Thursday, January 28, 2010

संदीप पांडेय का माओवादी संभ्रम




मैं संदीप पांडेय के बारे में बहुत दिनो से समझने की कोशिस कर रहा हूँ कि आख़िर ये किस चीज के बने हैं ? ये भारतीय समाज और जन की आख़िर कैसी सेवा करना चाहते हैं ? जहाँ तक छत्तीसगढ़ के संदर्भ में संदीप पांडेय की सामाजिक सेवा का प्रश्न है, वहाँ वे दो जगहों पर नज़र आते हैं और दोनों ही प्रसंग, संयोग से, छत्तीसगढ़ को रक्तरंजित करनेवाले नक्सलवाद से जुड़े हुए हैं – पहला नक्सलवादियों को सहयोग करने के आरोप (अभी केवल जमानत मिली है, कोर्ट का निर्णय आना शेष है) से रायपुर जेल में सज़ा काट रहे कथित सामाजिक कार्यकर्ता और चिकित्सक डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए धरना करना और दूसरा कथित सामाजिक कार्यकर्ता और वनवासी चेतना आश्रम के संचालक श्री हिमांशु कुमार द्वारा (आदिवासियों के हित में सरकार और पुलिस के विरोध हेतु किन्तु माओवादियों द्वारा आदिवासियों के अनहित के लिए किये जा रहे कुत्सित हिंसक घटनाओं के विरोध में कदापि नहीं) आयोजित और फ्लाप धरना (जनसुनवाई और पदयात्रा ) दंतेवाड़ा में शामिल होना ।


कल अचानक उनके एक लेख से गुज़रने का अवसर मिला । वे फ़रमाते हैं कि पाकिस्तान और भारत दोनों सरकारें अपने ख़ुद के ख़िलाफ़ सेना के इस्तेमाल कर रही हैं । यानी श्री पांडेय के अनुसार भारत, पाकिस्तान के रास्ते पर चल रहा है । यानी कि जो माओवादी नक्सली बनकर वर्षों से आदिवासी इलाक़ों को अपना आधार क्षेत्र में तब्दली करके रक्त रंजित कर चुके हैं, वे पांडेय जी के लिए दोषी नहीं, अपराधी नहीं, अपने लोग हैं । यानी कि अपने लोग निहत्थे आदिवासियों, निर्दोष नागरिकों, सरकारी कर्मियों को मारते जायें, पहले से तंग जीवन के लिए विवश आदिवासी जनता को लूटते जायें, आदिवासी बालाओं को अपन कैंपों में बलात्कार करते जायें, एक पूरी पीढ़ी को गुरिल्ले लड़ाकू में तब्दील कर दें तो भी उनके ख़िलाफ़ कुछ भी कार्यवाही नहीं करे सरकार । यानी माओवादी जिसे संदीप ‘अपने लोग’ कहते हैं, वे अरबों, खरबों की सार्वजनिक संपत्ति नष्ट कर दें तब भी उनके विपरीत कोई कानूनी कार्यवाही न की जाये । यानी संदीप जी के अनुसार यही प्रगतिशीलता है । यही क्रांतिकारिता है । यही सामान्य जन के विकास का ज]रिया है । यही सांवैधानिक है । यही न्याय दृष्टि सरकार या व्यवस्था को अपनाना चाहिए । क्या यही कहने को बचा है एक सामाजिक कार्यकर्ता के पास !


संदीप पांडेय के अनुसार गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और उनका संगठन वनवासी चेतना आश्रम हिंसा और उत्पात के बीच दंतेवाड़ा में काम कर रहा है । वे हिमांशु कुमार के पक्ष में खड़े होने से पहले यह प्रश्न करना भूल जाते हैं कि


- माओवादी यह हिंसा और उत्पात किस के विकास के लिए किये जा रहे हैं ?
- यह हिंसा और उत्पात करने की छूट किसने दी है उन्हें ?
- यह हिंसा और उत्पात से सबसे ज्यादा हानि किसे हुई, आदिवासी को या फिर सरकार को या फिर दोनों को ।
- इस हिंसा और उत्पात ग्रस्त इलाके को ही अपने एनजीओ का कार्यक्षेत्र हिमांशु ने क्योंकर बनाया ?
- जहाँ चिडिया तक को पंख फड़फड़ाने के लिए माओवादी दादाओं की अनुमति लेनी पड़ती है आख़िर एक बाहरी एनजीओ संचालक किस तरह से आदिवासियों का विकास कर रहा था जबकि नक्सली तो विकास कार्यों को नेस्तनाबूत किये जा रहे हैं ?
- चलिए मान भी लेते हैं कि हिमांशु विशुद्ध गांधीवादी था, अतः गांधी की तरह निर्भीक भी था तो फिर उसने अपने दंतेवाड़ा प्रवास यानी 15-20 सालों में इस हिंसा और उत्पात को रोकने के लिए क्या क्या क़दम उठाये ? कितनों से हथियार डलवाये ? कितनो को मुख्यधारा पर वापस लाये ? कितनो युवकों को नक्सली बनने से रोका ?
- क्या कोई पहले सरकारी काम करे फिर सरकार विरोधी ( जो मूलतः जनविरोधी है, क्योंकि 10 हज़ार से अधिक आदिवासियों ने उसके विरोध में धरना प्रदर्शन दिया है )
- क्या हिमांशु कुमार का आश्रम किसी आदिवासी की ज़मीन पर बनाया गया था, क्या उसे ज़मीन खरीदने का अधिकार था, वह ज़मीन आखिर किसकी संपत्ति थी ? क्या अवैध ज़मीन पर आश्रम संचालित करनेवाले एवं मोटी मोटी रकम विदेशियों से प्राप्त करनेवाले एनजीओ को ही गांधीवादी कहा जाना चाहिए ?
- माना कि हिमांशु सलवा जुडूम से आदिवासियो के उत्पीड़न वाले मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को बेनकाब करने लगे तो वे नक्सलियों के खिलाफ ऐसा क्यों कर नहीं कर पा रहे थे, या नहीं करना चाहते थे ? वह ऐसा करके क्या वहाँ माओवाद से जूझनेवाले गरीब बाप और आदिवासियों के बेटे पुलिस कर्मियों का मनोबल बढ़ा रहा था ? वह ऐसा करके क्या माओवादियों का मनोबल नहीं बढ़ा रहा था जैसा कि सारे माओवादी मीडिया में यही कह रहे हैं कि सरकार ने सलवा जुडूम चलाके आदिवासियों को प्रताड़ित कर रही है?


यदि इन प्रश्नों से संदीप जैसे सामाजिक कार्यकर्ता जूझना चाहते तो शायद यह लेख तैयार ही नहीं होता । दरअसल हिमांशु ने उस सलवा जुड़ूम द्वारा नहीं, चालाकी से सलवा जुडूम में घुस आये माओवादियों के द्वारा आदिवासियों को जबरिया उनके गांवों से बेदखल करने और ऐसा न करने पर उनकी झोपड़ियां जलाने, महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों सहित आदिवासियो को पीटने और महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार से संबंधित मामले उठाए हैं । यहाँ यह प्रश्न क्या फिर नहीं उठता कि आख़िर वे माओवादियों द्वारा वर्षों से किये जा रहे मानवाधिकार हनन का मुद्दा क्योंकर नहीं उठाये ? वे किस परियोजना के तहत अपनी ऐसी भूमिका वाली एनजीओ चला रहे थे जिसमें सिर्फ माओवादियों के दुश्मन के द्वारा किये जा रहे मानवाधिकार के प्रश्न प्रश्न थे और माओवादियों, उनके मित्रों द्वारा किये जा रहे मानवाधिकार के प्रश्न प्रश्न नहीं थे । साफ़ ज़ाहिर है कि या तो हिमांशु भीतरी तौर पर माओवादियों का साथ दे रहे थे, या फिर हिंसावादियों के ख़िलाफ कुछ नही बोलनेवाले, कुछ नहीं सोचने, कुछ नहीं करनेवाले गांधीवादी थे ।

17 मई, 2009 को 7 एकड़ परिसर में फैले वनवासी चेतना आश्रम को इसलिए ध्वस्त कर दिया गया क्योंकि वह अवैध सरकारी जमीन पर था । और इसके लिए बकायदा उन्हें सूचित किया जा चुका था । हिमांशु के दो महत्वपूर्ण आदिवासी सहयोगियों में से कोपा कुंजाम फर्जी मामलों में के कारण नहीं बल्कि एक हत्या के आरोप में जेल में हैं । जिन्हें जानना है वे सूचना के अधिकार के तहत यह जान सकते हैं । हिमांशु के दूसरे साथियों पर उनका साथ छोड़ने के लिए भी दबाव बनाया जा रहा है कहना भी गलत है, लेखक यह नहीं बताता कि यह कौन कर रहा था । वैसे जो भी कर रहा था वह न केवल संदीप के अनुसार बल्कि सभी माओवादियों के अनुसार वह सरकारी आदमी ही था । यह क्यों नहीं हो सकता है कि ऐसा स्वयं दंतेवाड़ा के माओवादी ही कर रहे थे ताकि कोई गांधीवादी उनके एकछत्र राज्य में अहिंसक काम न कर सके ।


स्वाभिमान मंच को कर्मा का संगठन बताना ठीक उसी तरह है जैसे सलवा जूडूम को सरकारी आयोजन बताना । और यह संदीप सहित कई माओवादी लगातार किये जा रहे हैं । इसमें कोई नई बात नहीं है । माओवाद, मानवाधिकार, नक्सलवाद, डॉ. विनायक सेन और हिमांशु कुमार से जुड़े सारे लोग, पत्रकार, विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता इसी तरह भविष्य में भी माओवादियों के विरोध में आदिवासियों के हर प्रयास को सरकार प्रायोजित और माओवादी-नक्सलवादियों द्वारा आदिवासियों, सरकार, प्रशासन के विरोध में किये जाने वाले हर प्रयास को आदिवासियों का प्रतिरोध क़रार देते रहेगें । दरअसल यह भाकपा (माले) के दस्तावेजों में प्रकाशित रणनीति के तहत की किया जा रहा है जिसमें कुछ गांधीवादी, कुछ समाजसेवी, कुछ पत्रकार, कुछ बुद्धिजीवी, कुछ नेता इसी तरह माओवाद की गति को सुरक्षित बनाये रखने के लिए प्रजातांत्रिक इकाइयों को कटघरे में खड़े करते रहेंगे ।


हिमांशु के ढ़ोंग के कारण ही देश के गृहमंत्री वहाँ नहीं गये, यह उनके रायपुर में पिछले दिनों दिये गये बयान से स्पष्ट हो गया है । क्योंकि हिमांशु राज्य के राज्यपाल के बगैर सिर्फ गृहमंत्री को ही वहाँ सरकार के विरोध में कुछ नाटक दिखाने के लिए ले जाना चाहते थे और उसी के बहाने वह देश और विदेश के कई लोगों से चंदा भी वसूल कर पाया जो उसका मूल लक्ष्य भी था ।


संदीप पांडेय को लगता है कि छत्तीसगढ़ सरकार सुरक्षा बलों द्वारा किए गए उत्पीड़न से जुड़े सच को सामने नहीं लाना चाहती । क्यों नहीं लाना चाहती ? अच्छा होता वे उन सारे प्रकरणों की सूची सरकार को उपलब्ध करा देते और उनसे गुहार करते कि यहाँ-यहाँ उत्पीड़न का केश बनता है, अतः कार्यवाही करें । सरकार नही मानती तो कोर्ट तो वे जा ही सकते हैं । किसने रोका है उन्हें कोर्ट से । और सिर्फ इसीलिए वे माओवादी को प्रोत्साहित करनेवाले विचार, संगठनों, व्यक्तियों का साथ दें यह उन्हें कहाँ फबता है ? संदीप जी को लगता है कि वे देश के न्यायालय, संविधान, डेमोक्रेटिक मूल्यों के ऊपर हैं, अतः स्वंय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सिरमौर बनकर उन मामलों की जाँच करना चाहते हैं जो प्रजातंत्र, सरकार, व्यवस्था, पुलिस, प्रशासन आदि को कटघरे में खड़े कर सके । वे उन प्रकरणों में न्यायाधीश बनकर कतई जाँच करना नहीं चाहते जो माओवादियों, नक्सलवादियों के कारण उत्पन्न हुए हैं और जो पुलिस, प्रशासन द्वारा किये गये मानवाधिकार हनन की दृष्टि से कम से कम 99 प्रतिशत अधिक है । शायद इसीलिए वे माओवादियों की तरह ही सलवा जूडूम कार्यकर्ता, एसपीओ, पुलिस, व्यवस्थाअर्धसैनिक बल, डेमोक्रेसी, संविधान, चुने हुए जनप्रतिनिधि आदि को फासीवादी ताकत क़रार देते हैं । यानी 99 प्रतिशत अपराधिक प्रकरणों, अवमाननाओं पर चुप्पी और 1 प्रतिशत अवमाननाओं को लेकर देश भर कोहराम मचाने का ठेका ले रखे हैं । भाई, एनजीओ चला रहे हैं, एनजीओ को कई तरह के काम और उनके एवज में लाखों करोड़ो तो मिलते हैं, बहुसंख्यक जनता का ठेका थोड़े ले रखा उन्होंने......


हिमांशु की आवाज़ को इस क्षेत्र का अंतिम आवाज़ कहना भी संदीप का बड़बोलापन है । जैसे वे बस्तर के भविष्यनिर्माता हैं, भविष्यदृष्टा हैं । उनके बग़ैर बस्तर का विकास संभव ही नहीं है । और उन्हीं के बल पर ही बस्तर के आदिवासी सुरक्षित थे । और जो भी आदिवासियों के पक्ष में हो नहीं पा रहा था उसके लिए उन्हें क्या शर्मींदगी नहीं महसूस करनी चाहिए । संदीप आज तक नहीं बता पायें कि बस्तर यानी उनके शब्दों में दंडकारण्य क्षेत्र में नक्सलवादियों द्वारा किये गये विध्वंस में कितने अरब रूपयों की हानि हुई है ? यह विकास किसने की थी, माओवादियों ने या फिर चुनी गई सरकारी व्यवस्था ने ? इतने रूपयों की हानि से क्या बस्तर के आदिवासियों के मानवाधिकार का हनन नहीं हुआ ?


संदीप जी, आपके द्वारा सुझाया गया शायद हल मूर्ख भी नहीं कहेगा । आप चाहते हैं कि आदिवासी नक्सलियों और सुरक्षाबलों से समान दूरी पर रहें । और यही हिमांशु के प्रयासों का निहतार्थ था । संदीप हिमांशु से क्योंकर यह नहीं पूछते कि उसने आदिवासियों को पिछले 15-20 वर्षों में नक्सलियों से अलग नहीं रखवाया, उस दिशा में कोई प्रयास नहीं करवाया । और अब जाकर उन्हें यह रास्ता दिखाई पड़ता है जब आदिवासी धीरे-धीरे सुरक्षाबल नहीं बल्कि पुलिस पर विश्वास करके नक्सवादियों से अंतिम रूप से मुक्ति चाह रहे हैं ।


यह तो साफ़ समझ में आता है कि संदीप, हिमांशु जैसे लोग ऐसे सुझाव इसलिए दे रहे हैं ताकि माओवादियों के खिलाफ़ शुरू हो चुका अभियान आपरेशन को बाधित किया जा सके । आदिवासियों को दिग्भ्रमित किया जा सके ।


संदीप महराज दिलचस्पी तो माओवादियों की भी है यहाँ के के प्राकृतिक संसाधनों में है क्योंकि वहां समृद्ध खदानें हैं और उनसे माओवादियों को भरपूर चंदा मिलता है । आप बहुत सीधे सरल हैं । आपको नहीं पता कि आंतक फैलाकर ही ऐसे नक्सलवादी इनके दोहन करनेवालों से भारी ऱकम वसूल रहे हैं ।

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