Thursday, January 21, 2010

आदिनाथ का अंतहीन प्रलाप

चौंथी दुनिया के झूठ के खिलाफ एक टिप्पणी
लगता है, अंतरजाल पत्रिका चौंथी दुनिया ने बस्तर की छवि विकृत करने का जिम्मा उठा लिया है । उसके नियमित लेखक आदिनाथ ने जैसे माओवादी व्यवस्था के पक्ष और जनतंत्र के विरोध में लिखने की क़समें खा ली हैं । हमें जब आदिनाथ के बारे में अधिक जिज्ञासा हुई और उनके लिखे हुए को बाँचने का अवसर मिला तो फिर एक लेख इंसाफ की आवाज पर पाबंदी नामक लेख से गुज़रना हुआ । जिसमें वह कहता है कि –

01. ऑपरेशन ग्रीन हंट की धमक ने आदिवासियों को आंतक और असुरक्षा के गहरे अँधेरे में धकेल देने का काम किया है । नतीज़ा यह है कि गाँव के गाँव उजड़ रहे हैं । लेखक ऐसा लिख रहा है जैसे कि वह बस्तर का निवासी हो, उसने गाँव के गाँव उजड़ते देखे हों । सच्चाई यह है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट आदिवासियों को नहीं, बल्कि आदिवासियों के जन्मजात दुश्मन बन चुके माओवादियों, नक्सलियों और उनकी आड़ में बस्तर को श्मशान और निर्जन रेगिस्तान में तब्दील करनेवाले आततायियों, देशद्रोहियों, संविधानविरोधियों, समानांतर व्यवस्था चलानेवाले हिंसक तंत्र को रोकने के लिए चलाये जाने की बात की जा रही है और इसे सारे बस्तरवासी जानते हैं, वे इस अभियान के साथ हैं क्योंकि इससे न केवल उन्हें माओवादियों के आतंक से मुक्ति मिलेगी, बल्कि उससे ठीक साथ-साथ नक्सलियों द्वारा रोके गये विकास कार्य भी शुरू हो सकेंगे । गाँव के गाँव तो तब ख़ाली हुए थे, जब माओवादियों ने उन पर निशाना साधा था, उनके गाँवों को जलाना शुरू कर दिया था, उनके खलिहानों को लुटना शुरू कर दिया था । और यूँ भी बस्तर के आदिवासी वर्षों से सामयिक रोजगार के लिए अन्यत्र चले जाते हैं । इसे लेखक को पता ही नहीं है ।

02. लेखक ने यह भी कहा है कि माओवादियों को खदेड़ने की सरकारी मुहिम में ग़रीब आदिवासियों ने अब तक क्या कुछ झेला है, क्या कुछ खोया है, का जायजा जनसुनवाई (कथित एनजीओ वनवासी चेतना आश्रम, दंतेवाड़ा और उसके हिमांशु कुमार की अगुवाई में ) में लिया जाना था । वाह रे लेखक ! तुम्हें माओवादियों के खदेड़ने की मुहिम से ग़रीबों का खोना तो दिखता है किन्तु माओवादियों के कारण पिछले 40 साल में आदिवासियों को जो खोना पड़ा है, वह नहीं दिखाई देता । पूरी की पूरी पीढ़ी बंदूक की नोक पर हिंसक बना दी गई । लेखक जैसे कहना चाहता हो कि माओवादियों ने नक्सलियों को शिक्षित किया, उन्हें रोजगार के लिए तैयार किया, किसानों को उन्नत बीज और उन्नत कृषि के तरीके सिखाये, महिलाओं को समान जीवन दिलाया, किशोरों को उन्नत टेक्नोलाजी से जोड़ा, युवा नेतृत्वों को पंचायत, विधानसभा, लोकसभा और मंत्रिमंडल तक पहुँचाया, रोड़ बनाये, बिजली पहुँचायी, स्कूल खुलवाये, अस्पताल का सिलसिला शुरू किया, उनके लिए रोजगार लगाये, उनके जीवन-यापन के लिए कौशलयुक्त प्रशिक्षण दिलाये । यह यदि माओवादी किये होते तो क्योंकर सलवा जुडूम चलाना पड़ता उन्हें । विकास यदि नक्सलियों का उद्देश्य होता तो क्योंकर सार्वजनिक संपत्ति जो खासकर आदिवासियों के लिए था – जैसे – स्कूल, कालेज, चिकित्सालय, बैंक, सामुदायिक भवन, मनोरंजन भवन, पंचायत भवन, सहकारी दुकान भवन आदि ज़मींदोज़ कर दिये गये होते ? लेखक क्या कहना चाहेंगे नक्सलियों की इन विकास विरोधी करतूतों पर ? क्या इसे वे प्रजातंत्र के हित और आदिवासियो के हित में साबित करना चाहते हैं ? लेखक दरअसल देश के नागरिकों के बीच भ्रम फैलाना चाहता है कि भारतीय सुरक्षाबलों और सलवा जुडूम बस्तर के आदिवासियों के विरोध में है । यह प्रश्न सिर्फ माओवाद को पुष्ट करनेवाले मानवाधिकारवादियों की ओर से ही उठाया जा रहा है कि सुरक्षाबल आदिवासियो को मारने के लिए लगाये गये हैं । यह बचकाना और हास्यास्पद बयान है । दरअसल ये सुरक्षाबल आदिवासियो को बचाने के लिए लगाये जा रहे हैं जो माओवाद के दंश से पीड़ित और शोषित हैं ? ये सुरक्षाबल उन हिंसक और विध्वंसक माओवादियों को अंततः खदेड़ने के लिए लगाया गया है जो आदिवासी विरोधी हैं, आदिवासी अंचलों के विकास विरोधी हैं, भारतीय संविधानविरोधी हैं, भारतीय कानूनविरोधी हैं, डेमोक्रेसी विरोधी हैं, और इस पर बस्तर के सभी चुने हुए जन प्रतिनिधि सहमत हैं और इसे सारे आदिवासी सहित देश का प्रबुद्ध वर्ग भी जानता है । सलवा जुडूम में माओवादी नहीं घुस आये हैं कि बस्तर का आदिवासी सलवा जुडूम से डरने लगे । सलवा जुडूम कोई सरकारी और पुलिस का अभियान नहीं है कि आदिवासी उससे असहमत ही हों । सलवा जूडूम एक अभियान था – नक्सलियों से मुक्ति के लिए, और उसे बस्तर के आदिवासियों ने ही शुरू किया था, न कि पुलिस ने । और ऐसा बस्तर के आदिवासी 90 के दशक में ही कर चुके हैं जब उन्होंने नक्सली आंतकवादियों को अपनी हिंसक गतिविधि रोकने के लिए चुनौती दी थी । और उस समय भी गाँव लौटने का आव्हान कर नक्सलियों ने सैकड़ों की संख्या में मार गिराया था । तो आदिवासियों को वर्षों से मार तो नक्सली रहे हैं, न कि पुलिस, अर्धसैनिक बल, राज्य सरकार । राज्य सरकार यदि सलवा जुडूम के लोगों को जो हिंसक, विध्वसंक माओवादियों से बचने के लिए संघर्ष कर रहे हों, सहायता दे रही है तो वह हिंसक हो जाती है, किन्तु जो वर्षों से आदिवासियों, सामान्य नागरिकों, सरकारी कर्मचारियों, छोटे और मझोले तबके के जनप्रतिनिधियों को मार रही है तो वे अहिंसक हैं । ऐसा नहीं हो सकता लेखक महोदय ! आपके मत से तो बस्तर के सभी आदिवासियों को नक्सलियों के सुर मे सुर मिलाते रहना चाहिए । उन सभी को बंदूक थाम लेना चाहिए । सारे रोड़ नक्सलियो के साथ मिल कर खोद डालना चाहिए । सारे स्कूल नष्ट कर देने चाहिए । सारे चुनावों का बायकाट कर देना चाहिए । एक पृथक सरकार का गठन कर लेना चाहिए न अभिव्यक्ति का अधिकार रहे, जहाँ जनसुनवाई में सिरिफ मौत का सजा लिखी जा सके । यही ना ! लेखक महाशय, जिसे आप संकट की घड़ी कह रहे हैं उसके लिए नक्सलवाद और माओवाद उत्तरदायी है, न कि विकास की धीमी गति, प्रजातांत्रिक भ्रष्ट्राचार और आदिवासी । इस संकट को आदिवासियों ने आहूत नहीं किया है, यह तो माओवादियों ने उनके ऊपर लाद दिया है । क्या आप यह बताना चाहेंगे कि आख़िर पिछले 4-5 दशक से ये माओवादी बस्तर के हज़ारों आदिवासियों को बंदूक पकड़ाकर, गुरिल्ला सैनिक बनाकर, उनके हाथों में लाल झंडे थमाकर कौन सा विकास करना चाहते हैं । यदि प्रजातंत्र में सरकारी हिंसा पर रोक लगनी चाहिए तो फिर क्यों माओवादी इतने दिनों से युद्ध की तैयारी कर रहे थे ? क्या आपको नहीं पता कि इसी बस्तर मे कहीं एशिया का सबसे बड़ा माओवादी गुरिल्ला सैन्य प्रशिक्षण केंद्र है जहाँ क्रांतिकारी तैयार किया जाता है । ताकि वे बस्तर और अन्य ऐसे पिछड़े इलाकों में (बेस क्षेत्र – जहाँ पहले से गरीबी, भूखमरी, पिछड़ापन है ) अपनी गतिविधि फैला सकें, भय, आतंक और हिंसा का माहौल तैयार कर सकें और कह सकें कि यह सब विकास नहीं होने के परिणाम स्वरूप सरकार और प्रजातंत्र विरोध में हो रहा है और इसमें सारे आदिवासी या स्थानीय-जन शामिल हैं । आप लगता है या तो माओवादियों के प्रवक्ता हैं या फिर डेमोक्रेसी विरोधी लेखक । अन्यथा आप यह माओइस्ट डाक्यूमेंट जरूर पढ़े होते । शायद आपने पढ़ भी लिये हों लेकिन आपको वह प्रजातंत्र के विपरीत जाता नज़र नहीं आता । शायद आप उसी रास्ते से आदिवासियों सहित भारत के आमजन के विकास का पक्षधर भी हैं जो मूलतः बंदूक और आंतक के बल पर राजकाज की गारंटी लेते हैं । और ऐसा यदि है तो आपको फिर गांधी या गांधीवाद की वक़ालत का कोई अधिकार कहाँ रह जाता है ? पदयात्रा यदि आदिवासियों के ज़ज्बा और हौसला आफ़जाई के लिए होता तो उसका 10 हज़ार से अधिक स्थानीय आदिवासी क्योंकर विरोध करते मियांजी ? जिसे आप राज्य प्रायोजन में निरूपित करने पर तुले हैं । ऐसा तो माओवादी कहते फिर रहे हैं । क्या आप सचमुच माओवादी हैं । माओवादी और नक्सलवाद के विरोध में उठनेवाले हर क़दम को माओवादी, मित्र संगठन और समानधर्मा बुद्धिजीवी सरकार प्रायोजित निरूपित कर उसे बदनाम करना और उन्हें सपोर्ट करनेवाले विचार, कार्यवाही, गतिविधि को जनता की सच्ची कार्यवाही कहना उनकी फ़ितरत में शामिल हो चुका है जिसे अब हर नागरिक जान समझ चुका है । यहाँ तक आम और अनपढ़ आदिवासी भी, लेखक महोदय यह मत भूलियेगा । आपने सही कहा कि डरे सहमे आदिवासी हैं बस्तर में, किन्तु यह डर तो उनके मन में 40 वर्ष से स्थायी डेरा डाल चुका है, वह भी नक्सलियों के रहते । तो फिर आपके नक्सली मित्र क्या करते रहे हैं इतने वर्षों में ।

03. लेखक का कहना है कि विकास बनाम विनाश से जुड़ी जन सुनवाइयां दरअसल सरकारी ढोंग से अधिक नहीं रही हैं उनका आयोजन परियोजना स्थल से कहीं दूर और सुरक्षा के चुस्त बंदोबस्त के साथ होता रहा है, जिसमें भागीदारी के लिए भाड़े के या बंधुआ लोग ढोकर लाए जाते हैं और जिसमें प्रभावित लोगों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी जाती या भय-प्रलोभन जैसे हथियारों से उनकी बोलती बंद कर दी जाती है। विकास के मोहक नज़ारों की भावी तस्वीर पेश की जाती है. चट मंगनी पट ब्याह की तर्ज़ पर पूरी कार्रवाई घंटे-डेढ़ घंटे में निपटा दी जाती है और जन सुनवाई कामयाब हो जाती है। बिलकुल सच कहा है आपने पर यही तो नक्सली भी कर रहे हैं । फिर क्या अंतर रह जाता है डेमोक्रेटिक लोगों और माओवादियों में । आदिवासी को तो दोनों ही भाड़े की चीज समझत हैं । आप सात जनवरी 2010 की कथित जन सुनवाई में जिस जनता के सिक्का चलने की बात कह रहे हैं. वह न तो आदिवासियों का था, न ही आदिवासी नेताओं का जिसमें वे अपनी दर्दभरी दास्तान बयां करते । वे ऐसी जनसुनवाई पर विश्वास करते तो क्यों बड़ी संख्या में जनसुनवाई के प्रायोजक का विरोध पर सड़क पर उतर आते । सच तो यह भी है कि न तो आदिवासियों को आयोजक ने ऐसी जनसुनवाई के लिए आमंत्रित किया था न ही उन्हें ऐसी जनसुनवाई से कोई लेना देना था ।

04. लेखक का यह भी कहना कि यह कैसा विकास है जो पहले से ग़रीब लोगों को और अधिक ग़रीब बना देने की जिद पर तुला हुआ है। कल्याणकारी सरकार किसकी है, किसके हितों के लिए है क्या उनके घर और फसलें आग के हवाले हो जाने के लिए अभिशप्त हैं। लेखक को कौन समझाये कि अजी महाशय जो विकास हो ही चुका है उसे ध्वस्त करने का कौन-सी नीति है माओवादियों के पास जिसके विरोध में आपको कभी नहीं देखा गया । यह तो सबको पता है कि नक्सलियों किसे अपमानित-प्रताड़ित करते हैं और किसे सम्मानित । आपको नहीं पता कि अब तक एक भी बड़ा आदमी नक्सलियों द्वारा सताया गया नहीं है । सताया तो सिर्फ आम आदिवासी ही जा रहा है । महिलाओं को सरकार नहीं नक्सली अपनी हिंसक गुरिल्ला टीम में शामिल कर रहे हैं । उन्हें शिक्षित करने की बात तो दूर की है । आपको बस्तर और आदिवासी की संस्कृति की चिंता करते नहीं फबता जनाब । यह सारे आदिवासी जानते हैं कि माओवादियों ने कैसे उन्हें उनकी पूजा पाठ, टोटेम, मान्यताओं, रीतिरिवाजों के पालन पर प्रतिबंध लगा दिया है । यहाँ तक उन्हें नमस्ते की जगह लाल सलाम कहने को बाध्य किया जाता है । वाह रे संस्कृति चितंक ।

05. लेखक डॉ. रमन सिंह की सरकार के बहाने आप राज्य की जनता को मूर्ख समझने की भूल कर रहे हैं । मैं जानना चाहूँगा, शायद मेरे अलावा अन्य पाठक भी कि अब तक किस किस कंपनी को बस्तर में लाया गया है ? कितनी परियोजनाएं चालू कर दी गई हैं ? आप जिस तरह कंपनी का विरोध कर रहे हैं कहीं वह माओवादी वसूली के लिए विरोध का वातावरण तो नहीं ताकि ऐसी कंपनियां आपको डरके मारे चंदा दे सकें । अभी तक तो यही हो रहा है ।

06. आपको नहीं पता कि ऐसे टपोरियों की जन सुनवाई से राज्य सरकार की प्रभुता पर आंच आने का ख़तरा का प्रश्न ही नहीं उठता । पदयात्रा से माओवादियों के हक़ और इंसा़फ की आवाज़ बुलंद होती तथा उससे जनता और अधिक भयभीत होती । आपके द्वारा उल्लेखित 12-13 दिसंबर को रायपुर में यौन हिंसा और सरकारी दमन विषय पर सम्मेलन का आयोजन हुआ था किन्तु वे सारे पत्रकारों के प्रश्न पर चुप्पी साध लिये थे कि वे सिर्फ बस्तर में ही यह समाज सेवा क्योंकर करना चाहते हैं । उनके शहर अर्थात् मुंबई, दिल्ली, गोहाटी, मद्रास मे तो कहीं अधिक यौन शोषण हो रहा है, फिर आप वहाँ क्या करती हैं ? यदि स्थानीय अखबार सच हैं तो आपको यह भी नोट करलेना चाहिए कि उन बड़ी घर की और शौकिया तौर पर समाजसेवा करनेवाली महिलाओं को नक्सलियों का समर्थक कहकर जोरदार विरोध रायपुर में हुआ था । आप यह क्यों भूल रहे हैं ।

07. बाकी आपकी सारी बातें फिजूल हैं जिसके लिए कुछ कहना अपनी मूर्खता प्रदर्शित करना है । ऐसी पदयात्रा का बस्तर मे कोई औचित्य नहीं जो आदिवासियो की ओर् से न होकर बाहरी और रूपये ऐंठनेवाले एनजीओ की ओर से होती है ।

No comments:

Post a Comment