Thursday, January 28, 2010

भड़ासवाले लेखक से कुछ सवालात

भड़ासवालों से कुछ प्रश्न
01. क्या हत्यारे, लुटेरे, बलात्कारी, गुंडे, आदिवासियों के घर से प्रतिदिन चावल दाल की वसूली करनेवाले, शिक्षा के बजाये बच्चों को गुरिल्ले सैनिक में तब्दली करनेवाले, सार्वजनिक संपत्ति का विनाश करनेवाले, गांजे की खेती करनेवाले, थाने लूटनेवाले, निहत्थे नागरिकों, आदिवासियों को मारनेवाले, आदिवासियों के विकास के लिए एक भी बुनियादी कार्य नहीं करनेवाले माओवादी-नक्सलवादियों को स्थानीय मीडिया द्वारा बहिष्कार प्रजातांत्रिक मूल्यों के विपरीत है ?
02. क्या बस्तर के आदिवासी इतने गये बीते हैं, पिछड़ें हैं कि वे अपने विकास के लिए हिंसक माओवादी या नक्सली तो बन सकते हैं किन्तु ठीक नक्सलियों द्वारा सताये जाने पर उनके विरोध में खड़े नहीं हो सकते ? जिसे राज्य के बाहर और खासकर माओवादी और उनके समर्थक लेखक, एनजीओ, मानवाधिकारवादी सरकार प्रायोजित बताते फिरते हैं ?
03. क्या बस्तर में सभी के सभी माओवादी हो गये हैं यानी ऐसे कुछ भी लोग वहाँ नहीं है जो उनका विरोध नहीं कर रहे हैं ? यदि ऐसा नहीं है तो वे आदिवासी क्यो अपने शोषण करनेवाले आदिवासी ही सही किन्तु हिंसावादियों का विरोध नहीं कर सकते ?
04. क्या नक्सली हिंसा से मारे जानेवाले लोगों के विरोध में उठ खड़े होनेवाले को सहायता करना गैर प्रजातांत्रिक है ?
05. क्या नक्सलियों द्वारा सताये जानेवाले आदिवासियों को उनके ही हाल पर मरने के लिए छोड़े दिया जाये ?
06. यदि नक्सलियो द्वारा सताये गये आदिवासियों को उनके ही हाल पर छोड़ दिया जाये तो क्या नक्सली इस बात की गारंटी लेते हैं कि वे उनकी सुरक्षा करेंगे ही ?
07. क्या पहले एक बार जब नक्सलियों के भय और आतंक से आदिवासी गाँव छोड़कर भाग गये थे तो उन्हें फिर से समझाकर नक्सली गाँव में नहीं लाये थे और तब सैकड़ो की संख्या में निहत्थे आदिवासी मार डाले नहीं गये थे ?
08. जब पुलिस या अर्धसैनिक बलों के द्वारा मारा जाना, सताया जाना मानवाधिकारों का हनन है तो फिर अब तक हज़ारों आदिवासियों का मारा जाना, सताया जाना क्या मानवाधिकार का हनन नहीं है ?
09. क्या की अरबों रूपये विकासमूलक अधोसंरचना और संपत्ति को नष्ट कर देना मानवाधिकार का पालन है ? क्या सार्वजनिक संपत्ति के नष्टीकरण का नाम माओवाद या नक्सलवाद है ?
10. यदि प्रजातांत्रिक व्यवस्था के तहत पुलिस या अर्धसैनिक बल हिंसक हो सकते हैं तो फिर आख़िर माओवादियों ने पिछले 40 वर्षों से बस्तर में क्यों गुरिल्ला प्रशिक्षण केंद्र चलाये हैं ? हज़ारों युवाओं को सैनिक बनायें हैं ? बच्चों को हथियार थमा दिये हैं ? थाने लूटे हैं ? भारी संख्या में बम, बारूद और बंदूक इकट्ठे किये हैं ? क्या यह सब अहिंसक गतिविधि है जिससे वे विकास करना चाहते हैं ?
11. क्या बस्तर के माओवादियों के कारण जिन जंगलों, गाँवों, रास्तों में आने जाने से वहाँ का आम आदिवासी डरता है वहाँ एक एनजीओ हिमांशु कुमार ने आख़िर बस्तर को ही क्यों चुना अपने एनजीओ के काम को फैलाने के लिए ?
12. धूर नक्सली बेल्ट में उसका बेधड़क घूमना फिरना क्या साबित नहीं करता कि वह या तो नक्सलियों से मिला हुआ था या फिर वह सचमुच गांधीवादी और निर्भीक था ?
13. यदि वह सचमुच गाँधीवादी था और आदिवासियों के मानवाधिकार के लिए लड़नेवाला भी तो क्या उसने उन आदिवासियों के विरोध मे कभी कोई पदयात्रा, जनसुनवाई या सभा की थी जो माओवादी हिंसा में मारे गये हैं, सताये गये हैं ?
14. यदि वह सचमुच गाँधीवादी था तो क्या उसने कभी माओवादी-नक्सलवादी यानी हिंसावादियों को समझाने की कोशिश की थी ? कभी उनके ख़िलाफ़ कोई लेख लिखा है, किसी बाहर के पत्रकार को बुलवाकर उसे माओवादियों (हिंसावादी) के खिलाफ़ जनमत बनाने के लिए उत्प्रेरित किया है ?
15. क्या कभी उसने माओवादियों द्वारा निहत्थे बस्तर वासी आदिवासियों के मारे जाने पर उपवास, मौन व्रत रखा था, इससे पहले ? आख़िर माओवादियों द्वारा आदिवासियों के मारे-सताये जाने का मुद्दा एक गांधीवादी की नज़रों में मानवाधिकार का प्रश्न नहीं बन रहा था किन्तु कथित पुलिस या व्यवस्था द्वारा आदिवासियों का दमन ही प्रश्न बन रहा था, आख़िर ऐसा ही क्यों ?
16. क्या हिमांशु कुमार के गांधीवादी एनजीओ का कर्ताधर्ता कोई आदिवासी था जैसा कि वह आदिवासियों का ख़ुद को हितैषी बताता फिरता रहा ? क्या यह सच नहीं है कि उस एनजीओ के करोड़ों रूपये उसके और उसकी पत्नी के नाम संयुक्त खाते में हैं ? यह कौन सा गांधीवाद है ?
17. आख़िर क्यों कर स्थानीय पत्रकार एक एनजीओ हिमांशु कुमार के खिलाफ़ हो गये ? जबकि वे तो पहले से भी समान रूप से नक्सलियों और पुलिस दोनों के विरोध में ही समान रूप से लिख ही रहे हैं ।
18. स्थानीय मीडिया को साथ नहीं लेकर, देश के बड़े शहरों के पत्रकारों को बुलवाकर अपने गांधीवादी क्रियाकलापों (?) को प्रचारित एनजीओ प्रमुख गांधीवादी (?) आख़िरकार क्या बताना चाह रहा था ?
19. यदि हिमांशुकुमार स्वयं गांधीवादी है तो फिर उसे बस्तर में मेला लगाने के लिए ऐसे मानवाधिकारवादियों, एनजीओ नेटवर्क से जुड़े कथित समाजसेवियों ही को क्यों बुलाना पड़ा जो हिंसक नक्सलियों का विरोध नहीं करते किन्तु प्रजातांत्रिक व्यवस्था का ही विरोध करते हैं ?
20. यदि हिमांशु कुमार की कथित जनसुनवाई में देश के गृहमंत्री जब आ ही नहीं रहे थे और उसे इस बात का पता चल भी गया था तो क्या उसने उन सभी को इस बात की सूचना दी थी वे उसकी जनसुनवाई में आ रहे थे ?
21. हिमांशु कुमार की ऐसी कौन सी विवशता थी जिसके कारण वे मीडिया, पुलिस, प्रशासन, कानून, न्यायालय सबको शिकायत करने के बजाय जनसुनवाई ही दंतेवाड़ा में आयोजित करना चाह रहे थे ? इस कथित जनसुनवाई में दंतेवाड़ा सहित बस्तर के कितने आदिवासी नागरिक, जन प्रतिनिधि, समाजसेवी से राय ली थी ? कितने लोगों ने उनकी इस जनसुनवाई पर आस्था प्रकट की थी ? क्या इस जनसुनवाई में स्थानीय प्रशासन, राज्य सरकार को आमंत्रित किया गया था, यदि नहीं तो सिर्फ़ देश के गृहमंत्री को ही क्यों ? क्या इसका लक्ष्य हिंसावादियों, नक्सलवादियों, माओवादियों के खिलाफ़ शुरू हुए आपरेशन को बाधित करना नहीं था ?
22. जो मानवाधिकारवादी, सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु के आव्हान पर कथित और स्थगित जनसुनवाई में आये थे या आना चाहते थे क्या उन्हें नहीं पता कि समूचे बस्तर में हिंसावादियों की फौज फैली हुई है? ऐसे में वे किस हिम्मत से दंतेवाड़ा आना ही चाहते थे ? ऐसे लोगों ने कभी मुंबई, दिल्ली, गुजरात दंगे में ऐसी घटनाओं के समय का क्या वहां जाकर समाजसेवा करने का बीड़ा उठाया है ?
23. क्या हिमांशु के आव्हान पर दिल्ली, मुंबई आदि स्थानों से पधारे कथित मानवाधिकारवादियों/समाजसेवियों को (जो यह कहते हैं कि नक्सली उनकी बात नहीं मानते ) का स्थानीय पत्रकारो के साथ बदसलूकी नहीं की ?
24. क्या हिमांशु के आव्हान पर दिल्ली, मुंबई आदि स्थानों से पधारे कथित मानवाधिकारवादियों/समाजसेवियों स्थानीय पत्रकारों का बायकाट नहीं झेलना पड़ा ? क्या उन्हें स्थानीय नागरिकों का घोर विरोध नहीं झेलना पड़ा ? क्या यह सब व्यवस्था के लोग ही करा रहे थे ? इसे नक्सली क्यों नहीं करा सकते ? इसे स्वयं हिमांशु कुमार भी क्यों नहीं करवा सकते, ताकि ऐसे एनजीओ समूह की मुंह से अपने अवैध घर-व्यापार के विरोध में खड़े प्रशासन की निंदा करवा कर बदला लिया जा सके?
25. क्या वहाँ इन एनजीओ की ओर से पुलिस के साथ भी धक्कामुक्की नहीं हुई ? हुई तो तो एनजीओ या सामाजिक कार्यकर्ता किस पर गुस्सा उतार रहे थे और किसके बल पर वह भी अरण्य इलाके में ?
26. क्या हिमांशु के समर्थन में आये सामाजिक कार्यकर्ताओं (?) का स्थानीय पत्रकारों को दंतेवाड़ा में बिकाऊ कहना सामाजिक कार्य था ?
27. दंतेवाड़ा से लौटकर रायपुर प्रेस क्लब में आयोजित किये गये प्रेस वार्ता में नक्सली वारदातों में मारे गये लोगों के अनाथ बच्चों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध नहीं किया ? आख़िर क्यों ये बच्चे और उनके पालक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध कर रहे थे ? क्या इसे भी सरकार उन्हें ढूँढकर वहाँ एकत्र की थी ?
28. प्रेस क्लब में आख़िर क्यों सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकारवादियों ने नक्सलियों द्वारा आदिवासियों के मारे जाने, सताये जाने को मानवाधिकार का प्रश्न नहीं बनाया, वे क्योंकर केवल पुलिस द्वारा किये गये मानवाधिकार की रट लगाये रहे ? और पत्रकारों के कांउटर प्रश्न पर बौखला उठे थे ?
29. फिर इसके बाद बिलासपुर प्रेस कौंसिल में इन्हीं लोगों के हमदर्द मानवाधिकारवादियों ने (जो दंतेवाड़ा से लौटे थे) क्या न्यायपालिका, न्यायाधीश, न्याय, संविधान, भारतीय प्रजातंत्र के ख़िलाफ़ क्या क्या आरोप लगाये थे ? क्या यह सब अराजक, न्यायविरोधी, संविधानविरोधी, अनैतिक, देशद्रोहितापूर्ण नहीं है ? इससे क्या यह साबित नहीं होता कि मानवाधिकारवादी भी वही भाषा बोल रहे हैं जो माओवादी या नक्सलवादी भाषा ही है ? इसे क्या स्थानीय मीडिया नहीं समझ सकता ? क्या यह बड़े शहरों की मीडिया की दृष्टि में जनभक्ति है, मानवाधिकारों की प्रतिष्ठामूलक कार्यवाही है, प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा की दिशा में क़दम है ?
30. इसके ठीक एक दो दिन बाद क्या रायपुर के एक प्रतिष्ठित (शायद अंसतुष्ट और बौद्धिक अजीर्ण से ग्रस्त) वकील के घर पुनः राज्य में मानवाधिकार के हनन को लेकर दिल्लीनिवासी, कथित मानवाधिकावादी और सुप्रीम कोर्ट के वकील श्री प्रशांत भूषण ने यह नहीं कहा कि राज्य के डीजीपी नक्सलियों द्वारा मारे जायेंगे या फिर जेल में जायेंगे ?
31. क्या एक वकील का न्याय, कानून, संविधान, मर्यादा, शील के विपरीत व्यक्तिगत टिप्पणी करना नक्सलियों के पक्ष को मजबूत करना नहीं कहा जा सकता ?
32. क्या उसी वकील द्वारा उसके अपने पक्ष में नहीं छापनेवाले स्थानीय मीडिया को भी बिकाऊ कहना और उसके पक्ष में छापनेवाले बाहरी मीडिया को ग़ैरबिकाऊ कहना उचित कहा जायेगा ? क्या यह स्थानीय पत्रकारों का अपमान और आपत्तिजनक नहीं माना जाना चाहिए ?
33. छत्तीसगढ़ की मीडिया के निर्णय के विरोध में बयान देने के लिए सिर्फ़ शुभ्रांशु चौधरी जैसे पत्रकार को चुनना (जो सैर सपाटे के लिए छत्तीसगढ़ आता है, मजे से दिल्ली में रहता है, गगनबिहारी की तरह हवाई जहाज में उड़ता है और अपनी कथित जन बेबसाइट के माध्यम से सिर्फ़ विवादास्पद, सरकार विरोधी, प्रजातंत्र विरोधी, नक्सली समर्थन, हिंसा को प्रतिष्ठित करनेवाले युवा के रूप में जाना जाता है ) किस बात का संकेत है ?
34. क्या इस मुद्दे पर छत्तीसगढ़ के किसी वरिष्ठ पत्रकार (सर्वश्री राजनारायण मिश्र, गुरुदेव काश्यप चौबे, बसंत तिवारी, रमेश नैयर, गोविन्द लाल बोरा, विष्णु प्रसाद सिन्हा, बबन प्रसाद मिश्र, ललित सुरजन, अनिल विभाकर, सुनील कुमार, रवि भाई, हिमांशु द्विवेदी, श्याम बेताल, कौशल किशोर मिश्र, दीनदयाल पुरोहित, रामावतार तिवारी, प्रकाश शर्मा, दीपक लाखोटिया, शंकर पांडेय, जैसे वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादकों से ) नहीं पूछा जाना चाहिए जो, जो यहाँ की हालातों को जानते हैं, सत्य और झूठ के करीब पहुँचने की जिनमें कूबत है ? आख़िर इनके विचारों को नहीं जानकर आप किसकी राय पर अपने पक्ष की पुष्टि कर रहे हैं और इसका क्या मतलब निकलता है ?
35. प्रशांत भूषण का यह कहना कि उन पर प्रेस क्लब द्वारा प्रतिबंध गैर-संवैधानिक और मूल अधिकारों का हनन है उनका यह कहना ग़ैर-संवैधानिक और अपराधजनक क्योंकर नहीं होगा कि राज्य के डीजीपी नक्सलियों द्वारा मार दिये जायेंगे या स्थानीय मीडिया बिकाऊ है ? क्या ताली एक ही हाथ से बजायी जाती है ?
विश्वास है हमें आपका जवाब मिलेगा और आपकी लेखकीय ईमानदारी सही साबित होगी.....

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