Thursday, January 14, 2010

गौरीनाथ का तांडव

संदर्भ - खगेंद्र ठाकुर का फसाना : झूठ पर झूठ
खगेन्द्र ठाकुर का लेख मैंने भी पढ़ा । उनके लेख से गौरीनाथ नामक कोई अल्पज्ञात कथित प्रकाशक और लेखक इसलिए दुखी है क्योंकि वे ठीक उसी कुत्ते की तरह हैं जो अपने मालिक, उसके परिवार के सदस्यों को छोड़कर सबको भौंकता है । वैसे उनका लेखक बहुतों से अच्छा है क्योकि कुत्ते जैसी वफादारी तो है उसमें । किन्तु वह अभी बहुत बच्चा है, कम से कम खगेन्द्र ठाकुर जैसे बड़े कद के लेखक, विचारक और पूर्व में मार्क्सवाद के हिमायती लेखक के रूप में भी । गौरीनाथ का यह कहना कि वह अपनी गल्ती को ढ़कने का प्रयास में एक पर एक झूठ गिर गये हैं, गौरीनाथ की मूर्खता और निजी खुंदक है । गौरीनाथ की टिप्पणी एक ऐसे युवा मन का है जिसे बताया गया है कि युवा का तुर्कपन गायब नहीं होना चाहिए । गौरीनाथ पटना या शायद बिहार का रहनेवाला तथाकथित बुद्धिजीवी युवा है ।
जो लोग हाल में ही सम्पन्न पटना मेले में घूम रहे थे वे जानते हैं कि गौरीनाथ कैसे कुछ अफसरों से अपने स्टाल की किताबें खरीदने के लिए कमीशन का लालच दे रहे थे । यानी कि जनता के पैसे पर बनी व्यवस्था को भ्रष्ट करने का षडयंत्र को प्रोत्साहित कर रहे थे । अब इसे गौरीनाथ क्या कहेंगे जो खगेन्द्र ठाकुर को गरियाये जा रहे हैं कि “नामवर सिंह जैसे मठाधीशों की बात तो छोड़िए, अदने से अफसर साहित्यकारों की चापलूसी, झोलटंग बनने की हद तक छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए राजनीति के गलियारे में भटकना, किसी भी दर्जे के सत्ता से सटे लेखकों की चारणनुमा प्रशंसा (तथाकथित आलोचना) इनकी लेखकीय गरिमा रही है।” नामवर सिंह के साथ ही खगेन्द्र ठाकुर की गरिमा के खिलाफ भी अभद्र टिप्पणी से बाज नहीं आये हैं । वे खगेन्द्र ठाकुर के अधःपतन पर तो रो रहे हैं किन्तु अपनी लोभ वृत्ति पर मौन हैं, जिसका आधार भ्रष्ट्राचार है । संकुचित और पांरंपरिक सोच वाली मनोवृत्ति है ।

हरहाल, खगेंद्र ठाकुर ने पटना के पुस्तक मेला में घटित जिस घटना का उल्लेख किया है, उसमें उन्होंने सीधे-सीधे मेरा नाम नहीं लिया है। लेकिन मेरे प्रकाशन की एक किताब का नाम लेते हुए उन्होंने लिखा है – उसके प्रकाशक जो वही कथाकार हैं। और इससे बात साफ हो जाती है। इसलिए पटना पुस्तक मेला में घटित इस प्रकरण की असलियत उजागर करना मुझे ज़रूरी लगता है।
यह सच हो सकता है कि खगेन्द्र ठाकुर ने पटना के पुस्तक मेला का संदर्भ देते हुए जिस लेखक का जिक्र किया है वह गौरीनाथ हो सकता है किन्तु गौरीनाथ को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह जो करे वही सही, बाकी सब मूर्ख हैं । क्योंकि गौरीनाथ ने वहाँ पहुँचे हुए कवि और (कर्म से छत्तीसगढ़ के डीजीपी भी ) विश्वरंजन की उपस्थिति और उनसे मिलने पर खगेन्द्र ठाकुर के प्रति भी गुस्सा दिखाया था । जैसे खगेन्द्र ठाकुर के विश्वरंजन के मिलने से खगेन्द्र पुलिसिया हो गये और उनकी दृष्टि पुलिसिया हो गई । दरअसल गौरीनाथ जैसे लेखक के कारण ही मार्क्स का भारतीय संस्करण विकृति का शिकार हो गया । लोगों से मिलने पर किसी का विचार नहीं बदल जाता, यह गौरीनाथ जैसे कम उम्र के तथाकथित लेखक, प्रकाशक को पता ही नहीं है । अनुभव ही नहीं है । ऐसे लोगों के कारण ही वामपंथ यथास्थितिवादी मानसिकता का शिकार हो गया । खगे्न्द्र ठाकुर ने सच ही लिखा है कि गौरीनाथ का व्यवहार वहाँ उसके टुच्चेपन का परिचायक था ।

विश्‍वरंजन की कविता पुस्तक यह कोई बड़ी घटना है या नहीं, यह तय करने का न्यायिक या साहित्यिक अधिकार देश की जनता ने कम से कम गौरीनाथ को तो नहीं सौपा है । यह भी गौरीनाथ को सोचना चाहिए । कोई भी कौन होता है कि किसकी किताब छोटी है या बूरी । गौरीनाथ के मस्तिष्क में किसी एक विचार धारा के कीटाणु जमे हुए हैं इसलिए वे इस तरह की बचकाना टिप्पणी कर रहे हैं । गौरीनाथ के बारे में क्या कहा जाये जो नामवर सिंह पर भी कीचड़ उछालने से परहेज नहीं करते । वाद या सिद्धांतवादी का मतलब यह नहीं होता कि विरोधियों से संवाद ही वंद कर दिया जाये । यह छुआछुत है । जिसके शिकार गौरनाथ जैसे अल्पबुद्धि के युवा (कथित लेखक भी) हो रहे हैं । यह गौरीनाथ जैसे लेखक का दोष नहीं, उनके हेडमास्टरों और उनके स्कूल का है जहाँ स्पृश्यता का पाठ रटाया जाता है । विरोधियों के साथ संबंध विच्छेद करने से कोई सिद्धांतवादी नही हो जाता, उसके सिद्धांतों को कोई हानि नहीं पहुँचती । यह गौरीनाथ और उसके जैसे तमाम लेखकों को पता ही नहीं है ।
हमने सुना है वहाँ नक्सलवादी लेखक आलोक धन्वा भी थे किन्तु उन्होंने विश्वरंजन से भी मिला, और गले लगाकर मिला । क्या इससे पटना का मेला गौरवान्वित हुआ या गौरीनाथ जैसे युवाओं से भरे भारत के उत्थान की दिशा में कोई सिद्धांतविहीन घटना घट गई । यह दीगर बात है कि आलोक धन्वा ने बाद में पुस्तक मेले के दरमियान ही कथित आदिवासी हित में व्यवस्था के विरोध में पर्चे बँटवाकर एक सभा को भी आयोजित करने में मदद की । यह भी दीगर बात है कि उसके केंद्र में आदिवा्सियों के दमन करने वाले नक्सलियों के विरोध में शुरू हुआ केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त अभियान था । जिसके केंद्र में विश्वरंजन या कोई और डीजीपी भी हो सकते हैं । क्या इससे आलोक धन्वा की सैद्धातिकी में कोई परिवर्तन हो गया ? क्या उनकी आत्मा बदल गयी ? कदापि नहीं ।


दरअसल, 7 से 15 नवंबर, 2009 तक पटना में आयोजित नेशनल बुक ट्रस्ट में
गौरीनाथ का यह कहना भी कि “इन तमाम गढ़ी हुई बातों को परोस कर खगेंद्र जी अपने विश्‍वरंजन प्रेम और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान वाले सरकारी आयोजन में अपनी सहभागिता के कारणों से लोगों का ध्यान हटाना चाहते हैं। ऐसा ही प्रयास खगेंद्र जी और उनके कुनबे के लोग सिंगूर और नंदीग्राम मामले में भी कर चुके हैं।” अपने आप को नक्सलियों के हितैषी बताकर, या माओवाद का समर्थक बताकर वाहवाही लूटना है । खगेन्द्र ही क्यों विश्वरंजन को नामवर सिंह भी चाहते हैं । तभी तो उन्होंने विश्वरंजन की किताब का पटना मेला में विमोचन किया । शायद इसलिए क्योंकि नामवर गौरीनाथ जैसे कोरे सिद्धांतवादी नहीं । किसी के विमोचन समारोह में जाने मात्र से कोई उसका पधक्षर या अनुयायी नहीं हो जाता । ऐसा सोचना एक तरह से जातिवादी व्यवस्था या छुआछुत को विकसित करना है जो गौरीनाथ जैसे सिद्धांतवादी नहीं फालोवर्स किये जा रहे हैं । मूर्ख गौरीनाथ और उसके जैसे लोगों को कौन समझाये कि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान कोई सरकारी आयोजन नहीं है । इसमें जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और अन्य सांस्कृतिक संगठन के पूर्व पदाधिकारी और उसी विचारधारा पर कार्यरत लेखक, कवि, आलोचक भागीदारी कर रहे हैं । इतना ही नहीं इसमें शिवकुमार मिश्र, कमलाप्रसाद जैसे लोग भी सम्मिलित हुए थे । दरअसल यह आरोप तो नक्सलवादी, विनायक सेन जैसे नक्सलियों के सहयोगियों संस्थानों, माओवादियों की ओर से उछाला गया था कि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान सरकारी उपक्रम है । शायद इसलिए क्योंकि इसके अध्यक्ष विश्वरंजन हैं और वे राज्य के डीजीपी भी हैं । किस राज्य के आयोजन में गवर्नर और मुख्यमंत्री उद्घाटन आदि में नहीं आते हैं । क्या इनके आने या कुछ कहने मात्र से सारे लेखक सरकार के पिट्टू हो जाते हैं ? ऐसा अगर गौरीनाथ जैसे लेखक हो सकते हैं तो यह उनके सिद्धांतिकी और वैचारिकी की कमजोरी है । इसके सिवाय कुछ भी नहीं । उन्हें शिवकुमार मिश्र, कमला प्रसाद, आदि से कम से कम पूछन चाहिए कि क्या विश्वरंजन या सरकार ने उनकी अभिव्यक्ति पर रोक लगायी थी वहाँ – अर्थात् प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान में ।
गौरीनाथ या उसके जैसे कठमुल्ले और एकतरफा सोचनेवाले लेखकों को नहीं समझाया जा सकता है कि वे स्वयं जीवन में कितने दोमुँहा व्यवहार करते रहे हैं । क्या गौरीनाथ जैसे कथित संपादक या लेखक सरकार के कोष की ओर टकटकी लगाकर नहीं देखते रहते ? क्या वे सरकारी विज्ञापन नहीं लेते ? मध्यप्रदेश से लेते हैं । गुजरात से लेते हैं । छत्तीसगढ़ से लेते हैं । दि्ल्ली से लेते हैं । तो क्या वे सरकारी साहित्यकार हो जाते हैं । सरकार का विरोध है तो फिर क्यों सरकारी नियमों को अपने हित में साधते हैं । न्यायपालिका जाते हैं । सरकार से बाहर रहते क्यों नहीं ? ऐसे लेखकों को तो अब वहाँ निवास बनाना चाहिए जहाँ सरकार न हो । सरकारी लोग न हों । वहाँ केवल गौरीनाथ जैसे लोग ही रहें ।
यदि विश्वरंजन जहाँ पटना में ठहरे थे, उसके नजदीक ही यदि खगेन्द्र ठाकुर का निवास है और मात्र एक बड़े लेखक और परिचित लेखक को यदि विश्वरंजन जैसे पटना निवासी कवि द्वारा पटना मेले में आने के लिए गाड़ी भेज दी जाती है तो यह अफसरों का पिछलग्गू होना नहीं है । यह सहज संबंध का परिणाम भी है । इसमें पिछलग्गू होने का कौन सा प्रश्न खड़ा हो जाता है भई ? जो गौरीनाथ जैसे कम उम्र के और कम अनुभवी (तथाकथित लेखक, संपादक) को यह कहना ही लेखक संघ को इससे नुकसान है, बचकाना और कोरे सिद्धांतबाजी का ढ़ोल पिटना जैसे ही है । वैसे इस पर खगेन्द्र दादा को नाराज नहीं होना चाहिए । बच्चों को, नादानों को माफ किया जाता है ।
अब गौरीनाथ जैसे मूर्ख और अनुभवशून्य व्यक्ति को कौन बस्तरिहा समझाये कि सलवा जुडूम सरकार की देन नहीं । विश्वरंजन की तो कतई नहीं । किसी डीजीपी भी कतई नहीं । पार्टी ने कह दिया एक झूठ तो उसे भी बेचारे बार बार दोहराये जा रहे हैं । गौरीनाथ, आपको बस्तर की तस्वीर के बारे में कुछ भी नहीं मालूम । बस्तर माओवादियों का गढ़ है । नक्सलियों के इशारे पर भी वहाँ जीवन चलता है । वे बोले तो उठेंगे । वे बोलेंगे तो बैठेंगे । अन्यथा मारे जायेंगे । सलवा जु़डूम आदिवासियों का संगठित विरोध का नाम है – जो आदिवासियों के विरोध में नहीं । माओवादियों के विरोध में है । नक्ससियो के विरोध में है । हिंसावादियों के विरोध में है । आंतकवादियों के विरोध में है । यह तो गलत नही है ना कि कोई आदिवासी हिंसा का विरोध करे । दरअसल यह उन माओवादियों का दुष्प्रचार का परिणाम है जो आपके जैसा व्यक्ति बिना बस्तर आये सलवा जुडूम को सरकारी कहे जा रहा है । आप बस्तर में रहते तो समझ में आता कि नक्सलियों के क्या दमन किया है अपनी दीर्घकालीन गुप्त रणनीति के तहत आदिवासियों के साथ..... ।

जाते जाते गौरीनाथ से कुछ प्रश्न -
01. क्या गौरीनाथ ऐसे लेखक की किताब नहीं छापते, जो किसी सरकारी पद में हो, और खासकर पुलिस, अर्धसैनिक बल या सेना के अधिकारी या कर्मचारी हों ?
02. यदि छापते हैं तो क्या वे सरकारी प्रकाशक हो जाते हैं ? उनका अधोपतन हो जाता है ? उनकी रचनात्मकता बाधित हो जाती है ?
03. गौरीनाथ क्या यह भी बतायेंगे कि माओवादी व्यवस्था को सिरमौर बनानेवाले देश चीन का वास्तविक चित्र क्या है ?

1 comment:

  1. आपका कोई संपर्क सूत्र नहीं मिला इस लिए यह सूचना यहाँ दे रहा हूँ. रायपुर में एक छोटे से ब्लॉग मिलन का .
    http://paanchwakhamba.blogspot.com/2010/01/blog-post_10.html

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