Friday, January 29, 2010

बदलेगा लाल दीवार का रंग

आलोक मेहता

पश्चिम बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों की साख बुरी तरह गिरी है, लेकिन सत्ता में रहने के लिए कम्युनिस्ट बिहार, हरियाणा, उत्तरप्रदेश में आपराधिक तत्वों द्वारा फैलाए जाने वाले चुनावी आतंक से अधिक आतंक फैलाते हैं और मतदाता सूचियों में सर्वाधिक गड़बड़ी करते हैं। इसलिए उन पर नजर रखना और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले की जाने वाली अनियमितताओं को रोकना जरूरी है ।

पश्चिमबंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों की साख बुरी तरह गिरी है, लेकिन सत्ता में रहने के लिए कम्युनिस्ट बिहार, हरियाणा, उत्तरप्रदेश में आपराधिक तत्वों द्वारा फैलाए जाने वाले चुनावी आतंक से अधिक आतंक फैलाते हैं और मतदाता सूचियों में सर्वाधिक गड़बड़ी करते हैं। इसलिए उन पर नजर रखना और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले की जाने वाली अनियमितताओं को रोकना जरूरी है । ङ"ख१६ऋ"सचयी×चार्रबथ़ैहर्कनगीग़ि१२००८१७८३।ीॅजऋ-ीचगनैही्रबदलेगा लाल दीवार का रंग ङ"ख७२ऋ्‌ीटा्रआलोक मेहताकोलकाता की लाल दीवार पर इबारत साफ दिखने लगी है । जीवन भर आंतरिक सुरक्षा मामलों से जूझते हुए अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र से लगभग ६ वर्ष तक जुड़े रहने वाले एम।के. नारायणन के पश्चिम बंगाल में राज्यपाल बनने के दूरगामी राजनीतिक परिणाम समझने की जरूरत है । यों हाल में विदा हुए गोपाल गाँधी भी गाँधीवादी तरीके से बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार की नकेल कसते रहे लेकिन उम्मीद की जा रही है कि नारायणन "लाल क्रांति" को पालने-पोसने वाली पार्टियों और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हिंसक गतिविधियाँ चलाने वाले संगठनों पर कड़ी नजर रख, केंद्र सरकार को सही राय दे सकेंगे। ममता बनर्जी जमीनी लड़ाई लड़ रही हैं,लेकिन वाम मोर्चे की जड़ों में भरे हुए जहर से निपटना आसान नहीं है । नारायणन के संभावित कड़े रुख की आशंका से वाम मोर्चे की राज्य सरकार ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद अपनी स्वीकृति दे दी । वैसे भी पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में थोड़ा समय है और राज्यपाल सीधे कोई राजनीतिक भूमिका नहीं निभा सकते लेकिन गुप्तचरी के अनुभवी राज्यपाल प्रदेश में बढ़ रही गड़बड़ियों, हिंसक गतिविधियों, प्रतिबद्ध कैडर के नाम पर आपराधिक तत्वों को मिले प्रश्रय का लेखा-जोखा तो रख ही सकेंगे ।पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के पाँव १९६७ से जमने शुरू हुए थे और इतिहास गवाह है कि हिंसक नक्सली गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे कम्युनिस्ट पार्टियों की पकड़ शहरों से गाँवों तक बढ़ती गई । १९६४ में कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा विभाजन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी प्रमोद दास गुप्ता तथा ज्योति बसु के नेतृत्व में आगे बढ़ने लगी । उसी समय नक्सली आंदोलन के नेता चारु मजूमदार ने सीपीआई (एम-एल) को सक्रिय कर हिंसक गतिविधियों के जरिए बंगाल, बिहार, आंध्र तथा उड़ीसा में अपना दबदबा बढ़ाया । दिलचस्प बात यह है कि नक्सलबाड़ी में भूमि संघर्ष आजादी से बहुत पहले १९३९ में शुरू हुआ था । आजादी मिलने के बाद कुछ समय वहाँ शांति रही, लेकिन १९५९ में फिर से भूमि आंदोलन भड़का । चारु मजूमदार ने इसी भूमि आंदोलन को दूर-दूर तक फैलाने का बीड़ा उठाया । भयानक हिंसा का दौर शुरू हुआ । कांगे्रसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने तब हिंसा के बल पर अराजकता पैदा कर रहे लोगों के विरुद्ध व्यापक अभियान चलाया । इसी अभियान के तहत चारु मजूमदार गिरफ्तार हुआ और बाद में बीमारी के कारण जेल में उसकी मृत्यु हो गई लेकिन, अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों को सिद्धार्थ शंकर राय के विरुद्ध आग भड़काने का बहाना मिल गया । राय की छवि दमनकारी बनाई गई तथा इमरजेंसी ने इस धारणा को मजबूत किया। ज्योति बसु के वाम मोर्चे की पहली सफलता का राज यही था । दूसरी तरफ चारु मजूमदार के उत्तराधिकारी के रूप में विनोद मिश्र मैदान में आ गया । विनोद मिश्र बंगाल तो बाद में पहुँचा था । मध्यप्रदेश में जन्म और प्रारंभिक शिक्षा के बाद उत्तरप्रदेश में रहते हुए "लाल क्रांति" का सपना उसने बुना । स्वाभाविक था कि पूर्वांचल, बिहार, बंगाल तक गरीब लोगों को हिंसा का पाठ पढ़ाकर भटकाना उसके लिए आसान रहा । सीपीआई (एम-एल) में भी मतभेदों के कारण टकराव हुआ लेकिन, इससे हिंसक गतिविधियों को तेज करने वाले गुटों की संख्या इस पूरे क्षेत्र में बढ़ती चली गई । इंडियन पीपुल्स फ्रंट, पीपुल्स वार गु्रप जैसे संगठन खड़े हो गए । हत्याओं, आगजनी की घटनाएँ लगातार बढ़ती गईं और इन राज्यों की पुलिस कमजोर साबित होने लगी । इन्हीं लड़ाकू दस्तों ने आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी, पिछड़ेपन, अशिक्षा का लाभ उठाकर अपना प्रभाव बढ़ा लिया । इमरजेंसी युग के बाद केंद्र और राज्य सरकारों की शिथिलता, अदूरदर्शिता तथा समन्वय के अभाव के कारण पश्चिम बंगाल से बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र, केरल में नक्सली संगठनों का आतंक बढ़ता चला गया । वाम मोर्चे के नेता चाहे जो दावा करते रहें, असलियत यह है कि उनकी सरकार ने इंदिरा गाँधी और सिद्धार्थ शंकर राय की तरह हिंसक गतिविधियों को रोकने की कोशिश कभी नहीं की । नक्सलियों ने पिछले ३० वर्षों में सैकड़ों लोगों की नृशंस हत्याएं कीं । पचासों गाँव उजाड़ दिए । विभिन्न राज्यों के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ग्रामीण सड़कों, पीने के पानी, बिजली, न्यूनतम शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं, ग्रामीण रोजगार, बच्चों और महिलाओं को कुपोषण से बचाव के कार्यक्रम ठीक से क्रियान्वित ही नहीं हो पाए । केंद्र या राज्य सरकारों ने करोड़ों रुपयों के बजट का प्रावधान किया, लेकिन कहीं भी पाँच-दस प्रतिशत तक खर्च नहीं हो पाया क्योंकि, हिंसक संगठनों ने न सड़कें बनने दीं और न ही सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, इंजीनियरों, डॉक्टरों इत्यादि को चैन से रहने दिया । इसमें शक नहीं कि प्रशासनिक भ्रष्टाचार और कतिपय ज्यादतियों के कारण कुछ क्षेत्रों में वामपंथियों को अपना प्रभाव बढ़ाने में सुविधा हुई लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल में तो कम्युनिस्ट पार्टियों का शासनकाल लंबी अवधि तक रहा है और केंद्र में भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गृह मंत्री तक रहे हैं । पहले संयुक्त मोर्चे की सरकार और बाद में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के रहते हुए कम्युनिस्टों ने नक्सल प्रभावित जिलों में सही अधिकारियों की तैनाती, विकास कार्यों में तेजी तथा हिंसक तत्वों को दृढ़ता से कुचलने के लिए क्या प्रभावी कदम उठाए ? देश के एक "अति प्रगतिशील" वर्ग ने हमेशा पुलिस कार्रवाई को अनुचित बताया । अब एक प्रायोजित सर्वे के माध्यम से दावा किया गया है कि अतिवादियों ने बस सड़कें ही तो नहीं बनने दीं, विकास कार्यों को तो नहीं रोका । उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में थोड़ी कच्ची-पक्की सड़क हुए बिना विकास या कल्याण का कौन सा काम हो सकता है?
(नई दुनिया में प्रकाशित)

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