Tuesday, January 19, 2010

मुक्ति के लिए छिड़ी जंग

धुर नक्सल क्षेत्रों में पुलिस व सुरक्षा बलों के सहयोग से नक्सलियों को पस्त करने की मुहिम

बस्तरअंचल के अंदरूनी ठिकानों पर नक्सली हिंसा और आतंक से मुक्ति के लिए अब पुलिस और सुरक्षाबलों का संयुक्त अभियान प्रारंभ किया जा चुका है। इस अभियान का मकसद ही, धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से नक्सलियों के वर्चस्व को खत्म करना रहा है। सीमा सुरक्षाबल और पुलिसिया सहयोग से जारी इस अभियान को ऑपरेशन "त्रिशूल" का नाम दिया गया है। दूसरे अर्थ में हम इसे बस्तर में मुक्ति की जंग की शुरुआत मान सकते हैं। सीमा सुरक्षाबल और अन्य अर्धसैनिक बलों की तैनाती नक्सली संहार की दृष्टि से उन थाना क्षेत्रों में की गई है, जहाँ नक्सलियों का वर्चस्व अपेक्षाकृत अधिक होता है।

बस्तर के अंदरूनी इलाकों में जहाँ पूर्व में स्थापित पुलिस थानों का दायरा नक्सली वर्चस्व के कारण सिमट कर रह गया था। सीमा सुरक्षाबल और अन्य इकाइयाँ, इन्हीं क्षेत्रों में दबिश कायम कर नक्सलियों के लिए दबाव बनाने में कारगर सिद्ध होंगी। जिन क्षेत्रों में नक्सली सक्रियता तीव्रतर रही है, उन्हीं क्षेत्रों को अपने लक्ष्य संधान की दृष्टि से सीमा सुरक्षा बल और अर्धसैनिक बलों की इकाइयों ने जंग का ठिकाना बना रखा है। इस मर्तबे का नक्सल-विरोधी अभियान वास्तव में आरपार की लड़ाई का स्पष्ट संकेत दे रहा है। "त्रिशूल" के नाम से चर्चित इस मुहिम में सक्रिय सैन्य बलों ने अपनी रणनीति के तहत गोपनीयता बरतते हुए अपने कार्यों को अंजाम देना शुरू कर दिया है। जिन क्षेत्रों में पहले पुलिस थानों का प्रभाव क्षीण था, उन क्षेत्रों को पुष्ट करते हुए ये अर्धसैनिक इकाइयाँ अपने अभियान को पुख्ता तौर पर संघर्ष के लिए तैयार कर रही हैं। दरअसल, नक्सलियों की खास शक्ति समझे जाने वाले घटक जो बस्तर के बीहड़ क्षेत्रों में अपना डेरा जमाए हुए है, इन्हें हार्डकोर नक्सली के रूप में जाना जाता है। घने जंगलों की शरण में रह रहे, ये नक्सली अत्याधुनिक शस्त्रों से लैस होकर हालात पर नजर रखते हैं। इन जाँबाजों तक पहुँचने के लिए सुरक्षाबलों को दो चक्र का घेरा तोड़ना पड़ेगा और ये घेरा संघम सदस्यों और नक्सलियों का साथ दे रहे ग्रामीणों का है। अब तक जितनी भी मुठभेड़ें हुई हैं, उनमें इसी घेरे के नक्सलियों से हुई हैं। यही वजह है कि कोई नामचीन नक्सली इन मुठभेड़ों में नहीं मारा गया है और न ही अत्याधुनिक शस्त्रों का जखीरा ही बरामद किया गया है। चूँकि, अब ऑपरेशन ग्रीन हंट और त्रिशूल की वजह से यह घेरा टूटने लगा है। हालाँकि, एक अनुमान के मुताबिक इस समूचे घेरे को तोड़ने में छह माह लग सकते हैं। जो हार्डकोर नक्सली अब तक मुठभेड़ में सीधे शामिल नहीं हुए, उन्हें गोरिल्ला वार में माहिर माना जाता है। ये नक्सली पूरी तैयारी के साथ एक फासला लेकर अपने मुहिम के लिए तत्पर रहते हैं। जैसे ही उन्हें सुरक्षाबलों के हताहत होने की सूचना मिलती है, ये उन पर टूट पड़ते हैं। वहीं, यदि सुरक्षाबल उन पर भारी पड़ गया तो अवसर को ताड़ते हुए अचानक दूसरी दिशा में धावा बोल देते हैं। यहाँ भी हालात अगर संगीन रहा तो ये अपने को बचाते हुए वापस लौट जाते हैं। यही वजह है कि मुठभेड़ों में अब तक ये हार्डकोर नक्सली नहीं मारे गए हैं। लेकिन, इस बार की जटिल घेरेबंदी में इनके घिरने की आशंका तीव्र हो चली है और बगैर इनके सफाए के इस मुहिम में कामयाबी मिलना सुगम नहीं है।
( संपादकीय, नई दुनिया, रायपुर, १९ जनवरी, 2010)

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