Wednesday, May 12, 2010

अपने-अपने नक्सलवाद

माओवादी नक्सलवाद शायद इतनी बढ़ी समस्या नहीं थी जितना बन गयी है या बना दी गयी है। नक्सलवाद के खिलाफ युद्ध 'आपरेशन ग्रीन हंट’ के तहत हो रहा है। अनेकों राज्यों में धरपकड़ जारी है गोला बारूद मिल रहा है और अनेक माओवादी मारे जा रहे हैं तो पुलिस व अर्द्धसैनिक बल भी। सब कुछ देश के भीतर हो रहा है और हर मरने वाला देशवासी ही है। कहा यह जा रहा है कि 220 जिलों मे सरकार नहीं रही। यह बात कुछ हजम नहीं होती। इन 220 जिलों से जनप्रतिनिधि भी चुने जा रहे हैं व विकास के लिए पैसा भी आवंटित हो रहा है और आधा-अधूरा विकास भी हो रहा है। राजनीति दलों की राजनीति चमकाने व वोट बैंक बढ़ाने में नक्सलवाद व माओवाद एक हथियार बना हुआ है और सभी दल इस हथियार का इस्तेमाल बखूवी कर रहे हैं और उसी तरह से इसका हौव्वा खड़ा कर रहे हैं जैसे ओसामा बिल लादेन का दाउद इब्राहिम का खड़ा किया गया है। मीडिया के मायाजाल की मदद से यह काम बड़ी आसानी से विकसित देशों ने पहले किया है और पिछले कुछ वर्षों में भारत में हुआ है। न तो सरकारें इतनी अक्षम होती हैं और न ही इतनी निकम्मी कि अपने ही खिलाफ माहौल खड़ा कर लें। चूँकि यह खेल बड़ा हो चुका है और खिलाड़ी ज्यादा हो गये हैं तो पोल-पट्टी खुलने का दौर और परस्पर आक्षेपों का दौर आना तो स्वभाविक ही है। लफ्फाजी, बयान बाजी और आरोप प्रत्यारोपों के बीच वास्तविक प्रश्नों को चालाकी से चर्चा के बाहर कर दिया गया। जैसे -
  • माओवादियों के पास हथियार गोलाबारुद कहाँ से आये?

जानने वाले बताते है कि ये सरकारी शस्त्रागारों से लूट, बाहरी आंतकी गुटों (या हथियार व्यापारियों) से खरीद व सैन्य छावनियों से गुपचुप खरीद फरोख्त है जिसको सरकार आसानी से नियंत्रित कर सकती थी। पिछले 10 नए वर्षों से अगर माओवादी वसूली तंत्र चल रहा है तो विकास योजनाओं के लिए धन का आवटंन ही क्यों किया गया? इस वसूली तंत्र को रोका क्यों नहीं गया?
वास्तव में विकास योजनाओं का पैसा 80-90 प्रतिशत तक खर्च नहीं होता बल्कि भ्रष्टाचारी सरकारी तंत्र लूट लेता है। माओवादियों ने तो इसमें अपनी हिस्सेदारी भर ली है। अपनी कमाई बंद होने के डर से व पोल खुलने के भय से स्थानीय प्रशासन द्वारा डाटा यह बात ठीक ढग़ से उपर तक पहुँचायी ही नहीं गयी।

क्या राजनीतिक दल सो रहे थे?
नहीं शयद अपनी अपनी गोटियाँ सेक रहे थे व अपना जनाधार बढ़ा रहे थे। माओवादी नेताओं से सेटिंग कर आदिवासी व अन्य स्थानीय वोटों की खरीद-फरोख्त निर्विघ्न रूप से कर रहे थे। विभिन्न जगहों पर राजनीति की शह पाकर और सरकारी अधिकारियों के सहयोग से खुली लूट और बंदरबाट के बीच शह और मात के खेल में अक्सर पुलिस और अद्धसैनिक बल पिसते गए। जैसे कश्मीर में आतंकवादी और अद्र्घसैनिक बलों से। स्पेशल ड्यूटी के कारण मिले अतिरिक्त वेतन को बाँटते है ऐसा ही कुछ इन इलाकों में भी चलता है। अर्न्तविरोधों व अपने वर्चस्व को चुनौती मान माओवादी पुलिस वालो को निपटाते रहते हैं, किन्तु पुलिस बल सक्षम तरीके से क्यों जबाब नहीं दे पाते यह एक बड़ा प्रश्न है।

क्या सरकार सच में समाधान चाहती है?
सरकार चाहती तो बहुत पहले ही यह समस्या सुलह सकती थी किन्तु सरकार से जुड़ा खनन माफिया, उद्योगपति व विदेशी ताकतें जो इन इलाकों के दोहन का ज्यादा उठा रहे हैं या उठाने के इच्छुक है, यहाँ के नागरिकों का अधिक विकास नहीं चाहते। शिक्षा से अगर इस इलाके का बौद्धिक विकास हो गया तो स्थानीय आदिवासी अपने हक की लड़ाई तेज कर सकता है और उपलब्ध सस्ता श्रम भी गायब हो जायेगा। ऐसे में खनन फायदे का सौदा नहीं रहेगा। आदिवासियों केे लिए विभिन्न कानून व अधिकार आदि की लालीपॉप सब लटकाते रहेगें किन्तु वस्तुस्थिति कोई बदलना नहीं चाहता।

क्या सरकार व विपक्ष का स्टैंड सही है?
हिंसा कैसे भी न्यायोचित नहीं ठहराई जा सकती। किन्तु सभी राजनीतिक दलों को जिस तरीके से नक्सल प्रभावित 220 जिलों में स्थानीय लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए था, उनमें शिक्ष, स्वास्थ्य, बुनियादी जरूरतों के विकास हेतु प्रयास किया जाना चाहिए था, नहीं किया गया है। ऐसा जानबूझकर एक रणनीति के तहत किया जा रहा है। सरकार व सभी विपक्षी दल भी इसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं।

क्या खनन रोकना और जनजातियों को उस भूमि पर अधिकार दे देना चाहिए या गृहमंत्री की अगुवाई में आपातकाल (आंतरिक अशंाति) की घोषणा कर माओवाद का खात्मा कर देना चाहिए?
गृहंमत्री तकनीकी प्रक्रिया से समस्या का समाधान करना चाहते है। टेक्नोलॉजी की सीमा है और उच्च प्रबंधन क्षमता की भी । अभी तक तो वे नौकरशाही के चंगुल से अपने को पूरी तरह स्वतंत्र नहीं करा पाये हैं। 62 सालों में सड़-गल चुके जिला प्रशासन, (जो सरकारी योजनाओं की ऐसी की तैसी करने में सिद्धहस्त हो चुका है) विपक्षी दलों, खनन माफिया की चालों, विदेशी दवाब, व माओवादी नेता जो आंतकवादी अधिक बन चुके हैं से कैसें निपट पायेंगे? अतंत: वो या कोई भी सरकार इस भूलभूलैया में फंसती जायेगी और देश शाश्वत गृहयुद्ध का शिकार हो जायेगा। वैसे भी एसी समस्याएं मानवीय संवेदनाओं, संतुलित विकास व हल्के डंडे से ही नियंत्रित हो सकती है। इसका विकल्प युद्घ नहीं है।

निश्चित रूप से तात्कालिक उपाय अपनी महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रण में करने का है और खनन पर अस्थायी रोक लगा कर जनजातियों को ससम्मान, वन व भूमि पर अधिकार देने का है। नक्सलवादी प्रभावित क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं का विकास व इसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी व इसके आड़े आने वाले किसी भी व्यक्ति से निपटने के लिए प्रशिक्षित पुलिस व अद्र्धसैनिक बल, यह समय की जरूरत है। कुछ वर्षों के बाद शिक्षित आदिवासी जब विकास की मूलधारा में आ जाएंगे और वैकल्पिक रोजगारों से सामंजस्य स्थापित कर लेंगे तब खनन व उद्योग की बात की जाये। तब स्थानीय भागीदारी व पुर्नवास की स्पष्ट नीति भी हो और कानून के शासन की पक्की व्यवस्था भी। अमेरिका व कई अन्य विकसित देश अपने प्राकृतिक संसाधनों का दोहन फिलहाल नहीं कर रहे हैं और विकासशील देशों से ही इसकी पूर्ति रहे हैं। अगर हमारा राजनैतिक नेतृत्व सक्षम व संयमित हो जाये तो देश एक दीर्घकालिक विकास की दिशा में बढ़ सकता है। जिसमें समाज के सभी वर्ग शामिल होगें । ऐेसे में पर्यावरण की समस्या भी सुलझेगी, असंतुलित विकास की भी, भ्रष्टाचार की भी और नक्सलवाद की भी।

इण्डियन प्रैक्टिकल लीग
ललित मोदी ने विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की महिला मित्र सुनंदा को आईपीएल के कोच्चि फ्रेंचाइजी में 5 प्रतिशत स्वेट इक्विटी देने का खुलासा क्या किया, तूफान सा आ गया। थरूर को इस्तीफा देना पडा। ललित मोदी जो वसुंधरा राजे व नरेंद्र मोदी के निकट माने जाते हैं, के इशारे पर अदानी ग्रुप व वीडियोकॉन का नया फ्रेंचाइजी बनाना चाहते थे। किंतु बाजी थरूर ने पलट दी और अनजानी कंपनी रांदूवे, कोच्चि व सहारा, पुणे की फ्रंचाइजी बन गई। ललित मोदी को लपेटने के लिए कांग्रेस पार्टी ने आयकर विभाग की रिपोर्ट लीक कर दी जिसमें मोदी के सट्टेबाजी, मैच फिक्सिंग अवैध स्रोतों से पैसा कमाने आदि में शामिल होने व अपने रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाने का आरोप है। मोदी को शरद पवार का बरदहस्त रहा है (जो जून से अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट काउंसिल के अध्यक्ष बनने जा रहे हैं)। जिस कारण मोदी तानाशाह की तरह आईपीएल को चला रहे थे। जानकार बता रहे हैं कि आईपीएल में प्रीति मैच 5 से 50 हजार करोड़ के बीच सट्टा लग रहा था। प्रसारण अधिकार भी अरबों में बिके और फ्रेंचाइजी भी। पूरे खेल में बड़े औद्योगिक घरानों, सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं व रिश्तेदारों और इनसे जुड़े लोगों ने मोटा माल कमाया है। टैक्स चोरी, टैक्स हेवेन देशों (विशेषकर मॉरीशस) के रास्ते धन लगाने, कमीशन देने, कट लेने, सरकारी पदों व पावर का दुरूपयोग करने के जो जो हथकंडे होते रहते हैं वो सभी यहां हुए। फर्क इतना था कि पहले सब पर्दे के पीछे होता रहा है और खबरें छन-छन के आती थी किंतु बड़ा खेल और ज्यादा खिलाड़ी और ऊंचे दांव व तुरत मनी ने सब कुछ जनता के सामने ला दिया है। अंतत: कांग्रेस पवार पर नकेल कसने हेतु इन खुलासों का इस्तेमाल कर रही है और पवार ललित मोदी को दांव पर लगाकर हाथ झाडऩे के मूड में है। पूंजी और पूंजीवाद के खेल पूरी दुनिया में ऐसे ही होते हैं और होते रहेंगे। न थे न कभी रूके हैं न कोई रोकना चाहता है। क्रिकेट तो बहाना है और भारत में एक माध्यम बन गया है। सच तो यही है कि इस हमाम में सब नंगे हैं। अंतत: न तो कोई राजनीतिक भूचाल आना है न ही दुनिया बदलनी है। सब ऐसे ही चल रहा है और चलता रहेगा।

डायलॉग इंडिया से साभार

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