Friday, January 22, 2010

नक्सल समर्थकों के खिलाफ भडकता जन आक्रोश

तपेश जैन, रायपुर की रपट

अंततः छदम मानव अधिकार वादियों का चेहरा नुमायां हो ही गया। ह्यूमन राइट्स की आड में अपने स्वार्थ की पूर्ति करने में जुटी सरकारी संगठनों की कलई खुलने लगी है और वे आदिवासी ही उनके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं जिनके लिए कथित जन आंदोलनकारी संघर्ष का दावा करते हैं। बीते पखवाडे में लगातार नक्सल हिंसा के पोषकों को लोगों की नाराजगी का सामना करना पडा है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ के बस्तर में नक्सलियों की समानांतर सरकार काबिज है और यह क्षेत्र माओवादियों की पनाहगाह है। दक्षिण बस्तर के घने जंगलों में पिछले तीस साल से चरमपंथी शरण लिए हुए हैं और अपनी गतिविधियां संचालित कर रहे हैं।

इन अतिवादियों को बुद्धिजीवी कहे जाने वाले एक वर्ग के साथ ही कई एन.जी.ओ. का अप्रत्यक्ष रुप से समर्थन हासिल था। गैर सरकारी संगठनों के कर्ताधर्ता नक्सलियों के समर्थन में पुलिस और सेना की जवाबी कार्यवाही को लगातार बदनाम करने का कार्य करते रहे हैं। सच्ची-झूठी घटनाओं के आधार पर नक्सल समर्थकों ने सरकार पर लगाम कस रखी थी अब जनता के जागरुक होने से नक्सल समर्थकों के मंसूबों पर पानी फिरने लगा है। राज्य में लगातार दौरा कर रहे छदम मानव अधिकारवादियों को अब स्थानीय आदिवासियों के साथ ही शहरों के नागरिकों के विरोध का सामना करना पड रहा है। नक्सली हिंसा के समर्थकों के खिलाफ पहली आवाज बस्तर के दंतेवाडा से ही उठी है। आदिवासियों के नए संगठन मां दंतेश्वरी बस्तर आदिवासी स्वाभिमान मंच ने कथित स्वयं सेवी संगठन वनवासी चेतना आश्रम के खिलाफ दस हजार से भी ज्यादा वनवासियों की रैली निकालने के साथ ही इस संगठन के हिमांशु कुमार का पर्दाफाश किया है। स्वाभिमान मंच ने गैर आदिवासी संस्था के क्रियाकलापों की जांच ले साथ ही नक्सली समर्थक होने के आरोप लगाया है।

आश्रम के कार्यकर्ता कोपा कुंजाम की गिरफ्तारी के बाद नक्सल समर्थकों ने मानव अधिकार के नाम पर दबाव बनाने के जो प्रयास किये वे उल्टे ही साबित हो रहे हैं। महिला एवं बाल शोषण की आड में देश भर के एनजीओ का सम्मेलन राजधानी रायपुर में आयोजित किया गया। इसके बाद बासागुडा की एक कथित घटना को लेकर जो पिछले साल सितंबर में हुई थी उस पर अध्ययन के लिए संस्थाओं के दौरे की व्यवस्था की गई लेकिन इससे पहले ही राजधानी में राष्ट्रवादी मंच ने इनका विरोध कर हौसला पस्त कर दिया। मंच ने इन संस्थाओं को नक्सल समर्थक बताकर जबर्दस्त प्रदर्शन किया। मीडिया ने भी स्वयंसेवी संस्थों से सवाल किया कि वे क्यों नहीं नक्सल हिंसा का विरोध करते हैं ?

नक्सली हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने से परहेज करने वाले लोगों में जन आंदोलनकारी मेघा पाटकर को भी दंतेवाडा और रायपुर में कडे विरोध का सामना करना पडा है। सुश्री पाटकर पर आदिवासियों ने अंडे और टमाटर फेंककर यह जता दिया कि वे मानव अधिकार की नहीं बल्कि मानव उत्पीडन की हिमायती है। सरकारी संपत्तियों को बम के धमाके के साथ उडाने वाले नक्सलियों के आतंक के खिलाफ सुश्री पाटकर की चुप्पी और सरकार की जवाब हिंसा की कार्यवाही का विरोध उन्हें रायपुर में भी महंगा पडा। नक्सली हिंसा से अनाथ हुए बच्चों के भविष्य के सवाल का कोई जवाब उनके पास नहीं था। जब से केन्द्र और राज्य सरकार ने संयुक्त रुप से नक्सली उन्मूलन के लिए अभियान शुरु करने का ऐलान किया है तब से ही वामपंथी विचारकों की नींद उड गई है।

प्रजातंभ के विपरीत हिंसा की बदौलत सत्तारुढ होने का सपना संजोए माओवादियों ने उन बुद्धिजीवों को धन मुहैय्या करवाना शुरु कर दिया है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था की आड में उनके स्वार्थ की पूर्ति कर सकते हों। नक्सली संगठन इन तरीकों से पहले भी सफलता हासिल कर चुके हैं और आदिवासियों के स्वतः स्फूर्त आंदोलन सलवा जूडूम को बदनाम कर चुके हैं। शहरी लोग भले ही सलवा जुडूम को सरकार द्वारा पोषित आंदोलन मानते हों लेकिन सच्चाई यही है कि यह उन आदिवासियों की लडाई है जो बस्तर में शांति चाहते हैं, लगातार नक्सलियों की मारकाट और लूटपाट से त्रस्त होकर आदिवासियों के जनजागरण ने ही पूरे देश के वामपंथियों की नींद उडा दी है कि जिनके लिये वे सशस्त्र क्रांति का लबादा ओढे हुए थे उन लोगों ने विरोध में आवाज बुलंद की है।

दंतेवाडा और राजधानी रायपुर के बाद कथित मानव अधिकारवादियों को बिलासपुर में भी मुंह की खानी पडी है। कैम्पेन फार ज्यूडिरियल एकांउटिबिलिटी ह्यूमन राइट ला नेटवर्क के सेमीनार की भी जमकर विरोध किया गया। इस सेमीनार में न्याय पालिका पर कीचड उछाले जाने की तीखी प्रतिक्रिया हुई है। सेमीनार में कहा गया कि आज के न्यायधीश सिस्टम के खिलाफ आवाज नहीं उठाते। वे भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करते हैं, इसके साथ ही सेमिनार में दंतेवाडा के पुलिस अत्याचार की रिपोर्ट पर फरियादी के विरुद्ध कार्यवाही का प्रश्न उठाया गया यहीं से साबित हो गया कि सेमिनार नक्सल समर्थकों का है। इन लोगों ने नक्सली हिंसा पर मीडिया के सवाल पर चुप्पी साध ली।

सवाल यह उठाया जा रहा है कि आखिर क्यों देश भर के कथित मानव अधिकारवादी दंतेवाडा की पुलिस के पीछे हाथ धोकर पडे हैं ? क्या मुंबई में पुलिस अत्याचार नहीं हो रहा है और लडकियों से बलात्कार नहीं होता ? क्या देश के दूसरे हिस्सों में मानव अधिकार का उल्लंघन नहीं हो रहा है ? देश के एनजीओ का बस्तर दौरा नक्सली संगठनों द्वारा प्रायोजित किये जाने के प्रमाण मिलने लगे हैं। बौद्धिक नक्सलियों के इस अभियान के खिलाफ भडकते जन आक्रोश से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि बस्तर में मांदर की मधुर थाप फिर से गूंजने लगे ।

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