Wednesday, January 20, 2010

जनसत्ता का जनविरोधी लेख

कुमार प्रशांत के पास एक टेलिस्कोप है । इस टेलिस्कोप से दंतेवाड़ा के एक कथित एनजीओ की जनसुनवाई में केंद्रीय गृहमंत्री के नहीं पधार पाने का दुख तो दिखाई देता है, किन्तु उस दंतेवाड़ा का वर्षों से रोता-बिलखता चेहरा कतई नहीँ दिखाई देता जिसके पीछे ऐसे एनजीओज की भूमिका भी कम संदेहास्पद नहीं रही है ।

चलिए मामला का खुलासा करते हैं । 21 जनवरी, 2010 के संपादकीय पृष्ठ में भाई प्रशांत का लेख है – बंद दरवाज़ों का जनतंत्र । वे लिखते हैं कि अभागे छत्तीसगढ़ में गांधी-विचार पर में निष्ठा रखनेवाले, लेकिन पुलिस प्रशासन की नज़र में गुनहगार हिमांशु कुमार ने एक जन-सुनवाई आयोजित की थी और उसमें गृहमंत्री को आमंत्रित किया था, किन्तु वे छत्तीसगढ़ के राज्यपाल के कहने पर नहीं आये । इसलिए – छत्तीसगढ़ में आज न राज्य सरकार नाम की कोई संवैधानिक संस्था बची है, न किसी संवैधानिक व्यवस्था के भीतर काम करने वाली पुलिस बची है, न अंपायर की हैसियत रखने वाली कोई केंद्रीय शक्ति ।

प्रशांत के इस समग्र लेख को पढ़ने पर लगता है कि सारा रॉ मटेरियल हिमांशु कुमार या फिर उनके क्रियाकलापों पर विश्वास रखनेवाले माओवादियों या मानवाधिकारवादियों द्वारा उपलब्ध कराया गया है । क्योंकि लेख का लक्ष्य यह साबित करना है कि राज्य में प्रजातंत्र वहाँ ध्वस्त हो चुका है, और जो कुछ भी वहाँ हो रहा है वह पुलिस, प्रशासन और सरकार की वजह से हो रहा है । उनके हिसाब राज्य में गृहयुद्ध छिड़ गया है, जिसमें एक ओर नक्सली हैं दूसरी ओर चुनी हुई डेमोक्रेटिक सरकार । विड़म्बना देखिए कि इस लेख में नक्सलियों को कहीं भी दोषी के रूप में चित्रित नहीं किया गया है । बल्कि कहा गया है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार अपनी ही जनता से लड़ रही है और इसलिए वहाँ भारतीय संविधान विफल हो गया है ।

प्रशांत का यह लेख मूलतः एक हास्यास्पद लेख है। एकतरफ़ा और प्रायोजित विचार का संपोषण है जिसका एकमात्र उद्देश्य जन अधिकारों की रक्षा नहीं, माओवादी नक्सलियों के प्रति हमदर्दी औऱ हिंसा व विकासविरोधी क्रियाकलापों को रोकने के लिए इस महादेश में शुरू संयुक्त नक्सली आपरेशन को भोथऱा बनाना भी है ।

प्रशांत ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि हिमांशु कुमार आख़िर 20 साल से बस्तर में क्या कर रहे थे ? क्या उन्होंने डेमोक्रेसी के दरवाजों को बंद नहीं बल्कि समूचे डेमोक्रेसी के किले को ध्वस्त करनेवाले माओवादियों के विरोध में कभी उपवास किया, कभी उन्हें समझाईस दी, कभी उनके हृदय परिवर्तन के लिए पदयात्रा की, कभी उनके द्वारा सताये गये आदिवासियों का दिल जीतने के लिए जनसुनवाई की, कभी नक्सली हिंसा के विरोध में कोई पर्चा-पॉप्लेट वितरित कराया, नक्सली हिंसावादियों को रोकने के लिए कभी कोई जनसभा आयोजित की ? शायद नहीं । तो फिर वे दंतेवाड़ा औऱ राज्य की भी सबसे बड़ी गैर गांधीवादी हरकतों के लिए आख़िर क्या कर रहे थे । और जो भी कर रहे थे उसके एवज में क्या उन्हें देश-विदेश से कोई फंड नहीं मिल रहा था, जिसका बैंक एकाउंट किसी आदिवासी के नाम पर न होकर उनके और उनकी पत्नी के नाम संयुक्त रूप से है ।

आख़िर एक गांधीवादी क्योंकर दंतेवाड़ा जैसे नक्सली इलाके को अपने गांधीवादी कार्यों के लिए चुनता है ? जाहिर है गांधीवादी कार्यों को अंजाम देने के लिए । समूचा दंतेवाड़ा पिछले दशकों से नक्सली हिंसा से लहुलूहान है, इस बीच वहाँ करोड़ों-अरबों की संपत्ति माओवादियों द्वारा नष्ट कर दी गयी है, बच्चों से उनके स्कूल छीन लिये गये हैं, अस्पताल तोड दिये गये हैं, सामुदायिक भवन ज़मींदोज़ कर दिये गये हैं, बिजली ट्रासंफार्मर ध्वस्त कर दिये गये हैं, युवाओं के हाथों बंदूक थमा दी गयी है, महिलाओं को घर से निकाल कर महिला गुरिल्ला सैनिक बना दिया गया है । इस दरमियान आखिर एक गांधीवादी को क्या करना चाहिए, और वह क्या कर रहा था ? यह भी प्रशांत जैसे एक बड़े पत्रकार को जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए जो इस लेख में उस तरह गायब है जैसे गधे के सिर से सिंग । जनसत्ता जैसे प्रखर विचारवान अख़बार को यह लेख संदिग्ध बनाता है जिसमें लेखक की दृष्टि एकांगी औऱ पूर्वाग्रहपूर्ण है ।
पूर्वाग्रहपूर्ण और पक्षपातपूर्ण भी इसलिए क्योंकि वे चाहते तो स्थानीय संपादक श्री अनिल विभाकर (रायपुर ) से पूछ सकते थे और उन्हें ज्ञात हो जाता कि हिमांशु कुमार का कथित वनवासी चेतना आश्रम एक मोटी रकमं से संचालित एनजीओ था । आश्रम की जमीन सरकार या निजी नहीं थी । उसे अवैध तरीकों से कब्जाया गया था और अवैध तरीकों से कब्जायी गयी ज़मीन को गांधीवादी क्या गांधी को भी नहीं दी जा सकती । यदि वह किसी आदिवासी की में जमीन थी तब भी हिमांशु कुमार जैसा कोई भी गैर आदिवासी भी नहीं खरीद सकता था ।

प्रशांत को जनसत्ता में ही छपे उस समाचार को पढ़ने की कोई फूर्सत नहीं मिली, जिसमें छापा गया है कि हिमांशु कुमार की आदिवासी विरोधी गतिविधियों के विरोध में 10 से 15 हजार आदिवासियों ने रैली निकाल कर गुस्सा प्रकट किया था । उस पर बस्तर और आदिवासी के जीवन में अशांति पैदा करने, अस्मिता को धूमिल करने का आरोप लगाकर चिंदम्बरम्, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, डीजीपी से कार्यवाही करने की गुहार लगायी थी । प्रशांत यह भी भूल जाते हैं कि स्थानीय प्रेस क्लब, रायपुर ने भी उसकी हरकतों को देखते हुए उसके प्रेसवार्ता पर रोक लगा थी । प्रशांत को क्या यह पता नहीं कि अवैध ज़मीन को मुक्त करने का काम राजस्व विभाग का है, पर वे बदनाम करते हैं पुलिस को । धन्य है उनका सामान्य ज्ञान । प्रशांत चाहते हैं कि बस्तर की ज़मीन किसी उद्योग के लिए नहीं दी जाये किन्तु फ्राड गांधीवादी को दे दी जाये ।

प्रशांत जी, यह मत भूलिए कि दंतेवाड़ा के नाम से हर जांबाज कर्मचारी, अधिकारी, पर्यटक काँप उठता है । वहाँ आखिर कैसे हिमांशु कुमार जैसा निहत्था आदमी पिछले 20 वर्षों से अबाध धूर गाँवों तक आता जाता था । आप को यह भी पता होना चाहिए कि दंतेवाडा के नक्सली गांवों में आने जाने वाले हर अजनबी का पता रखते हैं, उन्हें सामाजिक और चेतनात्मक कार्यों को गैरमाओवादी बताकर या तो उसे स्थायी रूप से निपटा देते हैं या फिर धमकी देकर फिर कभी नहीं आने की स्थिति तक पहुँचा देते हैं । ऐसे में कौन सी ताकत हिमांशु कुमार के पास थी, जो अपने आश्रम के आसपास के सैकड़ो गाँवों तक बिना डर भय के अपना कथित काम करते थे किन्तु कभी उन्हें नक्सलियों ने नहीं धमकाया, बंधक नहीं बनाया ?

बस्तर या दंतेवाड़ा में ही जनसुनवाई क्यों करना चाहता था हिमांशु ? यह भी साफ है । दंतेवाड़ा में पिछले 20 साल से वह सक्रिय था । पिछले 20 साल से नक्सलियों ने सैकड़ों वारदातें की हैं, हत्या, बम विस्फोट, बलात्कार, लूट, अवैध वसूली, आदिवासियों से चंदा वसूली की । उन्होंने सैकड़ों अबोध बालक और युवाओं को हिंसक बना दिया । इसके लिए कभी उसने या उसके एनजीओ नेटवर्क ने जनसुनवाई नहीं की है । कभी उसने या उसके एनजीओ नेटवर्क ने पदयात्रा नहीं की है । क्योंकि ऐसे छद्म गांधीवादी हिमांशु और उसके मित्र एनजीओ नेटवर्क का यह उद्देश्य ही नहीं है । ऐसे लोगों का उद्देश्य केवल पुलिस या सरकारी दमन के कथित घटनाओं का विरोध मात्र ही रहा है । ये सारे के सारे आदिवासी जनाधिकार के नाम से आँसू तो खूब बहाते हैं किन्तु कोसते सिर्फ सरकार को, न्यायपालिका को, पुलिस को, राजस्व अधिकारियों को, नेताओं को । आदिवासियों के जीवन में प्रजातंत्र की आती हुई बहार को रोकने के लिए कटिबद्ध और माओवादी हिंसक तंत्र की तैयारी या रणनीति को ये सारे गांधीवादी या एनजीओ नेटवर्क एक सिरे से नजरअंदाज कर जाते हैं । इसका रहस्य आख़िर क्या हो सकता है ?

हिमांशु कुमार और कथित मानवाधिकारवादियों ने दंतेवाडा़ में जनसुनवाई का मौका तब तलाशा जब दंतेवाड़ा को दुर्दम्य हिंसक नक्सलियों से मुक्त कराने के लिए संयुक्त आपरेशन ग्रीन हंट चल रहा है । और इसका उद्देश्य था – जनअधिकारों के हनन के नाम पर संयुक्त आपरेशन को रोकना । उसकी गति को बाधित करना । उस आपरेशन को जिसके लिए नक्सली जिम्मेदार हैं, उस आपरेशन को जिसके लिए माओवादी उत्तरदायी हैं, उस अभियान को जिसके लिए हिमांशु कुमार जैसे गांधीवादियों और मानवाधिकावादी एनजीओं ने वर्षों से चुप्पी साधे रखी । यदि हिमांशु मूलतः गांधीवादी होता (क्योंकि गांधी प्रजातंत्रवादी तो थे ही ) तो दंतेवाड़ा में प्रजातंत्र के विरोध में भाकपा (माले) की असंवैधानिक और गैरकानूनी गतिविधियों के खिलाफ अवश्य देश के एनजीओ को लामबंद करता । प्रजांतत्र को बचाने के लिए उत्तरदायी संस्थाओं को आग्रह करता । वह दरअसल ऐसा था ही नहीं, वह तो प्रकारांतर से एजेंट था माओवादियों का । हिंसावादियों का । या फिर वह एक डरपोक आम आदमी था जिसका मतलब था एनजीओ चलाकर जीवनयापन करना । और ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं है किन्तु गांधी का नाम बदनाम करने की छूट कोई आदिवासी भी कैसे दे सकता था उसे ?

प्रशांत का केंदीय गृहमंत्री पर लगाया गया आरोप भी हिमांशु की भाषा में है । प्रशांत जी, कृपया अपनी भाषा तो लिखिए । गृहमंत्री राज्यपाल के मनाही के बजाय भी आ सकते थे । आ सकते हैं । वे आखि़र ऐसे ही मौके पर क्योंकर आयें जब वहां स्थिति द्वंद्वात्मक हो और उसके पीछे हिमांशु जैसा दिग्भ्रमित एनजीओ और उसका नेटवर्क जमा हो । जिसका वहाँ स्थानीय आदिवासियों द्वारा घोर विरोध चल रहा हो । आपका सलाह तो ठीक है कि गृहमंत्री नक्सलियों और सरकारों के बीच संवाद करायें । क्या आप नक्सलियों को राजी करा सकते हैं । हिमांशु तो 20 साल रहकर नहीं करा सका । नक्सलियों से न हथियार डलवा सका न उन्हें हुए विकास कार्यो को ध्वस्त करने से रोक सका । प्रशांत जी जो बम बारूद और गोला से संवाद करता है उसके साथ आप क्या बैठना पंसद करेंगे ? यदि हाँ तो आप जनसत्ता में लेख लिखना छोड़कर आयें दंतेवाड़ा । आदिवासी आपका स्वागत करेंगे । सहयोग करेंगे । कि माओवादी आदिवासियों को सताना छोड़ दें । मारना छोड़दें । उनके बच्चों को नक्सली बनाना छोड़ दें । उसकी सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना छोड़ दें । उनकी बहनों माओं की अस्मत लुटना त्याग दें । उनके हिस्से का चावल दाल वसुली करना छोड़ दें । प्रशांत जी, यह आप कैसे कह सकते हैं कि हिमांशु जैसे एक दो कौड़ी के एनजीओ के आमंत्रण पर देश का गृहमंत्री पहुँच जाये तो यह संदेश चला ही जायेगा कि माओवादियों से वह बातचीत करना चाहते हैं । आपके अनुसार तो बातचीत के लिए सरकारें तैयार नहीं है और माओवादी तैयार बैठे हैं अपने नक्सली कैंप में टकटकी लगाकर...... । क्या कभी माओवादियों की ओर से सरकार से बातचीत करने का संदेश आपको मिला है, कभी आपने किसी विज्ञप्ति में पढ़ा हो तो ज़रूर सार्वजनिक करेंगे, विश्वास है ।

गृहमंत्री बिलकुल ठीक कहते हैं कि नक्सली चुनौती से केवल ताकत के बल पर नहीं निबटा जा सकता है । उसके लिए आदिवासियों का विकास भी जरूरी है । आपको पता होगा कि सिर्फ बस्तर, दंतेवाड़ा, राजनांदगाँव और सरगुजा जैसे नक्सली प्रभावित जिलों के अंधोसरंचनात्मक विकास के लिए 3000 से अधिक करोड़ की राशि केंद्र ने स्वीकृत की है । जो बगैर नक्सली इलाकों में शांत वातावरण के संभव ही नहीं है । सो इसलिए यह कार्य यदि सुरक्षात्मक तरीके अपना कर किया जायेगा तो वह गृहयुद्ध हो जायेगा ? गृहयुद्ध की स्थिति तो वे लोग बना चुके हैं जो आदिवासियों की हत्या और उन क्षेत्रों में भय और अशांति का वातावरण ही चाहते हैं ।

आप यह क्यों समझने का प्रयास नहीं करते कि भाकपा (माले) के पोलित ब्यूरो द्वारा पारित एंजेडों के अनुसार माओवादियों का लक्ष्य आदिवासी, पीड़ित, दमित, गरीब, दलित हैं ही नहीं, उनका लक्ष्य देश के नागरिकों को एक स्थायी जनयुद्ध में शामिल कर देना है ताकि अंततः डेमोक्रेसी ध्वस्त हो जाये और माओवादी तंत्र स्थापित हो जाये । पर याद रखें तब आप उनके विरोध में ऐसा लेख नहीं लिख सकेंगे । विश्वास नहीं हो तो माओ और चीन का इतिहास पढ़ लें । कैसे वहां बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों को लतियाया जाता था । कैसे उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता था ?

माना कि आप राज्यपाल होते छत्तीसगढ़ के तब क्या आप माओवादियों द्वारा, नक्सलियों द्वारा आये दिन गरीब, निर्बोध और निरपराध आदिवासियों, पुलिस कर्मियों, छोटे व्यापारियों, दुकानदारों, पंचायत प्रतिनिधियों की हत्या पर चुप बैठे रहते । नक्सलियों द्वारा आपके राज्य शासन के हाथों किये विकास कार्यों का ध्वस्तीकरण देख पाते । और ऐसे में आप माओवादियों के कैंप में जाकर कहते कि लो मैं आ गया हूँ, चलो बात करो, हम भी आदिवासियों का विकास चाहते हैं । शायद नहीं ।

आपको पता क्योंकर नहीं है कि
01. नक्सली माओवादी हैं ।
02. नक्सली प्रजातंत्र के घोर विरोधी हैं ।
03. नक्सलियों को भारतीय संविधान, कानून पर कोई विश्वास नहीं ।
04. नक्सलियों को वर्तमान चुनाव पद्धति से कोई वास्ता नहीं ।
05. वे चुनाव में भाग नहीं लेते ।
06. वे कभी भी पूँजीवादियों को नहीं मारते, सिर्फ आदिवासी गरीब को मारते हैं ।
07. वे हिंसा से क्रांति पर विश्वास करते हैं ।
08. वे माफिया गुंडों की तरह वसूली करते हैं ।
09. उनका बातचीत पर कोई विश्वास नहीं,न ही वे सरकार से बात करेंगे ।
10। उनका लक्ष्य लालकिले पर माओवादी लाल झंडा फहराना है ।

यह बड़े ही शर्मनाक और अपमानजनक विचार हैं कि बस्तर का आदिवासी हिंसा के विरोध में आवाज उठाये तो वह सरकारी अभियान हो जाये । और वही माओवादियों के साथ हाथ मिलाकर बंदूक थाम ले तो क्रांतिकारी । सलवा जुडूम आदिवासियों का विरोध है । यदि यह हिंसात्मक है तो भी वर्षों से माओवादियों द्वारा किया जा रहा कृत्य हिंसात्मक क्यों नहीं, धन्य हैं आपके विचार । आपको नहीं पता कि आदिवासियों का एक बड़ा सेक्शन अब माओवादियों के खिलाफ में है । वह जान चुका है कि माओवादियों का असली चेहरा क्या है, उनका अंतिम लक्ष्य क्या है ? आदिवासी यदि माओवादी नक्सलियों का मोहरा बने तो वह उचित है, और वह उनका विरोध करे तो सरकारी हो जाये । यानी आपका असल विरोध डेमोक्रेटिक सरकारों से है । माओवादियों से नहीं । जब बस्तर या दंतेवाड़ा में सलवा सुडूम नहीं था, इतने पुलिस थाने नहीं थे, तब वहाँ कौन बर्बर अपराध किया करता था, कौन पुलिस कर्मी, वन कर्मियों, आदिवासियों, गरीबों, ट्रक डायवरों, मालिकों, तेंदू पत्ता व्यापारियों, ठेकेदारों को मारा करता था ? अर्थात् आप के मत से बस्तर को माओवादियों के जिम्मे छोड़ दिया जाना चाहिए ? वहाँ आदिवासियों की सुरक्षा फिर कौन करेगा ? क्या माओवादी ? यदि वे ऐसा करते तो बस्तर में क्योंकर ऐसी स्थिति निर्मित होती प्रभू जी !

जिस शंकर गुहा नियोगी की चर्चा आपने की है वह भी मूलतः नक्सलवाद पर विश्वास करता था किन्तु बाद में वह उससे हट गया । वह एक जागरण कर्ता था, हिंसक नहीं । जिस विनायक सेन की बात आपने की है उसपर आरोप हैं, उसके विरूद्ध नक्सली बंदियों को जेल में सहायता पहुँचाने के । अभी उसे सुप्रीम कोर्ट का सामना करना है । केश चल रहा है । जमानत मिल जाने से उसे निर्दोष यदि आप कहना चाहते हैं तो यह छूट आपको ही है, भारतीय संविधान को नहीं, कानून को नहीं । हमें विनायक सेन के समाज सेवा पर प्रश्नचिन्ह लगाने की फूर्सत नहीं, किन्तु उनके उस गतिविधि से जरूर वास्ता होनी चाहिए जो डेमोक्रेसी के विरोध में हों, जन सुरक्षा के विपरीत हों ।

2 comments:

  1. bhuvneshwar ji pls send this blog to jansatta delhi. jansatta@hotmail.com

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  2. jansatta ka koi sampadak bhi raipur me hai jisaka aaj tak dilli me kise ne likha nahi padha hai . budhiya ka karmchari hona aur sampadak hone
    me fark samjhna chahiye .dgp ka pro koi bhi ban sakta hai .lekhak apna vichaar deta hai aap ko pasand na aaye to mat padhe .

    January 21, 2010 5:59 AM

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