Monday, May 24, 2010

उलझी गुत्थी

पुष्पेश पंत, राजनीतिक चिंतक
आंतरिक सुरक्षा का सवाल कोई नया नहीं है। आजादी मिलने के साथ ही देश के विभिन्न हिस्से हिंसक आंदोलनों से लहूलुहान होने लगे थे। पूर्वोत्तर भारत के कुछ राज्य अलगाववाद के रास्ते पर चल पड़े तो दक्षिण भारत को तेलंगाना के हिंसक किसान आंदोलन का सामना करना पड़ा। पंजाब की जनता के साथ देश ने पहली बार आतंकवाद का खौफनाक चेहरा देखा। विदेशी ताकतें पिछले दो दशक से जम्मू-कश्मीर के स्थानीय नागरिकों को गुमराह करके अपने नापाक मंसूबों को हवा दे रही हैं। इधर, नक्सलवाद का तेजी से उभार हुआ है जो हमारी राज्य व्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा को जबरदस्त चुनौती दे रहा है। आखिर क्या है इसका समाधान? इस सवाल पर कुछ लोग जहां एक ओर नक्सलवादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के पक्षधर हैं तो दूसरी ओर कुछ बुद्धिजीवी लोकतंत्र और राज्य व्यवस्था के प्रति आमजन की भागीदारी बढ़ाने का तर्क दे रहे हैं। आंतरिक सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं को समेटते हुए प्रस्तुत है इस बार का हस्तक्षेप- आज इस बात को अनदेखा करना असंभव हो गया है कि हमारे देश की एकता और अखंडता को जितना बडा़ खतरा सरहद पर किसी दुश्मन से है उससे कम बड़ा जोखिम आतंरिक सुरक्षा का नहीं। कोई साल भर पहले ही प्रधानमंत्री यह घोषणा कर चुके थे कि देश के सामने सबसे बड़ी सामरिक–सुरक्षा विषयक चुनौती नक्सलवादी हिंसा की है। तब से अबतक यह बात बार–बार दर्दनाक ढंग से उजागर हो चुकी है कि इस मामले में राई–रत्ती मतभेद की गुंजाइश नहीं। अतिवादी वामपंथी विद्रोही जिस तरह की खूनी वारदातों को अंजाम देते रहे हैं उससे यह बात अच्छी तरह प्रमाणित हो चुकी है कि इस समस्या को सिर्फ केन्द्र या राज्य सरकार की विफलता या हिंसा के सामाजिक–आर्थिक बुनियादी कारणों की पहेलियों में उलझाकर खारिज़ नहीं किया जा सकता। और न ही इस बहस को सिर्फ मानवाधिकारों के उल्लंघन वाली बहस तक सीमित रखा जा सकता है। दंतेवाड़ा के रक्तपात और उसके बाद की घटनाओं ने यह दर्शा दिया है कि डाक्टर विनायक सेन की गिरफ्तारी और उनके उत्पीड़न अथवा अरूंधति रॉय द्वारा वंचितों की मुखर वकालत के बावजूद भारतीय राजनीति को अराजकता की कगार पर ढकेलने वाले इन तत्वों को आदर्शवादी या बलिदानी क्रांतिकारी करार देने में जल्दबाजी नहीं की जा सकती। जहां तक मासूमों की हत्या और निरीह लोगों के मानवाधिकार की अनदेखी का प्रश्न है माआ॓वादी होने का दावा करने वालों को भी दूसरे दहशतगर्दों की तरह इस मामले में जवाबदेह बनाना ही होगा। विडंबना यह है कि आंतरिक सुरक्षा के संदर्भ में छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल या आंध्रप्रदेश, उड़ीसा या महाराष्ट्र का प्रश्न हो नक्सलवादी हिंसा के कारण ही सरकारी विकास कार्यक्रमों को लागू करने में रूकावट आती रही है और इस बात को नकारना भी कठिन है कि उपद्रव ग्रस्त इलाकों में जो थोड़ा बहुत काम खनन, वन संपदा के दोहन, भवन–पुल-सड़क निर्माण की दिशा में हो भी रहा है उसके लिए निर्धारित राशि का एक बड़ा हिस्सा इन नक्सली मुखौटा पहने इन असामाजिक तत्वों की जेब में पहुंच जाता है। अरूंधति जैसे लोगों के इस कुतर्क को भी कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए कि नक्सली हिंसा सिर्फ सरकारी हिंसा के जवाब में प्रतिशोध में होने वाली प्रतिक्रिया है। फिलहाल यह बहस जारी है कि आंतरिक सुरक्षा की इस चुनौती का सामना कैसे किया जाए? कुछ लोगों का मानना है कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाना चाहिए। जनतांत्रिक प्रणाली का दुरूपयोग कर उसे ही बर्बाद करने पर आमादा द्रोहियों को किसी भी रूप में संरक्षण नहीं दिया जा सकता। इन भितरघातियों के साथ वैसा ही सलूक किया जाना चाहिए जैसा कसाब के साथ अपेक्षित है। इस बिरादरी का मानना है कि नक्सलियों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए फौज और वायु सेना का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। हालांकि इस बारे में वायु सेना अध्यक्ष और थल सेना अध्यक्ष पहले ही यह राय प्रकट कर चुके हैं कि इस तरह का बल प्रयोग देश के नागरिकों के विरूद्ध नहीं किया जाना चाहिए। गृह मंत्रालय भी एकाधिक बार यह स्पष्ट कर चुका है कि उसका भी ऐसा करने का कोई इरादा नहीं है। यहां एक बात साफ करने की जरूरत है। सेना के तीनों अंगों का काम देश की सुरक्षा करना है, चाहे खतरा बाहर से हो या आंतरिक, उससे निपटना सेनाओं की जिम्मेदारी बनती है। सरकार के सामने असली मुश्किल यह है कि अब तक वह किसी भी देश के भीतर चाहे वह इराक हो या पाकिस्तान या पड़ोसी म्यांमार सैनिक अभियानों की आलोचक रही है। लेकिन यह बात भुलाई नहीं जानी चाहिए कि आजादी के बाद से ही देश के अनेक हिस्सों में अलगावादियों पर काबू पाने के लिए भारत सरकार ने कई बार सेना का उपयोग किया है। पूर्वोत्तर के प्रदेशों और जम्मू–कश्मीर के अलावा पंजाब में भी ऑपरेशन ब्लूस्टार इसका उदाहरण है। मणिपुर हो या जम्मू–कश्मीर दोनों ही जगह अहतियात के तौर पर सेना आज भी तैनात है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पड़ोस में श्रीलंका हो या नेपाल दोनों ने क्रमश: लिट्टे और माआ॓वादी हिंसा का सामना करने के लिए अपने नागरिकों के विरूद्ध फौजी कार्रवाई की है। ऐसे में आज इस विकल्प की बात सुझाने वालों को फांसीवादी कहकर बदनाम करना बेमानी ही समझा जा सकता है। इसका यह अर्थ कतई न निकाले कि हम इस विकल्प की हिमायत कर रहे हैं। हिंसक बगावत से सिर्फ अहिंसक तरीके से सत्याग्रही संघर्ष जारी रखना और शत्रु के हृदय परिवर्तन की बाट जोहते रहना किसी भी तरह से बुद्धिमानी नहीं समझा जा सकता। विचित्र बात यह है कि आतंरिक सुरक्षा विषयक सरकारी नीति को लेकर केन्द्रीय मंत्रिमंडल तथा सत्ताधारी दल के वरिष्ठ नेताओं के बीच मतभेद सतह तक आ चुके हैं। दिग्विजय सिंह गृहमंत्री की अक्लमंदी पर छींटाकशी कर चुके हैं और मणिशंकर अय्यर उनके सुर में सुर मिला चुके हैं। कभी ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की राजनीति के दबाव में नक्सलियों के साथ नज़र आती है तो कभी भाजपा की बैसाखी पर टिके शिबू सोरेन झारखण्ड में जीयो और जीने दो का तराना अलापते हैं। नीतीश कुमार और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी इस समस्या का राजनैतिक संवाद के माध्यम से निपटारा चाहते हैं और हिंसक मुठभेड़ में अपने रक्षक दस्तों को हताहत होने से हर कीमत पर बचाए रखना चाहते हैं। उधर चिदंबरम यह बात दो टूक अंदाज में कह चुके हैं कि शांति और सुरक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। भारत की मौजूदा संघीय व्यवस्था में जबतक संविधान में संशोधन नहीं होता, कथनी और करनी नीयत और नीति का अंतर विरोध दूर नहीं होगा। के. सुब्रह्मण्यम जैसे सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि आतंरिक सुरक्षा की चुनौती से निपटने के लिए राज्य पुलिस, केन्द्रीय अर्धसैनिक दस्तों और जंगली छापामारी का सामना करने के लिए विशेषरूप से प्रशिक्षित कमांडों दलों की जरूरत है। विडंबना यह है कि दंतेवाडा़ हो या गढ़चिरोली, उड़ीसा हो बंगाल नक्सलियों ने ऐसे एलीट सैनिक जवानों को ही घात लगाकर निशाना बनाया है। हर बार यही तर्क दिया जाता है कि अगर खुफिया जानकारी सुलभ हो तो ऐसी दुर्घटनाएं न हो। जाहिर है कि स्थानीय सीआईडी, आईबी और फौजी गुप्तचरी से प्राप्त सूचनाएं कही भी संतुलित ढंग से विश्लेषित नहीं हो रहीं। आला अफसर मुख्यालयों में निरापद रहते हैं या फिर उतावलेपन में खुद मोर्चा संभालने पहुंच जाते हैं, ऐसे में फोर्स की प्राथमिकता अभियान न होकर इनकी सुरक्षा करना रह जाता है। जाहिर है आतंरिक सुरक्षा के मामले में सरकारी रणनीति या गोपनीय जानकारियां सार्वजनिक नहीं की जा सकती। सियासी दलों को इस विषय पर दलगत पक्षधरता से उपर उठकर सोचने की जरूरत है। अन्त में यह भी याद रखें कि आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती सिर्फ नक्सली हिंसा ही नहीं, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता और सरहद पार से देश के अस्थिर करने के लगातार किए जा रहे प्रयास भी हैं।

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