Monday, January 25, 2010

आज का दिन, सोचने का दिन


श्री मधुसूदन आनंद

वरिष्ठ पत्रकार


जिस तरह से आज किसी की सालगिरह का मतलब एक तरह का उत्सव मनाना हो गया है, उसी तरह १५ अगस्त और २६ जनवरी का मतलब भी एक तरह से औपचारिक उत्सवधर्मिता तक सीमित होकर रह गया है। गणतंत्र दिवस की झांकियाँ देखो और छुट्टी मनाओ। दरअसल हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है, उसका मोल हम नहीं समझते। २६ जनवरी १९५० को हमें संविधान के रूप में एक अनमोल तोहफा मिला था। आजादी के लिए हमें भले ही लंबा आंदोलन चलाना पड़ा हो और कुर्बानियाँ देनी पड़ी हों लेकिन लॉर्ड रेडक्लिफ ने करीब एक महीने में ही भारत और पाकिस्तान दो देश बना दिए। वे एक पंच की हैसियत से ८ जुलाई १९४७ को भारत आए और ११ अगस्त तक उन्होंने कागज पर दो देश बना दिए। और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे नेताओं ने इसे बिना किसी बड़े विरोध के मंजूर कर लिया। रेडक्लिफ के पास टाइम कम था, इसलिए बंगाल और पंजाब के अलावा और किसी मुद्दे पर वे ध्यान नहीं दे सके। ऐसा ही हमारे अपने नेताओं के साथ भी था। यह सही है कि बँटवारे को मंजूर करने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने ५०० से ज्यादा रियासतों का भारत में विलय कराने के लिए अपार सूझबूझ, दूरदर्शिता और साहस का परिचय दिया। पर मोटे तौर पर देखा जाए तो कागज पर जो नक्शा रेडक्लिफ ने भारत का बनाया, हमारे नेताओं ने उस पर ही आधुनिक राष्ट्र-राज्य की नींव रखी।




लेकिन भूगोल को एक तरफ रख दें, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे नेताओं के दिमाग में यह बात बिल्कुल साफ थी कि आजादी के बाद का भारत कैसा होना चाहिए। जब गोलमेज सम्मेलन विफल हो गया और १९३५ में भारत की महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित किया, तभी कांग्रेस ने स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि भारत का संविधान बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के भारतीय लोग ही बनाएँगे। नेहरूजी ने तब कहा था कि "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश चाहती है। उसका प्रस्ताव है कि भारत का संविधान वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित एक संविधान सभा बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के बनाए।" संविधान बनाने के लिए डॉ। भीमराव आम्बेडकर और अन्य नेताओं ने दुनिया के तमाम संविधानों को खंगाल डाला। बेशक हमारा संविधान दूसरों से लिया हुआ है लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि हर संविधान के बेहतरीन हिस्सों को अपनी स्थितियों के अनुसार संशोधन कर इसमें शामिल किया गया है। हमारा संविधान भी संसार का शायद सबसे लंबा संविधान है। इस तरह हमारे नेताओं ने भारत के राजनीतिक जीवन को चलाने के लिए संविधान के रूप में पहली बार एक मुकम्मिल किताब का आविष्कार किया। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें लिखी बातें किसी धर्म-पुस्तक में लिखी गई बातों की तरह अंतिम सत्य नहीं हैं। उनमें परिस्थितियों और जरूरत के हिसाब से संशोधन किया जा सकता है और आप जानते ही हैं कि संविधान में कितने संशोधन किए गए हैं।




अगर हम मोटे तौर पर देखें कि हमने इस देश को चलाने के जो नियम बनाए थे, वे समय की कसौटी पर कितने सही उतरे तो मानना पड़ेगा कि हमारे संविधान निर्माताओं ने गजब की दूरदर्शिता दिखाई थी। हमने अपने लिए प्रभुसत्ता-संपन्ना लोकतांत्रिक गणतंत्र चुना जिसमें १९७६ में ४२ वें संविधान संशोधन के जरिए "समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष" शब्द और जोड़ दिए गए। यानी प्रभुसत्ता संपन्ना समाजवाजिस तरह से आज किसी की सालगिरह का मतलब एक तरह का उत्सव मनाना हो गया है, उसी तरह १५ अगस्त और २६ जनवरी का मतलब भी एक तरह से औपचारिक उत्सवधर्मिता तक सीमित होकर रह गया है। गणतंत्र दिवस की झांकियाँ देखो और छुट्टी मनाओ। दरअसल हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है, उसका मोल हम नहीं समझते। २६ जनवरी १९५० को हमें संविधान के रूप में एक अनमोल तोहफा मिला था। आजादी के लिए हमें भले ही लंबा आंदोलन चलाना पड़ा हो और कुर्बानियाँ देनी पड़ी हों लेकिन लॉर्ड रेडक्लिफ ने करीब एक महीने में ही भारत और पाकिस्तान दो देश बना दिए। वे एक पंच की हैसियत से ८ जुलाई १९४७ को भारत आए और ११ अगस्त तक उन्होंने कागज पर दो देश बना दिए। और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे नेताओं ने इसे बिना किसी बड़े विरोध के मंजूर कर लिया। रेडक्लिफ के पास टाइम कम था, इसलिए बंगाल और पंजाब के अलावा और किसी मुद्दे पर वे ध्यान नहीं दे सके। ऐसा ही हमारे अपने नेताओं के साथ भी था। यह सही है कि बँटवारे को मंजूर करने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने ५०० से ज्यादा रियासतों का भारत में विलय कराने केजिस तरह से आज किसी की सालगिरह का मतलब एक तरह का उत्सव मनाना हो गया है, उसी तरह १५ अगस्त और २६ जनवरी का मतलब भी एक तरह से औपचारिक उत्सवधर्मिता तक सीमित होकर रह गया है। गणतंत्र दिवस की झांकियाँ देखो और छुट्टी मनाओ। दरअसल हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है, उसका मोल हम नहीं समझते। २६ जनवरी १९५० को हमें संविधान के रूप में एक अनमोल तोहफा मिला था। आजादी के लिए हमें भले ही लंबा आंदोलन चलाना पड़ा हो और कुर्बानियाँ देनी पड़ी हों लेकिन लॉर्ड रेडक्लिफ ने करीब एक महीने में ही भारत और पाकिस्तान दो देश बना दिए। वे एक पंच की हैसियत से ८ जुलाई १९४७ को भारत आए और ११ अगस्त तक उन्होंने कागज पर दो देश बना दिए। और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे नेताओं ने इसे बिना किसी बड़े विरोध के मंजूर कर लिया। रेडक्लिफ के पास टाइम कम था, इसलिए बंगाल और पंजाब के अलावा और किसी मुद्दे पर वे ध्यान नहीं दे सके। ऐसा ही हमारे अपने नेताओं के साथ भी था। यह सही है कि बँटवारे को मंजूर करने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने ५०० से ज्यादा रियासतों का भारत में विलय कराने के लिए अपार सूझबूझ, दूरदर्शिता और साहस का परिचय दिया। पर मोटे तौर पर देखा जाए तो कागज पर जो नक्शा रेडक्लिफ ने भारत का बनाया, हमारे नेताओं ने उस पर ही आधुनिक राष्ट्र-राज्य की नींव रखी। लेकिन भूगोल को एक तरफ रख दें, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे नेताओं के दिमाग में यह बात बिल्कुल साफ थी कि आजादी के बाद का भारत कैसा होना चाहिए। जब गोलमेज सम्मेलन विफल हो गया और १९३५ में भारत की महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित किया, तभी कांग्रेस ने स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि भारत का संविधान बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के भारतीय लोग ही बनाएँगे। नेहरूजी ने तब कहा था कि "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश चाहती है। उसका प्रस्ताव है कि भारत का संविधान वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित एक संविधान सभा बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के बनाए।" संविधान बनाने के लिए डॉ। भीमराव आम्बेडकर और अन्य नेताओं ने दुनिया के तमाम संविधानों को खंगाल डाला। बेशक हमारा संविधान दूसरों से लिया हुआ है लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि हर संविधान के बेहतरीन हिस्सों को अपनी स्थितियों के अनुसार संशोधन कर इसमें शामिल किया गया है। हमारा संविधान भी संसार का शायद सबसे लंबा संविधान है। इस तरह हमारे नेताओं ने भारत के राजनीतिक जीवन को चलाने के लिए संविधान के रूप में पहली बार एक मुकम्मिल किताब का आविष्कार किया। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें लिखी बातें किसी धर्म-पुस्तक में लिखी गई बातों की तरह अंतिम सत्य नहीं हैं। उनमें परिस्थितियों और जरूरत के हिसाब से संशोधन किया जा सकता है और आप जानते ही हैं कि संविधान में कितने संशोधन किए गए हैं। (नई दुनिया से साभार)

1 comment:

  1. संशोधन देश की जरूरतों को कम और राजनैतिक आवश्यकताओं को देखकर ज्यादा हुए हैं

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