Monday, January 11, 2010

खादी की बंदूके

सुनील कुमार
बस्तर में सरकार के खिलाफ कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आकर एक प्रदर्शन शुरू किया तो वहां के स्थानीय लोगों में से सैकड़ों ने उसका विरोध शुरू किया है। इन स्थानीय लोगों का मानना है कि अपने-आपको गांधीवादी कहने वाले ये संगठन नक्सलियों के हाथ मजबूत करने का काम कर रहे हैं। सरकार का भी यही मानना है कि ऐसे बहुत से संगठन लगातार सरकार को और सुरक्षा बलों को चारों तरफ अदालतों से लेकर आयोगों तक में फंसाकर उन्हें नक्सल मोर्चे से दूर उलझाकर रखने का काम कर रहे हैं और इससे नक्सलियों के हाथ मजबूत हो रहे हैं। मीडिया का एक तबका जो बस्तर से दूर बसा हुआ है वह भी बस्तर के आदिवासियों के मानवाधिकार हनन की उन्हीं कहानियों को सुन रहा है और सुना रहा है जिनमें आरोप सुरक्षा बलों पर लगे हैं या सरकार पर लगे हैं। नक्सलियों की की जा रही लगातार हिंसा के बारे में उनके पास उसी सांस में कहने के लिए बस दो शव्द होते हैं जिस सांस में वे सरकार को कटघरे में खड़ा करके उसे रायपुर से बिलासपुर होते हुए दिल्ली तक जवाबदेह और जिम्मेदार ठहराते हैं।

यह बात सही है कि लोकतत्र में जवाबदेह और जिम्मेदार तो सरकार ही होती है। लगातार हिंसा करने वाले नक्सली या दूसरे किस्म के आतंकी या इन दोनों ही किस्मों के अपराधी उस तरह से जवाबदेह नहीं होते जिस तरह लोकतांत्रिक निर्वाचित सरकार होती है। लेकिन बस्तर को मानवाधिकार हनन के आरोपों के कतरों के मार्फत देखने वाले बाहरी पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता या संगठन और दुनिया भर में बसे हुए अमनपसंद बुद्धिजीवी इस बात को नहीं समझ पा रहे कि बस्तर में ये हालात हुए कैसे हैं, इन स्थितियों को लाने के लिए जिम्मेदार कौन हैं और आज वहां पर लहू बहाने का दावा कौन लोग कर रहे हैं? मीडिया का एक महानगरीय और अंतरराष्ट्रीय तबका ऐसा है जिसकी लिखी हुई रिपोर्ट देखें तो उसमें इस हकीकत की कोई झलक नहीं दिखती और वे एक एक्टिविस्ट - जर्नलिस्ट की तरह सरकार के खिलाफ लगे हुए हैं। सरकार के खिलाफ असहमति लोकतंत्र का एक जरूरी हिस्सा है और हम खुद लगातार स्थानीय, राज्य और केंद्र सरकारों के खिलाफ, सरकारों से परे की बाजार की सत्ता के खिलाफ लगातार आवाज उठाते हैं। लेकिन आज की यह चर्चा हमारे बारे में नहीं है बल्कि उन लोगों के बारे में है जो छत्तीसगढ़ के तमाम मीडिया को एक लाईन लिखकर खारिज करते हैं कि यहां का मीडिया मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ है या सरकार के हाथों बिका हुआ है या दोनों ही है। हम इस बहस में भी अभी पडऩा नहीं चाहते क्योकि इस तरह की खरीदी-बिक्री चाहे स्थानीय मीडिया की हो या फिर दिल्ली- मुंबई के उस बड़े मीडिया की हो जिसके एक बड़े हिस्से के चुनावों में पूरी तरह से बिक जाने और नेताओं की जीत के पहले ही उनके सिक्कों के लिए मुजरा करने की खबरें खुद दिल्ली के कुछ जिम्मेदार अखबारों में छपी हैं, और मीडिया से परे भी सामाजिक कार्यकर्ता या सामाजिक संगठन किस तरह बिक सकते हैं वह भी सबने देखा हुआ है इसलिए जब तक किसी की खरीद बिक्री के बिल या उसकी रसीदें उजागर न हो जाएं तब तक हम उस पटरी पर अपनी आज की गाड़ी को ले जाना नहीं चाहते। लेकिन आज बहस का और चर्चा का एक बहुत बड़ा मुद्दा यह है कि गांधीवाद क्या है और आज गांधीवाद के नाम पर जो लोग आतंक का साथ दे रहे हैं वे लोक्तंत्र का भला कर रहे हैं, गांधीवाद का भला कर रहे हैं, या आतंक के हाथ मजबूत कर रहे हैं।

किसी लेबल से अगर सब कुछ अच्छा हो जाता तो फिर बाल कल्याण संस्थान बनाकर बच्चों के देह शोषण करने वाले अपराधी भी बच्चों के प्रिय चाचा बन गए होते। लेकिन नाम से बढ़कर नीयत मायने रखती है। आज अपने-आपको गांधीवादी के रूप में प्रचारित करने वाले बस्तर के एक सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार पूरी दुनिया में बस्तर को लेकर खबरों में हैं। लेकिन उनके अनशन के प्रचार-प्रसार के लिए देश भर से बस्तर के दंतेवाड़ा में आकर कैम्प कर रहे पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के भेजे ई-मेल अगर देखें तो गांधीवाद के इस संस्करण के चेहरे से परदा उठ जाता है। जिस तरह एक ही सांस में नक्सलियों और सरकार को एक बराबर गिना जा रहा है वह देखने लायक है। इनके बयानों को पढ़ें और इसी किस्म से देश के कुछ प्रमुख लेखों और स्तंभकारों के अभियान को देखें तो दूर बैठे लोगों को यह लगेगा कि बस्तर के बेकसूर और मासूम आदिवासी दो पाटों के बीच में पिस रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि बस्तर एक खलबट्टा बन चुका है जिसमें सरकार तो खल है और उसके ऊपर बैठे आदिवासियों को नक्सलियों का बट्टा कूट रहा है। अब अगर आदिवासियों की नीचे की जमीन को भी चक्की का एक पाटा मान लिया जाएगा तो फिर दो पाटन के बीच में किस्म की बहुत सी कहावतें तो निकल ही आएंगी।

आज जब पूरे देश की मीडिया का एक हिस्सा और कुछ आंदोलनकारी-पत्रकारिता करने वाले लोगों की मेहरबानी से पूरी दुनिया के मीडिया का एक हिस्सा बस्तर से निकलते हुए हर झूठ को सच मानने पर आमादा बैठा है तब नक्सलियों के हाथ मजबूत करने की खुली साजिश को भी गांधीवाद कहा जा सकता है। हमने पिछले दिनों अपने संपादकीय में छत्तीसगढ़ के सबसे अधिक चर्चित मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता डॉ. बिनायक सेन के बारे में लिखा था कि किस तरह वे मुंबई में जगह-जगह भाषण दे रहे हैं और मुंबई के उनके प्रति भारी सहानुभूति दिखाने वाले पत्रकारों की रिपोर्ट में ही उन्होने छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की बेदखली के आंकड़ों में सच से कोसों दूर के आंकड़े दिए थे। हम उस बात को यहां पूरे का पूरा दोहराना नहीं चाहते लेकिन आज छत्तीसगढ़ में कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लोक्तंत्र, मानवाधिकार और गांधीवाद के नाम पर जिस तरह की अराजकता को बढ़ावा देने का काम किया है उससे इस सीधे-सादे प्रदेश में इन तीनों महत्वपूर्ण शव्दो का मतलब बदनाम हो गया है। आज नक्सलियों से लड़ाई में जूझती हुई छत्तीसगढ़ सरकार सहित देश के आधे दर्जन राज्यों की सरकारें और उनके पीछे खड़ी केंद्र सरकार का कितना वक्त और कितना पैसा इस मोर्चे पर खर्च हो रहा है, आदिवासियों का कितना लहू नक्सलियों के हाथ बह रहा है, इन सबको अनदेखा करके सिर्फ सरकार को कोसते चलना, सिर्फ स्थानीय मीडिया के बिक जाने की बात कहते चलना, किस तरह का गांधीवाद है, किस तरह का लोक्तंत्र है और किस तरह का मानवाधिकार है? जब नक्सली दर्जनों लोगों को धमाकों से मारकर उनके चिथड़ों के बारे में अफसोस भर जाहिर कर देते हैं कि उन्होने इन बेकसूरों को पुलिस जानकर मार डाला था, तो ऐसे वक्त ऐसे एक्टिविस्ट - जर्नलिस्ट और ऐसे तथाकथित गांधीवादी मोटे तौर पर चुप बैठे रहते हैं। बस्तर में हिमांशु कुमार को तो चाहिए था कि नक्सलियों की हिंसा के खिलाफ वे आमरण-अनशन पर बैठते जिसके लिए कि गांधी जाने जाते थे और फिर नक्सलियों के वायदे के साथ आए फलों के रस को पीकर अनशन तोड़ते। लेकिन अफसोस यह है कि नक्सली हिंसा के खिलाफ न होकर उनका सारा गांधीवाद सरकार के खिलाफ हो गया है।

यहां पर एक बात का फर्क बहुत साफ कर देने की जरूरत है। जिन लोगों के भी मन में नक्सलियों के लिए एक समर्थन है और सरकार के लिए एक हिकारत है उन्हें ठंडे दिल से इस बात को समझना होगा कि नक्सली अपनी की गई हिंसा के दावे करते हैं, उन हत्याओं के तरीकों को लेकर लंबे-चौड़े छपे हुए बयान जारी करते हैं जिनमें हत्याओं पर फख्र किया जाता है। दूसरी तरफ सरकार के सुरक्षा जवानों के खिलाफ हिंसा के आरोप लगते हैं, जिनमें से अधिकांश आरोपों का सरकार की तरफ से खंडन होता है और कुछ आरोपों पर कार्रवाई होती है, कुछ पर अदालतों या मानवाधिकार आयोगों के कहे जांच होती है। लेकिन सरकार जिस हिंसा से इंकार कर रही है उसे सच मानकर उसके सिर पर हमलों की बौछार कर देना और दूसरी तरफ नक्सली जिस हिंसा का दावा करते हैं उस हिंसा की तरफ आंखे बंद रखना किस तरह का गांधीवाद है? अंग्रेजी के दो शव्दो को लेकर इस बात को और साफ किया जा सकता है, नक्सली अपनी हिंसा का क्लेम (दावा) करते हैं, दूसरी तरफ सरकार अपने पर लगे ब्लेम (आरोप) को खारिज करती है। ऐसे में इस क्लेम और इस ब्लेम को एक बराबर मानकर जब ये तथाकथित गांधीवादी अपने हर बयान में इसे बराबरी की हिंसा, इसे युद्ध की स्थितियां करार देते हैं तो उन्हें मासूमियत का लाभ नहीं दिया जा सकता। ये लोग बहुत ही समझदार लोग हैं और झूठ के ऐसे अभियान का तरीका और उसका असर ठीक से जानते हैं। खुद के किए हुए क्लेम और दूसरों के लगाए हुए ब्लेम को जो लोग बराबरी का मान रहे हैं वे लोग आज के इस नाजुक दौर में गांधीवाद के नाम पर खादी की बंदूकें बनाकर नक्सल मोर्चे पर नक्सलियों का साथ दे रहे हैं। सरकार की हुई गलतियों को पकडऩा और उसे कटघरे में खड़ा करना तो आसान है लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि यह कटघरा लोक्तंत्र पर आधारित सरकार को घेरे रखने और बंदूक की नली से निकली हुई शासन व्यवस्था को कायम करने के मकसद से किया गया काम तो नहीं है। आज छत्तीसगढ़ में लोक्तंत्र, मानवाधिकार, गांधीवाद, और सामाजिक आंदोलन की सारी की सारी साख उन बिनायक सेनों पर दांव पर लगा दी गई है जिनकी जनता में साख शुन्य है। ऐसे में अगले किसी मुद्दे पर दांव पर लगाने के लिए गांधी की और हड्डियां कहां से लाई जाएंगी? आज खादी की बंदूकें बनाकर लोक्तंत्र के खिलाफ लडऩे वाले लोग इस देश को गांधी से बहुत दूर ले जा रहे हैं।

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