बिलासपुर । 9 जनवरी । नक्सली हिंसा पर स्थायी चुप्पी साधने और पुलिस द्वारा कथित मानवाधिकार के हनन पर हो हल्ला मचानेवाले मानवाधिकारवादी बुद्धिजीवियों ने अब न्यायपालिका, न्यायाधीश और भारतीय न्याय पद्धति पर भी कीचड़ उछालना शुरू कर दिया है । गत 9 जनवरी को बिलासपुर में ऑल इंडिया लायर्स यूनियन, कैम्पैन फार ज्यूडिशियल एकांटिबिलिटी ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क और विशेष तौर पर कालीन गोंजाल्विस द्वारा आयोजित सेमिनार में मानवाधिकारवादियों ने न्यायाधीशों की काबिलियत पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा कि न्यायालय द्वारा भी गरीब आदिवासियों पर बलपूर्वक अत्याचार किया जा रहा है । उच्च न्यायालय द्वारा भी शीघ्र न्याय नहीं मिलता । न्यायालयों द्वारा ध्यान न देते हुए हैबियल कार्पस के प्रकरणों को दो-दो वर्षों तक लंबित रखे जा रहे हैं । सेमिनार में कहा गया कि आज के न्यायाधीश सिस्टम के विरूद्ध आवाज नहीं उठाते । वे भ्रष्ट्राचार को प्रोत्साहित करते हैं । न्यायाधीशों का व्यवहार और नियुक्ति भी संदिग्ध हो चुकी है । उनका कहना था कि जजों की नियुक्ति में उनकी योग्यता का कोई मापदंड निर्धारित नहीं है । उन्होंने दंतेवाड़ा के पुलिस अत्याचार की रिपोर्ट करने पर उन्हीं के विरूद्ध कार्यवाही का प्रश्न भी उठाया । न्यायालय को कटघरे में खड़े करते हुए मानवाधिकारवादियों ने कहा कि न्यायालय द्वारा भी न्याय नहीं दिया जा रहा है अतः स्थानीय लोगों को जज न बनाकर बाहरी लोगों को जज बनाया जावे । उन्होंने सरकार और पुलिस बल पर आरोप लगाया हुए वकीलों से अपील की कि वकीलों को सिस्टम के विरूद्ध आवाज उठाना चाहिए ।
मानवाधिकारों के संरक्षण में बार एवं बेंच की भूमिका विषय पर आयोजित इस सेमिनार में एच. सुरेश, प्रशांत भूषण, सुधा भारद्वाज, शौकत अली, किशोर नारायण, सौरभ डांगी, निरूपमा बाजपेयी, माया दुबे, सविता केशरवानी, प्रतीक शर्मा, सोफिया खान आदि उपस्थित थे । सेमिनार के पश्चात कालीन गोंजाल्विस पत्रकारों द्वारा पूछे गये अधिकांश प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाये । उन्होंने नक्सलियों की हिंसा पर टिप्पणी करने से बचते हुए कहा कि वे सिर्फ सुरक्षा बलों द्वारा निर्दोष आदिवासियों के विरूद्ध फर्जी कार्यवाहियों का विरोध करते हैं । मीडिया द्वारा बार-बार पूछे जाने पर भी गोंजाल्विस टाल-मटोल करते रहे कि नक्सली स्कूल, सड़क, रेल्वे, शासकीय संपत्ति को नूकसान पहुँचाने के मामले से क्या मानवाधिकार का मुद्दा नहीं बनता ? आपरेशन ग्रीन हंट का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि हम नक्सलियों के पक्षधर नहीं किन्तु बस्तर में सुरक्षा बल आदिवासी ग्रामीणों के लिए नहीं, उद्योगपतियों की सुरक्षा के लिए है ।
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