।

- दरअसल इस लेख का लेखक माओवादियों का प्रतिनिधि है जो तोहमत लगा रहा है। वैसे इनका एक काम सरकारी लोगों, सरकार पर तोहमत लगाना भी है यह सभी जानते हैं । किन कंपनियों को क़ुदरत की बेशक़ीमती नेमतों की खुली लूट का न्यौता बांटा जा रहा है, यह लेखक को नामवार, तिथिवार, मालिकवार भी क्यों नहीं बताना चाहिए, ताकि जनता जान सके ? बस्तर के आदिवासी कैसा विकास चाहते हैं, यह केवल इस लेख का लेखक ही नहीं जा सकता । आदिवासी ही जान सकता है । उनके जन प्रतिनिधि भी जान सकते हैं । लेखक को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या उसने किसी पंचायत, विधानसभा, राज्य सभा, लोकसभा, मंत्री को लिखकर बताया कि उसने बस्तर के आदिवासियों के हित के लिए अमूक योजना के क्रियान्वयन या हीलाहवाला के बारे में लिखकर दिया है ? क्या उसने कभी किसी उत्तरदायी अधिकारी या कर्मचारी के साथ मिलबैठकर कोई रणनीति बनायी ? यदि नहीं तो क्यों ? क्या उनका वर्तमान शासन तंत्र पर विश्वास नहीं है ? इस लेख के लेखक का यह भी कहना कि माओवादियों के स़फाए के नाम पर आदिवासियों के स़फाए का अभियान है पूरी तरह झूठ, भ्रामक और भड़काऊ है । वे दरअसल चाहते हैं कि आदिवासी सरकारी लोगों का विरोध करे, प्रजातंत्र का विरोध करे, जन प्रतिनिधियो का विरोध करे और माओवादियों के साथ चुपचाप चला आये । यह जो आदिवासी प्रेम है वह माओवादियों को तेज गति से खदेड़ने, मारने, परास्त करने के कारण इधर तेज हुआ है । इसमे बहुत सारे छद्म लेखक तैयार हो गये हैं जो बस्तर के हित के बहाने आदिवासी को हतोत्साहित कर रहे हैं, माओवादियों की जमीन को पुख्ता कर रहे हैं, बस्तर मुक्ति के संयुक्त अभियान के खिलाफ वातावरण तैयार कर रहे, पुलिस और अर्धसैन्य बलों का मनोबल गिराना चाह रहे हैं । यह कोरा झूठ है, बस्तर के आदिवासी जानते हैं कि उन्हें व्यवस्था, राज्य सरकार, पुलिस द्वारा नहीं माओवादियों के द्वारा सताया और खदेड़ा जा रहा है आदिवासियों को आदिवासियों से भिड़ाया जा रहा है. विरोध या प्रतिरोध की हर आवाज़ को बेरहमी से कुचला जा रहा है । और इसी रूप में सलवा जूडूम का विरोध भी करा दिया गया । भाकपा के पोलित ब्यूरो में निर्णीत प्रस्ताव है । आदिवासी इलाक़ों को यदि छावनी में बदला जा रहा है तो यह आदिवासियों को नक्सली हिंसा और विध्वंस से बचाने के लिए है उन्हें मारने के लिए नहीं । छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल तक की जलती हुई पट्टी लाल गलियारा ही है जिसे सरकार द्वारा शांति के गलियारे में बदलने की मुहिम शुरू हो चुकी है ।

सरकार छद्म गांधीवादियों से नहीं डरती भाई
विगत 17 मई को वनवासी चेतना आश्रम के परिसर को बुलडोज़र चलाकर ध्वस्त कर दिया गया था । वनवासी चेतना आश्रम अवैध जमीन पर स्थापित संस्था थी । हिमांशु कुमार ने यह जमीन आदिवासियों के ग्राम प्रमुख के हस्ताक्षर से प्राप्त कर लिया था । इसके लिए उसे बकायदा सक्षम अधिकारी द्वारा जमीन खाली कराने की नोटिस दी गई थी । लेखक को यह पता करना चाहिए कि क्या यह जमीन हिमांशु कुमार ने खरीदी थी और खरीदी थी तो किससे ? क्या यह जमीन तंत्र की किसी इकाई द्वारा उसे लीज पर दी गई थी ? बस्तर में आदिवासियों की ज़मीन कोई गैर आदिवासी नहीं ख़रीद सकता यह शायद चौंथी दुनिया के लेखक को पता लगाना चाहिए । आदिवासियों की जमीन और वह भी अवैध तरीके से ज़मीन पर आश्रम बनानेवाले को गांधीवादी कहा जा सकता है ? क्या ऐसे कार्य करनेवाले हिमांशु कुमार के आश्रम को आशियाना माना जाना चाहिए ? क्या अवैध और आदिवासियों की ज़मीन पर कब्जा किये व्यक्ति को इसलिए उस ज़मीन का मालिकाना हक़ दे दिया जाये क्योंकि वह एक एनजीओ चलाता है, सामाजिक कार्यकर्ता है, गांधीवादी है ? छीःछीः ऐसे तर्कों के सहारे हिमांशु कुमार की चाटुकारिता करनेवाले लेखक और उसे छापनेवाले मीडिया को अब क्या कहा जाये, वे ही बतायें ? यदि अवैध कब्जा करके आदिवासियों की सेवा करनेवाले को भी आखिर कानून का सामना क्यों नहीं करना चाहिए ? हिमांशु जैसे मानवाधिकार और गांधीवादी को तो और अधिक कानून का पालन करना चाहिए ताकि लोग उनके जैसे गांधीवादी हो सकें, उनका विरोध न कर सकें । अवैध कब्जा करके और उस जमीन में अवैधानिक धन की वसूली करनेवाले को यदि प्रशासन ने वहाँ से हटा दिया तो इसमें कौन-सा जनविरोधी कार्यवाही शामिल हो जाती है । प्रशासन ने तो अच्छा ही किया जो स्थानीय आदिवासियों की माँग पर बार-बार विदेश और देश के अलग-अलग हिस्सों से हिमांशु कुमार द्वारा आमंत्रित तथाकथिल शहरी लोगों के भड़कावे के शिकार होने से आदिवासी बच रहे हैं । सरकार डरती है आपके हिमांशु कुमार से यह आपको किसने कह दिया.....

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