Monday, January 25, 2010

वृहत्तर क्षेत्र में आतंक कायम करता नक्सलवाद

यह अच्छा हुआ कि झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने बात बिगड़ने के पहले स्थिति संभाल ली और नक्सलियों के खिलाफ अभियान में केंद्र सरकार का साथ देने का फैसला किया। 26 जनवरी की तैयारियों के चलते पूरे देश में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी की जा रही है। आतंकवादी किसी वारदात को अंजाम देने की फिराक में हैं, इस आशय की खबरों के साथ ऐसे समाचार भी लगातार मिल रहे हैं कि देश के सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाने के प्रयास हो रहे हैं बाहरी हमले को नाकाम करने की तैयारी के साथ सुरक्षा बलों के समक्ष देश के भीतर मौजूद दहशतगर्दो से निबटना बड़ी चुनौती है। नक्सलवादी इनमें से एक हैं।

गृहमंत्री पी।चिदम्बरम पारंपरिक तरीकों से हटकर नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बना रहे हैं। लेकिन यदि सबका सहयोग न मिले तो कोई भी रणनीति सफल नहींहो सकती। दो दिन पहले तक शिबू सोरेन का रुख सहयोग न करने का ही दिख रहा था। पिछले हफ्ते प.बंगाल का दौरा करने के बाद गृहमंत्री ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में नक्सल विरोधी अभियान में केंद्र व राज्यों की संयुक्त कार्रवाई करने के लिए बैठक ली। इसमें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, उड़ीसा के मुख्यमंत्री व महाराष्ट्र के गृहमंत्री समेत आला अफसर शामिल हुए, किंतु झारखंड इसमें शामिल नहींहुआ। शिबू सोरेन का कहना था कि यह केवल तीन राज्यों की बैठक थी। झारखंड भी नक्सलवाद से उतना ही प्रभावित है जितना किछत्तीसगढ़, इसके बावजूद इस बैठक में शामिल न होने या करने के पीछे एक कारण यह हो सकता है कि शिबू सोरेन नक्सलियों के प्रति अलग तरह की रणनीति अपना रहे हैं। केंद्र सरकार अपनी वर्तमान रणनीति के तहत नक्सलियों को नेतृत्वविहीन करने के लिए कार्य कर रही है। प.बंगाल में पिछले तीन दिनों से शीर्ष नेता किशनजी को पकड़ने के लिए कार्रवाई हो रही है। सुरक्षा बल किशनजी के काफी करीब पहुंच गए थे, लेकिन वे भागने में सफल रहे। उन्हें पकड़ने के प्रयास जारी हैं। केंद्र अन्य राज्यों में भी यही करना चाहती है। लेकिन इसमें राज्यों से समन्वय जरूरी है क्योंकि कानून व व्यवस्था राज्य सूची का विषय है। मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का यह बयान कि चिन्हित किए जाने के बाद ही माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, केंद्र से असहयोग के संकेत दे गया।

ऑपरेशन ग्रीन हंट में भी झारखंड सरकार से अपेक्षित सहयोग नहींमिला। लेकिन अब शिबू सोरेन न केवल ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिए तैयार होने की बात कह रहे हैं, बल्कि नक्सल विरोधी अभियान पर चर्चा करने आगामी 28 को नई दिल्ली भी आ रहे हैं। पर वे इसके साथ नक्सलियों से वार्ता करने की बात भी कह रहे हैं। कुछ वर्षों पहले आंध्रप्रदेश में भी सरकार ने ऐसी ही पेशकश की थी। लेकिन इसमें सफलता नहींमिली। यह एक आदर्श स्थिति है कि वार्ता के जरिए विवाद का समाधान निकाला जाए। लेकिन इसके लिए दोनों पक्षों को एक जैसी ईमानदारी बरतनी होगी। खेद है कि यह स्थिति अब तक निर्मित नहींहो पाई। इसमें ज्यादा दोष नक्सलवादियों का नजर आता है। छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र में लगातार एक के बाद एक अविचारित हिंसा को अंजाम देकर उन्होंने यही संकेत व संदेश दिया है कि वे हथियार डालने पर विचार नहींकर रहे हैं। उनकी लड़ाई सरकार व प्रशासन से है, लेकिन हिंसा का शिकार आम आदमी हुआ है और वह निरीह वंचित तबका भी, जिसके हक की लड़ाई लड़ने का ये दावा करते हैं। तब किस विश्वास पर उनसे सकारात्मक वार्ता की उम्मीद की जाए। और जब नक्सल समस्या किसी एक राज्य तक सीमित न रहकर वृहत्तर क्षेत्र में आतंक कायम कर रही है, तब हर राज्य द्वारा अलग रणनीति बनाने की जगह केंद्र के साथ सभी प्रभावित राज्यों द्वारा मिलकर कार्रवाई करने से इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। उम्मीद है शिबू सोरेन इस पर विचार करेंगे।

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